प्रेम गली अति साँकरी - 53 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 53

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उत्पल का संस्थान में आना-जाना वैसे ही ज़ारी था, उसकी आँखों, चाल-ढाल यानि पूरी बॉडी लैंग्वेज न जाने क्या-क्या कहती| जगन की उस दुर्घटना के बाद सब लोग आ चुके थे, सबने अपना-अपना काम संभाल लिया था और अम्मा का भार व चिंता कम हो रही थी लेकिन मेरी चिंता से उनकी आँखें कभी खाली दिखाई नहीं देतीं| मुझसे कुछ कहती भी नहीं लेकिन उनके मन में उठते हुए सवाल मेरे मन में बिना कुछ कहे हुए भी कचोटते| दूसरों को सलाह देने वाले अम्मा-पापा की अधेड़ उम्र की बेटी उनके सामने बिना साथी के घूम रही थी | 

मेरा भी क्या कसूर था उसमें, वैसे मुझे न जाने कितनी-बार लगा है कि कोई भी चीज़, उसमें भी प्रेम जैसी बात ज़बरदस्ती कैसे की जा सकती थी?यू.के का काम बहुत अच्छा चल रहा था, बबहुत अच्छे परिणाम थे | कहीं कोई परेशानी नहीं थी, परेशानी केवल एक ही थी ---मैं !अब भाई का गाना फिर शुरू हो गया था अम्मा-पापा को बुलाने का| उनके सामने पहाड़ सी मैं खड़ी रहती थी हर समय | मुझे भी बहुत बार लगता कि आखिर मैं उन्हें कब चैन दे पाऊँगी?

बेचारा उत्पल अपने मन की बात मुझसे कहने का साहस नहीं कर पाता था लेकिन कोई न कोई हरकत ऐसी कर देता जो मुझे गुदगुदा जाती और शर्म से मेरा चेहरा लाल हो जाता | मैं उसकी ओर घूरती लेकिन उस बेशर्म पर कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था| उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा कितना प्यारा लगता बिलकुल मासूम बच्चे जैसा---इसमें कोई संशय नहीं था कि मैं इन तीनों उत्पल, प्रमेश और श्रेष्ठ में सबसे अधिक उत्पल के साथ सहज रहती और उसके साथ मस्ती भी कर लेती | 

उसके स्टूडियो में अचानक पहुँच जाने पर मैंने हमेशा उसको कुछ चीज़ छिपाते हुए देखा था| ऐसा तो क्या होगा ?मुझे हर बार उसके इस बिहेवियर से अजीब लगता, उससे पूछा भी कई बार लेकिन वह कुछ न कुछ बताता, बहाना बनाकर टाल ही तो जाता लेकिन उसके चेहरे पर शरारती मुस्कान कुछ न कुछ चुपके से चुगली खा जाती| 

“पता है, मैंने बहुत प्यारा सा स्वप्न देखा है---”एक दिन यूँ ही मेरे साथ काम करते करते उसने मुझसे कहा| 

“कहाँ नई बात है ?तुम तो स्वप्न देखते ही रहते हो | स्वप्नों की दुनिया से बाहर निकल कर बात करो| ”

मेरे मन में उन दिनों की यादें ताज़ा हो जातीं जब दादी थीं और सब डाइनिग टेबल पर बैठकर अपने-अपने सपनों को चटकारे लेकर सुनाते | एक मैं ही थी जो सपनों की जगह गडमड सी कुछ देखती, कोई ऐसा सपना नहीं जिसके लिए मेरे मन में शीतल बयार चल रही हो| इतने सालों बाद भी कुछ बदलाव तो हुआ नहीं था| वैसे ही लटकते रहे थे मेरे सपने, अधर में !मुझे उनको एक ढाँचे में ढालना ही होगा ?कैसे ?खुद ही सोचना होगा| फिर वही त्रिदेव मेरे सामने जैसे किसी पानी की ऐसी सतह पर तैरते जिसमें से झाँक-झाँककर, मुँह निकालकर मुझ पर एक स्माइल फेंकते हों और फिर से उसी पानी में भीतर चले जाते हों | एक आचार्य प्रमेश ही थे जिनके चेहरे पर मुझे कभी वह ललक नहीं दिखाई दी| समझ ही नहीं आ रहा था वह मुझे जबकि उनकी बहन हर चौथे दिन या तो अम्मा को फ़ोन करतीं या खुद ही पधार जातीं | 

“मेरा मन होता है, मैं आपके साथ सपने देखूँ ---”उत्पल पागल हँसता और मेरे दिल की धड़कनें सप्तम पर पहुँच जातीं| ये प्रेम के सिवाय और क्या हो सकता था भला?लेकिन ---अगर---मगर में भटकती मेरी साँसें मुझे कहाँ कभी पूरी तस्वीर दिखा पाई थीं?

“अम्मा को शायद अब जाना ही पड़े यू.के---” उसने एक दिन उसके स्टूडियो में कॉफ़ी पीते हुए कहा| 

“तुमसे कहा क्या उन्होंने ?” मैंने कॉफ़ी की एक लंबी सिप ली | 

“हाँ, कुछ बात कर तो रही थीं | अब शायद रतनी जी की बात उनके सामने आ गई है ---”उत्पल ने एक लंबी साँस ली----

“इसलिए शायद----वे पहले उनके लिए कुछ करना चाहती हैं | ”

“क्या उत्पल---इतनी लंबी साँसें क्यों खींच रहे हो ?”मैंने उसकी पीठ पर एक धीरे से धौल जमा दी| 

उसके शरीर में हल्की सी कंपन सी हुई जो मैंने महसूस की

“यार !उत्पल, तुम मेरे साथ इतने असहज से क्यों हो जाते हो ?”मैंने उसे छेड़ते हुए कहा| उसका चेहरा देखकर मैं मुस्कुरा दी| 

“लाल हो जाते हो यार -----”मैंने मुस्कुराकर कहा| 

“नहीं—नहीं, ऐसा कुछ नहीं है लेकिन मैं देखता हूँ कि यहाँ सबकी चिंता ओढ़े रहते हैं सब –अभी जगन कई परेशानी टली नहीं कि रतनी जी कीं परेशानी सामने आ गई ---”

“तुम जानते हो, हमारे संस्थान से जुड़ा हुआ छोटे से छोटा कर्मचारी भी हमारे परिवार का ही एक अंग है—”मुझे अपने संस्थान की इन भावनाओं पर बहुत गर्व था | 

“भई, हम तो वहीं खड़े हैं, जब जहाँ खड़े थे ---”

“अच्छा, तो तुम जाना कहाँ चाहते हो ?”

“मैं ---मैं ----”

“हाँ, तुम—कितना सोचोगे आखिर?कुछ क्लैरिटी ही नहीं है तुम्हारे दिमाग में---“मैं हँसते हुए उठकर खड़ी हो गई| 

“तुम अपने में क्लीयर तो हो जाओ पहले, फिर तुम्हारी भी सहायता होगी---तुम भी तो इस संस्थान के एक स्ट्रॉंग अंग हो---”

मैंने कहा और स्टूडियो से बाहर निकलने के लिए कदम बढ़ाए | 

बाहर निकलकर मैंने थोड़े ही कदम बढ़ाए होंगे कि श्रेष्ठ दिखाई दे गया| 

‘ही भगवान ! अब यह कहाँ से आ टपका —‘मैंने मन में सोचा | 

“थैंक गॉड, आज मिली तो सही----”

“हैलो !मैंने दबे स्वर मे कहा | 

“आज तो मेरे साथ लंच पर चलना ही होगा---अम्मा-पापा ने हाँ कर दी है| ” वैसे मुझे समझ में नहीं आता था कि उसने मेरे अम्मा-पापा को मेरे जैसे ही पुकारना किसकी इजाज़त से शुरू कर दिया था?मैं कुछ नहीं बोली और उससे पूछा--

“अरे !कोई प्लानिंग तो नहीं थीं आज मिलने की फिर----मैंने कहा था न फ़ोन कर देना | ”

“वो तो प्लानिंग के साथ कभी कोई बात हो ही नहीं सकेगी----”अब मिल गई हैं आप मैडम---”वह बड़े आराम से मुस्कुराते हुए मेरे साथ चलने लगा | 

“आज तो चलना है, बस-----” बड़ा कॉन्फिडेंट बनता था वह !हाँ!काम भी तो ऐसे ही महकमे में किया था |