सड़कछाप - 17 dilip kumar द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सड़कछाप - 17

सड़कछाप

(17)

बतरा को तब अमर की याद आयी जो तुनककर चला गया था कुत्ते का मल फेंकने की बात पर औऱ अपनी पन्द्रह दिनों की तनख्वाह भी नहीं ले गया था। बतरा को अमर जैसे ही खुद्दार और वफादार व्यक्ति की ज़रूरत थी भले ही वो ज्यादा पढ़ा-लिखा और होशियार ना हो।

बतरा ने अमर से जुड़े तमाम सम्पर्कों को खंगाला और खोजते हुए उसके घर पहुँचा।

अमर उसे देखकर हैरान हुआ, थोड़ा खुश भी हुआ। उसने बतरा को नमस्ते किया। बतरा ने हंसते हुए उसके नमस्ते का जवाब दिया और कहा-

“क्या कर रहे हो अमर आजकल, मुझे पता है तुम कुछ नहीं कर रहे हो। चलो मेरे पास और अपनी ड्यूटी संभालो”।

अमर घर के अंदर गया और अपनी किताब उठा लाया और उसे बतरा को दिखाते हुए बोला”अब मैं लेखक बन गया हूँ, इसी लाइन से जुड़े काम करता हूँ, यहीं से जीने-खाने का खर्चा निकल आता है। सर, अब मैं ना कुत्ते का भाई हूँ ना ही कुत्ता हूँ। मैं पंडित हूँ, मेहतर नहीं। अब मैं कुत्ते की टट्टी नहीं फेंकूँगा”।

बतरा ने हँसते हुए कहा” सो हैप्पी दैट यू आर ए राइटर नाउ। लेकिन राइटिंग से काम नहीं चल सकता। ये पार्ट टाइम वर्क है, फुल टाइम नहीं। ये भी करो, मेरी भी ड्यूटी करो”

अमर ने कोई सहमति ना दी। उसे असमंजस में देखकर बतरा बोला-

“तुम्हें घर पर नहीं क्लीनिक पर काम करना होगा। वहाँ कोई कुत्ता-बिल्ली नहीं होगा और सैलरी भी बढ़ा दूँगा”।

अमर जान रहा था कि बतरा साल भर बाद उसके पास लौटा है तो जरूर ऐसी कोई बात होगी जो सिर्फ उसके जाने से निपटेगी। ये मोलभाव करने का सही वक्त है। उसने डींगें हाँकते हुए कहा, ”सर, अब मैं वो अमर नहीं रहा। अब मैं महीने में दो-ढाई हजार रुपये आराम से कमा लेता हूँ”।

बतरा बेतहाशा हँसा, फिर बोला”चलो मैं तुम्हें हज़ार रुपये दूँगा। फिर तुम्हें मेरे पास दोपहर बाद से ही ड्यूटी करनी होगी। सुबह तुम कोई और काम कर लेना। हज़ार मुझसे लो, हज़ार वहाँ से कमाओ, तुम्हारे दो हज़ार पूरे हो जाएंगे। बाद में फिर बढ़ा दूँगा तुम्हारी सैलरी। “

कुछ देर तक चले दोनों के मोलभाव के बाद पन्द्रह सौ रुपये में अमर की नौकरी पक्की हो गयी। जाते-जाते बतरा ने पांच सौ एक नोट अमर को थमाया और कहा, -

“ये तुम्हारी लास्ट टाइम की बकाया पन्द्रह दिनों की सैलरी है और बाकी मिठाई खाने के पैसे हैं, तुम्हारे लेखक बनने की खुशी में मेरी तरफ से। कल वक्त पर पहुंच जाना बेटे”।

अमर ने बतरा की नौकरी फिMर से शुरू कर दी। शाम को तीन बजे क्लीनिक खोलना होता था और मरीजों का पंजीकरण करना होता था। फिर डॉक्टर बतरा पाँच से आठ बजे के बीच मरीज देखते थे। उनके जाने के कुछ देर बाद तक भी क्लीनिक खुला रहता था। क्योंकि क्लीनिक से सटा एक मेडिकल स्टोर था। बतरा के जाने के बाद जब मेडिकल स्टोर का हिसाब आ जाता तभी अमर क्लीनिक बन्द करके घर जाता। घर पहुँचते-पहुँचते उसे रात के दस बज जाते थे। बतरा ने एक नई साइकिल उसे खरीद कर दे दी थी। अमर दिन का खाना अक्सर देर से बनाता था और रात को लौटता तो दिन का बचा हुआ खाना गर्म करके खा लेता।

अमर को दिक्कत ये थी कि बतरा की इस नई नौकरी में वो शाम को मशरूफ हो जाता था और निशा से नहीं मिल पाता था क्योंकि निशा सब्ज़ी मंडी में शाम को ही आती थी। वो निशा से मिलता तभी तो उषा से मिलने की कोई राह निकल सकती थी। सीधे-सीधे उसका उषा से मिलने का प्रयास करना खेल बिगाड़ सकता था। उसके समीकरण उषा से बने थे या नहीं बने थे उसे इस बात का असमंजस था। इश्क़ जब तक इजहार ना कर दे तब तक क्या यकीन। फिर इश्क तो निशा का भी था जो खतरे में था और उसने उस रात के बाद अमर को अपने घर बुलाने से परहेज किया था ताकि उषा का सामना अमर से ना हो क्योंकि अगरचे इश्क़ की कोई चिंगारी हो तो वो जुदाई की आग में दब जाये। निशा इस बात को बखूबी समझ रही थी कि उसके और अमर के बीच में अभी कोई अहद नहीं है, इसलिये उससे ज्यादा सुंदर उषा बड़ी आसानी से अमर को उससे छीन सकती है।

“नारि ना मोहे नारि के रुपा”जिस छोटी बहन उषा के रंग-रूप पर कभी निशा को गर्व हुआ करता था अब उसी उषा के सौंदर्य से उसको डर लगने लगा था। वो उषा से कटी-कटी, चिढ़ी-चिढ़ी रहती थी। उषा भी ये बात जानती थी कि इस अनमनेपन की वजह क्या है। मगर दोनों युवतियों ने एक दूसरे से बात करने की ना तो हिम्मत की और ना ही जहमत। निशा मुतमईन थी कि जिसकी वजह से ये मसायल था वो यानी उषा, अमर के सम्पर्क में नहीं थी। लेकिन निशा को ये मालूम नहीं था कि किसी चीज पर जब बंदिश लग जाये तब इंसान को उसे पाने की तलब और भी बढ़ जाती है। गालिबन इंसान फिर उस तलब की चीज को पाने की भरसक कोशिश करता है भले ही वो चीज उसके मतलब की हो या ना हो।

यही मनोदशा उषा और अमर की भी थी। वो दोनों एक दूसरे से मिल नहीं पा रहे थे, मग़र वो दोनों जानते थे कि वे दोनों एक दूसरे से ना मिल सकें ऐसी परिस्थितियां बनाई जा रही हैं, इस विरह में मिलन की प्रबल उत्कंठा थी। दोनों अपनी-अपनी इस इच्छा को दबाये हुए थे और निशा से छुपाये भी हुए थे और सही मौके का इंतजार कर रहे थे। ये शायद उस संगीन उम्र का तकाजा था जो किसी एक बात पर अटक जाता है तो फिर उसी पर अटका रहता है।

उनके मुलाकात की सूरत निकली लेकिन बहुत दिनों बाद निकली। उषा के जन्मदिन के करीब ग्यारह माह बाद निशा का जन्मदिन पड़ा। निशा सजग तो थी मगर सामाजिकता के भी कुछ तकाजे थे। नए-नए रोमांस में अपने जन्मदिन पर अमर को ना बुलाना थोड़ा अजीब था, माँ पूछती तो क्या जवाब देती फिर माँ तो उससे बहुत दिनों से अमर को घर बुलाने की बात कर रही थी। बस वही अमर की व्यस्तता का हवाला देकर टालमटोल करती रही। लेकिन जब रेवती ने सख्ती से ताकीद की वो अमर को हर हाल में बुलाये, इसलिये मन मारकर भी उसे अमर को निमंत्रण देना पड़ा।

पिछले कई महीनों से निशा हर इतवार को ही अमर से सब्जी मंडी में मिला करती थी। क्योंकि इतवार शाम को अमर का क्लीनिक बन्द रहता था और बाकी दिन निशा का स्कूल भी खुला रहता था। सब्ज़ी मंडी में हर इतवार को मिलना और अमर की साइकिल होते हुए भी निरुद्देश्य दोनों का पैदल चलते हुए निहाल विहार के नाके तक आना। बीच-बीच में कहीं एकांत होने पर अमर निशा के किसी अंग को सहला दिया करता और उससे एकांत में जाने की जिद करता मग़र हर बार निशा उसकी मंशा भाँपकर कोई ना कोई बहाना बना देती।

ये जनवरी की जानलेवा शीतलहरी थी। जिसमें दिल्ली शहर को रात दस बजे तक कोहरा इस तरह से अपने आगोश में ले लेता था कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था और सुबह तक कुछ भी नहीं दिखता था। निशा ने एक हफ्ते पहले ये निमंत्रण अमर को दे दिया था। अमर के पास पूरा हफ्ता था अपनी योजना को अमली जामा पहनाने के लिये। अमर ने जनपथ मार्केट जाकर काफी मोल-भाव करके डेढ़ सौ रुपये का एक सलवार कुर्ता खरीदा। डेढ़ सौ वाला सलवार सूट उसने तीन सौ वाले प्राइस टैग वाले डिब्बे में रखकर पैक करवाया। उसने सराफा बाजार से डेढ़ सौ रुपये की सोने की नथनी भी खरीदी। नथनी काफी छोटी थी मगर सोना उसमें खरा था इस बात की उसने दुकानदार से पक्की रसीद भी ली।

तय वक्त पर शुक्रवार के दिन वो निशा से मिला औऱ उससे कहा”किसी होटल में चलोगी। वहीं मनाते हैं तुम्हारा जन्मदिन। “

निशा सकुचाते हुए बोली “कहाँ, किस होटल में”?

अमर ने चहकते हुए कहा”यहीं पीरागढ़ी में है, होटल कृष्णा पैलेस। ओवरब्रिज के नीचे, वहीं चलते हैं। रात का खाना भी खाएंगे, तुम्हारा जन्मदिन भी मना लेंगे। “

निशा फिर सकुचाते हुए बोली” वो तो बहुत महंगा होटल होगा”।

अमर ने लापरवाही से कहा”हाँ है तो, चार-पांच सौ रुपये खुराक खाना है। पचास रुपये कप तो चाय ही है “।

निशा ये सुनकर घबरा गई, वो सहमते हुए बोली”नहीं, नहीं हम इतने महंगे होटल में खाना अफोर्ड नहीं कर सकते”।

अमर बहुत ही सावधानी से अपनी योजना पर कार्य कर रहा था। उसने खुद को लापरवाह दिखाते हुए कहा-

“चिंता पैसों की नहीं है बल्कि दूसरी है”।

निशा ने हैरानी से पूछा”पैसों की चिंता नहीं है फिर क्या है”?

अमर ने धीरे से कहा”वहाँ खाना रात को दस बजे के बाद ही मिलता है। और आजकल तो दस बजे रात को बहुत कोहरा फैल जाता है। वापसी में कोई रिक्शा नहीं मिलता। फिर ऑटो वाले तुम्हारी गली में जाएंगे भी नहीं”।

वैसे तो निशा अमर की बात से मुतमईन हो गयी लेकिन उसे इस बात का गर्व भी था कि उसके संबंध एक ऐसे इंसान से हैं जो उसके लिये पैसों की परवाह नहीं करता बल्कि एक शाम में ही हजार रुपये उड़ा सकता है, जबकि हज़ार रुपये तो वो महीने भर में कमा नहीं पाती।

अमर की योजना का पहला तीर ठीक निशाने पर लगा था। दोनों बड़ी देर तक चुप रहे, पैदल चलते-चलते निहाल विहार का नाका आ चुका था। अमर को अपनी दूसरी योजना पर तीर चलाने का कोई मौका मिल नहीं रहा था और ना मन की बात कहने की कोई सूरत नजर आ रही थी। फिर भी उसने अपनी बात भावुक होते हुए कही-

“मैं तुम्हारा जन्मदिन बहुत अच्छे से मनाना चाहता हूँ, लेकिन क्या करूँ?तुम्हें होटल लेकर जाऊं तो मौसम खराब होने का लफड़ा, अपने कमरे पर ले जाना चाहूँ तो मेरे कमरे पर तुम एकांत में रुकोगी नहीं। फिर तुम ही बतलाओ कहाँ मनाऊं तुम्हारा जन्मदिन”?

निशा ने उषा के एंगल पर विचार किया और ये सोचा कि उषा और अमर की मुलाकात को बहुत दिन बीत चुके हैं। अमर को नाराज भी नहीं कर सकती थी इसलिये उसके पास ना होटल जाने का हौसला था औऱ ना अमर के कमरे पर अकेले जाने की हिम्मत। हारकर उसने अमर से कहा-

“”ठीक है, तुम मेरे घर पर ही आ जाना। वहीं मनायेंगे और सुनो केक, मिठाई कुछ मत लाना वो सब उषा ने पहले ही खरीद लिया है। रात को ठंड और कोहरा बहुत बढ़ जाता है। इसलिये तुम साढ़े सात तक हर हाल में आ जाना जिससे नौ बजे तक वापस लौट जाओ, वैसे नौ बजे भी कॉफी देर हो जाती है”।

निशा ने वक्त का अंदाज़ा लगाकर इस हिसाब से कहा था ताकि अमर और उषा का सानिध्य का कम से कम अवसर मिले वो बहुत देर तक साथ ना रहें। निशा ने सोचा कि आग और पेट्रोल को अगर मिलने ही ना दिया जाये तो किसी धमाके की गुंजाइश नहीं रहेगी, एक ऐसा धमाका जो उसकी दुनिया को नष्ट कर सकता है, बड़ी देर तक यही सब सोचती विचारती रही निशा।

अमर अपने कमरे पर लौट आया जैसा भी हो आज उसके दोनों हाथों में लड्डू थे। उसने सोचा-विचारा, सावधनी पूर्वक हालात का जायजा लिया। उसने सैलून में जाकर दाढ़ी बनवाई और फेस मसाज कराया फिर कमरे पर लौटकर कड़कड़ाती ठंड के बावजूद साबुन से खूब घिस-घिसकर नहाया। तेल फुलेल, क्रीम-इत्र सहित तमाम सौंदर्य उत्पादों का उसने प्रयोग किया खुद को सुंदर दिखाने के लिये। नथनी को उसने अपने पैंट की चोर जेब में छिपा लिया। अपनी योजना को अंजाम देने के लिये उसने इस ठंड में भी जूते के बजाय सैंडिल पहनी। हाथ में सलवार कुर्ता वाला डिब्बा लिया और कुछ डॉक्टरी का सामान भी। वो रात को निकला तो साइकिल लेकर निरुद्देश्य इधर-उधर घूमता रहा। निहाल विहार के नाके से थोड़ा पहले दर्शन सिंह की बावड़ी थी। वहाँ पर दिल्ली नगर निगम के अलाव जल रहे थे। बड़ी देर तक वो मजदूरों के बीच अलाव तापता रहा साइकिल वहीं किनारे लगाकर।

धीरे-धीरे रात के नौ बज गए। पार्क, गलियां, रोड सब सूने हो गये हर तरफ सन्नाटा हो गया। अलाव से निकलकर साइकिल लेकर वो साईं बाबा मंदिर के पास पहुँचा। जान बूझकर उसने वहाँ भी काफी वक़्त बिताया एक अलाव पर और दो राउंड चाय पी। कोहरा अब पूरे शबाब पर था, दस फ़ीट भी दूर देखना मुश्किल था। उधर रेवती के घर इंतजार के लम्हे बहुत डरावने हो चले थे। दोनों बहनें आगन्तुक की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही थीं। आठ से नौ, फिर नौ से दस बज गये तो मोहल्ले के मेहमान अधीर होकर निशा के घर से बिना खाना खाये ही जाने लगे।

हारकर निशा ने केक काटा और मेहमानों को खाना खिलाया।

इधर दस बजे रात को निहाल विहार के नाके पर अमर ने साइकिल पर रस्सी बांधकर उसे नाले में फेंक दिया और फिर रस्सी से खींच-खींच कर साइकिल को कीचड़ से सरोबार कर दिया। जब साइकिल के पुर्जे-, पुर्जे पर कीचड़ लग गया तब उसने साइकिल को बाहर खींच लिया और उसे सुई से पंचर कर दिया। उसके बाद उसने साइकिल का ढेर सारा कीचड़ अपने शर्ट और पैंट पर लगाया। सर्दी में पानी ना रिसे शरीर पर सिर्फ कीचड़ ही लगे कपड़ों पर इस बात का उसने खास खयाल रखा। सलवार -कुर्ते के डिब्बे के ऊपर भी उसने खूब कीचड़ लगाया। नाले के किनारे पन्नी तानकर रात बिता रहे मज़दूर उसकी इस हरकत को देखकर खिलखिला कर हँसते रहे। उसने क्लीनिक से लाया हुआ डॉक्टरी का औजार निकाला। अपने दोनों पैरों पर उसने ऐसी जगह चीरा लगाया जहाँ से खूब खून निकल सके। खून की एक बूंद भी उसने जमीन पर ना गिरने दी औऱ फिर उस खून को शरीर और कपड़ों पर ऐसी जगह लगाया जहाँ से वो अधिकतम दिखे।

थोड़ी देर बाद अपने ही डॉक्टरी के सामान से उसने घावों पर बड़ी बड़ी पट्टियां बांध दी मगर ये सुनिश्चित किया कि खून नुमायां होता रहे।

अमर कुछ ईंटे उठा लाया और एक पैर से रिम को दबाकर ईंट से उसने पिछली रिम को टेढ़ा कर दिया और कैरियर को तोड़ दिया ताकि ऐसा लगे कि किसी भारी वाहन ने साइकिल को पीछे से धक्का दिया है जिससे रिम टूट गयी है। उसने देखा कि साढ़े दस बज गए हैं तो अपनी घायल साइकिल और खुद लंगड़ाते हुए निशा के दरवाजे पर पहुँचा।

अमर ने माहौल का जायजा लिया, सर्वत्र शांति थी, बत्तियां बुझ चुकी थीं। उसने दो बार दरवाजे पर दस्तक दी। रेवती ने दरवाजा खोला, उसकी हालत देखकर वो चौंक गयी। उसने नीचे से आवाज़ लगाई-“निशा, अमर बाबू आ गये हैं, जल्दी नीचे आओ”। आवाज़ तो रेवती ने सिर्फ निशा को दी थी मगर नीचे दोनों बहनें साथ में आयी। अमर की हालत देखकर दोनों युवतियां हैरान भी हुईं, फिर गमजदा और खौफजदा भी।

रेवती ने हौले से कहा”इन्हें ऊपर ले जाओ ठीक से पकड़कर, सहारा देकर, तब तक मैं इनकी साइकिल खड़ी कर देती हूँ किचन में। “

रेवती ने नाम तो किसी का भी ना लिया था लेकिन लाज के तकाजे से उषा ने पहल नहीं की, अव्वल तो ये हक निशा का था और अगर वो बढ़कर अमर को पकड़ लेती तो तो निशा का शक और बढ़ जाता उसके प्रति। निशा ने हाथ का सहारा देकर अमर को उपर ले जाने की कोशिश की, लेकिन अमर को ये बात थोड़ा अखर गयी वो चाहता था कि उषा उसे छुए लेकिन उषा तो दूर ही खड़ी रही तो वो क्या करे कि उषा उस तक आये?सो उसने अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया। अमर के शरीर का भार अकेले उषा के बस का नहीं था सो उसने मदद मांगने की सोची। रेवती किचन में थी साइकिल के जगह बना रही थी उसे बुलाना मुनासिब नहीं था सो ‘मरता क्या ना करता”। उसने उषा से कहा-

“उषा, दूसरी तरफ से तुम भी सहारा दे इन्हें अकेले मेरे बस का नहीं है। ठीक से पकड़ना नहीं तो कहीं गिर-पड़ जाएं”।

“अंधा क्या चाहे दो आंखे”उषा को तो मानों मनमाँगी मुराद मिल गयी, उसने झट से अमर को दूसरी तरफ से थाम लिया। वैसे तो अमर को दोनों तरफ से युवतियों ने पकड़ रखा था मगर जिस तरफ से उषा ने पकड़ रखा था उधर उसे कुछ विशेष रोमांच हो आया।

ऊपर पहुँचकर दोनो बहनों ने अमर को कुर्सी पर बिठाया तब तक रेवती अमर की साइकिल खड़ी करके नीचे से ऊपर आ गयी।

हर आँख में एक ही सवाल, कब हुआ ये, कैसे हुआ ये?

अमर ने कराहते हुए बताया”यहीं आ रहा था, निहाल विहार के नाके के पास एक मोटरसाइकिल वाले ने पीछे से टक्कर मार दी जिससे मैं गहरे नाले में जा गिरा। सर में चोट आयी तो थोड़ी देर बेहोश रहा। बड़ी मुश्किल से लोगों ने निकाला, फिर वहीं एक डॉक्टर से इलाज कराया, इंजेक्शन लगवा कर पड़ा रहा, कुछ आराम मिला तो फिर इधर आया, पैर में भी मोच आ गयी, चला ही नहीं जा रहा। एक भला आदमी मेरी साइकिल और मुझे पैदल-पैदल यहाँ छोड़ गया है। खैर मेरी वजह से आप लोगों को दिक्कत हुई वेरी सारी। जन्मदिन मुबारक हो निशा, विश यू ए वेरी हैप्पी बर्थ डे निशा, ये रहा तुम्हारा गिफ्ट”ये कहते हुए अमर ने निशा की तरफ गिफ्ट का पैकेट आगे बढ़ाया।

अमर का ये हाल और उसके बावजूद उसका घर तक आना औऱ गिफ्ट भी लाना, ये सब देख-सोच कर निशा के नेत्र सजल हो उठे। उसकी आँखों से आँसू की एक पतली धार बह निकली जिसे उसने लजाते हुए तड़ से पोंछ लिया। आंख तो उषा की भी डबडबा गयी थी, मन भी बेचैन था अमर को देखकर कि “हाय अमर तुम इतने महीने बाद मिले तो भी इस हाल में’लेकिन उसने अपने आंसू और बेचैनी को काबू में रखा कि निशा कहीं फिर उसे ताड़ना शुरू कर दे”।

रेवतिरेवती ने कहा”अमर बाबू साइकिल तो खराब हो गयी है। पंक्चर भी है शायद औऱ रिम भी टेढ़ी-मेढ़ी हो गयी है। पैर में भी तुम्हारे मोच है। पूरे बॉडी पर इतनी चोट लगी है फिर इतनी टाइम ना तो कोई टेम्पो मिलेगा ना ही रि क्शा। इसलिये तुम आज यहीं रह जाओ”।

अमर को तो मानो मुँहमाँगी मुराद मिल गयी वो मन ही मन पुलकित हो उठा, लेकिन परोक्ष रूप से वो कराहते हुए बोला”ठीक है, मैं नीचे के किचन में पड़ा रहूँगा”।

रेवती ने कहा”नहीं नीचे गुंजाइश नहीं है। तुम्हारी साइकिल है और फिर दिन और रात के भी ढेर सारे जूठे बर्तन पड़े हैं। फिर निशा के पापा भी आ गए थे आज इसका जन्मदिन था आज सो आ गए थे। वो नीचे दारू पिये बिना होश-हवास के पड़े हैं। तुम वहाँ जाओगे तो तुम्हे बहुत परेशान करेंगे। रात-बिरात गाली-गलौज या मारपीट करेंगे तो मोहल्ले में तमाशा बन जायेगा। यहीं सब लेट जायेंगे किसी तरह रात कट जायेगी। “

अमर ने सर हिलाकर अपनी सहमति दे दी।

रेवती ने कुछ ज़ोचते हुए फिर कहा”ये कीचड़ सने कपड़े तुम उतार दो अमर बाबू, नहीं तो तुम्हे सर्दी लग जायेगी। अरे निशा, अपने पापा की एक साफ शर्ट और लुंगी लाकर इन्हें दे दो। अमर बाबू तुम बाथरूम में जाकर हाथ -मुंह धूल लो और कपड़े बदल लो। “

निशा अपने पिता के कपड़े ले आयी तो अमर उन्हें लेकर बाथरूम में चला गया। उसने अपने कपड़े निकाले तो बड़ी चालाकी से पैंट की चोर जेब से नथनी निकालकर लुंगी में गांठ बाँधकर छिपा ली।

अमर बाहर आया तो रेवती ने निशा से कहा”निशा इनके कपड़े अभी साफ कर दो, घर पर जाएंगे तो कौन सा माँ या बीवी बैठी है जो इनके कपड़े साफ करेगी। अभी साफ करके डाल दे, सुबह प्रेस से सुखा देना, धूप निकलनी मुश्किल है”।

निशा ने रेवती को सहमति दी। वो एक प्लेट में अमर के लिये जन्मदिन का केक ले आयी और उसे खाने को दिया। अमर जब केक खाने लगा तो निशा उसके कपड़े लेकर बाथरूम में धोने चली गयी।

रेवती ने उषा को आवाज़ दी और कहा”तुम खाना गरम करके इन्हें दो, तब तक मैं नीचे ताला भरकर आती हूँ। “ये कहकर रेवती नीचे ताला लगाने चली गयी।

एकांत होते ही अमर और उषा एक दूसरे पर आकर्षित हो गये। उषा ने अमर को चुटकी काटी तो अमर ने उषा को अपने से सटा लिया और लुंगी में से गांठ खोलकर नथनी निकाली और उसके हाथों को सहलाते हुए उसकी मुट्ठी पर रखकर बन्द कर दिया और उसकी मुट्ठी पर अपने दोनों हाथ रख दिये। अमर ने उषा के कानों में धीरे से कहा-

“ये तुम्हारे लिये, कोई ना देखे, किसी से ना कहना, इसे झट से छिपा लो”अपनी बात कहते-कहते अमर ने उषा के कानों को चूम लिया। उषा ने मुस्करा कर सर झुका लिया और अपना दूसरा हाथ अमर के हाथ पर रख दिया। दोनों बहुत रोमांचित थे, उनके बदन में बिजली का संचार हो रहा हो मानो।

तब तक जीने पर रेवती के चढ़ने की आवाज़ आयी तो दोनों एक दूसरे से अलग हुए। उषा ने वो नथनी झट से अपने अंडर गारमेंट्स में छिपा ली और अमर का खाना लगाने में व्यस्त हो गयी।

अमर खाना खाने लगा तब तक निशा भी बाथरूम से कपड़े धोकर वापस आ गयी। निशा इस बार सजग थी वो उषा को किसी सूरत में कोई अवसर नहीं देना चाहती थी अमर को लेकर। इसलिये वो जल्दी-जल्दी बाथरूम से कपड़े धोकर निकल आयी। निशा अगर सजग थी तो उषा इस बार कम चौकन्नी नहीं थी वो निशा के सामने अमर से नजरें नहीं मिला रही थी। खाने के बाद भी थोड़ा हँसी-मजाक और इधर-उधर की बातें होती रहीं लेक़िन सब एक दूसरे से चौकन्ने थे।

माहौल नॉर्मल हुआ तो सोने की तैयारी होने लगी। इकट्ठा सोना उनकी बेशर्मी नहीं बल्कि मजबूरी थी क्योंकि रजाइयां घर में कम थीं। ऊपर से रामनरेश ने शाम को इफरात दारु पीकर एक रजाई पर खूब सारी उल्टी कर दी थी सो वो भी इस्तेमाल के लायक ना रह गयी थी। रामनरेश को दूसरी रजाई दी गई, फिर अमर भी ठहर गया तो और भी कमी हो गयी गर्म बिछौनों की। बेटियों वाले उस घर में शायद ही किसी ने रात्रि प्रवास किया हो ऊपर के तल पर, वो भी किसी बाहरी पुरुष ने तो हर्गिज़ नहीं।

इंसान की जरूरतें उसकी वर्जनाओं पर सदैव भारी पड़ती हैं, फिर इंसानियत के तकाजों को अंजाने डर के खातिर छोड़ना गैर वाजिब लगा रेवती को। जो भी शरणागत का स्वागत है, वरना कौन कल्पना कर सकता है कि बयालीस साल की एक गठे बदन की एक औरत अपनी ही दो जवान बेटियों के साथ एक पराये मर्द के साथ एक ही बिस्तर में सोने की हिमाकत करेगी।

एक कोने में अमर लेटा, फिर रेवती, उसके बगल निशा और फिर उषा। सर्दी इतनी जानलेवा थी कि कमरे में हीटर लगा दिया गया क्योंकि दो रजाइयां चार जवान जिस्मों को ढकने के लिये नाकाफी थीं। दरअसल रेवती भी अमर से एक दूरी बनाकर अपनी बेटियों की रजाई में डुबकी थी तो एक रजाई उन तीन जनानियों को ढकने के लिये हर्गिज़ नाकाफी थी। सो रेवती निशा से, और निशा उषा से चिपट गयी। वो इतनी सटी थीं एक दूसरे से, कि एक दूसरे के चेहरे पर ही सांस ले रही थीं। एक रजाई छोटी पड़ रही थी तो एक दूसरे के जिस्म की गर्मी और हीटर का सहारा था। उधर दूसरी रजाई में अमर करीब-करीब अकेला था, उसने उन तीनों को एक ही रजाई में सिमटते देखा तो करवट ले ली और दीवार की तरफ शरीर कर लिया। बेशक कमरे में हीटर चल रहा था लेकिन एक अजनबीपन और अंजाना सा डर उन सभी पर हावी था या सर्दी ही उन सभी के बदन में इतनी पेवस्त थी कि नींद किसी को भी नहीं आ रही थी।

रेवती ये सोचकर लेटी थी कि’वो सोयेगी नहीं, उसे अपने जवान बेटियों की हिफाज़त करनी है और अमर की निगरानी करनी है। खुद को महफूज़ रखना है चाहे जितना विश्वासपात्र हो अमर कोई सगा तो है नहीं जिसे उसने कोख से जना हो, आखिर है तो वो फिलहाल पराया मर्द ही और फिलहाल एक ही बिस्तर में है। सो उसे पूरी रात जगना है।

लेकिन मन की योजनाओं का शरीर हमेशा साथ नहीं देता है, जब तक हीटर से कमरा गर्म ना हुआ तब तक सब जाग रहे थे मगर एक दूसरे को जतला रहे थे कि वे सो रहे हैं मगर हकीकतन इस नई परिस्थिति में सोया कोई भी नहीं था। काफी देर बाद जब हीटर ने अपना रंग जमाया और कमरा काफी गर्म हो गया तो नींद ने सबकी आंखों पर दस्तक दी। नींद से जूझने को तैयार बैठी और ना सोने की अहद करने वाली रेवती को नींद ने सबसे पहले अपने आगोश में लिया। लेकिन उसके अंदर की सतर्क औरत ने उसको झकझोरा तो वो उठकर बाथरूम में गई और अपने मुंह को धोकर बिस्तर पर फिर लेट गयी।

कमरा अब काफी गर्म था, बिस्तर भी हीटर की गर्मी से काफी सुख दे रहा था। दिन भर की थकान से चूर रेवती आधे घण्टे से ज्यादा खुद पर काबू नहीं रख सकी और खर्राटे भरने लगी। निशा और उषा दोनों निशब्द थीं। उनकी भी आंखें बोझिल थीं। अमर को भी नींद आ रही थी मगर वो अपनी नींद से लड़ रहा था क्योंकि ऐसी कयामत रातें किसी इंसान की जिंदगी में एक आध बार ही आती हैं। उसने इस रात को हासिल करने के लिये जो उपक्रम किये थे वो कामयाब रहे थे। वो सोच रहा था कि किसको छुए । उषा या निशा में जो सो रही हो उसे ना छुए और जो जाग रही हो उसी को पहले छुए। निशा को वो पहले कई बार छू और सहला चुका था मगर दिन के उजाले और रात के अंधरे की तासीर अलग-अलग थी। अलबत्ता उषा को आज उसने पहली बार छुआ था इसलिये उषा को लेकर उसकी उत्कंठा बहुत ज्यादा थी। अगर निशा ने उषा को छूते देख लिया तब तो सारा खेल ही खत्म हो जायेगा और अगर उषा ने निशा को छूते हुए देख लिया तो वो भी बिदक जायेगी। उसने सुन रखा था कि जिस तरह धूप का एक वक्त होता है जब वो दोपहर में ज्यादा चढ़ती है उसी तरह नींद का भी एक वक्त होता है जो रात के किसी खास पहर में ज्यादा हावी होती है और ये वक्त आधी रात का होता है। अमर ने तय किया कि वो दोनों बहनों के सोने का इंतजार करे, उस वक्त जो सुलभ होगी उसे छुएगा। फिर सोचा, नहीं, नहीं आज तो उषा ही क्योंकि ऐसा मौका दुबारा ज़िन्दगी में मिले या ना मिले।

उसने अपनी घड़ी में रात को डेढ़ बजे का अलार्म सेट कर दिया और खुद सोने का प्रयास करने लगा। वो जानता था कि एक बार उसके सोने की तस्दीक हो गयी तो तीनों जनानियाँ सो जायेंगी क्योंकि उनका डर दूर हो जायेगा।

तीनों जनानियों के डर और अंदेशे अलग-अलग थे जो कि एक पुरुष की नींद पर मुनहसर थे। अमर जब सो गया तब उषा ने उसकी टोह लेने की सोची। वो बाथरुम जाने के बहाने उठी और लौटकर आयी तो अमर को खर्राटे मारते देखा। अमर के इस सुअवसर को सो कर गंवाने से वो थोड़ा निराश हुई और बहुत अनमनी हुई। फिर हारकर वो सोने का प्रयत्न करने लगी और फिर निराशा में सो ही गयी।

निशा भी चुपचाप पड़ी सोने का अभिनय कर रही थी। उषा जब उठी तब वो जान गयी थी लेकिन वो दम साधे पड़ी रही । अमर के सोने की तस्दीक उसके खर्राटे कर रहे थे इसलिये निशा की नजर अब उषा पर ही थी कि वो क्या गुल खिलाने वाली है। उषा जब बाथरूम से आकर थोड़ी देर खड़ी रही थी तो निशा को लगा कि वो शायद अब अमर की तरफ जाए। लेकिन उषा फिर आकर बिस्तर पर सो गयी और बेधड़क सोने के बाद उसने पैर निशा के शरीर पर लाद दिये जो कि उषा की पुरानी आदत थी। निशा ने उषा को हिला डुला कर टटोला मग़र वो बेधड़क सो रही थी। उधर कमरे में अमर और रेवती के खर्राटे भी गूंज रहे थे।

सभी के सो जाने की तस्दीक करने के आधे घण्टे बाद निशा उठी और बाथरूम में गयी और फिर लौट कर कमरे में आयी। वैसे तो कमरे की बत्ती बुझी थी मगर हीटर की रॉड जलने की वजह से कमरे में घुप्प अंधेरा नहीं था लोग पहचाने जा सकते थे उस नीम अंधेरे में। बाथरुम से लौटकर वो थोड़ी देर निशब्द अंधेरे कमरे में खड़ी रही कि अगर कोई जाग रहा है तो उसे टोके, उससे पूछे।

निशा को छोड़कर सब नींद की आगोश में थे। उसका दिल धड़क रहा था और ना जाने क्यों उसे अमर का इस तरह सो जाना बहुत बुरा लग रहा था। बोलना मुफीद नहीं था लेकिन वो चाहती थी कि अमर जागे, देखे और इस आकर्षण को महसूस करे कि सिर्फ वे दोनों ही इस अंधेरे कमरे में जाग रहे हैं। दिन के उजाले में स्त्री की लाज सात पर्तों में ढकी रहती है, लेकिन इस नीम अँधेरे में, एकांत में वो लाज की कुछ परतें उतार सकती है लेकिन अमर कमबख्त इस सुअवसर को गंवा कर सोया पड़ा था।

निशा ने सोचा ‘बोलना मुनासिब नहीं कोई भी जाग सकता था। वो बेआवाज़ पैरों से चलते हुए अमर की तरफ आयी। उसके पैर का अंगूठा पकड़कर बड़ी तेजी से हिलाया, मगर अमर नहीं जागा। वो नींद की आगोश में था। निशा ने दो-तीन बार उसके अंगूठे को झझोंड़ने की कोशिश की, अमर जागा तो नहीं बस कुनमुना कर रह गया। वो वाकई सो रहा था। निशा ने अमर के अँगूठे को ज्यादा जोर से इसलिये नहीं दबाया कि हो सकता है दर्द होने पर अमर अचानक चीख मारकर उठ बैठे, उसकी आवाज़ से अगर सब जाग गए तो सब कुछ किया धरा गुड़-गोबर हो जायेगा। जब अमर नहीं जागा तो निशा थोड़ी सी खिन्न हुई लेकिन अचानक उसे ख्याल आया कि हो सकता है कि चोट की वजह से उसने जो दवायें ली हो उनकी वजह से उसको गहरी नींद आ गई हो सो तो वो अब सुबह ही उठेगा। निशा ने ये सोच कर खुद को तसल्ली दी और जाकर बिस्तर पर लेट गयी। वो सोने का प्रयास करने लगी और थोड़ी देर में वो सो भी गयी।

नींद में भी सतर्कता स्त्री का जन्मजात गुण होता है अचानक एक बजे रात को रेवती चौंककर उठ बैठी। वो खिन्न हो गयी कि आखिर वो सो कैसे गयी थी। कहीं कुछ अनर्थ तो नहीं हो गया। दिखावे के लिये वो भी बाथरूम गयी और फिर लौटकर आकर बिस्तर पर बैठ गयी। बारी-बारी से उसने धीरे से अमर, उषा, निशा को नाम लेकर पुकारा मगर किसी ने भी प्रतिक्रिया नहीं दी। ना कोई जुम्बिश, ना हलचल। सबके चेहरे के पास जाकर तीनों की साँसों का उतार-चढ़ाव देखा, सभी ने गहरी निंद्रा के लक्षण दिखाए। ये सब देखकर रेवती निश्चिन्त हो गयी। वो लेटी तो इस सोच के साथ कि इस बार उसे हर्गिज़ नहीं सोना है, सतर्क रहना है मगर उसके इरादे उसकी शारीरिक थकान से हार गये और वो फिर गहरी नींद में सो गयी।

सर्दी की इस सितमगर रात में जब सब पर नींद तारी थी कि अचानक डेढ़ बजे अमर के घड़ी ने दो-तीन बार अलार्म की आवाज़ दी तो उसकी आंख खुल गयी। उसकी आंख खुली तो उसने कमरे का जायजा लेना मुफीद समझा कि उसके साथ अलार्म की आवाज़ से किसी और की आंख ना खुली हो। वो दम साधे करीब पंद्रह मिनट बिना हिले-डुले पड़ा रहा। जब किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो वो बिस्तर से उतरकर ज़मीन पर बैठ गया। वो बिना आवाज़ के घुटनों के बल चलते हुए उषा के पास पहुँच गया। उषा चौकी के दूसरी तरफ मुँह किये सो रही थी। उसके चेहरे के दो फीट बाद दीवाल थी अमर उसी जगह बैठ गया। उसने पहले उषा का चेहरा सहलाया फिर धीरे-धीरे उसके पूरे बदन को सहलाने लगा। स्त्री के शरीर को पुरुष का हाथ छुए तो वो जाग ही जाती है। अमर जमीन पर बैठे-बैठे औऱ उषा उसी अवस्था में लेटे-लेटे एक दूसरे को चूमते रहे। अमर उसके शरीर के हर हिस्से को सहलाता-टटोलता रहा और उषा पुलकित होती रही। अमर पर जब काम वेग तारी हुआ तो उसने उषा के कान में धीरे से कहा-

“नीचे चलो किचन में, तुम्हारे पापा को होश-हवास नहीं होगा”।

“नहीं, नहीं, आज नहीं, पापा जाग जाएंगे “उषा ने उठने से मना कर दिया।

अमर ने उसे उठाने के लिये बहुत खींचा-खांचा मगर उषा ने ना उठने का अपना प्रतिरोध जारी रखा। इस प्रतिरोध और खींचतान में आवाज़ की गुंजाइश हर्गिज़ भी ना थी वरना कोई भी जाग सकता था और खेल खत्म।

हारकर अमर धीरे से उषा के कान में फुसफुसाया”अच्छा दो मिनट बाथरूम में चलो”।

उषा को पता था आगे क्या होगा? उसने अपने प्रेम की पहली सीढ़ी सहवास तो हर्गिज़ नहीं सोचा था। वो धीरे से अमर के कान में बोली”निशा दीदी या मम्मी जाग जायेंगी, अब तुम जाओ”।

अमर अपनी जगह से नहीं हिला।

उषा ने अमर का बहुत जोरदार चुम्बन लिया और धीरे से उसके कान में बोली “आई लव यू, अब जाओ सो जाओ प्लीज”।

ये कहकर उसने निशा की तरफ करवट ले ली। अमर जान गया कि ये लड़की अब उठने वाली नहीं है। वो ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता था। उषा का करवट ले लेना इस बात की निशानी थी कि अब वो वहाँ से जाये। वो अंगारों पर लोटता हुआ घुटनों के बल वहाँ से लौट आया और बिस्तर पर अपनी जगह लेट गया।

अमर अगर काम वेदना से तड़प रहा था तो उषा के भी अंग-प्रत्यंग में बिजली का संचार हो गया था। पहली बार पराये पुरुष के स्पर्श से उसके शरीर में बिजली का संचार हो रहा था मगर स्त्री ऐसी बिजलियों पर राख डालना बखूबी जानती है। खुद के मनोभावों को जब्त करने का गुण स्त्री माँ के पेट से ही सीखकर आती है। शरीर की उमंगों ने परेशान किया तो उषा ने रजाई खोल दी। थोड़ी देर सर्दी का सितम बदन पर पड़ा तो बदन के अंदर की बेचैनी शांत हो गयी। उसके बाद उसने रजाई ओढ़ ली और सोने की कोशिश करने लगी फिर थोड़ी देर में वो सो भी गयी।

अमर अब भी काफी बेचैन था किसी भी तरह से उसके मनोभाव उसके काबू में नहीं आ रहे थे। वैसे भी उसकी जिस्मानी तलब जाग चुकी थी। उसने फिर घड़ी में साढ़े तीन का अलार्म लगाया उसे उम्मीद थी तब तक उषा सो जायेगी। वो वक्त अभी डेढ़ घण्टे दूर था। उसका अनुमान था कि इस जानलेवा सर्दी

में रात को साढ़े तीन बजे का वक्त भी सोने के लिये खासा मुफीद होगा।

उसकी घड़ी ने साढ़े तीन बजे फिर अलार्म बजाया। वो फिर दम साधे दस मिनट और पड़ा रहा। इस वक्त रेवती उसी की रजाई में थी और निशा की तरफ उसकी पीठ थी। उसने देखा तो उषा इस वक्त दीवार की तरफ उसी तरह मुंह करके सो रही थी जिस तरह वो पहले लेटी थी। यानी निशा के चेहरे के तरफ किसी का चेहरा नहीं था बल्कि दोनों की पीठ थी। वो उतरकर निशा के सिरहाने गया। चौकी और दीवार के बीच यहाँ भी दो फीट की जगह थी। वो उसी जगह पर बैठ गया और निशा के सर की तरफ से उसे चूमना शुरू कर दिया । इस बेआवाज़ गतिविधि अमर निशा को बड़ी देर तक बेतहाशा चूमता रहा। निशा भी उसे मौन सहमति दिये रही जो कि बहुत दिनों से वो अमर की इन हरकतों पर रोक-टोक ही लगाती रही थी। आज उसने लाज की वो बंदिश हटा ली वो जानती थी कि इस सहमति की भी एक मर्यादा है जो इस हाल में बहुत दूर तक नहीं जा सकती। निशा के सिर के पीछे से जहाँ तक अमर के हाथ पहुंचे वहाँ तक वो निशा के बदन को टटोलकर अपनी मनमानी करता रहा। जब उसकी भावनाएं बेकाबू हो गयीं तो वो घुटनों के बल खिसकता हुआ निशा के पैरों की तरफ आ गया। वो जमीन पर बैठ गया। फर्श काफी ठंडी थी लेकिन अमर का शरीर काफी गर्म था। वो निशा के पैरों की तरफ फर्श पर बैठकर जहाँ तक उसके हाथ पहुँचे उसके बदन को टटोलता-सहलाता रहा। जब उसकी भावनाएं पूरी तरह बेकाबू हो गयीं तो उसने निशा को बड़ी तेजी से खींचा। निशा उठकर खड़ी हो गयी क्योंकि जिस तेजी से अमर ने उसे खींचा था अगर वो उठकर खड़ी ना होती तो रजाई भी खिंच जाती फिर ठंड से उषा या रेवती जाग सकती थीं।

अमर ने उसके कान में फुसफुसाते हुए कहा”नीचे चलो, तुम्हारे पापा बेहोश पड़े होंगे, वो नहीं जागेंगे”।

निशा ने उसके कान में कहा”नहीं, नहीं वो जाग ही रहे होंगे, वो पूरी रात जागते रहते हैं सोते ही नहीं”।

“तो फिर बाथरूम में चलो”अमर ने उसे लगभग बाथरूम की तरफ खींचते हुए कहा।

निशा ने अपना हाथ अमर से छुड़ाया नहीं, दूसरे हाथ से उसे इंतजार करने और चुप रहने का इशारा किया। अमर रुक गया। निशा सोचने लगी, कि इतना कुछ तो अमर ने आज कर लिया अब इसके आगे मर्यादा का अंतिम बिंदु है। फिर यूँ विवाह से पूर्व किसी को अपनी अस्मत सौंपना उचित ना होगा। प्रेमी है तो क्या पति थोड़े ना है अभी, अब बस इससे आगे की सीमा रेखा वो पार नहीं करेगी। उसने अमर से कहा-

“नहीं कोई जाग जायेगा, जाओ सो जाओ वैसे भी बहुत हो गया। अब सो जाओ प्लीज़”।

अमर ने उसे बहुत खींचा मगर उसने अपना बेआवाज़ प्रतिरोध जारी रखा। उसे अब अमर का प्रयास बहुत नागवार गुजरने लगा था और घटिया भी। उसे गुस्सा भी आ रहा था, लेकिन अमर उसी का प्रेमी था वो अगर चिल्लाकर अपना गुस्सा जाहिर करती तो अनर्थ हो जाता। क्या करे वो?अपने को चूमने देना और विवाह से पूर्व अपनी अस्मत सौंप देना दो अलग-अलग बातें थीं। उसने झटके से अपना हाथ अमर से छुड़ा लिया और कमरे के दूसरी तरफ़ उषा के सिराहने जाकर खड़ी हो गयी।

अमर जान चुका था अब उसकी दाल नहीं गलने वाली। उसके भावना और शरीर उसके काबू में नहीं था । उसे लगता था कि उसके दिमाग की नस फट जायेगी। अमर हारकर बाथरूम में चला गया। बाथरूम में वो बड़ी देर दीन-दुनिया, ऊंच-नीच सोचता रहा और करीब दस मिनट बाद वो अपने शरीर और मनोदशा पर काबू पा सका। वो बाथरूम से लौटा तो उसने देखा कि निशा फर्श पर पैर लटकाए बिस्तर पर सर झुकाए बैठी थी। उसे देखते ही निशा खड़ी हो गयी। अमर का दिल धड़क उठा कि ये लड़की खड़ी क्यों हो गयी क्या करना चाहती है?कहीं उस पर हमला तो नहीं करेगी अगर चिल्लाकर उसने सभी को जगा लिया तो उसकी बड़ी दुर्गति हो सकती है और इस दिल्ली में कोई उसे बचाने वाला भी नहीं है और शायद पूरे संसार में ही। खुमारी उतर चुकी थी दिमाग बड़ी तेजी से काम कर रहा था कि निशा की तरफ बढ़ना उचित नहीं होगा कहीं वो प्रतिवाद ना करे।

उसने हाथ के इशारे से निशा से कहा कि वो सोने जा रहा है। निशा ने सर हिलाकर सहमति दी तो उसकी जान में जान आयी। वो बेआवाज़ चलते हुए अपने बिस्तर पर आया और लेट गया। उसने पलकें मूंद ली और सोने का यत्न करने लगा और थोड़ी देर में उसकी आँख लग गयी।

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