प्रेम गली अति साँकरी - 54 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 54

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आज वह बिलकुल मूड में नहीं था मेरी 'न' सुनने के | जैसे उसने बताया था कि अम्मा-पापा से मुझे बाहर ले जाने की बात करके आया था | अम्मा-पापा तो चाहते ही थे कि मैं किसी की तरफ़ तो बढ़ूँ, किसी में तो रुचि दिखाऊँ| चाहे वह प्रमेश हो, जिनकी बहन न जाने क्यों मुझे इतना चाहने लगी थीं कि जब भी आतीं कोई न कोई मंहगे उपहार लेकर आ जातीं| 

“अम्मा ! क्या है ये ?कोई मतलब है क्या ?आखिर किस रिश्ते से उनके उपहार ले लूँ ?”मैं चिढ़ती | 

“बेटा! मैं मना भी कैसे करूँ ?मेरी समझ में भी कुछ नहीं आता | मना करने से उनका अपमान होगा न?”

उनका अपमान होगा और हमारा ?क्यों नहीं समझ पा रही थीं अम्मा ? समझ भी पा रही थीं तब भी प्रत्युत्तर में उन्हें क्यों समझा नहीं पा रही थीं? इतनी स्पष्टवादी अम्मा न जाने क्यों चुप्पी लगा जातीं?

एक प्रमेश की दीदी थीं जो उनकी माँ ही थीं एक तरह से और एक तरफ़ वह थे, बिलकुल सूखे हुए, निस्पृह! मज़ाल थी जो कभी मैंने उनके चेहरे पर मुस्कान जी के दर्शन किए हों !

अम्मा उम्र के साथ जैसे बदलती सी जा रही थीं, मुझे तो ऐसा ही लगता था| और मैं?मेरी कोई गलती नहीं थी क्या?मुझे परेशानी होती, अम्मा-पापा को देखकर !मैं सोचती उस परेशानी का हल ढूँढने की लेकिन वह डिब्बे में बंद हो जाती, इतना ही नहीं उस पर ढक्कन भी चढ़ जाता| 

एक यह श्रेष्ठ था कई कोशिशें करने के बाद जिसके साथ आज पहली बार मैं अकेली निकली थी | देखते हैं, है क्या यह बंदा ? यह तो पक्की बात है वह उत्पल को देखकर बहुत खुश तो होते नहीं थे | खैर----

“मैं अम्मा से मिलकर आती हूँ ---”मैंने कहा | 

“अरे !भई, बच्ची थोड़े ही हो जो हर बात में ---मैं बताकर आया हूँ न !” श्रेष्ठ को मेरा ना-नुकर करना अच्छा नहीं लग रहा था। स्वाभाविक भी था | वह कितनी बार मुझे अपने साथ ले चलने का प्रोग्राम बनाकर आता और मैं टालमटोल कर देती | 

“यू डिड नॉट हैव युअर लंच, आई नो----लैट अस हैव लंच आऊट----”आज तो उसने मेरी बात बिना सुने ही जैसे अपना हुकुम सुना दिया| मैंने उसकी ओर घूरकर देखा भी था लेकिन उसने कोई परवाह नहीं की | 

नहीं, वह झूठ तो नहीं बोल रहा था कि अम्मा से मिलकर आया था| जहाँ तक मैं उसे समझ पाई थी वह झूठ बोलकर नहीं, हर बात डंके की चोट पर करने वाला बंदा था| खूब सुंदर, खूब स्मार्ट, खूब बोलने वाला---यानि बढ़िया व्यक्तित्व का मालिक ! वह बहुत डिसेंटली ड्रैस-अप होता और सबको अपनी एक ही मुलाकात में प्रभावित कर देता| प्रभावित मैं भी थी ही उससे लेकिन मुझे वह ज़रा ज़्यादा ही खुला हुआ लगता| जिसे कहते हैं न ‘ओवर स्मार्ट!’इसलिए मुझे लगता, उसे समझने में मैं कोई भूल तो नहीं कर रही थी? कमाल थी मैं भी ! हर बंदे में कोई न कोई नुक्स---ये क्या बात हुई ? और कोई कुछ न कहता, उनकी तो आँखों में सवाल भरे रहते जो मुझ तक शब्दों के माध्यम से अब पहुँचने भी बंद हो चुके थे| 

“चलिए---चलते हैं श्रेष्ठ----”मैंने देखा उसका चेहरा खिल उठा | 

उत्पल के स्टूडियो से निकलकर जब मैं आगे बढ़ी और मुझे श्रेष्ठ मिल गया मैंने एक बार पीछे देखा, उत्पल अपने स्टूडियो की खिड़की में आकर खड़ा हो गया था| वह अक्सर ऐसा ही करता था| अगर किसी महत्वपूर्ण काम में व्यस्त रहता तब अलग बात थी वरना वह या तो खिड़की का पर्दा हटा लेता या खिड़की में आकर खड़ा हो जाता या फिर कभी दरवाज़े से बाहर भी निकलकर उस दिशा की ओर ताकत रहता जिस ओर मैं जा रही होती| आज भी बरामदे से आगे जाते हुए जब हम बगीचे की सीढ़ियाँ उतरने लगे, मैंने एक बार पीछे मुड़कर देखा | वह खिड़की में खड़ा था| मुझे देखकर वह मुड़कर अपनी कुर्सी पर ही आ बैठा होगा क्योंकि उसका अचानक दिखना बंद हो गया था| मैं जानती थी, उसके मन की धुकर-पुकर को----लेकिन----

संस्थान में खूब चहल-पहल थी, हमेशा की तरह| बीच-बीच में कई परिचित चेहरे दिखाए दे रहे थे, जो ‘हैलो’ करते और मैं मुस्कुराकर उनका जवाब देती| 

“आपकी मुस्कान कितनी प्यारी है----”वह अचानक ही बोल उठा| हम गाड़ी तक पहुँच चुके थे| श्रेष्ठ ने गाड़ी खोल दी और आगे बढ़कर मेरे बैठने के लिए गेट खोलने लगा| 

“आई विल ----माइसेल्फ़---“ मैंने आगे बढ़कर कहा| 

“ओ ! माई गॉड !सच ए ब्यूटीफुल फ्लॉवरिंग ट्री---!” उसने आगे बढ़कर फूलों की झुकी हुई डाली बिलकुल वैसे ही हिला दी मेरी ओर झुकाकर, जैसे उस दिन उत्पल ने किया था| 

“यू आर ऑलसो बिहेविंग लाइक उत्पल---ही इज़ स्टिल इम्मेच्योर----”मैंने श्रेष्ठ की ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा| मैंने जान-बूझकर ही उसे छेड़ा था| अब उसे मेरी मुस्कान प्यारी नहीं लग रही होगी शायद| मन तो कर रहा था बुक्का फाड़कर हँस पड़ूँ लेकिन इतनी असभ्यता----!अचानक उसने डाली हिलानी बंद कर दी और चुपचाप ड्राइविंग सीट की ओर चला गया | वह गाड़ी में बैठकर बैल्ट बांधने लगा | मैं भी तब तक सैट हो चुकी थी| 

“शैल वी----?” उसने मुझसे चलने के लिए पूछा| 

मैंने हाँ में सिर हिला दिया, श्रेष्ठ ने गाड़ी आगे बढाई ही थी कि सामने से सड़क पर शीला दीदी और रतनी आती दिखाई दे गईं| 

“भई, प्लीज़ अब मत रुकिएगा----” श्रेष्ठ ने मेरी ओर देखकर जैसे खुशामद सी की | 

“हाँ, लेकिन ज़रा सा, बस मिनट भर के लिए रोक लीजिए गाड़ी----प्लीज़ ”

गाड़ी में बैठे-बैठे ही हमारी दुआ सलाम हुई----

“सॉरी, शीला दीदी –मैं ज़रा----“

“अरे ! जाओ न, सर और मैडम ने रतनी को बुलाया था, हम तो वहीं जा रहे थे | आप होकर आइए, मिलते हैं हम ----”बाय करके वो दोनों आगे निकल गए और हम दोनों दूसरी सड़क की ओर मुड़ गए|