प्रेम गली अति साँकरी - 55 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 55

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आज तो श्रेष्ठ के साथ आना ही पड़ा था | अम्मा की लिस्ट में वह पहले नं पर था और उसके बाद प्रमेश! डॉ.पाठक से भी अम्मा की बात होती रहतीं और वे उनसे यही कहतीं कि डिसीज़न तो अमी को ही लेना है | पिछले दिनों इतना कुछ घटित हो गया था कि कोई भी चैन से नहीं रह पाया था | आजकल भी अम्मा-पापा का ध्यान संस्थान और मेरे अलावा शीला दीदी के परिवार के सदस्यों पर भी केंद्रित था | 

जीवन की धूप में मैं भी जल रही थी और छाँह का नामोनिशान दिखाई नहीं दे रहा था | एक बेचैनी थी जो पल-पल मुझसे जूझती रहती | अब तो पुराने दोस्तों के साथ फिर से मिलना-जुलना शुरू हो गया था, फोन्स पर भी बातें होतीं और उन्हें मेरे स्वर और सुर दोनों से ही शिकायत होती | पुराने दोस्त हमारी नस-नस से वाकिफ़ होते हैं, वे हमारे साथ हँसते-रोते हैं और झगड़े का ज़ायका भी देते हैं जैसे कहते हैं न नीबू का पुराना अचार ज़ायका बदल तो देता ही है, ज़ायका बढ़ाता भी है और पेट की समस्या से भी लड़ लेता है | वास्तव में इस परिस्थिति में मुझे अपने कुछ पुराने दोस्त नीबू का पुराना अचार ही साबित हो रहे थे | 

शीला दीदी और रतनी जैसे हम सबकी, संस्थान की साँसे थीं हीं और दिव्य सबकी धड़कन ! कई बार क्या, अक्सर सोचती कैसा होता है जीवन का काफ़िला ? किन अदृश्य डोरियों से बँधा हुआ जो छूटने भी नहीं देता और दिखाई भी नहीं देता | हाँ, महसूस होता है और उस महसूसने की कोई लिपि नहीं है | उसकी लीपि है दिल की धड़कन ! अम्मा-पापा की आँखों की चमक ! अहसास की कसक ! और भी ऐसे ही संवेदनाओं से जीवन को व्याख्यायित करता मेरा दिल ! उन अहसासों को समेटते, बिखेरते उम्र के उस दरीचे को पारकर मैं बढ़ती ही तो जा रही थी आगे और आगे जहाँ अचानक एक शून्य पर आकर ठिठक जाती | 

“क्या यार! हम घूमने जा रहे हैं, आप तो ऐसी चुप बैठी हैं जैसे ज़बरदस्ती कोई आपको कोई घसीटकर ले जा रहा हो | क्या रावण सीता का अपहरण करके ले जा रहा है ?”उसने मेरे चेहरे को फिर क्षण भर के लिए देखा और हा-हा-हा--करके हँसने लगा | 

“जैसे हँस रहे हैं, ये तो----”मैंने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया, कहीं ज़िंदगी में इसी का आना तय हुआ तो? पहली मीटिंग में ही गड़बड़ हो जाएगी | वैसे मैं कहना चाहती थी कि जैसे हँस रहे हो, उससे तो यही लग रहा है | लेकिन चुप रही | मेरे दोस्तों ने मुझे यह भी तो बताया था कि अगर किसी को जज करना हो तो खुद चुप रहो, उसे बोलने दो | 

“वी आर गोइंग फ़ॉर फ़न----नहीं ?” उसने कहा और मस्ती में आकर कोई गीत गुनगुनाने लगा | मैं तो न जाने कहाँ खोई थी ?क्या सोच रही थी? मन में कुछ उत्साह सा ही महसूस नहीं कर पा रही थी जबकि श्रेष्ठ अपने नाम के अनुसार कई बातों में शायद श्रेष्ठ था | 

अच्छा हुआ उसने यह नहीं कहा, वी आर गोइंग फ़ॉर ए डेट! शायद मैं उस समय कुछ कह बैठती | पहले एक दूसरे से परिचय तो ठीक से हो, तब डेट की बात करो न ! लेकिन----साथ जाए बिना, मिले बिना, बातें करे बिना कैसे परिचय हो सकता था? मैंने अपने सिर को हिलाकर झटका दिया | मैं भी तो कम कन्फ्यूज बंदी नहीं थी | पल में इधर, पल में उधर---

मैं पहली दृष्टि में ही उससे प्रभावित तो हो ही चुकी थी लेकिन मेरा मन क्यों नहीं खिलता था उसको देखकर जबकि मेरे सामने वह जब भी आया था, खुली किताब की तरह ही आया था और अब शायद--नहीं शायद नहीं, ज़रूर मुझसे वह कुछ बड़ी पर्सनल और करीबी बातें करना चाहता था जिससे हमें अपना रिश्ता आगे बढ़ाने की कोई राह तो दिखाई दे | 

“आर यू नॉट कंफरटेबल?” मुझे चुप देखकर उसने फिर गाड़ी चलाते-चलाते मेरी ओर एक तिरछी दृष्टि डाली | 

“नहीं, ऐसा कुछ नहीं है---आपको ऐसा क्यों लग रहा है?” धीरे से मैंने जैसे किसी सपने से जागकर श्रेष्ठ की बात का उत्तर देने की कोशिश की | 

वह काफ़ी खुलकर बोलने वाला बंदा था | वह जब भी मुझसे मिलता था उसकी बॉडी लैंग्वेज मुझसे बहुत कुछ अनजाने में ही कह जाती थी | 

“अगर हमें इस रिश्ते को आगे बढ़ाना है तो आपको खुलकर मुझसे बात करनी होगी---इतने संकोच से कैसे काम चलेगा ?”उसने बात तो पते की कही थी | 

बात तो उसकी ठीक थी लेकिन मैं ही कुछ बोल नहीं पा रही थी और बोलती भी क्या और कैसे अभी हमारी ठीक तरह से दोस्ती तक तो हुई नहीं थी | मौका ही नहीं मिला था या यूँ कहा जा जाए कि मैं मौके के मूड में ही नहीं थी | फिर वही बात----!!

दोस्ती की बात करें तो वह तो मेरी केवल उत्पल के साथ थी लेकिन उसे सब बातें नहीं बता पाती थी | चाहती थी कि उससे सब कुछ शेयर कर लूँ लेकिन ज़रा सी बात में उसका मुरझाया चेहरा देखकर मैं चुप हो जाती | एक तरह से शीला दीदी से या रतनी से भी अच्छी दोस्ती ही थी जिनके साथ मैं दिल खोलकर बात कर लेती थी और वे भी मुझसे अपना रोना, गाना कर लेती थीं | जबकि माना यह जाता है कि एक से मानसिक व आर्थिक स्तर के लोगों में इंसान अपने दिल की बात कह पाता है | हमारे पूरे परिवार को सड़क पार के मुहल्ले के इस परिवार से कोई भी बात करने, कहने में कोई संकोच नहीं हुआ था, दादी से लेकर आज मुझ तक ! भाई भी उस परिवार को अपने परिवार का ही अंग मानता और मजे की बात थी कि एमिली भी! 

“आपका परिवार शीला के परिवार को इतना अपना कैसे मानता है जबकि उनकी वजह से आप लोगों को इतनी परेशानी उठानी पड़ी है?” श्रेष्ठ ने गाड़ी चलाते हुए अचानक मुझसे पूछा | 

मैं चुप थी, मुझे अचानक अपने एक यू.पी के रिश्तेदार याद आ गए जो अम्मा-पापा की शादी से खुश नहीं थे और जो हमेशा अपने आपको बड़ा कल्चर्ड और ऊँचा मानते थे और अक्सर दादी को सुनाया करते थे;

“हम तो किसी ऐडे-बैडे से संबंध रखना पसंद ही नहीं करते | अरे! आखिर आदमी अपनी क्लास तो देखे | ये क्या हुआ कि किसी को भी अपने टब्बर का हिस्सा बना लिया---“दादी को उन्हें इतना सुनाया था कि दादी ने धीरे-धीरे उनसे परिवार के संबंध संकुचित ही कर लिए थे | दादी के लिए जो परिवार में काम करता, वह उसका अंग था | उसकी, उसके परिवार की परेशानी हमारे परिवार की परेशानी थी | 

मैं श्रेष्ठ की बात सुनकर दादी के जमाने में पहुँच गई थी | मैं पहली बार इस प्रकार से श्रेष्ठ के साथ बाहर आई थी और कोई कड़वी बात न तो सुनना चाहती थी और न ही कोई ऐसा उत्तर देना जो हमें आगे बढ़ने से पहले ही रोक दे | श्रेष्ठ की यह बात सुनकर तो मैं पहले ही परेशान हो गई थी यानि हमारी और उनकी सोच में तो जमीन आसमान का अंतर था | 

शायद श्रेष्ठ ने मेरा मूड समझ लिया था | उसने बात बदल दी और इधर-उधर की, अपने पुराने प्रोफेशन के बारे में बातें करता रहा | भविष्य में वह सिंगापुर में सैटल होना चाहता था, उसने अपने मन की बात बताई | उसकी बातों से मुझे उसके बड़ेपन की गंध आ रही थी | वैसे भी मैं जिस विषय से परिचित नहीं थी, उसके बारे में जानती नहीं थी उस बारे में कुछ कहना मेरे लिए कठिन तो था ही। मैं उसकी अधिकारिणी भी तो नहीं थी | 

“मुझे तो यह लगता है कि कुछ तो डिस्टेंस होना चाहिए न, आखिर आपके एम्पलॉइज़ होते हैं वे लोग ! सो—”

“सबका अपना भाग्य होता है श्रेष्ठ, कुछ अधिक पैसे, शिक्षा या नाम हो जाने से हम इंसान से कुछ और थोड़े ही बन जाएंगे?” हमारे यहाँ वर्षों से जो लोग हैं, वे हमारे फैमिली मैम्बर्स  ही हैं और कभी हमें अलग लगे ही नहीं | सब अपनी-अपनी सीमाएं अपने आप ही समझते हैं | 

वह चुप हो गया और कनखियों से मेरा चेहरा देखता रहा | आगे बढ़ने से पहले यह बहुत जरूरी था कि एक-दूसरे का मूल स्वभाव जान लिया जाए | अक्सर देखा गया है कि छोटी-छोटी बातों से ही परिवार में घुटन और फिर टूटन शुरू होती है | अगर इसे पता चला कि दादी ने महाराज के लड़के रमेश को पढ़ाया-लिखाया, उसे टीचर बनवाया और बाद में उसकी इच्छानुसार पापा ने उसको दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश भी दिलवाया था जिसका परिणाम यह हुआ कि आज वह डिग्री कॉलेज में प्रोफ़ेसर है | आज भी महाराज हमारे यहाँ उसी शिद्दत से काम कर रहे हैं | कभी ऐसा हुआ ही नहीं है कि किसी प्रकार की बदतमीजी या किसी ने मुँह उठाकर कोई बात की हो या कुछ ऐसा हुआ हो जिससे किसी को भी शर्मिंदगी महसूस हुई हो | इंसान पर इंसान का विश्वास बहुत बड़ी बात है | 

हम न जाने किस सड़क पर आगे बढ़ते ही जा रहे थे, कितना समय हो गया था, पेट में खलबली होने लगी थी | मैंने देखा हम कैनॉट प्लेस की ओर निकल आए थे | बहुत दिन हो गए थे उधर की ओर आए हुए | पापा- अम्मा और मौसी व मौसा जी का मिलन यहीं इस रेस्टोरेंट में ही हुआ था जो इतने सालों से यहीं था जो अब  अपने नए परिवेश व नई सजधज के साथ खड़ा था | 

“चलो किसी बढ़िया होटल में चलते हैं, यहाँ पास ही में वो फ़ाइव स्टार होटल है –क्या नाम ---”उसने बड़े उत्साह से कहा | 

“नहीं, उस सामने वाले रेस्टोरेंट में---“मैंने इशारा किया | 

“ओह ! इसमें ? यह तो बहुत साधारण सा----”

“क्या सभी साधारण चीज़ों से आपको एलर्जी है ?” मैंने कुछ तल्खी से पूछा | 

“अरे! ऐसा कुछ नहीं है—”शायद मेरे मन की बात समझ रहा था वह इसलिए बार-बार चुप हो जाता | देखा जाए तो इस तरह यह हमारी पहली मुलाकात थी | 

“मेरा मन था किसी अच्छे होटल में ----”

“टाइम तो देखिए, मूषक कबड्डी खेल रहे हैं उदर में ----”मैंने जल्दी से कहा और उसको गाड़ी एक ओर लगाने के लिए इशारा किया और खुद उतर गई, वह मेरा मुँह देखता रह गया | 

वहाँ गाड़ी रखने की कोई प्रॉपर जगह नहीं दिखाई दे रही थी | पास खड़ा हुआ गार्ड गाइड करने लगा और मैं चुपचाप रेस्टोरेंट की ओर बढ़ गई, गाड़ी पार्क करके आ जाएंगे श्रेष्ठ !