प्रेम गली अति साँकरी - 114 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 114

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एक बहुत बड़ी और अजीब बात जो हुई वह यह कि उत्पल अपने असिस्टेंट को स्टूडियो का काम समझा  कर जाने कहाँ गायब हो गया | अम्मा ने जब उसको दो दिन नहीं देखा तब कुछ विचलित सी हुईं | ऐसे तो उत्पल कभी बिना बताए कहीं नहीं जाता था | कोविड के दिनों में वह यहाँ रहा था उसके बाद अपने फ़्लैट पर चला गया था और तब से समय पर आना-जाना, समय पर गप्पें मारना , खिलखिलाना और दूसरे को भी अपनी खिलखिलाहट में शामिल करना उसका रोज़ाना का काम था | जब कभी बाहर जाना होता, अम्मा से बताकर ही जाता | जिस दिन मैं उससे लिपटकर रोई थी, उस दिन से वह उदास दिखाई दिया था, मुझसे कहा भी तो था उसने कि अभी भी समय है, मुझे अपने बारे में सोचना चाहिए | लेकिन संभव कहाँ था? नहीं होतीं भई कुछ बातें अपने हाथ में, क्या किया जाए”भाग्य से आज तक कोई लड़ सका है क्या? अम्मा असमंजस में पड़कर सोचती रहीं बल्कि स्टूडियो के उसके असिस्टेंट को पूछा भी कि कहाँ गया है ? कब आएगा? लेकिन उसके पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था | अम्मा भी आखिर कितना पूछतीं उससे? 

उसके पास कोई उत्तर नहीं था | उसने बताया कि सब काम समझाकर गए हैं सर, यहाँ तक कि दीदी के शादी के मोमेंट्स के बारे में सारा शूटिंग का कंट्रोल उसीको दे गए हैं | कुछ जरूरी काम आ गया था इसलिए उन्हें जाना पड़ा | अम्मा-पापा ने ऊपर से कुछ नहीं कहा, मन में तो उनके काफ़ी बातें उमड़-घुमड़ रही होंगी | उन्हें लगा था कि उत्पल इस रिश्ते के प्रति चिंतित था, उसने अम्मा को बताया भी था कि आज भी कुछ महिलाएं ऐसी हैँ जो यह जादू-टोने की गंदी विद्या जानती है, वे बखूबी जानती हैं कि कैसे, किसीको बेवकूफ़ बनाना है और इसका उपयोग लोगों को अपनी मुट्ठी में करने के लिए करती है | परेशानी की बात थी ही लेकिन अम्मा की बेटी यानि मैं तो अब कमर कस ही चुकी थी इस रिश्ते को स्वीकार करने के लिए | मैं अब किसी के वश में कहाँ आने वाली थी | अब जो सोच लिया था, सोच लिया था, उसमें बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं थी | मुझे जिन सँकरी गलियों के बीच से निकलना था, वही मेरा प्रारब्ध था | चलो भगवान ! तुम्हारे बनाए हुए प्रारब्ध के साथ चलकर ही देख लेते हैं, कहते है न कि ‘होई है वही जो राम रची राखा’, वैसे भी हम सब उस पिता की संतान हैं, वह अपने बच्चों के लिए क्यों गलत करेगा ? जब मैं इतनी समझदार थी फिर क्यों मेरी आँखों में हर समय आँसु भरे रहते थे? क्यों मेरा दिन प्रमेश के लिए न धड़ककर उत्पल के लिए ही धड़कता था? क्यों मैं उससे अपना पीछा नहीं छुटा प रही थी? क्यों? क्यों? क्यों? नहीं था कोई उत्तर और यदि था भी तब भी मैं नहीं दे सकती थी | 

खैर अमोल और एमिली बिटिया के साथ आ ही पहुँचे | अम्मा उन्हें शादी के कोर्ट-रजिस्ट्रेशन की तारीख और पार्टी की तारीख बता चुकीं थीं | भाई के आते ही कैसी सरगर्मी शुरू हो गई संस्थान में! प्रमेश संस्थान में पहले की तरह आ रहा था | कमाल यह था कि वह आता था, अपना काम करता और चला जाता | उसने न तो कभी मुझसे मिलने की उत्सुकता दिखाई और न ही कभी उस दिन के बाद मुझे डेट पर ले जाने की बात की | कैसा अजीब, सूखा सा संबंध होने वाला था हम दोनों का? उसके बारे में सोचकर , उसे दूर से देखकर मेरे दिल की धड़कन को कभी तेज़ होते हुए मैंने महसूस ही नहीं किया | जैसे कोई अजनबी था वह मेरे लिए !वो धड़कनें जो उत्पल के लिए ऐसी बढ़ जातीं कि मैं बात ही नहीं कर पाती थी | पता नहीं क्या होने वाला है, सब छोड़ दिया तुझ पर ईश्वर और जब महसूस किया या देखने की कोशिश भी की तो उसमें सिर्फ़ वो ही दिखाई देता जिसको मैं छोड़ने का प्रण ले चुकी थी | 

मैंने चुप्पी ओढ़ ली थी | भाई और एमिली अम्मा-पापा से चर्चा करके तैयारियों में व्यस्त हो गए थे | भाई को मेरे लिए वो हर चीज़ खरीदनी थी जो नई से नई ट्रेंड व फ़ैशन की थी | हमारे रिवाजों के अनुसार उनमें प्रमेश व उसके परिवार के लिए भी कुछ अच्छा, बहुमूल्य करने की इच्छा थी | भाई ने अम्मा-पापा से चर्चा की और दोनों प्रमेश के घर पहुँच गए | बहुत सारे गिफ्ट्स तो वे लोग पहले ही अपने साथ लेकर आए थे जिन्हें लेकर वे प्रमेश की दीदी के पास गए थे | अभी तक भाई के मन में बड़ा असमंजस था कि वे प्रमेश से कैसे बातें करें , कैसे पूछे कपड़े आदि खरीदने के बारे में? अब मन था उन लोगों का तो करना ही था इसलिए वे प्रमेश के घर अपने साथ लाए हुए गिफ्ट्स आदि से लदफंदकर पहुँचे थे | 

“अम्मा-पापा, आप भी चलिए न प्रमेश जी के घर ---” भाई ने कहा | 

“अब तुम आ ही गए हो तो यह संभालो , हम जकर क्या करेंगे ? ”भाई को अम्मा के स्वर में भी कोई बहुत उत्साह नहीं मिला था | यानि वैसे था विवाह उत्सव का वातावरण लेकिन जैसे हवाओं में खुश्की पसरी हुई थी | 

जाते ही भाई और भाभी का स्वागत शर्बत से किया गया |  हमने किसी बात का ज़िक्र किया ही नहीं था उन दोनों से, करते भी क्या जबकि उत्पल ने जैसे कुछ ज़िक्र किया था, उसके अनुसार तो ज़िक्र करना बनता था लेकिन प्रश्न यह था कि क्या यह बात सच हो सकती थी? यह तो मालूम नहीं चला लेकिन शर्बत पीने के बाद वे दोनो उनकी हर बात के पक्ष में ही नज़र आए | 

“प्रमेश जी ! आप और दीदी हमारे साथ चलिए, शादी की कुछ शॉपिंग कर आते हैं | ” भाई ने कहा | उस दिन लगभग पूरा दिन उन सबका शॉपिंग में ही लग गया | अम्मा को फ़ोन करके पूछना पड़ा कि आखिर हैं कहाँ? 

शॉपिंग के लिए वे दोनों आसानी से तैयार हो गए थे जबकि भाई-भाभी यू.के से उनके लिए बहुत सारे गिफ्ट्स और सोने की चेनें लेकर आए थे | इधर अम्मा ने भी तैयारी कर रखी थी, उन्होंने कहा भी था कि शादी में ही दे देना लेकिन अमोल जी पर तो बहन की शादी का इतना भूत सवार था कि वह न जाने क्या कर देना चाहता था | अपने लाए हुए गिफ्ट्स वह ले गया था और प्रमेश की दीदी ने बड़े प्यार से सब समेट लिए थे |