सड़कछाप - 5 dilip kumar द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सड़कछाप - 5

सड़कछाप

(५)

रामजस तिवारी आकर बैठे वो पूरे शुकुल से लौटे थे। गांव नहीं पहुंचे थे कि उन्हें ऐसी खबर मिल गयी कि उनके पैरों के तले की जमीन खिसक गयी। इस खबर की पुष्टि उनके स्तर से हो पाना आसान नहीं था। जब रिश्तेदार ही नहीं रह गया तो रिश्ते की कैसी मर्यादा?इसलिये वो इमिलिया लौट आये। सरोजा पानी लेकर आयी उनका उतरा हुआ चेहरा देख कर उसे कोई हैरानी नहीं हुई क्योंकि चिंता और लोकपाल तिवारी का अब चोली-दामन का साथ हो चुका था।

उसने धीरे से पूछा”बप्पा, क्या बात है इतना काहे परेसान हव। आज कौन नई मुसीबत आई ‘’

लोकपाल ने धीरे से कहा”तुम्हारे गांव की तरफ गया था । गांव तक पहुंचा ही नहीं कि ऐसी खबर सुनाई पड़ी कि मैं उल्टे पाँव लौट आया”।

सरोज का दिल धक्क से रह गया। वो अपने आप में बड़ी एकांगी महिला थी। जो उसके मन में बैठ जाता था दिन-रात वो उसी के बारे में सोचा करती थी, दूसरा कुछ नहीं। वैसे ही इस वक्त उसे सिर्फ और सिर्फ अमरेश की सुरक्षा की चिंता सताती रहती थी। अब भी उसका मन पार नहीं था भुर्रे से, जो डाकू गंगापार से रायबरेली आ सकता है। उसका रायबरेली के अंदर एक तहसील से दूसरी तहसील जाने में क्या उज्र है। इसीलिए वो हमेशा अमरेश के आसपास ही मंडराती रहती थी इस गांव में भी। दूसरे उसके मन से उतरने की बात थी तो उसका पति उसके मन से पहले ही उतर चुका था । लल्लन की मृत्य के दो बरसों पहले से ही उनके और लल्लन के रिश्ते झुलस चुके थे। उसने लल्लन के सामने ये शर्त रख दी थी कि या तो वो नाचना छोड़ें वरना वो उन्हें अपना तन छूने नहीं देगी, और छूने दिया भी नहीं उनकी मृत्य तक। लल्लन कुछ और सोच रहे थे जिस तरह उनके नाच-गाने से खुश होकर उसे वरदहस्त दे रहे थे और आगामी चुनाव के बाद उसे दिल्ली ले चलने की बात कर रहे थे, उस दिख रही संभावित तरक्की को वो तिरिया हठ पर कुर्बान नहीं कर सकते थे। फिर पत्नी ने शरीर छूने को मना किया था, उसको छोड़ कर नहीं गयी थी, उन्ही की थी और उन्ही की बनी रहनी थी। लेकिन लल्लन स्त्री के मन की थाह ना ले सके। स्त्री जिस पर सर्वस्व अर्पण करती है । उससे सर्वस्व चाहती भी है, वो अभाव बर्दाश्त कर सकती है, अवहेलना नहीं। उसने पहले तन की बंदिश लगायी, तन-मन से अलग तो नहीं था । तन की दूरियां धीरे -धीरे मन की दूरियां भी बढ़ाती गयीं। फिर लल्लन ने भी नजरअंदाज करना शुरू किया और ये जतलाया कि वो उसके बिना खुश है और महीनों तक सिर्फ सात किलोमीटर दूर गजराज सिंह की कोठी पर पड़े रहते। तो ये रिश्ता सिर्फ समाज की नजरों में खुशहाल था, सामान्य था लेक़िन उन दोनों में बहुत कुछ मर चुका था ये बात वो दोनों ही जानते थे। औलाद ना हुई होती तो वे शायद अलग हो भी जाते। मगर औलाद की बेहतरी के लिये उनका साथ दिखना ज़रूरी था और दोनों को अपनी इकलौती औलाद से बेइंतिहा मोहब्बत थी। लेकिन उनकी अपनी अहद के सबब दूसरी औलाद की गुंजाइश ना बनी। इसीलिये जब लल्लन की मौत हुई तो उसे उतना ही दुख था जितना परिवार के किसी सदस्य के मरने का होता है, ऐसा नहीं था कि उसकी दुनिया उजड़ गयी हो और वो मर जाना चाहती हो और जीने की कोई वजह ना बची हो। अलबत्ता उसे अमरेश को लेकर बड़ी फिक्र थी कि वो शायद बाप के ना रह जाने पर वो अमरेश को उतनी बेहतर ज़िन्दगी ना दे सके जितना बेहतर उसका बाप दे सकता था। पर विधि का लेखा?

सरोज ने फिर पूछा “बताओ तो बप्पा, आखिर बात क्या है”?

रामजस ने ठंडी सांस लेते हुए कहा - “लल्लन के साथ का एक साजिन्दा मिला था। पारस नाम था उसका, ढोल बजाता था शायद। उसने बताया कि गांव-जंवार में हल्ला है कि लल्लन की मेहरारु कलकत्ता चली गयी है अपने लड़के के साथ। वहां उसने दूसरी शादी कर ली है । और अब वो लौट कर नहीं आयेगी। उसने एक वसीयत भी लिख दी है कि उसकी सारा घर-खेत उसके देवर को दे रही है। गांव ये बात शायद मान भी रहा है । लेखपाल गांव वालों से पूछताछ कर रहा है । कई लोग गवाही देने को तैयार हैं । हनुमन्त तुम्हारी जायदाद अब हथियाने की फिराक में है। रामजस को चिलम से ही फुरसत नहीं है। मैं यहां से कर ही क्या सकता हूँ बेटी। मैंने दुनिया देखी है, थाना-पुलिस सब शहरों तक ही हैं । गांव में लाठी का ही जोर चलता है । एक बार खेतों पर हनुमन्त का कब्ज़ा हो गया तो लड़ते रहो जन्म भर कोरट कचहरी”।

रात भर की बाप-बेटी की मंत्रणा के बाद अगली सुबह लोकपाल तिवारी अपनी बेटी सरोजा और नाती अमरेश को लेकर पूरे शुकुल आ धमके। वे दोनों इस तैयारी से आये थे मानों उन्हें अब जीना-मरना इसी घर में है, और लोकपाल तिवारी भी इत्मीनान से रहने को आये थे कुछ रोज के लिये। वैसे तो लोकपाल इस मत के आदमी थे जो कि बेटी के घर का पानी तक पीना गवारा नहीं करते थे मगर जैसे हालात थे उनमें बेटी का घर बचे तब तो दाना-पानी की वर्जना देखी जाएगी। अमरेश और सरोजा को देखने पूरा गांव जुट गया था। हनुमन्त गांव में ही थे मगर शर्मिंदगी से घर में घुस गये थे। लोकलाज का तकाजा था या सुलभ नारी स्वभाव जो भी रहा हो पर मैना, सरोजा से मिलने आयी। सरोजा और रामजस का घर एक में ही था जबकि मैना का घर अलग था। मैना ने ये तस्दीक कर ली थी तभी इस घर तक आयी थी कि रामजस घर में नही हैं और आसपास भी नही हैं वो रायबरेली गए थे किसी काम से ।

सबकी आंखों में एक ही सवाल था लेकिन पूछने की हिमाकत किसी की नहीं हो रही थी। विधवा की सूनी मांग, छिन्नी धोती, बिछिया ना पायल, पाँव में रंग नहीं ये सब गवाही काफी थी । फिर भी अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं ने घुमा फिरा कर पूछ ही लिया तो सरोजा ने बताया कि ये पट्टीदारों की साज़िश है उसको और उसके बच्चे को बेदखल करने के लिये । मैना को अप्रिय लगता इसलिये उसने हनुमन्त का नाम नहीं लिया। लेकिन ये अफवाह किसने उड़ायी थी ये सब जानते थे। शाम को रामजस लौटे तो उन्हें सरोजा और अमरेश को देखकर खुशी भी हुई और चिंता भी। खुशी इस बात की, कि अब उनको दो रोटी का सहारा हो गया, खुद चूल्हा नहीं फूंकना पड़ेगा और चिंता इस बात की कच्ची जमीनों से सारे शीशम और पाकड़ के पेड़ बेचकर जो वो चिलम पी गये हैं उनका कहीं हिसाब ना मांगे सरोजा। लल्लन की मृत्यु के बाद सोलह पेड़ बेचकर चिलम में उड़ा गये थे रामजस, जबकि हनुमन्त के हिस्से के आठों पेड़ अभी भी सही सलामत थे।

सब जान रहे थे सब कुछ, बस एक दूसरे से नजरें चुरा रहे थे और कुछ कड़वा कहने से बच रहे थे। रिश्तों की मर्यादा किसी ने नहीं रखी थी, बस शब्दों की ही मर्यादा का लिहाज कर रहे थे लोग एक दूसरे से।

अगले दिन लोकपाल तिवारी लेखपाल, तहसीलदार और एसडीएम सबकी चौखट पर सरोजा और अमरेश के साथ हाज़िर हुए । उन्होंने इस बात की बयानहल्फ़ी सरोजा से दिला दी कि वो अपने घर –धन पर हाज़िर-काबिज है और उसकी जानिब से कोई मुख्तारनामा या वसीयतनामा नहीं किया गया है। कानूनन हनुमन्त की सारी कवायद वारिसान की नामौजूदगी के बाद ही अमल होनी थी मगर जब फ़रीक़ैन खुद मौजूद है तो कैसी वसीयत और कैसा मुख्तारनामा?

लोकपाल तिवारी, सरोजा की कानूनी जरूरतें निपटाकर दो-तीन दिन में ही लौट गए थे जाते-जाते वो सरोजा को कुछ पैसे भी दे गए थे ताकि वो अपनी गृहस्थी फिर से शुरू कर सके। वो अपने साथ आशंकाएं तो ले गए थे, मगर छोड़ गए थे ढेर सारी कड़वाहट अबोध अमरेश के मन मे जो अब खुद को अबोध नहीं मानता था ।

अमरेश के दिल में अपने नाना लोकपाल तिवारी के लिये खासी कड़वाहट थी। शुरू में जब इमलिया में उसका नाम प्राइवेट स्कूल में लिखाया गया था और वो लाड़-दुलार से नानिहाल में पाला-पोसा गया। तब उसे लगा कि उसके पापा नहीं हैं तो क्या उसके नाना तो हैं जो उसकी देखभाल करने के लिये हैं उसे-पढ़ाएंगे-लिखायेंगे। लेक़िन उसी के सामने उसके मौसी-मौसा ने कैसे डेरा जमाया और धीरे-धीरे सब कुछ उससे छिन गया। धीरे-धीरे उस घर में वो घरेलू नौकर और मज़दूर माना उसने। भैंस-गाय वो चराता, पैसा उसकी मौसियां लेतीं। उसके नाना ने उसे नौकर बनने दिया। घर तो उसके नाना का था फिर उसके मौसा क्यों कहा करते थे कि भैंस चराने का वक्त हो गया है, अब भैंस खोल दो। घर उनका नहीं था फिर क्यों वो लोग मुझे डांटते थे । नाना क्यों नहीं बोलते थे कुछ मौसी-मौसा को । भैंसवारे में, और स्कूल में सब मेरा मजाक उड़ाते थे कि मेरे नाना को एक भैंस चरवाहा की जरूरत थी । इसलिए मुझे अपने घर ले गए थे। सब कहते थे कि मैं पेट पालने के लिये वहां पड़ा हूँ। मेरे नाना ने ये सब कुछ होने क्यों दिया । भले ही भुर्रे मुझे मार डाले और भले ही मुझे अपने घर भूखे पेट सोना पड़े, मैं टूक-टूक उड़ जाऊंगा। मगर उनके घर नहीं जाऊंगा। मेरे मौसा-मौसी को चील-कौवा भी खा ले तो मैं ना बोलूं। कीड़े पड़े मेरी दोनो मौसियों को और सुअर-कुत्ते नोचें मेरे मौसा लोगों को । और मेरी नानी जसोदा, कितनी खराब है, बुढ़िया तड़प-तड़प कर मरे, उसी की सामने सब होता था सब बैठी गुटुर-गुटुर सुना करती थी। मुझे तो भुर्रे मिल जाये तो मैं सबसे पहले इन्ही लोगों का घर लुटवा दूं और इन्हें ही मरवा दूं,, आक थू ये सोचते हुये उसने अपनी घृणा को जमीन पर थूका।

अमरेश जानता था कि उसके बाप का चाकू असफल रहा था। लेकिन जिस तेजी से वो चीजों को समझ रहा था वो जानता था कि उसकी जिंदगी में भुर्रे नाम का एक खतरा है। वो इमलिया से कुछ रुपया -पैसा तो नहीं लाया था। लेकिन एक छुरी ज़रूर लाया था। ये छुरी उसे उसके सरकारी स्कूल के सहपाठी चिर्री ने दिया था जो कि रहमानी चिकवा का लड़का था। चिर्री से उसकी दोस्ती थी। हालांकि बाकी ब्राम्हणों के लड़के चिर्री से दूर-दूर और कटे-कटे ही रहते थे क्योंकि वो मुसलमान था और बहिष्कृत था। अमरेश भी तिरस्कृत रहता था इमलिया के स्कूल में, क्योंकि जो नानिहाल में भैंस चराये वो दुलारा तो हर्गिज़ नहीं हो सकता था। तिरस्कृत और बहिष्कृत में मित्रता हो गयी। दोस्ती गाढ़ी हुई तो उन दोनों ने अपने सुख-दुख बांटे और अपनी रोटियां भी। चिर्री अपनी रोटियों के साथ गोश्त के टुकड़े भी लाता था और अमरेश से खाने को कहता था

लेकिन अमरेश उसे ये कहकर टाल देता था कि वो ब्राह्मण है अगर वो गोश्त खायेगा तो उसका धर्म भ्रष्ट हो जायेगा और उसके मरे हुए पापा को बहुत दुख होगा।

चिर्री ने उसके बाप की मौत के बारे में पूछा तो उसने सारा वाकया कह सुनाया, बताते-बताते उसकी आंखें गीली हो गयी तो बाल सुलभ मित्रता के कारण चिर्री भी रोने लगा।

अमरेश ने भुर्रे से ये भी बताया था कि अब भी वो भुर्रे से उसे खतरा है इसीलिए वो इमलिया में रहता है। चिर्री ने उसे सांत्वना देते हुए कहा था कि अगर भुर्रे इमलिया में आया तो वो उसे अब्बा के बड़े वाले बोगदे से काट देगा। लेकिन फिर चिर्री ने सोचा कि अगर उसकी गैर हाज़िरी में भुर्रे, अमरेश को मिल गया तो, क्योंकि अमरेश भैंसवारे में जाता है और वो तो दुकान पर बैठता है शाम को उसे कीमा बनाना पड़ता है, कल्ला छीलना पड़ता है तब?

इसलिये उसने एक रास्ता निकाला कि एक छूरी अमरेश को दे दी और उसे बाकायदा चलाना और शान चढ़ाना भी सिखाया । लेकिन इमलिया से आते वक्त उसे जल्दी में आना पड़ा तो वो चिर्री से मिल नहीं पाया तो वरना वो उसके अब्बा का बोगदा मांग लाता । बोगदा होता तो वो इस गांव में सुरक्षित रहता । बोगदा नहीं है तो क्या छूरी तो है । उसने छुरी निकाल ली उसपे शान चढ़ाने लगा। छूरी देखते ही उसे अपने साथी चिर्री की याद आ गयी और वो रोने लगा।

पूरे शुकुल गांव में ज़िन्दगी की गाड़ी घिसट रही थी । मास्टर रणविजय सिंह की मेहरबानी से अमरेश का नाम फिर उसके गांव के सरकारी स्कूल में लिख गया। लोकपाल तिवारी एक गाय दे गये थे जो सुबह शाम दोनो वक्त लगती थी, जब वो बिसुक जाती थी तो उसको हाँकवा ले जाते थे दूसरी लगेन गाय छोड़ जाते थे। गाय चराने में अमरेश को दूर तक जाना पड़ता था जो कि खतरनाक हो सकता था । इसलिए गाय दरवाजे पर ही बांधी रहती और नादा-सानी सरोजा ही कर देती। अमरेश गांव में ही रहता, पढ़ाई-खेती और मटरगश्ती में दिन बीत रहे थे। ऐसे ही जिंदगी के तीन साल और गुजर गए। इस दरमियान सरोजा एक बार भी अपने मॉयके नहीं जा सकी। उसने बहुत कोशिश की वो मॉयके जाये लेकिन अमरेश किसी दम इमलिया जाने को राजी ना हुआ। उसे अपने नाना और मौसी-मौसा से सख्त चिढ़ थी। उसकी माँ ने उसकी मनोदशा को भांप कर उसे समझाने की कोशिश की और उसके नाना की मजबूरियां गिनायीं, लेकिन बाल मन पर नफरत का जो लेप एक बार लग जाता है उसे बुद्धि से खुरच कर ही उतारा जा सकता है लेकिन उस अबोध उम्र में बुद्धि उतना साथ कहाँ देती है अलबत्ता पूर्वाग्रह ज्यादा होते हैं। इन बरसों में रामजस वैसे के वैसे ही थे, उन्हें भर पेट रोटी मिलती थी और चिलम का जुगाड़ वो खुद कर लेते थे। इस दौरान लोकपाल तिवारी ने दूसरी गाय भी दे दी। जब दोनों गायें लगती थी तो दूध भी बिकता था और खोया भी बनाकर सरोजा बेच लिया करती थी । अमरेश को मीठा बहुत पसंद था। वो खोये में मीठा मिलाकर बड़े चाव से खाता था मगर उसकी माँ हमेशा उसके खोया खाने का प्रतिवाद करती। दूध-खोया बेचकर पाई-पाई इकट्ठा कर रही थी सरोजा ताकि अमरेश को कहीं सही जगह पढ़ा-लिखा सके। लेक़िन अमरेश इन सबसे बेपरवाह था। उस पर बाप का नियंत्रण ना था और रामजस की शह थी तो वो अपने को विशिष्ट समझता था। उसे लगता था कि उसके पास चिर्री की दी हुई छूरी है और रामजस दादा जब फरसा उठा लेंगे तब वो भुर्रे से भी निपट सकता है । अब वो बात में रामजस की तरह कहता कि

‘’रखे राम तो भक्षे कौन

औ भक्षे राम तो रखे कौन। ”

***