प्रेम गली अति साँकरी - 39 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 39

39---

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शांति दीदी के घर से निकलकर मैं उत्पल के साथ बाहर आ गई | चार कदम पर तो सड़क थी, हम दोनों चलते हुए सड़क पर आ गए जहाँ उत्पल ने गाड़ी खड़ी की थी | एक उदासी और बेचैनी भरी शाम थी यह! कई दिन बाद संस्थान से बाहर निकली थी लेकिन मन में उदासी की परत दर परत चढ़ती चली जा रही थीं | मैं और उत्पल हम दोनों ही चुप थे, जैसे बात करने के लिए शब्दों का अकाल हो, क्या बात करते ? यूँ ही गुमसुम से हम गाड़ी में आ बैठे | 

“दीदी ! ऐसे में बाहर तक छोड़ने नहीं आते वरना मैं आ जाती, यूँ आपको अकेले न जाने देती—” रतनी ने मुझसे कहा था, मैंने सोचा ये कैसे–कैसे नियम बनाए हुए हैं समाज ने जाने कब इन अपने ही बनाए हुए नियमों से मुक्ति पाएगा समाज | शायद कभी नहीं---हम कुछ चीजों में इतने गहरे उतर चुके होते हैं कि उनसे निकलना हमारे लिए कठिन ही नहीं असंभव हो जाता है | किसने बनाए हैं ये नियम? समाज ने ही न ? समाज? यानि हम ही न ? मेरा मन उपद्रवों का भंडार था | 

“कैसी बात करती हैं, प्लीज़ आप आराम करिए, मैं क्या विदेश जा रही हूँ ? वैसे भी मेरे साथ उत्पल हैं न---” मैंने कहा और एक बार फिर उनके गले लिपट गई | 

“मुझे अपने विचारों पर अब कितना अफ़सोस हो रहा है, क्या-क्या नहीं बोला है मैंने----! ! ”रतनी के गले चिपटकर मैं एक बार फिर से बोल उठी | 

“आप क्यों ऐसा सोच रही हैं, जो होना होता है, होता ही --”रतनी ने भी जैसे फुसफुसाते हुए मुझसे कहा था | हाँ, यह तो सच ही था रतनी जैसी सुंदर, सुशील के गले जगन जैसा आदमी पड़ना था, तभी तो पड़ा | उसे दो प्यारे, सुशील बच्चों की माँ बनना था, बनी | जितनी मार, गलियाँ, लात-घूँसे खाने थे, खाए और नन्द शीला दीदी से जितना मरहम लगवाना था, लगवाया | यानि जो होना था हुआ न ! फिर भी---

मुझे लगता है बेशक परिवार के सारे सदस्य आने वाले भविष्य के प्रति आश्वस्त हो सकेंगे लेकिन किसी भी परिवार से किसी का सदा के लिए जाना यानि एक अति भयावह, कठिन स्थिति से गुज़रना! जितनी यह बात सच है कि संसार का चक्र आना-जाना ही तो है, उतना ही यह भी सत्य है कि यह दुनिया इतनी मोहक है कि इसमें जन्म लेने वाला आखिर वापिस जाना कहाँ चाहता है? कैसा मोह है ! लेकिन है मोह ! मकड़ी के जाले सा इस मोह में लिपटकर रह जाता है यहाँ जन्म लेने वाला हर इंसान ! अपने सामने जो चीज़, व्यक्ति होता है उसके न होने पर संवेदनाओं में कितना बदलाव आ जाता है! मन इन सब विचारों को छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं था, थमने ही नहीं दे रहा था | 

आजकल अम्मा की लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ मेरे मन में काले बादलों सी उमड़-घुमड़कर दो/चार छींटे मुझ पर डालकर चली जातीं लेकिन न जाने कब तक बादलों की गड़गड़ाहट मन के आँगन में सिमटी ही रहती;

’जीवन एक पहेली सजनी, जितनी सुलझाओ वह उलझे, है रहस्यमय इतनी! ’मैं अम्मा की डायरी कभी-कभी हाथ में पड़ जाने पर कोई भी पन्ना खोल लेती थी और उनके लिखे अँग्रेज़ी, हिन्दी, तमिल के ‘कोट्स’पढ़ लेती | वैसे अम्मा तमिल में बहुत कम लिखती थीं, अँग्रेजी में थोड़े बहुत और अधिकतर हिन्दी में ही | कितने सालों तक तो पता ही नहीं चला था कि अम्मा ने यह शौक भी पाला हुआ है! वे न तो किसी को अपना लिखा हुआ कुछ सुनातीं, न ही अपनी डायरी किसी के हाथ में पड़ने देतीं | 

जब भाई यहाँ था, तब हम ये ही सब खुराफ़तें करते रहते थे, पता लग जाने पर डाँट भी खाते लेकिन हम किशोर थे उस समय और जो चीज़ अथवा बात छिपाकर रखी जाती, वह हम दोनों को ज़रूर जाननी होती | पापा ने भी हमें मना किया था कि किसी की डायरी या व्यक्तिगत पत्र अथवा कुछ भी वो जो वह न चाहे, उसे छिपकर पढ़ना गलत होता है, असभ्यता होती है लेकिन हमने पापा को भी छिपकर अम्मा की डायरी के पन्ने पलटते देखा था | 

‘दूसरों को उपदेश देना ही आसान है! ’हम भाई-बहन ने उस समय सोचा था | प्रश्न यह भी था कि अम्मा की डायरी में छिपाने जैसा कुछ ऐसा था ही नहीं, हम दोनों तो न जाने कितनी बार उस डायरी के पन्ने पलट चुके थे, हमें तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई दिया था फिर क्यों ? अब बताइए, इस समय मेरे दिमाग में ये सब बातें आने का क्या मतलब था ? 

उत्पल मेरे साथ गाड़ी में आ बैठा था और मेरे चेहरे पर बार-बार अपनी दृष्टि डाल रहा था, शायद कुछ कहना चाहता था लेकिन उसने कुछ कहा नहीं | गाड़ी स्टार्ट करते हुए उसने पूछा;

“एक चक्कर लगा आएँ बाहर---इफ़ यू-----? ”सीट बैल्ट लगाते हुए उसने हिचकते हुए मेरी ओर फिर से देखा | 

“हाँ, कुछ चेंज मिलेगा—” मैंने उसकी बात का बीच में ही उत्तर दे दिया | मैं भी अपनी मानसिक पीड़ा से छुटकारा पाना चाहती थी | मैं क्या! मुझसे जुड़े हुए सभी लोग मेरे इस स्वभाव से परिचित थे कि मैं छोटी-छोटी बातों पर असहज हो जाती हूँ | 

“कहाँ चलें ? ”उत्पल ने गाड़ी आगे बढ़ा दी थी | मुझे चुप देखकर उसने फिर से पूछा ;

“कहाँ चलें, बताया नहीं आपने---? ”

“कहीं भी ---”

“लॉंग ड्राइव पर ही चले चलते हैं---”पल भर रुककर मैंने कहा | 

उत्पल ने मुँह से कुछ नहीं कहा, वह गाड़ी चलाता रहा | मैं और वह दोनों ही चुप थे, अपने-अपने ख्यालों में गुम से, मज़े की बात यह कि विचार दोनों के मन में थे, बहुत भटकाव के साथ---ये विचार क्षण भर में पवन के वेग से कहीं एक जगह तो कहीं दूसरी जगह उड़ रहे थे, टिकने वाले तो थे नहीं ! 

मेरे मन में रतनी की ‘बेचारी’ सी तस्वीर बनती, बिगड़ती जा रही थी | संस्थान में आते हुए भी वह सादे लिबास में ही होती थी लेकिन उसके चेहरे पर चमक भरी मुस्कान होती थी | उसके सादे वस्त्रों में एक शुभ्रता होती थी | आज उसके हाथों में चूड़ियाँ नहीं थीं, सिंदूर उसको जगन के डर से लगाना पड़ता था वरना उसका पति उसे चरित्रहीन कहने में कहाँ हिचकिचाता था! एक दिन में न जाने कितनी बार---रतनी ने इस सबसे जुड़ी हुई ढेरों बातें बताईं थीं मुझे | वह रोते हुए अपने उस प्रेम को भी याद करती रहतीं थीं जो उनसे छिन गया था और उनके प्रेम में आज तक पलक-पाँवड़े बिछाए हुए था | शीला दीदी का प्रेमी और रतनी का प्रेमी दोनों ही उनकी प्रतीक्षा में अपनी आधी से अधिक उम्र गँवा चुके थे | कभी सोचती तो उनके इस प्रेम के बारे में आश्चर्य से भर उठती | 

मेरी समझ में यह कभी नहीं आया कि एक तरफ़ जगनी अपनी पत्नी की माँग में सिंदूर देखना चाहता था तो दूसरी ओर ‘करवाचौथ’ का व्रत रखने में चिढ़ता था | पता नहीं क्या था उसके मन में या उसकी सोच में? शायद एक आदमी होने का अहंकार और पति होने का सामाजिक गुरूर ----

गाड़ी न जाने किस दिशा में बढ़ती जा रही थी और मेरे मन की गाड़ी में न जाने विचारों की कितनी सवारियाँ उतर-चढ़ रही थीं | हम किसी बड़े से बाग की बाउंड्री के साथ चल रहे थे, मैं नहीं जानती थी, वह कौनसी जगह थी? बस मैं तो अपने मन की घाटियों में चढ़-उतर रही थी | अनमनी, असहज ---

बाग की बाउंड्री वॉल बहुत लंबी थी, यहाँ से वहाँ तक फैली हुई | रात घिरने के साथ हैलोजेन और तरह तरह की बिजलियाँ आकर्षित करने लगीं | 

“यह केवल बाग ही नहीं है, इसके अंदर कॉफ़ी-शॉपस से लेकर लाइब्रेरी, शॉपिंग स्टोर्स, बोटिंग तक हैं | ”उत्पल सब कुछ ऐसे एक्सप्लेन कर रहा था मानो वह यहाँ कितनी बार आकर बैठता था | बातें करते-करते उसने वहाँ के बारे में न जाने कितनी बातें बता दीं | 

“वैसे, यह जगह कौनसी है ? ”उत्पल ने शायद सुना नहीं या उत्तर देने की ज़रूरत नहीं समझी, उसने पूछा;

“चलें, इसमें चक्कर मार लें--” उसने पूछा | 

मैंने ‘ओ.के’में अपने कंधे उचका दिए | 

मौन की भाषा बड़ी सशक्त होती है, मैं और उत्पल उसी मौन की भाषा में थे जैसे लेकिन कहाँ—मेरे मन में तो अभी तक रतनी की तस्वीर, उसका परिवार और हाँ, जगन की तस्वीरें भी उलट-पलट हो रही थीं | उत्पल के मन में वो सब बातें इतनी गहराई से नहीं उतर सकती थीं, मैं जानती थी लेकिन उसकी शांत मुख-मुद्रा जैसे थोड़ी-थोड़ी देर में परिवर्तित होती दिखाई देती मुझे! 

रात का गहराना और दुपहिया वाहनों पर चिपटे हुए बैठे चंचल युवाओं का सड़क पर गुज़रना बहुत सारी कहानियाँ बुन रहा था | मैं क्यों उनसे आकर्षित हो रही हूँ ? इस समय मेरा मन रतनी के परिवार की तस्वीरों को अपने किसी कोने में शायद कुछ समय के लिए समेट चुका था | हम लोग अपने घर से लगभग 35/40 कि.मीटर तो आ गए होंगे, मैंने अनुमान लगाया | उत्पल ने गाड़ी साइड में लगा ली थी | 

“आपने अपने कॉलेज के दिनों में भी कभी यह जगह नहीं देखी ? ” उत्पल ने पूछा | 

मैंने ‘न’में सिर हिल दिया | 

देखने से लग रहा था जैसे किसी फ़ार्म-हाउस को पिकनिक-स्पॉट में तब्दील कर दिया गया हो |