सड़कछाप - 13 dilip kumar द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सड़कछाप - 13

सड़कछाप

(13)

खतो-किताबत ने दिल्ली की भयावहता अमरेश के लिये कुछ कम कर दी थी। चचेरा ही सही कहने को उसका अपना परिवार तो था, फ़िर परिवार तो किसी का बिल्कुल ही ठीक नहीं होता सो उसका भी नहीं था। उसके गाँव से जो चिट्ठियां आतीं तो वो उन्हे संभालकर रखता। भले ही उसके माँ-बाप नहीं थे मगर अब वो खुद को अनाथ नहीं महसूस करता था।

करीब दस महीने बाद अखिल का फिर पत्र आया कि “अमरेश तुम आकर इम्तिहान दे दो दर्जा नौ का। नहीं तो फेल हो जाओगे। पापा इंटर कालेज के प्रिंसिपल नन्हे सिंह से बात किये हैं। ठाकुर नन्हे सिंह कहे हैं या तो तुम आकर इम्तिहान दो या फिर दो सौ रुपया भेज दो तो किसी लड़के को तुम्हारी जगह बैठाकर इम्तिहान दिला देंगे। पापा बताते हैं कि ठाकुर नन्हे सिंह ऐसे ही बहुत लोगों को पास करा दिये हैं। दस साल से वो ऐसा करते रहे हैं। ना हो तो तुम ही किसी तरह चले आओ। मई महीने में परीक्षा होगी। इसी बहाने भेंट मुलाकात भी हो जाएगी। तुम्हारा भाई-अखिल”।

अमरेश ने गाँव जाने का मन बना लिया। उसने अपने मालिक नयन भाटिया से कहा”सेठ जी, गाँव जाना होगा मई में, पहले से बता रहा हूँ मुझे छुट्टी दे देना, इम्तिहान है”

भाटिया ने कहा”ओ पंडित, पढ़ने-लिखने की उमर में पढ़ाई छोड़कर दिल्ली आ गये अब फिर पढ़ाई का चस्का लगा है । इम्तिहान देने जाना है तुझे, गाँव क्यों जाता है यहीं कहीं इम्तिहान दे ले”।

अमरेश ने उसे गाँव की परीक्षा की सहूलियतें बताई, इसके उलट भाटिया उसे समझाते हुए बोला”वो सब छोड़ बेटा, मई में लग्न बहुत है । डबल शिफ्ट करना पड़ेगा। ओवरटाइम का डबल पैसा मिलेगा। बख्शीश मिलेगी वो अलग से”।

अमरेश उसकी बात काटते हुए बोला”शादी-ब्याह तो होता रहेगा। लेकिन मेरा इम्तिहान देना बहुत ज़रूरी है। ज़िन्दगी का सवाल है मेरी”

भाटिया उसकी बात से उखड़ते हुए बोला”मेरी भी ज़िन्दगी का सवाल है पंडित। धंधा करता हूँ गुरुद्वारे का लंगर नहीं खोल रखा है तेरे जैसों के वास्ते। ऑफ सीजन में तुझ पर तरस खाकर बैठाकर पगार दी। अब पीक सीजन आया है मुझे और बंदों की ज़रूरत है तो तू छुट्टी माँग रहा है। अच्छा किया तूने बता दिया आज ही चला जा अगर जाना है तो, फिर दुबारा पलट कर इधर नौकरी के लिये मत अइयो। और हाँ, इस महीने से तेरी पगार जमा रहेगी मेरे पास अब सीजन के बाद ही मिलेगी, मई बीत जाने के बाद”।

अमरेश का मुँह उतर गया, भाटिया को लगा उसने कुछ ज्यादा ही सख्त कह दिया। उसने अपना लहजा नर्म करते हुए कहा”देख पंडित अगर तुझे पढ़ना ही है तो गाँव जाने की क्या ज़रूरत है। मैं यहीं हनुमान मंदिर के आश्रम के स्कूल में तेरा नाम लिखा देता हूँ। जब भी खाली टाइम हो आओ-जाओ। कोई बोलने-पूछ्ने वाला नहीं। ना फीस लगेगी ना और कोई खर्चा और कुछ ना कुछ सीख भी जायेगा। मैं करता हूँ तेरा इंतजाम, करूं क्या”?

अमरेश ने सिर हिलाकर भाटिया को सहमति दे दी। उसने सोचा सिर्फ दो सौ रुपये खर्च करके गाँव में डिग्री मिल जायेगी और नवीं पास होकर भी वो कौन सा तीर मार लेगा?लगाना तो उसे टेैंट ही है। फिर अगर भाटिया ने उसे नौकरी से निकाल दिया तो ऐसी जुगाड़ू कमाई वाली नौकरी उसे दुबारा ना मिले। सो लौटती हुई डाक से उसने ढाई सौ रुपये गाँव मनीऑर्डर कर दिये और साथ में अखिल को एक पत्र भी भेजा। “भाई दो सौ रुपये हनुमंत चाचा को दे देना ठाकुर नन्हे सिंह को देने के लिये और पचास रुपये मैना चाची को दे देना सत्यनारायण की कथा सुनने के लिये। टेैंट हाउस की नौकरी में पीक सीजन होने की वजह से उसे छुट्टी नहीं मिल पायेगी। छुट्टी मिलते ही वो गाँव आयेगा। तुम्हारा भाई-अमरेश”।

सीजन में अमरेश ने अच्छे-खासे पैसे कमाये। सीजन में भाटिया का साथ ना छोड़कर वो भाटिया का विश्वासपात्र बन चुका था। डबल शिफ्ट, ओवरटाइम, बख्शीश, इनाम-इकराम मिलाकर उसकी बचत हजारों में थी। उसने ये पैसा अपने फूफा के पास ही जमा करना मुनासिब समझा उसके गाँव में सब कहते थे”तिल भर नात, ना भैंसा भर व्यवहार”इसीलिए पैसे फूफा के पास ही महफूज माना अमरेश ने।

अमरेश ये बात जान रहा था कि तिकड़म, चालाकी, कितनी भी की जाये तरक्की के ताले की चाभी विद्या में ही छिपी है और विद्या सिर्फ डिग्री से ही नहीं मिलेगी। सो उसे कुछ ना कुछ पढ़ते रहना चाहिये। कब तक वो टेैंट हाउस के बर्तन, कुर्सी चुरा-चुराकर दुकान वालों को बेचता रहेगा। टेैंट हाउस से छोटा-मोटा सामान सभी कर्मचारी चुराते थे। लेकिन वो सबसे ज्यादा चुराता था भाटिया से बदला लेने की जिद में, वो अपना मन कड़ा किये हुए था कि भाटिया अगर पकड़ लेगा तो ज्यादा से ज्यादा काम से निकाल देगा और अब उसे टेैंट लाइन के काम की जानकरी हो गयी थी तुरंत दूसरी जगह काम मिल जायेगा। दूसरे अगर उसे भाटिया पकड़ नहीं पाया तो उसके पास पैसे खूब जुड़ जाएंगे आखिर वो पैसों के लिये ही तो दिल्ली में है ।

करीब पाँच महीने बाद अखिल का फिर पत्र आया-

“जै सिया राम भाई, कुशल है कुशल चाहिये। भगवान की किरपा से मैं और तुम दोनों लोग दर्जा नौ पास हो गये हैं। अब दसवीं के बोर्ड परीक्षा के फॉर्म भरे जाने हैं । हो सके तो चले आओ, बड़ी मोह लगती है तुम्हारी। अगर ना आ सको तो तीन सौ रुपया और अपनी फोटो भेज दो। ठाकुर नन्हे सिंह फिर फॉर्म भरवा देंगे। लेकिन बोर्ड परीक्षा देने अगले साल अप्रैल या मई में आना पड़ेगा। बोर्ड परीक्षा में उसकी जगह कोई दूसरा नहीं लिख सकता। बहुत सख्ती है अबकी बार। मैं रोज कालेज जाता हूं। जैसा भी हो जल्दी करना। घर में सब ठीक है । सब तुम्हें याद करते हैं तुम्हारा भाई, अखिल”।

अमरेश ने खत को बड़े ध्यान से कई बार पढ़ा, कई बार उसकी आँखें बरस पड़ीं। उसने हालात का जायजा लिया, खूब सोच-विचार किया। वो अब जीवन के पंद्रहवे वर्ष में था । सीने में बाल और दाढ़ी -मूंछ निकल रही थी। सोच-विचारकर उसने अखिल को तुरंत साढे तीन सौ रुपये का मनीऑर्डर कर दिया। उसने अखिल को अलग से एक खत लिखकर इल्तजा की वो वहां की किताबों के नाम, विषय सूची भेज दे ताकि वो इन्हें यहाँ पढ़ सके।

भाटिया के सुझाव पर अमल करते हुए उसने हनुमान मंदिर के स्कूल में जाकर अपना दाखिला करा लिया ताकि लिखने-पढ़ने का अभ्यास बना रहे। दिल्ली के स्कूल में उसने अपना नाम टीसी, मार्कशीट के बजाय ब्यानहल्फी से लिखवाया। बरसात के महीने में टेैंट हाउस का सीजन आफ रहता है सो वो अक्सर स्कूल जाने लगा। स्कूल भाटिया के गोदाम से महज पाँच सौ मीटर की दूरी पर था। विद्यालय में कॉपी, किताब, ड्रेस, बस्ता सब मुफ्त था मंदिर की तरफ से और हर किस्म की फीस माफ। कुछ महीनों बाद वो ये बात जान गया कि विद्यालय में पढ़ने की उसकी उम्र निकल चुकी है और वो दिल्ली की कठिन पढ़ाई लेकर नहीं चल सकता। गाँव के स्कूल की पढ़ाई और दिल्ली की पढ़ाई -लिखाई में जमीन आसमान का फर्क है। उसने खुद को इस पढ़ाई के लिये अनुपयुक्त पाया फिर भी वो बरसात भर विद्यालय जाता ही रहा।

कुछ दिनों बाद गाँव से अखिल का फिर एक पत्र आया। अखिल ने लिखा

“सियावर रामचंद्र की जय,

नमस्ते, अमरेश भाई, हनुमान स्वामी की कृपा से तुम्हारा दसवीं का फार्म कला वर्ग से भरा दिया गया है और मैंने साइंस वर्ग से फॉर्म भरा है। किताबों के नाम की लिस्ट का पर्चा, चिट्ठी के साथ चिपका दिया है। यहां जो किताबें चलती हैं उसमें आधी किताब नवीं में और बाकी की आधी किताब दसवीं में पढ़ाई जाती है। लेकिन बोर्ड परीक्षा में नवीं और दसवीं दोनों की किताबों के प्रश्न पूछे जाते हैं। एक समस्या है यहां इंटर कॉलेज में, अनुपस्थित रहने पर चवन्नी पैसा रोज के हिसाब से छात्र पर फाइन लगाया जाता है। ये फाइन कक्षाध्यापक विश्राम पांडे लेंगे और महीने का छह रुपया फाइन लगता है । पूरे साल ना आने पर छह रुपया महीना विश्राम पांडे और दस रुपया महीना ठाकुर नन्हे सिंह को हर महीने के हिसाब से जोड़कर साल के अंत में देना पड़ेगा। इसलिये जब बोर्ड परीक्षा देने आना तो डेढ़-दो सौ रुपया इन लोगों को देना पड़ेगा नहीं तो परीक्षा का प्रवेश पत्र नहीं मिलेगा। बाकी सब ठीक है तुम्हारी मोह बहुत लगती है । तुम्हारा भाई-अखिल’।

अमरेश ने पत्र पढ़ा तो उसकी आँख तो भर आयी लेकिन थोड़ा सा संतोष भी हुआ कि लोग सच कहते हैं कि लाठी मारने से पानी नहीं फटता। उसका चचेरा भाई कम से कम इतना सोचता तो है उसके बारे में। उसे ये भी समझ आ रहा था कि पैसे से हर काम हो जाता है इसलिये पैसा कमाने का उसका निर्णय सही है। पैसे से सारी तो नहीं मगर ढेर सारी मुसीबतें दूर हो जाती हैं।

दिल्ली के विद्यालय में उसकी उम्र, अज्ञानता और देहातीपन की उसके सहपाठी खिल्ली उड़ाते थे। ये बचपन का स्वभाव होता है कि वो सुख -दुख सबकी खिल्ली उड़ाता है उस खैराती स्कूल में सब खैरात पर थे लेकिन फिर भी कुछ को श्रेष्ठता का दंभ कि वो एक ग्रामीण भैया से श्रेष्ठ हैं, भले ही वो दिल्ली के फुटपाथों पर पैदा हुए हों और आलू-प्याज़ की तरह किसी झुग्गी या ओवरब्रिज के नीचे जीवन काट रहे हों। इसलिये उसने विद्यालय जाना बंद कर दिया। मगर उसने दिल्ली और यूपी वाली दोनों जगह की किताबों का बंदोबस्त कर लिया। दिल्ली में यूपी की किताबें वो नहीं खोज पाया तो उसने फिर अखिल को पैसे भेज दिये मनीऑर्डर से ताकि वो गाँव में किताबें खरीद सके। अखिल ने वो किताबें खरीद लीं। फिर गाँव से एक आदमी परदेस कमाने आया तो वो किताबों का सेट दिल्ली ले आया और मोंटी सरदार के गोदाम पर गुरपाल के पास पहुँचा गया। महीने भर बाद जब वो अपने फूफा से मिलने गया तो उसे पता चला कि गुरपाल के पास उसका कोई सामान पड़ा है जो गाँव से अखिल ने भिजवाया है।

अमरेश गुरूपाल से मिलने खाली हाथ नहीं जाना चाहता था, बड़े एहसान थे गुरूपाल के उस पर। गुरूपाल ने हमेशा उसे अपने बेटे की तरह मान दिया था और गुरूपाल में उसने हमेशा अपने स्वर्गवासी बाप की छवि देखी थी। इसलिए मोंटी सरदार के गोदाम पर जाते वक्त वो आधा किलो बर्फी, गुरूपाल के लिये दस बंडल बीड़ी और एक लाइटर ले गया । वक्त बदल चुका था, मुफ़लिस सबको खटकता है, मालदार सबको मनभावन लगता है। उससे वहाँ सब बहुत प्रेम से मिले सिवाय नानमून के जिसने उसकी लाई हुई मिठाई खाने से इंकार कर दिया था। सबको उसकी कमाई और तरक्की पर गर्व और खुशी हुई।

अमरेश ने जब गुरूपाल के पाँव छुए तो गुरूपाल ने उसे मेरे लाल कहकर गले लगा लिया। वो दोनों प्रेम की मूक भाषा से अभिभूत हो गये बिना कुछ बोले एक दूसरे के गले से बड़ी देर तक लगे रहे और उनकी आँखों से आँसू बहते रहे। अमरेश ने जब बीड़ी का बंडल और लाइटर गुरूपाल के हाथ पर रखा तो उस सख्तजान जाट की खुशी का पारावार ना रहा। उसे लगा मानों उसकी औलाद ने अपनी पहली कमाई लाकर उसके हाथों में रख दी हो। जीवन की संवेदनाएं कभी -कभी अभावों को पस्त कर देती हैं, कई दिनों से बेकार बैठे और फांकाकशी कर रहे गुरपाल के चेहरे से उल्लास टपक रहा था । उसने घूम-घूम कर बर्फी बांटी और मोंटी सरदार को भी खिलाया। एक रात वहां बिताकर, अपनी मसरूफियत का हवाला देकर किताबों का पैकेट लेकर अमरेश वहां से लौट आया। उसने मोंटी सरदार के गोदाम का फोन नंबर ले लिया था और गुरूपाल को भाटिया सेठ के गोदाम का नंबर दे दिया था ताकि हारे-गाढ़े में राब्ता कायम हो सके।

पीरागढ़ी में उसे पढ़ने का ऐसा चस्का लगा कि वो फिर वो लत हो गई। एकांत को काटने और अपने स्थायी दुख को भुलाने के लिये किताबें अमरेश की बहुत फरमाबरदार दोस्त साबित हुईं। अंग्रेजी और गणित उसे बिल्कुल समझ में नहीं आती थी और जो विषय समझ में नहीं आता उस पर वो माथापच्ची भी नहीं करता था। स्कूल तो वहीं नहीं जाता था मगर हनुमान मंदिर के आश्रम के विद्यालय वाले लड़कों से उसका संपर्क निरंतर बना हुआ था। चम्पक, राकेश, जैकी उसी के समवय थे, वे लड़के पढ़ाकू तो नहीं अलबत्ता पढ़ाई की प्रक्रियाओं में जरूर व्यस्त रहते थे। उनसे ले लेकर कापिया पूरी करता रहा अमरेश।

अमरेश को फ़ोन के जरिये आसफ अली रोड के उसके अपनों की हाल खबर मिलती रहती थी। ये देश में पीसीओ के विस्तार का समय था। इसी संपर्क क्रांति के दौरे में अखिल ने नयन भाटिया के नंबर पर फ़ोन किया और जल्दी से बोला”मैं गाँव से अमरेश का भाई अखिल बोल रहा हूँ। उससे बात करा दीजिये। कहिये इस नंबर पर फ़ोन करे, मैं यहीं खड़ा हूँ । मेरे पास पैसा नहीं है”भाटिया कुछ बोल पाता तब तक अखिल ने फोन काट दिया। भाटिया ने अमरेश को बुलवाया और उधर का नंबर देते हुए सारा वाकया बताया और अंत में कहा”एसटीडी का रेट चलेगा, दो मिनट से ज्यादा फ़ोन पर बात मत करना। नहीं तो तुझसे पैसे लूंगा मैं भी । ले जरूरी बात ही करना। भाटिया ने नंबर मिलाकर दे दिया उधर से अखिल लाइन पर था। अमरेश ने कहा”भाई, जै राम जी की”।

दूसरी तरफ से अखिल अमरेश की वरिष्ठता का लिहाज करते हुए बोला”भैया, पांय लागी”।

अमरेश ने भाव विह्वल होते हुए कहा”जुग, जुग जियो, अमर हो जाओ, घर का हाल चाल कैसा है । चाचा, चाची, दादा, भाई-बहन सब कैसे हैं। गाँव-जंवार में सब कुशल मंगल तो है “। भाटिया ने अमरेश को चुटकी काटी और बोला”काम की बात कर, बिल बढ़ रहा है”।

अखिल ने दूसरी तरफ शायद ये बात सुन ली थी, वो उधर से बोला “सब ठीक है भैया, मई के पहले हफ्ते में पेपर है और उसके दस दिन पहले प्रैक्टिकल का इम्तिहान है। बीस अप्रैल से पहले आ जाना हर हाल में । अब रखता हूँ, भैया पांय लागी”। अमरेश कुछ और बोल पाता इसके पहले ही फ़ोन काटने की आवाज आयी। सो उसने भी फोन रख दिया। उसके फ़ोन रखते ही भाटिया ने चैन की सांस ली।

अमरेश ने कुछ दिनों बाद नवीं की परीक्षा दी दिल्ली में, उसके पास होने की उम्मीद ना के बराबर थी। क्योंकि अंग्रेज़ी और गणित के पर्चों की कापियां को उतार आया था वो। भाटिया सेठ से उसने अपना फाइनल हिसाब कर लिया था। मगर वो सोच रहा था कि इस बार वो गाँव जायेगा तो रुककर ठहरकर गृहस्थी ठीक करके ही लौटेगा। आखिर उसी गाँव की जायदाद, घर-गृहस्थी के चक्कर में तो वो अपनी माँ के साथ नहीं गया था तो अब उस जायदाद को छोड़ देना बेवकूफी होगी। भाटिया सेठ के पास से ड्यूटी, ओवरटाइम, डबल शिफ्ट, इनाम, बख्शीश जोड़कर कुल साढ़े सत्ताईस सौ रुपये निकले। आसफ अली रोड जाकर उसने अपने फूफा से साढ़े छह हजार रुपये लिए। दो-ढाई हजार रुपये उसके पास खुद के रखे थे। उसने सारी पूंजी इकट्ठा करके गाँव की तरफ परीक्षा देने चल पड़ा।

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