प्रेम गली अति साँकरी - 113 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 113

113----

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जो कुछ नहीं हो रहा था, जो बरसों से नहीं हो रहा था यानि बरसों से मैं अपने साथी की खोज में भटक रही थी न! कुछ निर्णय की स्थिति आई ही नहीं थी और अब? क्या मैं या और सब मेरे इस निर्णय से संतुष्ट थे? क्यों हुआ होगा ऐसा? मैं सोच रही थी, प्रमेश के व्यवहार से इतनी अधिक असन्तुष्ट होने के बावज़ूद भी मैंने क्यों और कैसे और किन क्षणों में पूरे जीवन उसके साथ बिताने का फैसला किया होगा? लेकिन ऐसा अब हो चुका था | जीवन साथ बिताने का निर्णय इतना आसान होता है क्या? मैंने तो अपनी पूरी युवावस्था यही सोचने में गँवा दी थी और मैं अभी भी न तो प्रसन्न थी और न ही संतुष्ट!अंत में अपने आँसुओं को सुखाते हुए मुझे संतुष्टि ओढ़ लेनी पड़ी थी कि संभवत:लोग ठीक ही कहते हैं कि रिश्ते ऊपर से ही तय होकर आते हैँ | ऊपर से? कहाँ से भला? मेरे पास कोई उत्तर नहीं था जैसे कोई जबरन मुझे इस निर्णय की ओर खींचकर ही तो ले गया था | मुझे क्या, सब ही को---हम सब जैसे किसी अदृश्य आदेश पर चलने के लिए बाध्य थे | 

मेरे कोर्ट-मैरेज के निर्णय को जानकर प्रमेश की दीदी का मुँह चढ़ गया था | उन्होंने अम्मा पर ज़ोर डालने की भरपूर कोशिश की लेकिन अम्मा मेरे निर्णय के विपरीत कहाँ जा सकती थीं? बार-बार कुछ ऐसा महसूस होता कि पूरे परिवार को जैसे किसी चीज़ से जकड़ दिया गया था | कोशिश करने के बावज़ूद भी हममें से कोई भी उस रिश्ते के विपरीत क्यों नहीं खड़ा हो पाया था और सबसे पहले तो मैं जिसका दिल कहीं और था, आँखों में आँसु थे और भीतर से महसूस हो रहा था मानो मैंने खुद को स्वयं ही फाँसी की सज़ा सुना दी थी | क्या किसी के आगे मनुष्य इतना विवश हो सकता है? होता ही होगा न जब मैं हो गई थी | 

अम्मा की बात अमोल भैया से भी हुई, उसे भी कुछ आश्चर्य हुआ कि मैं प्रमेश के साथ शादी के लिए कैसे तैयार हुई थी? उसने अम्मा से कहा था कि अमी और प्रमेश के व्यक्तित्व में कोई समानता कहाँ थी? अम्मा उसको भी कुछ समझा नहीं सकी थीं | वह खुद कुछ समझतीं तब उसे समझाती न!जब वे स्वयं पशोपेश में थीं तब? 

ज़िंदगी महीन गलियों, सँकरी गलियों, कष्टप्रद गलियों में से निकलने वाला एक अहसास मात्र था | केवल अहसास भर, उसकी परिणति कोई नहीं ! क्षुब्ध थी लेकिन शायद ज़िंदगी के सामने थक-हार चुकी थी | पता नहीं, एक खोया हुआ सा अहसास, एक मटमैली चादर ओढ़े दुनिया का चेहरा दिखाई देता, स्पष्ट तो कुछ नहीं था | कुछ था जो कुहरों में लिपटा हुआ मुझे चिढ़ाता रहा था | मैंने ज़िंदगी की कहानी को न जाने कौनसा मोड़ देने का ठेका ले रखा था | क्या मैंने? मैं कुछ कर सकती थी? मेरे हाथ में कुछ था? यदि नहीं तो क्यों मैं अपने आप पर उसका बोझ लादकर बोझल हो रही थी? 

आनन-फ़ानन में बात पूरे संस्थान में, वहाँ से सगे-संबंधियों में, मित्रों में हवा के साथ फैल गई थी | आश्चर्य से लोग मुँह खोलकर न जाने क्या क्या अटकलें लगाने लगे | कुछ अजीब नहीं है, दुनिया का काम ही अटकलें लगाना है, इसमें कहाँ कुछ नया व अनोखा था? इतने बड़े संस्थान की बेटी का विवाह एक सितारिस्ट से? ज़रूर कुछ होगा? मजे की बात तो यह थी कि जहाँ था, वहाँ तक तो लोग अनुमान लगा ही नहीं सकते थे और इस मुस्कान रहित चुप्पी भरे आदमी के साथ अटकलें लगाते लोगों को कुछ होश नहीं था | 

भाई ने अम्मा से कहा कि वह चाहे दो दिन के लिए आएगा लेकिन आएगा और अम्मा-पापा को अब उनके साथ आना होगा | कब से वह स्वयं, एमिली और उनकी पोती उनके आने की प्रतीक्षा कर रहे हैँ | अम्मा, पापा ने कहा कि अगर उन्हें आना है तो आ जाए वैसे शादी में कुछ विशेष तो होना नहीं है क्योंकि अमी की इच्छा सीधी-सादी शादी करने की है | 

“अम्मा, मेरी एक ही बहन है, मैं न आऊँ, ऐसा कैसे हो सकता है? और आप लोग इतनी जल्दी क्यों कर रहे हैं? ” भाई को बेचैनी हो रही थी, जाने क्यों? या तो शादी की कोई बात हो ही नहीं रही थी और अब हो रही है तो इतनी जल्दी पड़ी है! अमोल को उत्सुकता भी थी जानने की और आश्चर्य भी जो स्वाभाविक ही था | उन्हें उनके प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं मिल रहे थे | हममें में से किसी के पास भी तो नहीं थे इन प्रश्नों के उत्तर!

भाई ने मुझसे भी पूछा, उन दोनों पति-पत्नी ने वीडियो कॉल पर मुझसे बात की और मेरा बुझा हुआ चेहरा देखकर उन्हें कुछ संशय भी हुआ | उनका सीधा सा प्रश्न था;

“अमी ! क्या बात है? घर में एक शादी होनी है, कुछ तो धूम-धड़ाका होना चाहिए!”

“मेरी उम्र रह गई है क्या धूम-धड़ाके की? आप लोग भी---” कहकर मैं चुप हो गई | 

“अमी, आप खुश हो न? ” एमिली बहुत अच्छी हिन्दी बोलती थी और जब भी बात करती उसकी कोशिश रहती कि वह हिन्दी में बात करे | 

“हाँ, हाँ क्यों नहीं----”मैंने भाभी को भी छोटा सा उत्तर दिया  | मेरे पास कुछ था ही नहीं बताने के लिए, शेयर करने के लिए | प्रमेश को सब जानते थे, इतने दिनों से इंस्टीट्यूट में आ रहे थे | 

कीर्ति मौसी व मौसा जी को तो बताना ही था, न बताने का कोई प्रश्न नहीं था | अम्मा के इतने करीबी रिश्तेदार थे ही कितने ? गिने-चुने ही न!मेरी शादी के बारे में जानकर कीर्ति मौसी ने भी ज़रूर एक लंबी साँस ली होगी , कम से कम शादी के लिए लड़की राज़ी तो हो गई लेकिन प्रमेश का नाम सुनकर मौसी भी असमंजस में पड़ गईं। आखिर क्यों? एक बड़ा प्रश्न उनकी आँखों में भी कौंध गया, अम्मा ने कहा कि मौसी मुझसे बात करना चाहती हैं | कैसे मना कर सकती थी? फ़ोन हाथ में ले लिया;

“अमी! बेटा, तू खुश है? ”उन्होंने छूटते ही पूछा | 

“क्यों? नहीं होना चाहिए मौसी? ”मैंने हँसते हुए उन पर ही प्रश्न दाग दिया | 

“पागल लड़की !प्रमेश की बात कर रही हूँ ----”

“जी मौसी पता है, लेकिन प्रमेश आपको पसंद नहीं क्या? ”मैंने फिर उन्हें अपने गोल-गोल प्रश्न में फँसाने की कोशिश की | 

“शादी मैं कर रही हूँ क्या? पसंद तेरी होगी तभी तो काम चलेगा | मुझे करनी होती, कब की कर लेती—”मौसी ने एक ठंडी आह भरकर कहा था | 

“क्यों , प्रमेश पसंद नहीं होना चाहिए मुझे? क्या बड़ा नाम है सितारिस्टों में उसका? और देखिए न मौसी, मैं आपकी बिरादरी में आ रही हूँ | अब इन बंगालियों को बदलकर रख देंगे—सबको शाकाहारी बना देंगे | ”मैं फिर से ज़ोर से हँसी लेकिन जाने क्यों मौसी को मेरी नकली हँसी की कौंध सुनाई दे गई थी | 

बात आई-गई हो गई, न तो मैं इतनी छोटी थी कि मुझे कोई समझाता, इस उम्र में तो बड़ी मुश्किल से मैं शादी के लिए हाँ कर सकी थी | शायद उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने जर्मनी में अपनी बेटी अंतरा को यह खुशखबरी दे ही तो दी | 

“दीदी ! कॉन्ग्रेचुलेशन्स----” अंतरा मुझसे बात किए बिना कैसे रहती भला? 

“हम्म, पहुँच गई खबर तुम तक ? ”

“क्यों , आप नहीं चाहती थीं कि मैं शादी में आऊँ----? ” फिर पल भर रुककर पूछ बैठी;

“वही जो आचार्य प्रमेश बर्मन सितारिस्ट हैं, उनको ही पसंद किया आपने? पर दीदी! आपमें और उनमें बहुत फ़र्क नहीं है क्या? ” उसके कहने का मतलब कोई खास नहीं था। मैं जानती थी लेकिन बात चुभ गई फिर भी मैंने दाँत फाड़ते हुए कहा;

“जोड़ियाँ ऊपर से बनकर आती हैं बालिके !और मैं अकेली पसंद करने वाली होती हूँ क्या? शादी दो लोगों के बीच का संबंध है और बंधन दो परिवारों का | एक मेरे ही मानने से शादी हो जाएगी क्या? ”मैंने दार्शनिक बनने की चेष्टा की थी  | 

“क्या दीदी आप भी, अच्छा आप नहीं चाहतीं कि मैं आऊँ? आना और अल्बर्ट तो नहीं आ सकेंगे लेकिन मैं नहीं आऊँगी अपनी दीदी की शादी में, ऐसा कैसे होगा? कमाल हैं दीदी आप भी---”अंतरा का भी कोई भरोसा नहीं था, कभी प्यार में आती तो तू तक बोल देती और कभी इतनी औपचारिक हो जाती कि पूछो मत | मुझे लगता है शायद करीबी लोगों की भाषा में संवेदना के स्तर पर करवटें बदली जा सकती हैँ यानि समयानुसार भाषा अपने आप ही बदल जाती है और वह बहुत सहज होती है , बिना किसी आडंबर के सहज, सरल !