प्रेम गली अति साँकरी - 57 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 57

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घर पर शीला दीदी, रतनी, जेम्स और एक नया आदमी जिसे मैंने तो कभी नहीं देखा था, सिटिंग-रूम में बैठे हुए थे | आश्चर्य हुआ, अभी तक?मुझे तो लगा था अब तक सब डिस्पर्स हो चुके होंगे | 

“हैलो एवरीबड़ी---” मैंने सिटिंग रूम में घुसते ही सबको विश किया | 

“हो गया लंच---?” अम्मा की आँखों से उत्सुकता झाँक रही थी | 

“आज लंच नहीं, लस्सी पीकर आई हूँ ---” मैंने मुस्कुराते हुए कहा और पूछा;

“आप लोगों का हुआ ?”

“हम्म, बहुत बढ़िया---महाराज और रमेश ने बहुत बढ़िया खाना खिलाया | ”

अरे वाह! अच्छा लगा सुनकर रमेश आया है इतने दिनों बाद | आज याद तो कर ही रही थी उसे मन ही मन! 

“लेकिन तुम कहाँ पहुँच गईं लस्सी पीने?कहीं कनॉटप्लेस तो नहीं ?” पापा ने झूटते ही पूछा | 

“बिलकुल पापा---कितने सालों बाद ! आपने तो अब हमें वहाँ ले जाना ही छोड़ दिया---”मैंने जैसे शिकायत की | 
“अरे! आप लोगों के पास टाइम कहाँ होता है ?चलो, अब एक बार सब मिलकर चलते हैं---क्यों शीला?” शीला दीदी के चेहरे पर जैसे सात रंग खिले हुए थे | 

मेरी समझ में नहीं आया फिर मैं अचानक ही बोल उठी;

“एक्सक्यूज़ मी---रमेश आया है, आज उसे कैसे याद आ गई | अभी उससे मिलकर आती हूँ | ” मैं उठकर खड़ी हुई ही थी कि;

“नमस्ते दीदी---” रमेश हाथ में कॉफ़ी की ट्रे लेकर खड़ा था | 

“ओ ! मैं तुमसे मिलने ही आ रही थी प्रोफ़ेसर----”मेरा चेहरा उसे देखते ही खिल गया था | 

“क्या दीदी, आप अब भी मुझे छेड़ने से----”वह अपना वाक्य पूरा करता कि बीच में ही मैंने उसकी बात को लपक लिया | 

“मैं---और छेड़ूँगी प्रोफ़ेसर को ?”मैंने उसके कंधे पकड़कर उसे गले से लगा लिया, पीछे महाराज भी खड़े थे | 

दोनों की आँखों में आँसु भरे थे | 

“अभी तो हो न ?” मैंने रमेश से पूछा | 

“अभी तुम्हारी खबर लेनी है | कितना टाइम हो गया है, भूल ही गया दीदी को ?”फिर से एक प्यारी सी शिकायत कर दी मैंने | 

“मैं बाद में मिलती हूँ, मेरे कमरे में आना, बातें करेंगे | अभी ज़रा ---”

“जी, दीदी----” पिता-पुत्र दोनों अपनी आँखें हथेलियों से पोंछते हुए बाहर निकल गए | 

“सॉरी, मैं ज़रा भावुक हो गई थी | ”मैंने सबकी ओर देखते हुए कहा | 

तब तक अम्मा ने सबको कॉफ़ी के लिए इशारा कर दिया था| डॉली ट्रे लेकर सबको कॉफ़ी देने लगी | 

“अरे वाह ! आज डॉली जी भी ---बड़ी हो गई हैं डॉली दीदी ---! ” डॉली मेरी बात सुनकर शर्म से मुस्कुराने लगी  थी | अपनी ट्रे आगे बढ़ाते हुए अब वह मुझ तक आ पहुंची थी | मैंने कॉफ़ी उठाकर उसके बालों को प्यार से सहला दिया, उसके चेहरे पर एक कोमल मुस्कान बिखर आई | 

सिटिंग रूम में बैठे हुए सभी लोग मेरे चेहरे पर बिखरते, मचलते रंग देख रहे थे | अम्मा, पापा को ज़रूर लग रहा होगा कि मैं शायद श्रेष्ठ से मिलकर बहुत खुश हूँ लेकिन उस समय उन दोनों ने ही कुछ पूछा नहीं | उन्हें मालूम था कि अगर उन्होंने वहाँ सबके सामने कुछ पूछ लिया तो मैं नाराज़ हो जाऊँगी | 

“तुम इनसे तो मिली ही नहीं हो ---”पापा ने उन सज्जन की ओर इशारा किया जिनको न तो मैं जानती थी और न ही उनको मैंने कभी देखा था | 

“नमस्ते –” मैंने तहज़ीब से उन्हें नमस्ते की जिसका प्रत्युत्तर उन्होंने मुझे खड़े होकर बड़े सलीके से दिया | 

“अरे ! बैठिए न आप---” कोई भी थे, इस समय तो मेहमान थे न ! 

“ये शीला के ----” पापा ने बात बीच में छोड़ दी, मैंने शरारत से शीला दीदी की ओर देखा तो उन्होंने लजाकर आँखें नीची कर लीं | 

दूसरी ओर रतनी भी शरमाई सी बैठी थीं | 

“ओह ! बहुत अच्छा है, सब सैटल हो जाएंगे | तो कब प्रोग्राम बन रहा है ?”मैंने अपना प्रश्न हवा में उछाल दिया | 

“तुम्हारी शीला दीदी छिपी रुस्तम हैं ! ” पापा ने हँसते हुए शीला दीदी की ओर देखते हुए कहा | 

शीला दीदी की नज़रें झुकी हुई थीं | 

“शीला इज़ ऑलरेडी मैरेड टू प्रमोद---बाई द वे ही इज़ प्रमोद शुक्ल। हज़बैन्ड ऑफ़ योर लवली छिपी रुस्तम दीदी | ”

वास्तव में चौंकने की बात थी ही | मैंने आँखें फाड़कर शीला दीदी को लगभग घूरने के अंदाज़ में देखा | 

“वाह ! कब ?कैसे?” मेरा आश्चर्य छिप ही नहीं रहा था और छिपता भी कैसे?शीला दीदी और रतनी मुझसे कहाँ कुछ छिपाती थीं? मैं सदा से इसी भ्रम में थी लेकिन ---

“लंबी कहानी है लेकिन मुझे लगता है कि शीला अपने आप तुम्हें बता देंगी | ”अम्मा ने कहा | 

मैं कुछ नहीं बोली | मेरा मन उत्फुल्लित था और उत्सुक भी | बात पूरी तरह पता नहीं थी इसलिए बीच में बोलने का कोई अर्थ भी नहीं था | वह समय केवल सुनने का था और सब कुछ जानने का भी | 

“तुम्हारी शीला दीदी ने कई वर्ष पहले शादी कर ली थी प्रमोद से लेकिन डिक्लेर नहीं किया था, रीज़न हम सब जानते हैं | ” अम्मा ने मुझे बताया | कोई भी पिछली बातों को दोहराने के मूड में नहीं था | पास्ट को भूलो, फ़्यूचर के बारे में बात न करो, मुठ्ठी में वर्तमान की खुशबू समेटकर जीओ | हमारे परिवार का फंडा ! 

मैंने देखा, सबके चेहरों पर से इस समय चिंता गायब थी और एक रिलेक्सेशन था | यहाँ तक कि दिव्य और डॉली भी प्रसन्न दिख रहे थे | 

प्रमोद और शीला का प्रेम संबंध बरसों से था | एक बार शीला ने जगन से जिक्र भी किया था लेकिन उसका पारा हाई हो गया था | न जाने वह कैसा इंसान था जिसे अपने अलावा कभी भी किसी की भी कोई चिंता नहीं रही थी | प्रमोद भी खासा शिक्षित इंसान था जो दिल्ली की किसी प्राइवेट फ़र्म में अच्छी नौकरी करता था, माँ के साथ रहता था | चाहते हुए भी कई वर्ष तक ये दोनों विवाह के बंधन में नहीं बंध पाए थे | कुछ वर्षों पहले प्रमोद की माता जी ने आर्य समाज में दोनों के फेरे पड़वा दिए थे लेकिन शीला दीदी रतनी व बच्चों को जगन के सहारे नहीं छोड़ सकती थीं उन्हें घर को घर संभालना था इसलिए सब बातें पर्दे में ही रखनी पड़ीं | अब आसार थे कि सभी की ज़िंदगी की गाड़ी पटरी पर चलनी शुरू हो जाए------शायद ! फिज़ा में एक सकारात्मक पवन का झौंका पसर गया | 

तय किया गया था अगले सप्ताह एक छोटी सी पार्टी में सब डिक्लेयर कर दिया जाए | रतनी को मनाने में सबको बड़ी परेशानी हो रही थी | अपने बच्चों के सामने वह अजीब सा महसूस कर रही थी | अम्मा-पापा के सामने तो कोई भी नहीं बोल पाता था इसलिए उनका जो निर्णय था, वह सबके लिए एक प्रकार की आज्ञा ही थी | वैसे भी जगन के बाद कोई विरोध करने वाला नहीं था | रतनी बच्चों से संकोच कर रही थी और बच्चों ने अपनी माँ की ऐसी हालत देखी थी, वे चाहते थे कि उनकी माँ को भी उसके जीवन में कुछ तो सुख मिल सके | दिव्य और डॉली के चेहरे भी सुकून से भरे हुए दिखाई दे रहे थे | उन्होंने ही तो मिलकर माँ को मनाया था | 

“मैं माँ को भी लेकर आऊँगा आपसे मिलवाने ---”

“स्वागत है उनका---” पापा ने कहा

“भई, संस्थान भी देखना है साथ में---उत्पल, शीला और रतनी न हों तो संस्थान में ताला लग जाएगा—”पापा ने कहा | 

“कैसी बात कर रहे हैं सर---संस्थान तो हमारा पिता है और इसकी मिट्टी हमारी माँ ! इसको कैसे छोड़ सकते हैं?”शीला भावविव्हल हो रही थीं | 

दोनों शरमाई हुई सी बैठी थीं | क्या कम खेल दिखलाती है ज़िंदगी ?मेरे साथ तो बहुत ही ज़्यादा | वैसे एक बात और है शायद जीवन में हर इंसान को यही महसूस होता होगा | 

कुछ महत्वपूर्ण विचार-विमर्श हुए और दुबारा मिलने की बात करके मीटिंग डिस्पर्स हो गई | 

मन में विचारों ने एक जत्था बना लिया था | उस रात तो बिलकुल नींद नहीं आई | 

कीर्ति मौसी की बेटी अंतरा भी जर्मनी से आई हुई थी | उसकी बच्ची आठ साल हो गई थी और वह अगले दिन हम सबसे मिलने आने वाली थी | कैसे जल्दी समय बीत रहा था और ज़िंदगी भी और मैं अभी भी टुकड़ों में पड़ी थी | मुझसे ज़्यादा अम्मा-पापा को अफ़सोस हो रहा था | फिर भी अम्मा को अटूट विश्वास था कि मेरे लिए उन दोनों में से कोई राजकुमार मुझे पसंद आ ही जाएगा |