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dilip kumar लिखित उपन्यास सड़कछाप | हिंदी बेस्ट उपन्यास पढ़ें और पीडीएफ डाऊनलोड करें

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सड़कछाप  द्वारा  dilip kumar in Hindi उपन्यास

सड़कछाप - उपन्यास

dilip kumar Verified icon द्वारा हिंदी उपन्यास प्रकरण

(311)
  • 14.1k

  • 5.5k

  • 238

सर्दियों की सुबह, शीतलहर से समूचा उत्तर भारत कांप रहा था। चरिंद-परिन्द सब हल्कान थे कुदरत के इस कहर से। कई दिनों से सूर्य देवता ने दर्शन नहीं दिये थे । गांव कोहरे और धुँध की चादर में लिपटा ...और पढ़ेथा। बहुत दूर तक भी नजर गड़ाने पर पूरा सिवान मानों उतनी दूर तक ही सीमित था जितनी दूर तक आंखे कोहरे हो भेद सकती थीं। लल्लन शुक्ला की की मृत्यु के समाचार छन-छन के आ रहे थे। हाज़िर गवाह लोगों ने उनको अपने सामने ही दम तोड़ते देखा था, लेकिन फिर भी उनको हस्पताल ले गये थे लोग, थाना -पुलिस की भी कवायद होनी थी। रात हस्पताल में ही गुजरी और फिर वहां से पोस्टमार्टम के लिये रायबरेली ले जाया गया जो कि गांव के पास के हस्पताल से सात किलोमीटर दूर था। लाश तो थी, डॉक्टर भी था मगर मेहतर ने इतनी शराब पी ली थी कि वो बेसुध पड़ा था, दिन में भी इतनी धुंध और बदली छाई थी कि पचास फुट की आगे की चीजें दिखायी नहीं पड़ती थीं। मोर्चरी में बिजली नहीं थी, जनरेटर खराब पड़ा था, डॉक्टर ने बताया कि बिजली रात की पाली में आती है, रात के ग्यारह बजे से सुबह सात बजे तक । कम पढ़ें

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सड़कछाप - 1

(47)
  • 2.5k

  • 1.1k

सर्दियों की सुबह, शीतलहर से समूचा उत्तर भारत कांप रहा था। चरिंद-परिन्द सब हल्कान थे कुदरत के इस कहर से। कई दिनों से सूर्य देवता ने दर्शन नहीं दिये थे । गांव कोहरे और धुँध की चादर में लिपटा ...और पढ़ेथा। बहुत दूर तक भी नजर गड़ाने पर पूरा सिवान मानों उतनी दूर तक ही सीमित था जितनी दूर तक आंखे कोहरे हो भेद सकती थीं। लल्लन शुक्ला की की मृत्यु के समाचार छन-छन के आ रहे थे। हाज़िर गवाह लोगों ने उनको अपने सामने ही दम तोड़ते देखा था, लेकिन फिर भी उनको हस्पताल ले गये थे लोग, थाना -पुलिस की भी कवायद होनी थी। रात हस्पताल में ही गुजरी और फिर वहां से पोस्टमार्टम के लिये रायबरेली ले जाया गया जो कि गांव के पास के हस्पताल से सात किलोमीटर दूर था। लाश तो थी, डॉक्टर भी था मगर मेहतर ने इतनी शराब पी ली थी कि वो बेसुध पड़ा था, दिन में भी इतनी धुंध और बदली छाई थी कि पचास फुट की आगे की चीजें दिखायी नहीं पड़ती थीं। मोर्चरी में बिजली नहीं थी, जनरेटर खराब पड़ा था, डॉक्टर ने बताया कि बिजली रात की पाली में आती है, रात के ग्यारह बजे से सुबह सात बजे तक । कम पढ़ें

सड़कछाप - 2

(24)
  • 779

  • 415

तेरहवीं होते ही सारे रिश्तेदार विदा हो गये। घर अपनी गति पर लौट आया । शुरू में लोगों को बड़ा उत्साह था बदला लेने, मुकदमा करने का लेकिन भुर्रे क्या कोई मामूली बदमाश तो था नहीं कि पूरे शुकुल ...और पढ़ेदस लोग लाठी-डंडा लेकर जायें और उसको मारपीट आयें। अमरेश भी तेरहवीं के बाद अपने स्कूल जाने की जिद करने लगा जो एक कोस की दूरी पर था । सारे बच्चे इक्के से स्कूल जाते थे। गांव के ही बरसाती इक्केमान पन्द्रह-सोलह बच्चों को प्राइवेट स्कूल ले जाता फिर दोपहर में सबको लौटा लाता। गांव का बूढ़ा इक्केमान सभी बच्चों का बरसाती बाबा था, जो बहुत ज्यादा जिम्मेदारी से इन बच्चों को ले जाता और लाता था। गांव के लोगों का भी बरसाती से मन पार था। लेकिन अब समीकरण बदल चुका था। भुर्रे डाकू था, उसकी सोच और गुस्से का क्या भरोसा । क्या पता अभी वो और बदला लेना चाहता हो और फिर अमरेश पर भी हमला करे। कम पढ़ें

सड़कछाप - 3

(20)
  • 553

  • 295

अमरेश की पढ़ाई ना के बराबर चल रही थी। दुख और संवेदना का समय बीत चुका था। लल्लन की मौत बेशक एक स्थायी दुख था लेकिन उसकी मृत्यु से उपजी सहानुभूति अब समाप्त हो चुकी थी। जिंदगी की कड़वी ...और पढ़ेसे अब सामना था। जिंदगी के अभाव रोज के रोज डसते थे। पुलिस की रिपोर्ट भी मख़ौल उड़ाने में काफी कारगर थी। तो गालिबन अब मसला ये था कि लल्लन शुक्ला ने अपनी मौत को खुद दावत दी थी। उन्होंने लालच में मुखबिरी की और फिर हथियार लेकर भुर्रे से निपटने चले थे सो उन्हें उनका अंजाम मिला। ये भी खबर अब आम थी कि लल्लन शुक्ला पहले से पुलिस के मुखबिर थे। गांव उन्हें नचनिया पहले से कहता था ऊपर से मुखबिरी की बात ने मृत्यु के बाद भी उनके दोषों का बढ़ा दिया था। और जब दोषी खुद भगवान को प्यारा हो जाये तो पृथ्वी पर लोग उनके अपनों से इस बात का बदला ले रहा था। अमरेश और सरोजा के हिस्से में अब कोई सहानभूति ना थी। कम पढ़ें

सड़कछाप - 4

(21)
  • 483

  • 313

अमरेश और उसकी माँ सरोजा अब लोकपाल तिवारी के घर आकर रहने लगे थे। सरोजा ने अपने हिस्से की खेती बटाई दे दी थी। सरोजा हर महीने-दो महीने पर अपने ससुराल चली जाती और वहां की हाल-खबर ले आती। ...और पढ़ेफिर से अपने नाना के गांव इमलिया में प्राइवेट स्कूल में पढ़ने लगा। कुछ ही महीनों बाद उसकी दोनों मौसियों ने स्थायी डेरा जमा लिया अपने पति के साथ। सरोजा की दोनों बहनें प्रेमा और किरन पिता के घर डट गयीं। प्रेमा के पति का भी प्रकाश था और किरन के पति का नाम राजकुमार था। दोनों ही कहीं ना कहीं रोजी -रोटी के लिये हाथ-पांव मार रहे थे। लेकिन अमरेश के स्थायी रूप से इमिलिया रहने पर और लोकपाल तिवारी की अमरेश के प्रति बढ़ती सहानभूति और आसक्ति से दोनों दामाद बहुत आशंकित थे। कम पढ़ें

सड़कछाप - 5

(14)
  • 548

  • 226

रामजस तिवारी आकर बैठे वो पूरे शुकुल से लौटे थे। गांव नहीं पहुंचे थे कि उन्हें ऐसी खबर मिल गयी कि उनके पैरों के तले की जमीन खिसक गयी। इस खबर की पुष्टि उनके स्तर से हो पाना आसान ...और पढ़ेथा। जब रिश्तेदार ही नहीं रह गया तो रिश्ते की कैसी मर्यादा?इसलिये वो इमिलिया लौट आये। सरोजा पानी लेकर आयी उनका उतरा हुआ चेहरा देख कर उसे कोई हैरानी नहीं हुई क्योंकि चिंता और लोकपाल तिवारी का अब चोली-दामन का साथ हो चुका था। कम पढ़ें

सड़कछाप - 6

(18)
  • 678

  • 386

एक रोज रामजस आये तो उनके हाथ मे बाज़ार की कई किस्म की साग-सब्ज़ियां थीं। उन्होंने सरोजा को पुकारा वो आयी तो रामजस ने कहा - ‘’ये सब ले जा खाना बना डाल, मीठा और खीर का भी इन्तेजाम ...और पढ़ेले, कुछ मेहमान आएंगे आज रात । ” सरोजा ने कहा “क्या जिज्जी, जीजा आएंगे” उसका मतलब उसके ननद-ननदोई से था कम पढ़ें

सड़कछाप - 7

(15)
  • 435

  • 203

काफी देर बाद सरोजा के होशोहवास काबू में आये। उसे लगता था कि उसका सारा शरीर किसी ने आरी से टुकड़े-टुकड़े कर दिया हो। पूरे बदन के पोर-पोर से बेपनाह दर्द उठ रहा था। पूरा मुंह नोचा-सूजा हुआ था। ...और पढ़ेपर नाखूनों से नोचे और दांत से काटे जाने की अनगिनत निशानियां मौजूद थीं। जननांगों से काफी खून गिरा था और रिस भी रहा था। तन के कपड़े फटे थे। वो बमुश्किल उठी और बाहर आयी। बाहर अभी भी अंधेरा और कोहरा था । रामजस वैसे ही बरामदे की फर्श पर पड़े थे। उसके घर का मुख्य दरवाजा बंद था। उसे घर के अंदर उसी रास्ते से जाना था जिस रास्ते से वो वापस आयी थी। वो बमुश्किल चलते हुऐ उस जगह पहुंची जहां उससे टार्च और छूरी छीनी गयी थी। टॉर्च जमीन पर जलती हुई ही पड़ी मिली। कम पढ़ें

सड़कछाप - 8

(20)
  • 561

  • 265

विधाता किसी की सारी प्रार्थनाएं नहीं सुनता। ईश्वर ने भी सरोजा की आधी बात ही सुनी थी। लड़का निष्कंटक हुआ तो रामजस बच गए। अगले दिन सारे रिश्तेदारों की आमद हुई। सुरसता के घर से सारे लोग वापस आ ...और पढ़ेथे । साथ में सुरसता और उसके पति जगराम भी आये थे। लोकपाल तिवारी भी आये। रामजस को जो चोट आयी थी वो गहरी तो थी मगर गंभीर नहीं। थाना-पुलिस के डर से हनुमन्त उसे अस्पताल नहीं ले गया था। पास के बाज़ार के एक झोला छाप डॉक्टर के घर दिन भर भर्ती रखा। वहीं टांके लगवाये और दो-तीन बोतल ग्लूकोज चढ़ाकर शाम को घर भेज दिया। वो माथे पर पट्टी बांधे मगर चिन्तामुक्त थे। उनके थोड़े बहुत पैसे ही तो गये थे बाकी तो डाकू सब अपना माल ही ले गये थे। कम पढ़ें

सड़कछाप - 9

(11)
  • 572

  • 194

अंधेरा हो गया तो तामशबीन छंट गये और तमाशाई थक गये थे। रामजस और अमरेश एक दूसरे को पकड़े बैठे रहे। जब हाथ को हाथ सूझना बंद हो गया तब मैना ने अपने घर से एक लालटेन जलाकर भेज ...और पढ़ेबरामदे में हनुमन्त के बड़े बेटे अखिलेश्वर ने लालटेन लाकर टांग दिया। अखिलेश्वर को लोग अखिल के नाम से बुलाते थे वो अमरेश से सिर्फ दो महीने छोटा था और अपने छोटे भाई के साथ प्राइवेट शिशु मंदिर में पढ़ता था अपने छोटे भाई महेश्वर के साथ जिसे सब महेश बुलाते थे। सर्दी की रात बहुत बहुत जल्दी भयावाह लगने लगती है। कम पढ़ें

सड़कछाप - 10

(11)
  • 557

  • 195

लड़ते-झगड़ते चाचा-भतीजा घर लौटे। उस रात खाना भी नहीं बना, रामजस चिलम फूंककर और अमरेश ने दालमोठ खाकर काटी। वो सुबह उठा तो दरवाजे पर आकर उसने देखा दोनों गायों का स्थान खाली था। उसे अपने नाना की बात ...और पढ़ेआयी कि रामजस सब बेच डालेंगे और अंत में भूखा मारेंगे उसको । उसकी गायें भी गयीं और वो कल भूखा भी सोया। नाना तो बात ठीक कही थी मगर आदमी ठीक नहीं थे, झूठे थे इसीलिए तो दुबारा उसकी हाल-खबर नहीं ली। कम पढ़ें

सड़कछाप - 11

(13)
  • 519

  • 213

आसफ अली रोड और नाका यही बुदबुदाता रहा वो रास्ते भर। उसकी आदत थी कि एक वक्त में एक वजह को पकड़कर वो जीने-मरने को उतारू रहता था। दो रुपये पचहत्तर पैसे के टिकट को उसने जेब के बजाय ...और पढ़ेमें फंसा रखा था। बार-बार वो कंडक्टर से पूछता “आसफ अली का नाका आ गया, आसफ अली का नाका आ गया”। कंडक्टर उसको समझाता कि जब आयेगा तब मैं खुद बता दूंगा। फिर भी अमरेश बार -बार पूछता । वो आशंकित था कि कहीं वो नाका छूट गया तो आदमियों के इस महासमुद्र में वो अपने पहचान वालों को कहाँ ढूंढेगा। जरूरी नहीं कि उसे हर बार सरदारजी जैसे कोई देवता आदमी मिल जायें। कम पढ़ें

सड़कछाप - 12

(12)
  • 515

  • 159

-डेढ़ महीने तक खाने -पीने के लिये अमरेश गुरूपाल पर आश्रित रहा, उसके बाद उसके फूफा जय नारायण दिल्ली लौट आये गांव से। जय नारायण जब दिल्ली आये तो उन्हें नानमून की कारस्तानियों की इत्तला मिली। ये उनके लिये ...और पढ़ेअचंभे की बात नहीं थी क्योंकि गाँव में उनकी और नानमून को लेकर मुकदमेबाजी चल रही थी। कम पढ़ें

सड़कछाप - 13

(13)
  • 428

  • 207

खतो-किताबत ने दिल्ली की भयावहता अमरेश के लिये कुछ कम कर दी थी। चचेरा ही सही कहने को उसका अपना परिवार तो था, फ़िर परिवार तो किसी का बिल्कुल ही ठीक नहीं होता सो उसका भी नहीं था। ...और पढ़ेगाँव से जो चिट्ठियां आतीं तो वो उन्हे संभालकर रखता। भले ही उसके माँ-बाप नहीं थे मगर अब वो खुद को अनाथ नहीं महसूस करता था। कम पढ़ें

सड़कछाप - 14

(14)
  • 486

  • 230

इस बार वो गाड़ी पर बैठा तो चेहरे पर चिंता का कोई लक्षण नहीं था अलबत्ता जेब में पैसे होने का एक महानगरीय आत्मविश्वास से वो लबरेज था। पैंट, शर्ट, चश्मा, रुमाल, हाथ में पॉकेट रेडियो, खिली रंगत उसके ...और पढ़ेपर आत्मविश्वास ला रही थी। रॉयबरेली स्टेशन पर जब वो उतरा तो उसने दाढ़ी बनवाई, मसाज कराया हालांकि उसके चेहरे पर कुछ खास दाढ़ी नहीं थी। उसने मिठाई खरीदी और फिर रिक्सा बुक कराके गांव पहुंचा। कम पढ़ें

सड़कछाप - 15 New

(11)
  • 1.3k

  • 144

अमरेश ने नींव की खुदाई शुरू कराके अपने नाना की शरण ली। उनसे पांच हजार की मदद मांगी और ये भी कहा कि ये मदद नहीं बल्कि उधार होगा और हालात माफिक होते ही वो इस रकम को लौटा ...और पढ़ेउसकी मौसियों, मौसों के प्रखर विरोध के बावजूद लोकपाल तिवारी ने साहस करते हुए सबके सामने उसे दो हजार और अकेले में पांच सौ रुपये देते हुए कहा”इसे लौटाने की जरूरत नहीं है, जाओ अपना काम बनाओ, विजयी भव बेटा”। ज़िन्दगी पल-पल रंग बदल रही थी कल तक जिस नाना को लेकर उसके मन में तमाम कड़वाहट थी अब वही उसको एक बेबस बुजुर्ग नजर आने लगे। सत्यनारायण की पूजा करके उसने नींव पर ईंट जोड़कर घर के काम का श्रीगणेश कर दिया। कम पढ़ें

सड़कछाप - 16

(10)
  • 590

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अमर बहुत व्यथित था कि कुत्ता उसका भाई औऱ कुत्ते का मल साफ करना उसका रोजगार। कल का सपना बहुत सुहा सुहाना था, सर, लेखक, लड़की जैसी नियामतें उसकी जिंदगी में दस्तक दे रही थीं मगर आज की वास्तविक ...और पढ़ेबहुत बदरंग और बदबूदार। वो उच्च ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ और आज उसे रोजगार में क्या करना पड़ा?अमर सर से लेकर अमर नौकर तक का गोल घेरे का सफर ज़िन्दगी ने महज कुछ ही घंटों में तय कर लिया था। वो हालात पर बड़ी सावधानी से विचार करने लगा। पिछली बार की गल्तियां उसे हर्गिज़ नहीं दोहरानी थी जैसे कि अपनी दिल्ली की हाड़ तोड़ कमाई को उसने अपने गांव के मकान में लगाया था मकान मालिक और दूल्हा बनने के लिये। लेकिन ना तो वो गांव में मालिक बन सका, ना दूल्हा और अपनी जमा पूंजी भी गंवा बैठा था और जान के लाले पड़े सो अलग से। कम पढ़ें

सड़कछाप - 17

(11)
  • 515

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बतरा को तब अमर की याद आयी जो तुनककर चला गया था कुत्ते का मल फेंकने की बात पर औऱ अपनी पन्द्रह दिनों की तनख्वाह भी नहीं ले गया था। बतरा को अमर जैसे ही खुद्दार और वफादार व्यक्ति ...और पढ़ेज़रूरत थी भले ही वो ज्यादा पढ़ा-लिखा और होशियार ना हो। कम पढ़ें

सड़कछाप - 18

(7)
  • 687

  • 231

सुबह अमर की आंख बहुत देर से खुली। जागते ही उसने शीशे की खिड़की से बाहर देखा तो अभी भी बहुत कोहरा था। उसने घड़ी में वक्त देखा तो साढ़े नौ बज रहे थे। कमरे में कोई नहीं था। ...और पढ़ेका हीटर बुझा हुआ था मगर लाइट जली हुई थी। उसने इधर -उधर देखा, टोह ली। ना तो कोई ऊपर के किचेन में था और ना ही बाथरूम में। रात की पूरी घटना उसे याद हो आयी। उसका मन बड़ा अनमनयस्क हो रहा था। शरीर ने बेचैनी का सिग्नल दिया तो उसे याद आया कि उसे पेशाब लगी है और इसी लिये उसकी आँख खुली है शायद। कम पढ़ें

सड़कछाप - 20

(11)
  • 841

  • 210

अमर कुछ घण्टे वहॉ बिताकर फिर अपने घर लौट आया। लेकिन अपना सब कुछ वहीं छोड़ आया था वो। दिलेराम ने उसे देखकर चैन की सांस ली। अमर को किसी दम चैन ना था। रेवती की बातें उसका कलेजा ...और पढ़ेकिये जा रही थीं। आज उसे अपनी माँ की भी याद आ रही थी, मोह के कारण नहीं, अपने न्याय-अन्याय की तुला पर वो माँ-बेटे के रिश्ते को तौलने लगा। अभी तक वो ये मानता रहा था कि उसकी माँ ने उसके साथ अन्याय किया लेकिन आज वो खुद को न्याय के कटघरे में खड़ा करके जिरह-बहस कर रहा था। ऐसा क्या था जिसकी वजह से उसकी माँ को ये कदम उठाना पड़ा। बड़ी देर तक माथापच्ची करने के बाद भी उसे उसकी मां का पक्ष समझ में नही आया। उसने निश्चय किया कि इन झंझावतों से निकलने के बाद वो अपनी माँ से मिलेगा। कम पढ़ें

सड़कछाप - 19

(8)
  • 603

  • 146

अमर ने तन -पेट काट कर दिन रात जी तोड़ मेहनत करके और तमाम जोड़-तोड़ और उधारी के बदौलत आखिर प्लाट ले ही लिया। दुजाना के उसने कुछ पैसे रोक लिए क्योंकि उसे घर भी तो बनवाना था। दुजाना ...और पढ़ेइस बात से कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि जिस तरह का चलता-पुर्जा आदमी अमर बन चुका था, वैसे में उसे अमर जैसे लोगों से सम्बंध बनाये रखना काफी मुफीद हो सकता था। छोटे से प्लाट का बैनामा ना होने के बाद भी अमर ने उस पर ईंट, बालू गिरवा दिया । लेकिन अमर ये जानता था कि इतने बिल्डिंग मटेरियल से उसे छत नसीब नहीं होगी। उसे और पैसे जुटाने होंगे, कहाँ से लाये वो पैसे, दिल्ली में अधिकतम उधार वो ले चुका था। लेकिन मिस्री, मजदूर की मजदूरी तो उधार नहीं रह सकती। क्या करे वो? कम पढ़ें

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