प्रेम गली अति साँकरी - 38 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 38

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हम दोनों संस्थान के परिसर से बाहर निकल आए | संस्थान में आने वालों के लिए परिसर से जुड़े एक जमीन के टुकड़े पर गाडियाँ रखने के लिए शेड बना हुआ था | हम दोनों बिना कुछ बोले हुए वहाँ तक पहुँचे | गाड़ी खोलकर उत्पल ने मेरे बैठने के लिए दरवाज़ा खोल दिया और मुझे बैठने का इशारा करके खुद ड्राइवर-सीट पर जाने लगा | 

“इतनी दूर तो हम पैदल भी जा सकते थे---”बैठकर दरवाज़ा बंद करते हुए मैं यूँ ही बुदबुदाई | 

अगर मुझे पैदल जाना होता तो उत्पल से पहले न कहती? मैं मन में खुद पर खुद ही हँसी | उसने कुछ नहीं कहा और चुपचाप बैठकर गाड़ी स्टार्ट कर दी | पाँच से सात मिनट में गाड़ी सड़क पार पहुँच चुकी थी | मैं उत्पल के साथ गाड़ी से उतरकर शीला दीदी के घर की ओर चली तो मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धुकर-पुकर कर रहा था | इस समय मुहल्ले में अजीब सी शांति पसरी हुई थी | यह शांति सुकून देने वाली नहीं थी, अजीब सी घबराहट से भरी शांति थी यह, एक सूनापन !गली के भीतर भी काफ़ी कम आवाजाही दिखाई दे रही थी | 

‘मौत ! तू भी क्या करती है दोस्त !सच्ची मित्र तो तू ही है लेकिन जिसे ले जाती है उसके करीबियों के दिल की जमीन में चुभने वाली चटाई की तरह उदासी क्यों बिछा जाती है? जब तेरा आना शाश्वत है तो क्यों मखमली कालीन नहीं बिछाती ? कम से कम पीछे रहने वाले जब तक भी इस धरती पर रहें सुकून से तो रह सकें ----!’पता नहीं मेरे मन में क्या क्या बिखरा हुआ था जिसे समेटने में मेरी सारी शक्ति निचुड़ रही थी | साथ ही अपनी मानसिक स्थिति समझने में मैं अनभिज्ञ थी | मुझे दादी के जाने के बाद की स्थिति अचानक याद आ गई | परिवार कैसा बिखर गया था ! लेकिन मैं दादी और इस बंदे जगन की तुलना कैसे कर सकती थी? नहीं, मैं शायद उन दोनों की तुलना कर भी नहीं रही थी, मैं तो मृत्यु से बात करना चाहती थी, कुछ पूछना चाहती थी, कुछ जानने की कोशिश कर रही थी | बला की ‘ऐवें’ ही ‘पीस’थी मैं !

“चलिए---”मैं शीला दीदी के घर के खुले दरवाज़े के आगे खड़ी थी | अचानक रतनी की दृष्टि मुझ पर पड़ी;

“अरे!अमी दीदी !”रतनी कमरे से बाहर निकल आई और मुझे गले से लगा लिया | तब तक शीला दीदी, दिव्य और डॉली भी कमरे में से ही खड़े होकर मुझे देखने लगे थे | 

मेरा हाथ पकड़कर रतनी मुझे कमरे में ले गई जहाँ जमीन पर दरियाँ बिछी हुई थीं | एक कोने में जगन की कोई छोटी सी तस्वीर रखी थी और उसके सामने दीपक जल रहा था | मेरा मन फिर से व्यग्र हो उठा | इसके आगे दीपक रखने की ज़रूरत थी क्या? 

कमाल ही थी न मैं? कुछ देर पहले तो मैं अपने आपको मन ही मन बुरा-भला कह रही थी और यहाँ घुसते ही यह सब देखते ही ---अपने पागलपन पर खुद ही बेचैन होने लगी | 

दिव्य मेरे और उत्पल के लिए बरामदे में से कुर्सी ले आया था लेकिन मैंने हाथ से उसे मना कर दिया और दरी पर नीचे ही बैठ गई | उत्पल भी वहीं बैठ गया | एक-एक करके सब वहीं बैठ गए लेकिन किसी के पास बात करने के लिए कुछ भी नहीं था | शीला दीदी और रतनी की सुबकी की धीमी सी आवाज़ वातावरण में बिखरने को होती लेकिन थम जाती | अब तक झुटपुटा सा उतरने लगा था | 

“खाना खाया ? ”कुछ और समझ ही नहीं आया तो मैंने पूछ लिया | 

“हाँ, कुछ भी हो जाए पेट तो अपना हिस्सा सबसे पहले माँगने के लिए खड़ा ही रहता है | ”शीला दीदी ने एक लंबी साँस भरकर कहा | 

“सर और मैडम ने सब संभाल लिया वरना हम पता नहीं कहाँ भटक रहे होते---” चुप्पी भरे वातावरण में शीला दीदी की उदास आवाज़ ने इतने शब्दों में बहुत कुछ कह दिया था | 

शीला दीदी की ज़ुबानी, पापा ने न जाने कितना पैसा देकर जगन का पोस्टमार्टम रुकवा दिया था और जब तक उसे ले नहीं गए तब तक वहीं बने रहे थे | मुझे तो कुछ होश ही नहीं था | मैं तो उस समय अपने पलंग पर पड़ी न जाने अर्धनिद्रित अवस्था में क्या-क्या देख रही थी | पापा, अम्मा ने मुझसे ये सब बातें साझा की भी नहीं थीं इसलिए मुझे कुछ पता भी नहीं था | पता चला पापा ने महाराज से कहकर बाहर वाली दुकानों में से एक अच्छे होटल को खाने का ‘ऑर्डर’ दिलवा दिया था | पापा ने महाराज से उस होटल में कहलवाया दिया था कि जब तक यह परिवार यहाँ है, तब तक हर रोज़ नाश्ता और दो समय का खाना उस घर में पहुँच जाना चाहिए | 

“हम लोगों पर सर और मैडम के जितने उपकार हैं, सब मिलकर कई ज़िंदगियों में भी पूरा नहीं कर सकते | ”अब वे फूट-फूटकर रोने लगीं थीं | मैंने उन्हें कंधों से पकड़ा तो वे मुझसे चिपट गईं | कुछ ही मिनटों में रतनी भी मेरे पास खिसक आई और हम तीनों ज़ोर से रो पड़े | 

“आप ऐसा क्यों कह रही हैं शीला दीदी ? जब दादी अचानक चली गईं थीं, आपने ही तो हम सबको संभाला था | ”मुझे और कुछ समझ में नहीं आया तो जो मेरे दिमाग में आया मैंने कह दिया | 

“बहुत फ़र्क है इन दोनों स्थितियों में ---” शीला दीदी ने कहा और एक उखड़ी हुई सी साँस ली | 

“छोड़िए, इन सब बातों को, आप ही कहती हैं न कि हमारे हाथ में कुछ नहीं होता है तो बस अब कुछ मत सोचिए, अब जो होगा अच्छा ही होगा ---”मैं भी न ! क्या ज़रूरत थी यह कहने की ? लेकिन मैं तो कह गई थी | ज़बान से निकली हुई बात कहाँ वापिस आती है जैसे गुज़रा समय !

दिव्य, डॉली और उत्पल चुप्पी ओढ़े बैठे रहे | काफ़ी देर चुप्पी रही फिर मैं ही बोली;

“शीला दीदी ! अब वहाँ शिफ़्ट हो जाइए----”वैसे यह समय तो नहीं था लेकिन मैंने यूँ ही कह दिया | 

“हाँ----ये सब तो बाद की बातें हैं ---अभी पूजा-पाठ जो होने हैं हो जाएँ---फिर जैसा समय होगा | ”शीला दीदी ने तुरंत कहा | 

“पूजा होनी जरूरी है क्या? ” मेरे अप्रत्याशित प्रश्न से उनके मुरझाए चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान पसर गई | 

“पता नहीं लेकिन गाँव तक खबर पहुँच गई है और हमारे और रतनी के रिश्तेदारों ने कहलवाया है कि वे सभी आने वाले हैं ----” अनमने स्वर में उन्होंने कहा | साफ़ पता चल रहा था कि वे रिश्तेदारों के आने की बात जानकर बिलकुल भी प्रसन्न नहीं थीं | 

“हमारे यहाँ तेरहवे दिन समाप्ति होती है । हवन ---जैसा दादी जी के समय किया गया था –” मैंने अपनी गर्दन ‘हाँ’ में हिल दी लेकिन मुँह से कुछ नहीं बोली | 

कहाँ दादी और कहाँ ये बंदा !! मन फिर से नकारात्मक भाव से भरने लगा लेकिन चुप रही | दादी खाने में नमक के जैसी महत्वपूर्ण थीं, उनके ऊपर सारा परिवार ही तो आश्रित था और ये-----

फिर कहीं मेरे मन की धरती में से किसी ऐसी बेकार बात का जंगली पौधा न फूट पड़े जो मन के जंगल को और काँटों से भर दे, मुझे लगा वहाँ से उठ जाना ही बेहतर है | वैसे जानती, समझती थी कि ये सारी बातें समाज को दिखाने के लिए ही अधिक होती हैं ----फिर भी---

अब सब चुप ही तो बैठे थे, मेरे मन की वो उत्सुकता और बेचैन कुलबुलाहट अब चुप्पी ओढ़कर मन के किसी कोने में दुबक गई थी | 

“शीला दीदी!मैं चलूँ? आप लोग भी बहुत थके हैं, कुछ आराम कर लीजिए---”मैं उठ खड़ी हुई | साथ ही उत्पल भी!

“ठीक है, संस्थान का कुछ भी काम हो तो फ़ोन कर देना, थोड़ी देर के लिए आ जाऊँगी | ऐसी स्थिति में भी वे संस्थान के बारे में सोच रही थीं |