सड़कछाप - 2 dilip kumar द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सड़कछाप - 2

सड़कछाप

(२)

तेरहवीं होते ही सारे रिश्तेदार विदा हो गये। घर अपनी गति पर लौट आया । शुरू में लोगों को बड़ा उत्साह था बदला लेने, मुकदमा करने का लेकिन भुर्रे क्या कोई मामूली बदमाश तो था नहीं कि पूरे शुकुल से दस लोग लाठी-डंडा लेकर जायें और उसको मारपीट आयें। अमरेश भी तेरहवीं के बाद अपने स्कूल जाने की जिद करने लगा जो एक कोस की दूरी पर था । सारे बच्चे इक्के से स्कूल जाते थे। गांव के ही बरसाती इक्केमान पन्द्रह-सोलह बच्चों को प्राइवेट स्कूल ले जाता फिर दोपहर में सबको लौटा लाता। गांव का बूढ़ा इक्केमान सभी बच्चों का बरसाती बाबा था, जो बहुत ज्यादा जिम्मेदारी से इन बच्चों को ले जाता और लाता था। गांव के लोगों का भी बरसाती से मन पार था। लेकिन अब समीकरण बदल चुका था। भुर्रे डाकू था, उसकी सोच और गुस्से का क्या भरोसा । क्या पता अभी वो और बदला लेना चाहता हो और फिर अमरेश पर भी हमला करे।

इसलिये सरोजा ने अमरेश को प्राइवेट स्कूल नहीं भेजा वो अमरेश को घड़ी भर भी अपने से दूर नहीं होने देना चाहती थी। इसलिये सरोजा ने अमरेश का नाम गांव के ही सरकारी स्कूल में लिखवा दिया। अव्वल तो वो जल्दी अमरेश को स्कूल भेजती नहीं थी और अगर भेजती भी थी तो जितनी देर अमरेश स्कूल में रहता सरोजा स्कूल के आसपास ही मंडराती रहती थी । उसका बस चलता तो वो अपने कलेजे के टुकड़े अमरेश को अपने कलेजे में रख लेती । उसका बस चलता तो वो भुर्रे डाकू से मिलती उसको अपना तन, मन, और सारा धन सौंप देती कि पति को मारा तो मारा लेकिन उसके बेटे की जान बख्श दे। कभी-कभी वो सोचती कि अमरेश को लेकर वो दुनिया में कहीं गुमनाम जगह चली जाये। दूसरों के घरों में चौका-बर्तन करे, ईंट भट्ठे पर मज़दूरी करे लेकिन अपने लाल का पेट पाले, एक वक्त की रोटी खायें और मगर जिंदा तो रहें । लेकिन ये सब मन की उड़ान थी और मन की उड़ान जिंदगी की ठोस धरातल रोक देती थी। जिस भुर्रे को पूरे राज्य की पुलिस का कोई सुराग नहीं वो उसे कहाँ मिलेगा । एक मिलने की उम्मीद थी जीनत तो वो जेल में थी। कैसे भुर्रे तक उसकी बात पहुंचे। सुनती थी कि भुर्रे पर अब इनाम तीस हजार हो गया है । पिता के गांव से वो पति के गांव तक ही तो आई थी, बीच में जब अमरेश उसके गर्भ में था तब वो दो-चार बार रायबरेली गयी थी मगर गांव के वीडियो में उसने देखा था कि दुनिया बहुत बड़ी है और बिना आदमी की औरत को सब नोच -खाना चाहते हैं। यहां वो किसी की भाभी, भयउ और चाची है गांव की बहू है मगर बाहर ना वो किसी की और ना कोई उसका। कोई अगर मदद करेगा तो वो मदद की कीमत वसूलेगा। उसके पास देने की कौन सी कीमत है उसका शरीर ही है । कल को अगर अमरेश बड़ा होगा तो वो क्या सोचेगा कि उसकी माँ ने उसे छिनालपन करके पाला, नहीं-नहीं ये सोचकर ही सोचकर ही सरोजा को खुद से घृणा होने लगी । फिर नाजो अदा से पल रहे अमरेश, जो भले ही अब पिता विहीन है उसे मजदूरनी या नौकरानी का बेटा बना देना कहाँ तक उचित होगा,,, नहीं-नहीं वो ऐसा हर्गिज़ नहीं करेगी । लेकिन अमरेश की जान को खतरा वो तो मुसलसल है, भुर्रे का क्या भरोसा ? यहां है तो इज़्ज़त से है लल्लन शुक्ला की विधवा है, रामजस के घर की पतोहू है, अमरेश की माता है । ब्राम्हण बहुल गांव पूरे शुकुल के नियंत्रित माहौल में वो सुरक्षित है क्योंकि खतरा सिर्फ अमरेश की जान को नहीं, बल्कि उसकी अस्मत को भी खतरा था। पिता की बेटी और पति की पत्नी के रूप में अभी तक वो सुरक्षित रही है लेकिन अब तासीर दूसरी है। अब वो हिन्दू विधवा है, समाज के नियमों के अनुसार हिन्दू विधवा संसार की सबसे तुच्छ प्राणी है और सबसे आसान शिकार। उसके समाज के अनुसार हिन्दू विधवा सबसे निरीह प्राणी और दया का पात्र है मगर इस निरीह प्राणी को समाज दया करके वैधव्य काटने दे तब ना। तारा काकी, मिसराइन भाभी, पंडाइन बुआ सब किसी ना किसी से जुड़कर ही अपना वैधव्य काट रही हैं। ये नहीं पता कि वे रजामंदी से हैं या मजबूरी से लेकिन किसी ना किसी की वरदहस्त है उनपे। औरत अकेली हो तो कितने लोग लार टपकाते हैं उस पर। गांव-भर के जेठ-देवर अब उसकी कुछ ज्यादा ही फिक्र करने लगे हैं। अब ये वाकई सहानभूति है या उस पर जाल फेंका जा रहा है सरोजा विचारों की इसी भंवर में उलझी हुई थी।

वो जानती थी कि भले ही लोग उस पर लुभावन जाल डाल रहे हैं लेकिन किसी की हिम्मत नहीं है कि वो रामजस शुक्ला के घर की बहू के साथ जबरदस्ती कर सके । रामजस का गुस्सा और फरसा पूरे गांव में मशहूर था और उनका नशा पूरे जंवार में कुख्यात। सारे चरसी-गंजेड़ी उनके चेले-चपाटे थे। उनकी नशा-मंडली बहुत बड़ी थी जिसमें चोर-उचक्के, फनबाज जैसे लोग शामिल थे । बेशक गांव जातियों में बंटा हुआ था लेकिन नशा करने वालों की एक ही जाति थी वहां आकर सारे विभेद मिट जाते थे। लेकिन रामजस, अमरेश से बहुत प्रेम प्रदर्शित करते थे। लेकिन नशेड़ी के प्रेम की क्या बिसात?सुबह जिस शंकरजी को जल चढ़ाते हैं शाम को नशा करने के बाद उसी शंकरजी की गरियाते हैं। सरोजा से एक दिन अमरेश ने पूछा”मम्मी, रांड क्या होती है”

“क्यों, तू ये क्यों पूछ रहा है “सरोजा ने पूछा,

“मम्मी तुम रांड हो क्या”अमरेश ने पूछा

“आखिर तू ये पूछ क्यों रहा है, सच-सच बता तुझसे किसने क्या कहा है। और तू ये सब क्यों पूछ रहा है “सरोजा ने सख्ती से पूछा।

“स्कूल में मुझे मास्टरजी और दूसरे लोग रांड का छांड कहते हैं । इसका क्या मतलब है”

“कुछ नहीं बेटा, इन् बातों पर ध्यान मत दो। मेहनत से पढ़ाई करो । कल मैं स्कूल जाऊँगी देखती हूँ कौन तुम्हे क्या कहता है “ये कहते हुए सरोजा ने अमरेश को आश्वस्त किया।

अगले दिन सरोजा स्कूल गयी। मास्टर से झगड़ा करने के बजाय वो उनके सामने फफक-फफक कर रोने लगी। मास्टर रणविजय सिंह पास के ही गांव के एक बदजुबान मगर नेकदिल इंसान थे।

उन्होंने शर्मिंदगी से सरोजा को बताया- “पंडिताइन, गलती तो हो गयी। शब्द गलत थे मगर इरादा गलत नहीं था मेरा। पाठ याद ना करने पर और काम पूरा ना करने पर मैं बाकी बच्चों की तो पिटाई करता हूँ । लेकिन बिना बाप के बालक अमरेश पर हाथ या डंडा नहीं उठाता तो उसे शब्दों से हड़का देता हूँ ताकि लाइन पर आ जाये”।

सरोजा ने रोते हुए कहा –“वो ठीक है, आप गुरु हैं। गुरु का दर्जा बहुत ऊंचा होता है। आप अपने शिष्य का अनभला कब चाहेंगे। लेकिन शब्दों के घाव भी उतनी ही पीड़ा देते हैं जितने डंडे की मार”

मास्टर रणविजय सिंह खिसिया गये। वो धीरे से बोले -”का करें पंडिताइन। हम ठाकुरों की जुबान बचपन से ही बिगड़ जाती है । अब ऐसा नहीं होगा । जाओ तुम अब कोई शिकायत नहीं आएगी मेरी। तुम्हारा लड़का अब हमारा लड़का। इस स्कूल में हमसे जो मदद हो सकेगी वो सब मैं करूंगा”।

सरोजा रोते-सुबकते वहां से चली आयी। उस दिन के बाद ही अमरेश की पढ़ाई -लिखाई पर रणविजय सिंह मास्टर विशेष ध्यान देने लगे और ये भी उन्होंने सुनिश्चित किया कि स्कूल में कोई अमरेश को ना ऐसे कोई शब्द कहे और ना ही बर्ताव करे कि उसको हीन भावना का एहसास हो कि वो किसी से कमतर है।

इधर घर के समीकरण अब गड़बड़ाने शुरू हो गये थे । हनुमंत की पत्नी मैना और रामजस में घोड़ा-भैंसा की तरह बैर था। वैसे तो रामजस नारी विरोधी थे । शायद इसी वो विवाहित भी नहीं थे। वे कहते थे कि उन्होंने विवाह किया ही नहीं और गांव के लोग मानते थे कि वे नशेड़ी थे इसलिये उनके बियाहू ही नहीं आये। जो भी हो फिलहाल उनको हल्दी नहीं लगी गृहस्थी की। वे अजानबाहु थे यानी ऐसे विलक्षण व्यक्ति जिसके हाथ उसके पैर के घुटनों के दो अंगुल आगे तक जाते थे। ये विरल था सो उन्होंने खुद को विरलतम माना। वे खुद को किसी अवतारी पुरुष से कम नहीं समझते थे । वे लोगों को बताते थे कि वे ऋषि परशुराम की तरह अजानबाहु ब्राम्हण हैं इसलिए वो अपने पास फरसा भी रखते थे। ये और बात थी कि सुबह से शाम तक वे परशुराम की तरह बर्ताव करते और रात होते ही भगवान शिव के बाराती बन जाते थे और अपने साथ शुक्र, शनि की तरह बाकी बाराती भी लाते थे। नशा करने के बाद गाली बकना, घर में ही शौच-पेशाब करना उनकी आदत थी या मजबूरी लेकिन दूसरों को ये बर्दाश्त कर पाना खासा मुश्किल था। ये आदतें उनकी बरसो से थी । हनुमंत की पत्नी मैना वैसे तो बरसों बर्दाश्त करती रही। बेटों की तो गनीमत थी मगर उनकी जब मैना की बेटी विशाखा के समक्ष रामजस नशे के बाद गाली बकते और पेशाब करते तो मैना को ये बात नाकाबिले बर्दाश्त हो गयी। उसने हनुमंत से कहा कि वो इस घर में नहीं रह सकती । बंटवारा कर लो । हनुमंत पत्नी भीरू व्यक्ति थे। वे साधारण, विवाद रहित और चुप्पे व्यक्ति थे। पत्नी भी दबाये, भाई भी हड़काये।

एक दिन वो रामजस से हनुमंत ने कहा”दादा, घर में नशा मत किया करो”

‘‘तो दूसरे के घर जाकर करूं, तू घर से चला जा”रामजस ने नशे की शुरुर में कहा।

हनुमंत ने प्रतिवाद किया “ मैं कहां चला जाऊं, मेरी मेहरारु है तीन बच्चे हैं। उनको लेकर क्या बेगाना हो जाएं। हम कहीं नहीं जाएंगे। घर हमारा भी है “।

‘’ तो रह ना तुझे खेद कौन रहा है “रामजस ने झूमते हुए कहा।

‘’लेकिन दादा, तुम नशेड़ियों का जमघट लगा लेते हो, मेरी बेटी के सामने धोती खोलकर पेशाब करने बैठ जाते हो, मुझे और मैना को ये बात बहुत बुरी लगती है। तुम्हारे बीवी ना बच्चा, तुम का जानो परिवार के साथ कैसे रहा जाता है । खुद ठहरे छांड तुम्हारा क्या, हाथ लंबा होने से कोई ऋषि नहीं हो जाता”हनुमंत ने क्रोध से कहा, पीछे मैना खड़ी ये सब सुन रही थी।

“चुप साले, कमीने चिड़ी के गुलाम, तेरी मेहरारु का ….”कहते हुये रामजस दौड़ पड़े और उन्होंने हनुमंत को पटक दिया ।

दोनों भाई गुत्तमगुत्था हो गये। एक दूसरे पर लात-घूँसा चलाने लगे । हनुमंत शरीर से दुबले-पतले थे, मरियल और पिलपिलाये से। जबकि रामजस हट्टे-कट्टे निरदुंद। वो जब भारी पड़ने लगे और हनुमंत को लगातार पीटते जा रहे थे तब मैना को लगा वो नशेड़ी मार ना डाले उसके पति को । वो थोड़ी देर चीखती-चिल्लाती रही । मगर रामजस इतने नशे में थे कि मानों मार ही डालना चाहते थे हनुमंत को । मैना पीछे से दौड़ी आयी और रामजस को पकड़ कर खींचा। रामजस की पकड़ बहुत मजबूत थी मैना अपने पति को उनकी गिरफ्त से छुड़ा ना पायी। हारकर उसने एक लकड़ी का पीढ़ा उठाकर रामजस के माथे पर दे मारा। रामजस का माथा फुट गया। सर से खून की धार बह निकली, लेकिन रामजस ने सर के खून की परवाह नहीं की। वो हनुमन्त से छूटे तो मैना पर पिल पड़े। उसके बाल पकड़ कर नोचने लगे तो उसने छुड़ाने के तमाम उपाय किये । क्रोध में वो दोनों भूल चुके थे कि सामाजिक मर्यादा में छोटे भाई की पत्नी को छूने से रोक है। रामजस, मैना को झापड़ दर झापड़ मारे जा रहे थे और गालियां भी बके जा रहे थे। उनकी गिरफ्त से छूट ना पाने पर मैना ने दांत से उनके हाथ को काट लिया। हाथ ढीला पड़ा बस मैना पकड़ से छिटक गयी। उसकी तरफ रामजस फिर बढ़े तो उसने रामजस के गुप्तांग पर एक खड़ी और भरपूर लात मारी। पूरे वार से किये गये प्रहार से रामजस दर्द से बिलबिला उठे। उधर सिर की चोट इधर गुप्तांग की चोट अब वो बेबस होकर वहीं बैठ गए। थोड़ी देर में वो भी बेहोश हो गये। वो बेहोश होकर अलग हुए तो मैना ने देखा हनुमन्त भी बेहोश हैं। गांव में गोहार हो गयी कि दोनों भाई आपस में लड़कर मर गये। लोग जुटे तो देखा दोंनो भाई मृत्यु के करीब अवश्य थे पर अभी जीवित थे। घी पिलाना, हाथ -पांव रगड़ने मालिश करने से हनुमन्त तो होश में आ गये। मगर वो बहुत आतंकित थे। रामजस का खून रुक नहीं रहा था। फिटकरी खरीद कर आयी, छोपी गयी तब जाकर उनका खून रुका। घाव में लाल मिर्च भरने से रामजस तिलमिलाए तो उनका तेज लौट आया। वो पुनः उठ खड़े हुए। दौड़ कर फरसा उठा लाये और हनुमन्त को छोड़कर मैना को दौड़ा लिया। बमुश्किल मैना भागकर घर में छुप गयी। रामजस दरवाजे पर लात मारकर और फरसा लहराते रहे और मैना की यथा संभव सबसे गंदी-गंदी गालियां देते रहे। लोगों ने बीच-बचाव कराया तब जाकर वो लोग अलग हुऐ। ये विग्रह बहुत बड़ा था। उसी दिन से मैना और रामजस के आजीवन नफरत के संबंधों की स्थायी नींव पड़ी। उसी दिन के बाद बंटवारा हो गया ।

रामजस ने घर, चूल्हे और खेत का बंटवारा कर लिया हनुमन्त से। लेकिन लल्लन और रामजस का हिस्सा एक में ही रहा। रामजस खेती तो एक में करते थे मगर अपने हिस्से की फसल बेच कर नशा कर डालते थे और फिर साल भर लल्लन की तरफ खाते-पीते थे। लल्लन की पत्नी सरोजा ही उनकी सेवा करती थी। वो रामजस में अपने जेठ की नहीं बल्कि अपने ससुर की छवि देखती थी। रामजस उसे दुल्हिन कहकर पुकारते थे। जब अमरेश पैदा हुआ तब से रामजस ने उसका लाड़-दुलार किया। उसे कंधे या सायकिल पर बैठा कर गांव-सिवान घुमाते । लल्लन की मृत्यु और मैना के झगड़े के बहुत पहले से अमरेश को अपना वारिस मानते थे और इस बात से मैना और रामजस के बीच बहुत कड़वाहट थी। मैना इस बात के लिये हमेशा कलपती रहती थी कि उसके तीन बच्चे हैं लेकिन कभी भूले से भी अपनी संपत्ति में एक ढेला भी देने को ना कहते, जबकि अमरेश अकेला है तो भी उसे सब धन-दौलत सौंपने की बात करते रहते हैं।

रामजस एक अजीब मिजाज के व्यक्ति थे। उनमें देवता-दानव सभी के गुण पाये जाते थे। इन तीन भाइयों की एक बहन भी थी सरस्वती जिसका उच्चारण करने में कठिनाई के कारण गाँव-जंवार में उसे सुरसती कहा जाते थे। इन चार भाई-बहनों की मां जन्म के कुछ वर्ष बाद टीबी की बीमारी से चल बसी थी और पिता ने कुछ वर्षोँ बाद साधु का चोला पहन लिया था। पंद्रह बरस के थे रामजस तब जब बारह, ग्यारह और दस बरस के भाई -बहन का पालन -पोषण उनके जिम्मे आ गया था। बाबू गजराज सिंह की लम्मारदारी थी। कितने तिकड़म और मनुहार से उन्हें लम्मारदार की सिरवारी मिली थी वो भी पूरे शुकुल गांव की । घर में चार प्राणी थे। कुल बारह बीघे की खेती में चार बीघा पट्टीदारों ने कब्जा कर रखा था। ये लोग तीन घर के शुक्ला थे और परिवार में बहुत कम । जबकि तेरह घर वाले शुक्ला लोग परिवार दार थे। गांव की पट्टीदारी में लाठी का ही जोर था फिर संपत्ति और स्त्री की सुरक्षा जरूरी होती है और जब बाप साधु हो गए तो कौन देखता ये सब।

बरसों की रगड़ और प्रयास के बावजूद जमीन पर कब्ज़ा हट ना पाया था। रामजस के लम्मारदार का सिरवार बनते ही तासीर बदल गयी। किसकी हिम्मत थी कि गजराज सिंह के सिरवार की जमीन कब्ज़ा करे। रामजस के अनुनय-विनय पर एक दिन गजराज सिंह आये और खुद खड़े होकर अपने ट्रैक्टर से कब्जे वाली जमीनें जुतवा दी और धान की बेरन डलवा दी। बस उसी दिन से कब्ज़ा हो गया ज़मीन पर रामजस का कब्ज़ा हो गया। उसके बाद उन्होंने अपने भाइयों का पालन -पोषण किया उनको यथासंभव तालीम दी। उनका विवाह किया इसीलिए वो अपने को अभिभावक समझते रहे थे अपने को सभी को।

सुरसती का विवाह उन्होंने उन्नाव में किया था उसका पति दिल्ली में मेडिकल लाइन का कोई काम करता थालल्लन की हत्या के बाद वो भी कुछ दिन रहकर लौट गयी थीरामजस के सिरवार बनने से लल्लन की हत्या के बीच बीस वर्ष का समय गुजरा थाइस बीच खबर मिलती रही कि लल्लन की विधवा को सरकार कुछ मुआवाज देगीइसके लिये सरोजा ने गजराज सिंह के घर के कई चक्कर काटे, तमाम दहलीज पर नाक रगड़ी, रोई-गिड़गिड़ाई, मिन्नतें कीदस हजार की रकम मिलने के चर्चे थेजिसके सबब सरोजा सोच रही थी कि वे रकम मिल जाये तो बो गांव से हट जाये और अमरेश को किसी महफूज जगह ले जाकर उसे आला और मुकम्मल तालीम दिलायेलेकिन एक मुद्दत तक दौड़-भाग के बाद ये नतीजा निकला कि लल्लन शुक्ला की हत्या नहीं हुई थी बल्कि ये दो हथियारबंद लोगों की आपसी मुठभेड़ का नतीजा क्योंकि लल्लन शुक्ला के पास से चाकू की बरामदगी दिखाई गई थीइसमें तकनीकी बिंदु था कि एक शरीफ व्यक्ति को एक बदमाश ने मार डाला तो ये पुलिस की नाकामी है लेकिन दो हथियारबंद लोगों के झगड़े में अगर कोई एक मारा गया तो ये उन दो दुर्जनों के बीच का मामला हैपुलिस का तकाज़ा ये था कि वो सज्जनों की रक्षा करती है और दुर्जनों को मरने देती हैतो टूटे हुए जीवन की और एक उम्मीद छिटक गयी और मुआवजा मिल ना सकागजराज सिंह भी ना मिल सके कि वो इस मदद कर सकें क्योंकि वो अब ज्यादातर दिल्ली ही रहते थेजिस दिन मुआवजे का इनकार मुतमईन हुआ, बेवा मां ने अबोध बच्चे को छाती में भींच लिया और रात भर बार-बार और जार-जार रोती रही

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