प्रेम गली अति साँकरी - 73 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 73

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आज अम्मा-पापा से खुलकर सारी बातें कहने वाली थी | उनसे वायदा किया था कि लंच पर हम मिल रहे हैं | क्या, हो क्या गया था हमारे परिवार को ? दुख तो होता था मुझे, कहाँ वो दिन जो समय खास तौर पर शैतानी के लिए, हँसने के लिए, खिलखिलाने के लिए, एक –दूसरे की खिंचाई के लिए निकाला जाता था | डिनर पर तो हर दूसरे दिन कोई न कोई होता या हम कहीं न कहीं इन्वाइटेड होते | हँसी-ठहाकों में भी जैसे व्यंजनों की सुगंध पसरी रहती और अब जैसे चुप्पी पसरी रहती है | तब हर पल में जीवन हँसता रहता था और अब---??

मुझे बड़ी शिद्दत से महसूस हो रहा था कि जैसे भी हो, पुराने दिनों को कैसे न कैसे भी मोड़कर लाना तो पड़ेगा | यह वातावरण की बेचारगी सी सबको हतोत्साहित करती जा रही थी | जबकि शीला दीदी, रतनी और उनके पति व बच्चे सब संस्थान की ज़िंदगी का हिस्सा थे किन्तु स्वाभाविक यह भी था कि उनकी कोई न कोई सीमा तो आ ही जाती थी | जिसमें वे कोई निर्णय न ले पाते जब कि काफ़ी कुछ उन पर ही छोड़ दिया गया था | 

‘ओह ! ’ हद्द होती है मेरी लापरवाही की ! पापा-अम्मा आज तभी लंच लेने वाले थे जब मैं वहाँ पहुँचती और मैं थी कि बिखरे हुए फटे पीले पन्नों के बीच उलझी पड़ी थी | मैंने जल्दी से उठकर अपने आपको थोड़ा स्वस्थ किया और कमरे से बाहर निकल गई | अम्मा-पापा डाइनिंग में थे | 

“सॉरी---सॉरी----” मैं हमेशा की तरह लेट-लतीफ़ किन्तु विनम्र थी | 

“आप लोगों को देर हो गई न ? ”पापा बड़े से डाइनिंग में कोने में पड़े सोफ़े पर बैठे थे और अम्मा उनके पास एक कुर्सी पर थीं | 

“हम तो सोच रहे थे तुम्हारे पास ही चलते हैं, पता नहीं कैसी तबीयत है तुम्हारी ? ” पापा ने सोफ़े से उठते हुए कहा | 

“ठीक तो हो न? ” उन्होंने पूछा | 

“जी, पापा । बिलकुल फर्स्टक्लास हूँ, दरसल मैं सोच रही थी कि अपना डाँस फिर से शुरू करूँ, मुझे लग रहा है कि मेरे लिए जरूरी है | कुछ फ़िजिकल एक्सरसाइज़ हो ही नहीं पा रही है तो ----” मैंने कुर्सी सरकाते हुए कहा | 

“कब से कह रही हो, कहने और करने में कुछ तो मैच होना चाहिए----” कहा तो अम्मा ने मुस्कुराकर ही था लेकिन मैं जानती तो थी ही उन्होंने खीजकर यह बात कही थी | 

“आप ठीक कह रही हैं अम्मा---आपकी बेटी बड़ी लिथार्जिक हो गई है---” मैंने मुस्कुराकर अम्मा की आँखों में देखने की कोशिश की और हम सभी मुस्कुरा दिए | 

लंच पर अम्मा ने कितनी-कितनी मेरी पसंद की चीज़ें बनवा लीं थीं | अम्मा से कोई किसी को एंटरटेंट करना सीख ले तो वह उनका फ़ैन हुए बिना नहीं रहेगा | वैसे ही उनके न जाने कितने फैन्स थे, कितने-कितने लोग उन्हें प्यार व सम्मान करते थे | इस सबका कारण न केवल उनका संस्थान के प्रति समर्पण था बल्कि उनका मृदुल व्यवहार सबके दिलों को जीत लेता था | अम्मा यानि एक ऐसी पूर्ण महिला, जिनके अवगुण तलाशने बैठो तो उनके तो अवगुण क्या मिलेंगे, गिनने वाला अपने अवगुणों को गिनने लगेगा | इतनी समझदार, इतनी विवेकशील, इतनी गुणी ! 

ठीक है अम्मा–पापा बड़े उत्साह से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे लेकिन यह क्या? उत्पल वहाँ क्यों आ पहुंचा था? मन फिर से बेचैन हो उठा | जिसके सामने आने से फ़िलहाल बच रही थी, उसी को अम्मा ने लंच पर आमंत्रित किया हुआ था | मुझे अचानक झुंझलाहट होने लगी, जब मुझसे बात करनी थी तो इसे क्यों बुलाया होगा अम्मा ने? कमाल ही था हमारे घर का रिवाज़ भी, कोई भी इतना अपना बन जाता | 

“तुम ! ”अचानक उसे डाइनिंग में प्रवेश करते देखकर मेरे मुँह से निकल गया | 

“हाँ जी, मैं इन्वाइटेड हूँ लंच पर ----”उसी चिर-परिचित मुस्कान को ओढ़कर वह बोल उठा | उसके चेहरे से ज़रा सा भी ऐसा नहीं लग रहा था कि उसने इतना बड़ा राज़ खोल दिया था तो मुझे कैसा लग रहा होगा? 

हम आमने-सामने थे और वह बार-बार मुझसे आँखें मिलाने की कोशिश कर रहा था लेकिन मैंने अपना ध्यान अम्मा-पापा की तरफ़ ही लगाए रखा | 

“तुम ----? ”जब मैंने उसे देखकर चौंककर कहा, उसने बात बदल दी थी लेकिन मुझे उसकी थोड़ी सी असहजता समझ में तो आ ही गई थी | चाहती नहीं थी ऐसा कुछ कहना लेकिन निकल गया मुँह से! भीतर तो युद्ध छिड़ा  हुआ था, उसके नए खुलासे के लिए ! 

“ये भी पगला है---आज इसका महाराज आया नहीं तो बस भूखा बैठा था, पापा ने किसी काम के लिए फ़ोन किया था, तब पता चला | हमने कहा कि चलो हमें जॉयन कर लो लंच पर---वैसे भी तुम्हारा तो ये पक्का दोस्त है | अच्छा ही लगेगा इसका साथ----”अम्मा ने बड़े अपनत्व से कहा और मैंने अपने होंठों पर फीकी सी मुस्कान ओढ़ ली | 

“क्या बात है अमी बेटा ! सब खाना तुम्हारी पसंद का है और तुम कुछ खा ही नहीं रही हो ? ”पापा ने अचानक पूछा | 

“तुम्हें भी तो पसंद है साउथ-इंडियन खाना, तुम भी ज़रा सा लेकर बैठे हो ----”पापा ने उत्पल की प्लेट में एक इडली देखकर उससे भी कहा | उसने भी मुख पर एक फीकी सी मुस्कान की चादर ओढ़ ली | 

मैं स्टफ़ दोसा नहीं खाती थी, महाराज मेरे लिए केदार, जो उनका असिस्टेंट था उसके साथ गरम-गरम दोसा  भिजवा रहे थे | अम्मा ने उन्हें इतना ट्रेंड कर दिया था कि उनके सामने अच्छे-अच्छे शैफ़ भी फीके पड़ जाते | अपने भारतीय व्यंजनों के साथ इंटरनेशनल, कॉन्टिनेन्टल, चाइनीज़ या कोई भी क्यों न हो, महाराज की एक्सपर्टीज़ थी | अम्मा ने उन्हें बाकायदा ट्रेनिंग दिलवाई थी, उनका बेटा रमेश भी उतना ही स्वादिष्ट खाना  बनाता | अब तो उसकी अपनी पसंद से शादी भी हो गई थी और उसकी पत्नी भी शिक्षण क्षेत्र में ही थी | अम्मा-पापा के बिना घर के किसी कर्मचारी का भी कोई निर्णय न होता | लोगों को इस बात से बड़ा आश्चर्य होता, साथ ही कई बार आपत्ति भी लेकिन हमारे परिवार ने बेकार की बातों पर ध्यान देना कहाँ सीखा था ! 

“मैं अपना नृत्य फिर से शुरू करने की सोच रही हूँ----”अचानक मैंने सबके सामने फिर से कहा | अम्मा-पापा के चेहरे अजीब से हो उठे | अभी तो बात करी है, फिर दुबारा क्यों? फिर भी उन्होंने कहा ;

“पता नहीं बेटा, क्यों छोड़कर बैठ गई हो? कोई न कोई एक्सरसाइज़ तो हमेशा रियाज़ में रखनी चाहिए—”पापा ने कहा ;

“देखो तुम्हारी अम्मा इस उम्र में भी रोज़ सुबह कम से कम डेढ़ घंटे रियाज़ करती हैं न ! ”पापा न जाने कितनी बार मुझे समझा चुके थे लेकिन पता नहीं क्यों कोशिश करके भी मैं क्यों शुरू नहीं कर पा रही थी? 

यह निर्णय मैंने कब ले लिया? अभी जब उत्पल से बात हुई उसके बाद न ! क्यों आखिर ? अभी बात दुबारा क्यों छेड़ी थी मैंने ? क्या था उसके पीछे ? उत्पल को बताने की बात थी या और कुछ? कभी-कभी इंसान अपने आपे में न रहकर कुछ न कुछ ऐसी हरकत कर बैठता है जिसका कोई मतलब नहीं होता | यह बेकार के चोंचलों की उम्र रह गई थी क्या मेरी? अम्मा-पापा से जो बात करना चाहती थी, अब इसके सामने कहूँ या नहीं ? यह एक और समस्या सामने आ खड़ी हुई थी | 

केदार को महाराज को क्रिस्पी दोसा लेकर भेजा था लेकिन मैंने लेने से मना कर दिया | महाराज रसोईघर छोड़कर आए;

“क्या बात है दीदी, अच्छा नहीं बना क्या? ” उनके चेहरे पर चिंता थी | 

“महाराज ! सब बहुत अच्छा बना है, आपने तो आज मेरी पसंद की चीज़ें बनाने में पूरी कारीगरी लगा दी है | ” मैंने हँसकर कहा | 

“डेज़र्ट में आपकी पसंद की चावल की खीर है, इलायची वाली—पर एक दोसा तो और ले लीजिए—”उनका सारा लाड़ मुझ पर ही टपक रहा था | 

“चिल्ड है बिलकुल---? ” मैंने मुस्कुराकर पूछा | उन्हें पता था इस परिवार के लोग कौन, कैसे, क्या खाना पसंद करता है? 

“बिलकुल दीदी, ये तो उत्पल साहब को भी बहुत पसंद है | अभी भिजवाता हूँ ---नहीं, मैं खुद लाता हूँ---”कहकर वह जल्दी से डाइनिंग से निकल गए | 

फिर उत्पल ! इससे मेरा पीछा नहीं छूट रहा था | क्या मैं सच में चाहती थी? इस मन के प्रश्न का मेरे पास कभी भी कोई उत्तर नहीं था | चुप रहना बेहतर था | 

“क्या बात है---आज उत्सव इतने चुप क्यों हो? आज कोई शरारत ही दिखाई नहीं दी अभी तक तुम्हारी? ”पापा ने उत्सव की ओर चेहरा घुमा दिया था | 

“नहीं—नहीं---सर, अभी थोड़ी एडिटिंग में था, बस उसी मूड में हूँ | भूख भी नहीं लग रही थी---”उसने धीरे से कहा और महाराज की परोसी हुई ठंडी खीर की एक चम्मच मुँह में रख ली | 

अंदर की बात तो मुझे और उसको ही पता थी | अम्मा मुझसे असली टॉपिक पर बात करना चाहती थीं, पापा भी लेकिन----