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सड़कछाप - 4

सड़कछाप

(૪)

अमरेश और उसकी माँ सरोजा अब लोकपाल तिवारी के घर आकर रहने लगे थे। सरोजा ने अपने हिस्से की खेती बटाई दे दी थी। सरोजा हर महीने-दो महीने पर अपने ससुराल चली जाती और वहां की हाल-खबर ले आती। अमरेश फिर से अपने नाना के गांव इमलिया में प्राइवेट स्कूल में पढ़ने लगा। कुछ ही महीनों बाद उसकी दोनों मौसियों ने स्थायी डेरा जमा लिया अपने पति के साथ। सरोजा की दोनों बहनें प्रेमा और किरन पिता के घर डट गयीं। प्रेमा के पति का भी प्रकाश था और किरन के पति का नाम राजकुमार था। दोनों ही कहीं ना कहीं रोजी -रोटी के लिये हाथ-पांव मार रहे थे। लेकिन अमरेश के स्थायी रूप से इमिलिया रहने पर और लोकपाल तिवारी की अमरेश के प्रति बढ़ती सहानभूति और आसक्ति से दोनों दामाद बहुत आशंकित थे। उन्हें डर था कि लोकपाल की पुत्र प्राप्ति की जो इच्छा उनके चाहने पर पूरी नहीं हुई वो अब शायद नाती के रूप में अब पूरा कर लें और अमरेश को ही अपना वारिस मान लें, फिर तो उनके हिसाब से अनर्थ। क्योंकि जितना वो बाहर कहीं कमा नहीं सकते थे उससे ज्यादा तो उनका माल-असबाब खिसक जाना था।

वो इस खतरे को लेकर सजग थे और अनुपस्थिति होकर कुछ गंवाना नहीं चाहते थे। सो उन्होंने ससुराल को ही अपना घर बना लिया। पूरा घर उसी दूध और खेती में उलझ गया। ससुराल में दोनों दामाद गोबर फेंकते और मवेशी को घास-भूसा देते अक्सर नजर आ जाते थे। वैसे भी लोकपाल तिवारी के पास कौन सा धन या तोड़ा था जो उन्हें बैठा कर खिला सके।,

अब समीकरण अलग थे, प्रेमा और किरन को अब ना तो अपनी बहन से कोई सहानभूति रह गई थी और ना अमरेश से। क्योंकि उन्हें अब ईर्ष्या हो रही थी अपनी बहन और अमरेश के भाग्य से। क्योंकि सरोजा और उसके बच्चे की पूरे शुकुल की संपत्ति लोकनाथ तिवारी सुरक्षित कर आये थे और यहां की संपत्ति देने को आमादा थे। क्या नहीं था सरोजा के पास, बस पति ही तो नहीं था। उनके पति थे भी तो किस काम के ?उन्ही के पीछे-पीछे दुम हिलाते ससुराल चले आये और अब यहां गोबर फेंक रहे हैं और पशुओं को दाना-पानी दे रहे हैं। उन्हें लग रहा था कि सरोजा और उसका पुत्र अब जन्म भर उनकी छाती पर मूँग दलने के लिये बैठा रहेगा । सो कदम -कदम पर विरोध और मोल-भाव शुरु हो गया। कि किसके कितने परिवार खा रहे हैं और कौन कितना काम कर रहा है?

इस बात को लेकर व्यापक पंवारा हो रहा था कि कौन क्या करे। प्रेमा और किरन ने अपने निजी खर्चों के लिये एक-एक गाय बांट ली थी। उसके दूध का पैसा वो दोनो अलग-अलग लेती थी। सरोजा को कोई अलग से पैसे नहीं देता था। वो साझे में ही पल रही थी। अमरेश स्कूल से लौट कर भैंसों -गायों को चराने जाता था। अलबत्ता उसकी फीस उसके नाना ही दिया करते थे। अलबत्ता प्रेमा और किरन अपने गोद के दुधमुंहे बच्चों के लिये उतने का बिस्किट-टॉफ़ी, और दवाई के जरिये हिसाब पूरा कर लिया करती थी। लोकपाल तिवारी इस टांग खिंचाई और वसूली से त्रस्त हो रहे थे। ना तो उनके पास इतने संसाधन थे ना शरीर में ताकत और न ही इतना उत्साह कि वे तीन-तीन परिवारों को पाल सकें।

किसी तरह इस उहापोह में तीन साल गुजरे। इस दरम्यान सरोजा कभी अपने पिता या बेटे के साथ पूरे शुकुल गांव चली जाया करती थी। कभी-कभार बटाईदार उसे कुछ मन ग़ल्ला दे दिया करते थे। लेकिन ज्यादातर वक्त रामजस तिवारी उसके हिस्से की फसल खाये-पिये मस्त रहते थे।

समय गुजरने के साथ सरोजा के जीवन के दुख बढ़ते गए और उनका जीवन स्तर घटता गया। अमरेश की तर्ज पर जब प्रेमा और किरन ने भी दबाव बनाकर अपने बच्चों का नाम प्राइवेट स्कूल में लिखा दिया, नर्सरी में सही और लोकपाल तिवारी पर पिल पड़ीं दोनों बहनें कि वो अमरेश की तरह उनके बच्चों की फीस, पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठायें तब लोकपाल तिवारी हार गए। उन्होंने अमरेश के पिता विहीन होने की बहुत दुहाई दी लेकिन दोनों बहनें टस से मस ना हुईं । हारकर उन्होंने प्रेमा और किरन को घर से चले जाने को कहा तो वो बिफर पड़ीं और उनके दोनों पिलपिलाये दामाद आमादा फौजदारी हो गये।

ये विवाद इतना स्थायी हो गया था कि मानों रोजमर्रा की बात हो । नतीजतन अमरेश का नाम प्राइवेट से कटवा कर गांव के सरकारी विद्यालय में करवा दिया गया। पहले वो स्कूल से लौट कर सिर्फ एक टाइम गाय-भैंस चराता था। अब वो दोनों टाइम मवेशी चराता था। सुबह मवेशी खोलकर, चराकर आता, आधे टाइम स्कूल बीत चुका होता था तब स्कूल पहुंचता।

वो स्कूल से जल्दी भाग आता क्योंकि फिर उसे मवेशी चराने जाना होता था। अलबत्ता जब किसी फसल की बुवाई या उठान होती तो वो कई-कई दिनों स्कूल नहीं जाता था। जिंदगी से वो मां-बेटा जूझ रहे थे। उन्हें किसी की तलाश नहीं थी बल्कि उनके लिए जिंदा रहना भी एक उपलब्धि थी।

वो मां-बेटा बहुत तेजी से दुनियादारी सीख रहे थे। अमरेश जितना स्कूल में विषय सीखता था उससे ज्यादा वो भैंसवारे में दुनियादारी सीख रहा था। वो जानता था कि ये भैंस चराने की वजह उसके मौसा-मौसियां हैं वरना उसके नाना उसे अच्छे से पाल-पोस सकते थे। वो ये जानता था कि उसके मौसा -मौसियां चाहती हैं कि यदि अमरेश मर जाता तो उनका बहुत फायदा होता क्योंकि तब नाना के हिस्से की जायदाद उन दोनों को मिल जाएगी। ऐसा ही कुछ गांव में हनुमन्त चाचा और मैना चाची भी सोचती होंगी। तब उसे अपने दादा रामजस याद आते उनका फरसा याद आता और उनका कलेजे से चिपकाकर अमरेश को याद कराना कि

“रखे राम तो भक्षे कौन

औ भक्षे राम तो रखे कौन”

उसे ये सब याद आता तो वो रो पड़ता, उसे इमलिया में कुछ भी बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था

वो अपनी माँ से कहता कि वे दोनों पूरे शुकुल लौट चलें वहां सब कुछ है, क्यों नहीं जा सकते वो वहां?

उसकी इस बात पर सरोजा निरुत्तर हो जाती और उसे अपने अंक में ले लेती और फिर फूट-फूट कर, बिलख-बिलखकर रोती ।

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