प्रेम गली अति साँकरी - 98 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 98

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आज मैं प्रमेश के साथ कैनॉट प्लेस के उसी रेस्टोरेंट में बैठी थी जिसमें अम्मा-पापा का स्थाई मिलन हुआ था | वैसे अस्थाई रूप में तो वे दोनों पहले मिल ही चुके थे लेकिन फिर बिछड़ जाना और उस तड़प को भोगना उन दोनों के लिए काफ़ी पीड़ादायक था | अम्मा का वह समय हमने देखा नहीं था लेकिन पापा तो जैसे दादी माँ अक्सर ज़िक्र करतीं थीं कि उनका लाल सूखकर काँटा हो गया था | इस रेस्टोरेंट में मिलने के बाद वे फिर से महकता, गमकता फूल ही नहीं बगीचा बन गए थे जिसमें से न जाने किन-किन फूलों की बहार लहराती, मुस्कराती ! दादी माँ और वो ही क्या हमारे जन्म के बाद क्या काफ़ी बड़े होने तक भी हम जो उन्हें देखते थे, सच कमाल ही तो था | ज़िंदगी जियो तो ऐसी मुहब्बत भरी जिसमें दूध और शक्कर से घुल जाओ | 

न जाने किस फ़िल्म का गीत है, पापा गुनगुनाया करते थे और मैं उनके साथ;

जीयो तो ऐसे जीयो, जैसे सब तुम्हारा है, 

मरो तो ऐसे कि जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं !

“अरे! मरें तुम्हारे दुश्मन। जीने की बात करा करो न !” दादी पापा को लताड़ती हुई कितनी प्यारी लगती थीं | 

मुझे अब भी अक्सर याद आते रहते हैं वो लम्हे !चेहरे पर मुस्कान और आँखों में भीनास आ जाती है | अगर जन्म के साथ मृत्यु सत्य न होती तो दादी आप क्यों चली गईं हम सबको छोड़कर?आपको तो पता भी नहीं होगा कि हम सबका जीवन ही कैसे सहमकर ठिठक गया था | फिर धीरे-धीरे बहुत लंबे संमय के बाद हम सब संभल सके थे | जिस वास्तविकता से हम सब परिचित हैं, उसमें भी तो कितने  इफ़, बट खड़े मिलते हैं और हम जीवन के मार्गों को अवरुद्ध करते रहते हैं | 

पता नहीं मुझमें उस स्थान के प्रति इतना खिंचाव क्यों था ? ऐसा क्यों लगता था कि वह स्थान प्रेम पाने के लिए ही बना हो जैसे, मैं मन में चाहती थी कि मेरा प्रेम भी इसी रेस्टोरेंट में ही खिले और खुलकर साँस ले | पापा-अम्मा के प्रेम के जैसे ही लेकिन मैं यह क्यों नहीं सोचती थी कि उसके लिए पापा-अम्मा जैसा भी होना जरूरी था न !मैं अपने साथी में हमेशा पापा को तलाशती रही थी | उनका प्रेम, सौहार्द, उनकी परवाह ! कहा भी जाता है कि बेटी का पहला प्रेम पिता होता है और माँ अपने सब ही बच्चों की प्रथम शिक्षिका ! यह अनुभूति मुझे सदा रही और सदा मैं पापा की सी संवेदनाएं अपने भविष्य के साथी में देखने का जागृत सपना लेकर उसे बुनती रही | रात में ढंग से न सोने वाली मुझे दिन में सपने देखने की आदत सी पड़ चुकी थी जैसे !

हर दिन की अपेक्षा आज और इस समय प्रमेश थोड़ा सहज दिखाई दे रहा था | यानि जो सूनेपन की सपाट परत उसे घेरे रहती थी हरदम, वह आज कुछ कम थी | फिर भी शायद वह बोलने के लिए कुछ शब्दों की तलाश कर रहा था | 

प्रमेश अँग्रेज़ी बोलने का आदी था, वैसे घर में बंगला बोलता होगा | शायद वह मुझसे हिन्दी में बात करना चाहता था लेकिन उसके लिए उसे ऐसे ही हिन्दी शब्दों की तलाश करनी पड़ती थी जैसे हर आम आदमी अपनी मातृभाषा में सोचता है, फिर उसे अँग्रेज़ी में या जिस भाषा में उसे किसी के साथ संवाद करना हो, उसमें मन ही मन अनुवाद करता है फिर अपनी बात प्रस्तुत करता है | 

प्रमेश हिन्दी बोलत था लेकिन बंगला उच्चारण के साथ, जहाँ तक होता अँग्रेजी में अपनी बात कहकर काम चला लेता | आज हम विशेष तौर पर विशेष महत्वपूर्ण कारण से मिलने गए थे | शायद वह चाहता था कि मुझसे हिन्दी में ही बात करे | वैसे हम सब ही तो अँग्रेज़ी और हिन्दी में मिली जुली बातें करते थे | 

“आई लाइक यू ---सो कैन वी थिंक अबाउट----”और वह चुप हो गया | 

कुछ मज़ा सा नहीं आया उसके ऐसे बोलने से | वैसे मैं जानती तो थी ही कि वह सपाट इंसान है लेकिन कहीं न कहीं मैं अपने सामने उत्पल को बैठा पाती | शायद मैं भी कह सकती थी;

“आई लाइक यू टू----”लेकिन मेरे मुँह से नहीं निकला | मैं चुपचाप बैठी उसका चेहरा देखती रही जिस पर पहले की अपेक्षा कुछ नरमाई दिखाई दे रही थी | 

बार-बार मन जैसे ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर चल देता | इसके साथ संबंध कैसे बन पाएगा?संबंध के लिए कुछ तो कोमल भाव, कुछ प्रेम के छींटे मन पर पड़ते दिखाई देते हैं | यहाँ तो----

‘अब मैं क्या बात करूँ’मन सोच रहा था | 

“कॉफ़ी ?”उसने पूछा | 

“नो, आई विल हैव लस्सी---“मैंने सपाट स्वर में कहा | 

“लस्सी ?”

“हाँ, लस्सी बहुत अच्छी होती है यहाँ की | लोग दूर-दूर से आते हैं यहाँ लस्सी पीने---”मैंने सोचा , मैं ही अपनी ज़बान खोलकर बात करूँ तभी यह कुछ खुलकर बोले सकेगा | 

“आपको कॉफ़ी तो पसंद है !”वह न जाने कितनी बार मुझे संस्थान में कॉफ़ी पीते हुए देखता था | 

“हम्म, मुझे पसंद है लेकिन हम यहाँ इतनी दूर कॉफ़ी पीने नहीं आए हैं | ”मैंने कहा तो उसने अपना सिर जैसे डुगडुगी की भाँति हाँ में हिला दिया | 

“यह अम्मा-पापा के मिलन की जगह है---”मैंने सोचा शायद उसके मन में कोई रोमांटिक बात आ सके | मैं उसके मुँह से शायद कुछ ऐसा सुनना चाहती थी जो मुझे कुछ तो रोमांचित कर सके | 

“इफ़ यू डोन्ट रैलिश लस्सी, कैन हैव कॉफ़ी----नो प्रॉब्लम---” मैंने कहा | 

“नहीं, लस्सी इज़ गुड-----”

आ गई थी चिल्ड लस्सी और मैंने ऐसे झपटकर उठाई जैसे मैं बरसों की भूखी थी | 

मैंने देखा, वह मेरी इस हरकत को बड़े ध्यान से से देख रहा था लेकिन मुझे उसकी या फिर किसी की भी  परवाह कहाँ थी | मैं बड़े मज़े में अपनी लस्सी के सिप ले रही थी जबकि उसने अभी तक उठाई भी नहीं थी | मैंने उसे आँखों से लस्सी लेने का आग्रह किया। मुँह में तो चिल्ड लस्सी की मिठास घुलकर मन-आत्मा तृप्त कर रही थी | क्या मैं यहाँ बस लस्सी पीने आई थी ?

कुछ बोले तो सही बंदा ! वह धीरे-धीरे ऐसे लस्सी सिप करता रहा जैसे कोई नई-नवेली दुल्हन हो!हे भगवान ! कोई मिरेकल तो दिखला दो। मेरे पास कोई तो प्वाइंट हो उससे अपनी भावी ज़िंदगी शुरू करने का | 

“आई बिलीव इन फैमिली लाइफ़-----” प्रमेश बर्मन ने अचानक कहा और लस्सी की एक लंबी सी घूँट भरी | मेरा ग्लास तलछट तक खाली था !!