प्रेम गली अति साँकरी - 42 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 42

42--

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अम्मा–पापा अभी आकर बैठे ही थे कि मैं पहुँच गई | कमरे से बाहर निकलकर मैंने देखा कल के शांत, अचेत से वातावरण में आज कुछ चेतना सी दिखाई दे रही थी | इसका कारण था कि कल संस्थान में छुट्टी की घोषणा हो गई थी अत: किसी विषय के भी गुरु अथवा छात्र नहीं आए थे कल के मुकाबले में आज कुछ चहल -पहल सी दिखाई दे रही थी क्योंकि 10 बज गए थे और साफ़-सफ़ाई का अभियान समाप्त हो चुका था और लोगों का आना-जाना शुरू हो चुका था | 

“कल काफ़ी देर हो गई थी? ” अम्मा ने ज्यूस की एक सिप ली | अम्मा-पापा के चेहरे उदास थे लेकिन दोनों कल से बेहतर लग रहे थे | 

“हाँ, पता नहीं उत्पल किसी एक बाग से में ले गया था, वह दरअसल बाग नहीं कोई फार्म-हाऊस था जिसे पिकनिक -स्पॉट में बदल दिया गया था | बहुत सुंदर था अम्मा, एक दिन आप लोग भी चलिए, लाइफ़ बड़ी ‘मोनोटोनस’ हो गई है | आप लोग इन्जॉय करेंगे | 

“हम्म--देखते हैं बेटा, मुझे तो लग रहा है कि यू.के का मामला खटाई में पड़ गया है | ” अम्मा की आँखों, उनके संवाद से चिंता झाँक रही थी | 

“क्यों? ऐसा क्यों कह रही हैं आप ? वहाँ तो भाई भी है, आपको काम के साथ चेंज भी मिलेगा | ” मैंने कहा | 

“नहीं, काम तो मुझे कुछ खास होगा नहीं, मुझे तो विज़िट ही करनी होंगी लेकिन मन अजीब सा हो गया है | मैं उन लोगों से तो बात करूँगी ही जो वहाँ से आए थे और स्थान से लेकर फाइनेंस तक फ़ाइनल कर गए हैं लेकिन जहाँ शोज़ होने हैं, उनकी भी तो सारी तैयारियाँ हैं | कुछ लोगों को तो भेजना पड़ेगा, नामों में भी बदलाव करने होंगे---लंबा प्रोसीज़र है और समय कम---” अम्मा ने एक लंबी साँस ली और उठकर खड़ी हो गईं | 

“बेटा! इस परिवार को ऐसे छोड़कर नहीं जा सकते, दूसरे रतनी जो ड्रेस-डिजाइनिंग कर रही थी, उसका फाइनल टच बाकी है, वह भी देखना पड़ेगा –” रतनी और शीला दीदी संस्थान की रीढ़ की हड्डी बन चुके थे | 

“मैं भी नहीं जा पाऊँगा तुम्हारी अम्मा के साथ ? ” पापा अचानक उदास स्वर में बोल उठे थे | 

“अरे! ऐसा क्यों ? आपका तो सारा काम आपके स्टाफ़ ने संभाल रखा है –”

“नहीं बेटा, अपने काम की मुझे कोई चिंता नहीं है, चिंता शीला के घर की है | ”पापा की मुखमुद्रा से चिंता स्पष्ट झलक रही थी | 

“क्यों ? सब ठीक तो हो गया, आप बता रहे थे –” मैंने पापा को कुरेदा | 

“हाँ बेटा, पर यह पुलिस है न, इसका कोई भरोसा नहीं है। पता नहीं कैसे कैसे, कितने पैसे देकर मैंने केस दबवा दिया है लेकिन कब और कोई मुश्किल सामने आ जाए, कुछ पता नहीं | ”उन्होंने एक लंबी साँस ली | 

कुछ तो अधिक गड़बड़ है, मेरे मन ने सोचा | इतनी लंबी तैयारी, इतना खर्चा और इतनी प्री-प्लानिंग के बाद यह निर्णय लेना आसान तो नहीं था | अभी दुर्घटना नई-नई थी अत:कुछ पूछने का मतलब नहीं था | वैसे यह तो मैं भी जानती ही थी कि ऐसी स्थिति में हो सकता था शीला दीदी के सिर पर और कोई मुसीबत आ पड़ती | सारी राहें सँकरी थीं जिनमें से निकलना इतना आसान तो था नहीं | मैंने इस समय बात को और आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा | 

अम्मा को एम्बेसी जाना था, पापा भी उनके साथ जाने वाले थे | कुछ तो चल रहा था, स्पष्ट नहीं था | नाश्ता करके हम सभी वहाँ से अपने-अपने काम के लिए चल दिए | मेरा काम भी तो कितना बाकी था लेकिन अब शायद योजना में कुछ बदलाव होंगे यानि फिर से उसके लिए दूसरे तरीके से काम करना पड़ेगा | 

बाहर निकलकर देखा, संस्थान में चहल-पहल शुरू हो गई थी | मैं उत्पल के कमरे की ओर चल दी, देखती हूँ, क्या चल रहा है? सामने से ढीले-ढाले प्रमेश आते हुए दिखाई दिए;
“गुड-मॉर्निंग” इतने दिनों में पहली बार मैंने उस बंदे के मुख से ये शब्द सुने थे | मैंने मुस्कुराकर उन्हें उत्तर दिया और आगे बढ़ गई | 

उत्पल आ चुका था | मैंने नॉक किया और उसके कमरे में चली गई | उसके हाथ में कुछ था जिसे उसने तुरंत अपनी ड्राअर में रखकर बंद कर दिया | मुझे उस दिन की याद आ गई जब उसने पहले भी कुछ ऐसा ही किया था | आखिर ऐसा क्या था जो वह मुझे देखते ही रख देता था? लेकिन अभी उससे पूछना ---मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा था | कुछ पर्सनल होगा, तभी तो लेकिन----मन में कुछ-कुछ चल रहा था, आखिर क्या छिपा रहा था उत्पल मुझसे ? 

“गुड मॉर्निंग, हाऊ वाज़ द नाइट ? ” उसने पूछा, मैंने यूँ ही 'ओ के' में सिर हिलाया और उसके सामने कुर्सी पर जम गई | 

“लगता है, अम्मा का यू.के ट्रिप में कुछ चेंजेज़ होंगे---” मेरे मुँह से निकल गया | 

“कैसे चेंजेज़ ? ” मेरे पास उसके लिए फ़िलहाल कोई उत्तर नहीं था |