प्रेम गली अति साँकरी - 79 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 79

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हमारे संस्थान में दो बब्बर शेर थे जर्मन शेफर्ड़ जो बहुत खतरनाक था और एक लेबराडोर जो बहुत फ्रैंडली था लेकिन दोनों को ज़रा सी सूँघ भी आ जाए कि कोई आदमी खराब नीयत से संस्थान में घुसा है तो दोनों जब तक उसके चिपट न जाएं तब तक भौंकना बंद ही नहीं करते थे | अगर संस्थान के क्लासेज़ या फिर किसी के आने की सूचना मिलने पर उन्हें बंद न करते तो वे आने वाले नए लोगों को फाड़कर ही दम लेते | दोनों लंबे, बड़े, खूब ताकतवर ! जिनके नाम रखे गए थे विक्टर और कार्लोस ---पापा विक्टर को एक्टर कहते | हाँ, पापा ने रखे थे उनके नाम और शायद इसलिए रखे थे कि विक्टर यानि पापा का एक्टर यूँ तो बहुत ज़ोरदार और खूंखार था, पूरे संस्थान में चक्कर काटता रहता था लेकिन जैसे ही वह रसोईघर के सामने जाकर खड़ा हुआ और महाराज ने उसकी ओर घूरकर देखा कि वह छोटे बच्चे की तरह एक्टिंग करता हुआ वहाँ से भाग जाता | इसीलिए पापा ने उसका नाम एक्टर रख दिया था | उसे शॉर्ट में सब एक या एक्ट कहकर पुकारते | महाराज के घूरने पड़ने पर वह ऐसे नजरें चुराता जैसे कोई छोटा बच्चा भयभीत हो रहा हो | उसका एक्टिंग देखकर सब खूब हँसते थे | कभी कभी तो हम सब सोचते क्या यह सच में ही कुछ समझता होगा? पापा बताते थे कि श्वान की समझने और सूंघने की शक्ति बहुत उग्र होती है इसीलिए इन्हें पुलिस में रखा जाता है | 

लेबराडोर भी बहुत सुंदर, बड़ा व ताकतवर था, वह काफ़ी जल्दी दोस्ती कर लेता था | वैसे तो दोनों अधिकतर साथ ही रहते लेकिन कभी उनमें बच्चों की तरह रूठना भी देखा जाता था और हम सबको तो समझ में आ ही जाता कि भई आजकल उनकी कट्टी चल रही है | फिर कुछ देर बाद दोनों साथ नज़र आते | लेबराडोर जिसका नाम वैसे कार्लोस रखा था पर पापा और हम सब लाड़ में उसे कार्ल पुकारते थे, उत्पल का बड़ा भक्त था | वह उसके पीछे घूमता रहता | उसके ज़रा सा ज़ोर से बोल देने पर भी वह जैसे उससे रूठ जाता और कहीं छिप जाता | जब तक उत्पल उसे नहीं बुलाता वह उसके सामने आता ही नहीं | 

ये दोनों अपने विशेष आमिष भोजन पर पल रहे थे लेकिन आम की सुगंध कहीं से भी आती हो, दोनों दौड़ते हुए उधर पहुँच जाते थे | वैसे हमारे यहाँ शुद्ध शाकाहारी भोजन बनता था लेकिन इनके डॉक्टर ने कहा था कि इनको सामिष भोजन खिलाएंगे तो अधिक दिनों तक इनकी शारीरिक ताकत बनी रहेगी | अत:इन दोनों के लिए गार्ड के घर के सामने बड़ी सी खाली जमीन पर शेड बनवा दिया गया था जहाँ उनके लिए रोशनी और हवा का पूरा इंतज़ाम था | जब क्लासेज़ न होतीं तब तो वे पूरे संस्थान में बेलगाम, खुले हुए घूमते ही थे | गार्ड की पत्नी इनको खाना खिलाती, इन्हें नहलाती-धुलाती | वह उन्हें बाहर भी ले जाती थी लेकिन इन दिनों में अब मुश्किल हो गया था इसके लिए वह इन दोनों को पीछे के बाथरूम में ही सब कुछ करवा देती | वह शायद मूल स्वभाव से ही डॉग्स लवर थी | अपने बच्चों के साथ वह इन्हें भी पालती थी और बहुत खुश रहती थी | उसके बच्चे भी इनके साथ लगे रहते | मतलब यह है कि कोरोना के सुनसान समय में भी हमारे संस्थान में इतना सूनापन नहीं था | 

अम्मा ने भी अन्य सभी फैकएल्टीज़ के साथ पहुत पहले से डांस की क्लासेज़ ऑनलाइन लेनी शुरू कर ही दीं थीं | सब कुछ समय पर सबको मिलता और समय ठीक ही कट रहा था | हाँ, एक चिंता तो सबके मन में थी ही --- जो पूरे विश्व की ही थी | भारत में इस रोग की दवाई की शोध भारत बायोटेक द्वारा भारत की स्वदेशी कोविड-19 वैक्सीन भारतीय चिकित्सा अनुसंधान के सहयोग से विकसित की गई थी, जो नंबर के अनुसार देनी शुरू भी हो चुकी थी और न जाने देश-विदेश में कितने साईंटिस्ट इस कार्य में व्यस्त थे | यूँ तो जब तक शोध हो रही थी तब सर्दी, खाँसी की दवाएँ बीमारों को दी जा रही थीं | इसमें सबसे भयंकर स्थिति तब हुई जब मरीजों की ऑक्सीज़न कम होने लगी | लैबोरेटरीज़ का काम खूब बढ़ गया था क्योंकि थोड़ी सी भी खाँसी अथवा साँस की परेशानी होने पर टैस्ट कराने जरूरी हो गए थे | `

पापा-अम्मा ने सड़क पार मुहल्ले में मास्क, सेनेटाइज़र भिजवाने पहले ही शुरू कर दिए थे | टी.वी में नए-नए हाथ धोने के साबुनों के एडवर्टाइज़मेंट्स देखकर लगता था कि इस बीमारी ने नए व्यापार के कई द्वार मुहैया कर दिए हैं | खैर, उस समय जो चीज़ें जरूरी थीं, पापा ने कोशिश की कि सड़क पार के मुहल्ले में किसी चीज़ की कोई अधिक परेशानी न हो | मजे की बात यह थी कि वैसे लोग काम पर जाने में घबरा रहे थे लेकिन जहाँ देखा कि सड़क खाली है, वहीं दो-चार के टोले में जमावड़ा होने लगा था | सड़कों पर पुलिस लगातार चक्कर मारती ही रहती | उसकी नज़र कभी न कभी ऐसे टोलों पर पड़ ही जाती थी और मैं अपनी खिड़की में से कई लोगों को डंडे पड़ते भी देखती थी | 

उत्पल कभी-कभी मेरे कमरे की ओर निकल आता लेकिन मैं उससे दूरी रखने की पूरी कोशिश करती थी | मुझे उसकी आँखों में वही उत्सुकता दिखाई देती जो मैं पहले भी देखती रही थी और अपने दिल की धड़कनों को वश में रखना मेरे लिए मुश्किल हो जाता था | उसे समझ में तो आ ही रहा था कि कुछ गड़बड़ तो हो गई है | वह पूछता कि मैं इतनी उदास क्यों हूँ ?

“मैं क्या पूरी दुनिया अनिश्चितता के दौर से गुज़र रही है, मेरे अकेली के मन में नहीं, पूरी दुनिया के मन में चिंता है, उदासी है | अम्मा-पापा भाई के लिए चिंता करते हैं | भाई एमिली के साथ एक चक्कर लगाना चाहता था लेकिन सब एयरपोर्ट्स बंद कर दिए गए हैं | ”मैं उसकी बातों का जवाब ऐसे घुमा-फिराकर देती कि वह आगे कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं कर पाता | जो बात उसके मन में गोल-गोल घूम रही थी, वह उसी पोजीशन में घूमती ही रह जाती | 

यह सच था कि हमारा संस्थान एक ऐसा दुर्ग बन गया था जिसमें सब अपने आपको महफूज समझते | पापा-अम्मा की इच्छा थी कि वे समाज के लिए जितना अधिक करवा सकें, उतना ही कम है | हमारे यहाँ पूरे परिवार की सदा से एक ही सोच रही थी कि मंदिर जाने, वहाँ दान देना और वहाँ के पत्थरों पर अपना नाम खुदवाकर खुश होना और दूसरों में अपने बड़प्पन का ढिंढोरा पीटने से अधिक जरूरी है कुछ ऐसे कर्म करना जो समाज के लिए उपयोगी हो सकें | वही प्रयास किया जाता था और हमसे व संस्थान से जुड़े लोगों में भी इसी प्रकार की भावना विकसित हो चुकी थी | 

अचानक संस्थान के बब्बर शेरों यानि विक्टर, कार्लोस का खाना मिलना बंद हो गया | सब चीजें ऑन-लाइन आ ही रही थीं | बब्बर शेरों जैसे कार्लोस, विक्टर काफ़ी अधिक खाना खाते थे इसलिए उनका खाना हमेशा पहले से ही मँगवाकर रखना होता था | वैसे वे मूड में होते तो दूध-ब्रेड भी खा लेते लेकिन ‘वन्स इन ए ब्लू मून’!उनका अपने खास ब्रांड के डॉग-फूड से ही पेट भरता था | मालूम नहीं एकदम क्या हुआ, पता चला उनके खाना बनाने वाली खास फैक्ट्री के मालिक को कोविड हो गया और बाहर से आजकल यह खाना आ नहीं रहा था | कार्लोस, विक्टर को अचानक वह खाना खाना पड़ा जो घर में मिल सकता था | दूध–ब्रेड या दूध-रोटी ही थी अब उनके लिए | पहले तो कई दिन तक वे अपने कटोरों को देखकर उन्हें सूँघ भी नहीं रहे थे | बाद में ज़्यादा भूख लगी होगी तो मरता, क्या न करता उन्होंने खाना शुरू तो किया लेकिन उसे खाने से वे दो/तीन दिन में ही ऊब गए और उन्होंने खाना खाना लगभग छोड़ सा ही दिया | 

पापा, अम्मा और उत्पल के साथ महाराज की पत्नी और बच्चे भी उनके पीछे उदास हो गए थे लेकिन कुछ नहीं हो सका, उनकी हालत खराब होने लगी | संस्थान की रौनक दोनों बब्बर शेर 10/15 दिनों में ही बेहद अधमरे से हो गए और पूरा परिवेश उदास हो उठा |