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सड़कछाप - 12

सड़कछाप

(12)

-डेढ़ महीने तक खाने -पीने के लिये अमरेश गुरूपाल पर आश्रित रहा, उसके बाद उसके फूफा जय नारायण दिल्ली लौट आये गांव से। जय नारायण जब दिल्ली आये तो उन्हें नानमून की कारस्तानियों की इत्तला मिली। ये उनके लिये किसी अचंभे की बात नहीं थी क्योंकि गाँव में उनकी और नानमून को लेकर मुकदमेबाजी चल रही थी। नानमून और उसके भाइयों ने जय नारायण की जमीन पर कब्ज़ा कर रखा था और उसी ज़मीन पर अपनी बॉउंड्री उठवाने के लिये जय नारायण महीनों रुके रहे थे। जमीन नानमून के हाथ से निकल गयी थी इसीलिये वो खिन्न था और पट्टीदारी का डाह अमरेश पर निकाल रहा था। पुरानी दुश्मनी थी उन दोनों की। नानमून की ही लगातार झूठी चुगलियों पर दो साल पहले जय नारायण और मोंटी सरदार का विवाद हुआ था तभी से खिन्न होकर जय नारायण ने ना सिर्फ मोंटी सरदार की नौकरी छोड़ी बल्कि ट्रांसपोर्ट लाइन ही छोड़ दी। वो बहुत दिनों बाद उधर आये। सड़क पर ही खड़े रहे, गोदाम के अंदर नहीं गये।

सड़क पर अमरेश अपना सामान लेकर आ गया उसके साथ गुरूपाल भी बाहर आया। अमरेश उनके आने से आश्वस्त तो था मगर उदास भी । दिल्ली में उसका मन रम चुका था और गोदाम के लोगों और माहौल से उसे लगाव हो गया था।

जय नारायण ने गुरपाल से कहा”बहुत मदद किये गुरूपाल भाई, इस अनाथ लड़के की । तुम बिल्कुल बाप की तरह देखे इसको। नानमून ने बड़ी हरामीपन की लेकिन तुम इसका जग में राख लिये नहीं तो ना जाने कहाँ-कहाँ ठोकर खाता ये। इस लड़के की तकदीर बहुत खराब है महतारी-बाप, चाचा, नाना कोई ना है इसका। तुम्हारा बहुत एहसान है लेकिन जो भी खर्चा हुआ है वो ले लो”ये कहकर उन्होंने जेब में हाथ डाला और रुपये निकालने लगे, तब तक गुरूपाल ने जेब में ही उनका हाथ पकड़ लिया और बोले”क्या गजब करते हो पंडित, कल को अगर मेरा लौंडा तुम्हारे पास महीना-डेढ़ महीना रह जाये तो तुम उससे खुराकी लोगे क्या?तुम साल भर भी ना आते तो भी कोई चिन्ता की बात नहीं थी। “

थोड़ा ठहरकर गुरूपाल ने फिर कहा”वैसे भी ये लड़का ब्राम्हण है, अनाथ है, समय का मारा है । इसकी मदद करके मेरी आत्मा जुड़ा गयी। समझो ये दान-पुण्य मेरे ही हिस्से लगना था। ये दिल्ली है, इसे दिलवालों की दिल्ली ऐसे ही नहीं कहते। यहाँ हर किसी की शुरूआती मदद कोई ना कोई ऐसे ही करता है। मैं आया था पहली बार तब मेरी भी किसी ने ऐसे ही मदद की थी समझ लो आज वही कर्जा चुक गया। “अमरेश खड़े खड़े ये सोच रहा था कि एक तरफ दुनिया में उसकी माँ, नाना, दादा, मौसी जैसे लोग हैं जो उसे जरा सा भी बर्दाश्त नहीं कर सके जो कि उसके सगे हैं, जिनसे खून का रिश्ता रहा है तो दूसरी तरफ सरदार अतर सिंह और गुरूपाल जैसे लोग हैं जो उस पर आने वाली हर मुसीबत को पहले खुद झेलने को तैयार बैठे हैं जबकि वे दोनों खुद भी फटेहाल हैं एक ठेला लगता है और दूसरा ट्रक पर खलासी है, कैसी है ये दुनिया भगवान।

जय नारायण विनीत और कृतज्ञ होकर, अमरेश दुखी होकर वहां से चले आये। अमरेश के फूफा का कमरा गुरूपाल के गोदाम से डेढ़ किलोमीटर दूर था। जय नारायण अब दवा की सप्लाई के काम की शुरुआत कर रहे थे। पहले वो मेडिकल स्टोर पर नौकरी करते थे लेकिन काम सीख जाने के बाद और मालिक का विश्वास जम जाने के बाद उनके मालिक ने पूंजी और माल देकर फील्ड में दवा सप्लाई का काम उन्हें शुरु करा दिया। अब वो वेतन के अलावा कमीशन भी पाते थे। हरियाणा, पंजाब, यूपी, राजस्थान सब जगह आते -जाते और कई-कई दिन नहीं लौटते थे। उनके जाने के बाद अमरेश कमरे पर अकेला पड़ जाता। उसे स्टोव पर खाना बनाना नहीं आता था, गांव में वो अलबत्ता चूल्हे पर खाना बना लेता था लेकिन यहां चूल्हा नहीं था। जय नारायण जब भी बाहर जाते तो उसे होटल पर खाने के लिये पैसे दे जाते। लेकिन अमरेश वो पूरे पैसे बचा लेता और सुबह-शाम गुरूद्वारे जाकर लंगर छक आता।

अमरेश दिल्ली शहर को बड़ी तेजी से समझ और सीख रहा था। वो जान गया था कि सिर्फ चालाकी, चुप्पी और रो देने से दिल्ली की मुसीबतें नहीं कटने वाली। जैसे जैसे दिल्ली में समय बीतता जायेगा उसके अनाथ होने की सहानभूति भी जाती रहेगी। यद्यपि काम की तलाश जारी थी मगर उसकी अल्प योग्यता और अल्पायु के मद्देनजर उसे कोई ठीक-ठीक काम उसे मिल नहीं पा रहा था। मेडिकल लाइन में काम तो था मगर उसके लिये थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी की भी ज़रूरत थी और अंग्रेज़ी का ज्ञान उसके लिये ऐसे ही था जैसे चील के घोंसले में गोश्त की उम्मीद। होटल लाइन में एक -दो जगह उसे काम मिला लेकिन होटल वालों को जब पता चलता कि वो ब्राम्हण है तो उससे जूठन उठवाने और बर्तन मंजवाने से तौबा कर लेते सो बात बनी नहीं। विद्यालय भले ही उसका छूट गया था मगर जीवन के सबक उसे हर दिन कुछ ना कुछ नया सिखा रहे थे। उसके फूफा के कई बार कहने के बावजूद उसने उसने स्टोव पर खाना बनाना नहीं सीखा क्योंकि वो जानता था कि अगर फूफा इस बात से मुतमईन हो गये कि अमरेश उनकी गैर मौजूदगी में अमरेश स्टोव पर खाना बना कर खा लेगा तो वो अमरेश को पैसे देना बंद कर देंगे, जो कि फिलहाल वो बिल्कुल नहीं चाहता । वो जानता था कि सबसे बुरे वक्त का साथी पैसा ही होगा और ज़िन्दगी के सबसे बुरे वक्त के बाद उससे भी बुरा वक्त आ सकता है। हारे-गाढ़े और बीमारी के वक्त सिर्फ और सिर्फ जमापूँजी ही काम आती है। सो उसने दादा से चुराये हुए रुपये, छंगा से लिये रुपये, अतर सिंह से मिले रुपये, गुरूपाल के दिये हुये रुपये, और अपने फूफा से मिले रुपये, ये सब जोड़कर उसने छिपा रखता था और उन पैसों को अपने नेकर के नाड़े में बांधे रखता था। इधर अब वो पैसा पकड़ने के तरीकों पर खासी नजर रख रहा था। गुरुद्वारे से थोड़ी दूरी पर शिवजी का एक भव्य मंदिर था वो वहां भी जाने लगा। मंदिर पर सुबह-शाम किसी न किसी का मुंडन-छेदन, यज्ञोपवीत आदि संस्कार होते रहते थे। अमरेश ने भी वहीं मंडराना शुरू कर दिया। उसे फल-मिठाई और लंच पैकेट वगैरह खाने को खूब मिलता । कभी-कभी कोई नेग-चार भी प्राप्त हो जाता । अक्सर लोग ग्यारह ब्राम्हणों को भोजन कराने को खोजते तो उसमें वो भी शामिल हो जाता। अमरेश को ये पता नहीं था कि बहार शुभ लग्न के कुछ ही दिनों की है क्योंकि शुभ लग्न कुछ ही दिनों का है। जब तक शुभ लग्न चला तब तक किसी ने कोई आपत्ति नहीं की लेकिन शुभ समय बीतते ही तासीर बदल गयी।

अमरेश को इस मुफ्तखोरी का चस्का लग चुका था। पहली बार उसे पता लगा कि ब्राम्हण होना सिर्फ पैलगी लेना नहीं है। इसके कुछ अतिरिक्त लाभ भी हैं बस उसे भुनाने के मौका और हुनर होना चाहिये। पंद्रह दिनों तक ये अनवरत चलता रहा। जब लग्न खत्म हुई तब मंदिर के पंडे-पुजारियों को अभाव खटकने लगा। अभाव हुआ तो सबने अपने कब्जे का रोजगार सुनिश्चित करने का प्रयास किया। रोजगार के नये उम्मीदवार खदेड़े जाने लगे। अचानक से एक नई राह दिखी मरेश को। एक डिब्बी में सिंदूर में थोड़ा तेल डालो, मंदिर आने वालों को टीका लगाओ और उनसे कुछ दान-दक्षिणा लो। मंदिर में टीका लगाने वाले पहले से बहुत लोग थे। उन सभी को ये नया उम्मीदवार खटक गया। वो सब एक ही कुनबे के थे। उस मंदिर पर उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के भोजपुरी भाषी लोगों का कब्ज़ा था और वो लोग अमरेश की मौजूदगी से खासे असहज थे।

उन सभी ने अमरेश को हड़काया, धमकाया मगर अमरेश ना माना। उसकी अपनी गांव वाली अकड़ कायम थी कि ब्राम्हण ही सर्वोच्च होते हैं, भले ही दरिद्र हों मगर वो जो चाहें वो करें । रार हुई-तकरार हुई फिर देख लेने की धमकियां दी गयीं और बात करते-करते वहीं ताल ठोंक दी गयी। अमरेश एक लड़के से भिड़ गया दोनो गुत्तमगुत्था हो गये और खूब गाली-गलौज हुई । इस पर मंदिर में आये लोगों ने खासा ऐतराज किया। पुजारी और मंदिर की कमेटी के लोगों ने उन सभी टीका लगाने वालों को भगा दिया।

मंदिर में भीड़ सोमवार को ही होती थी, इस पूरे हफ्ते वो सोमवार का इंतजार करता रहा और अपने बचत के पैसे गिनता रहा। उसके फूफा राजस्थान गये थे, शायद पूरे हफ्ते बाद लौटेने की बात करके। वो दिन में गुरुद्वारे में खाता और शाम होते ही मोंटी सेठ के गोदाम में पहुंच जाता। वहाँ कोई ना कोई खाना उसे पूछ ही लेता, वो गोदाम से खाना खाकर ही लौटता। इस दरम्यान नानमून से उसकी दुआ सलाम तक ना होती। इसी बीच गुरुद्वारे के बाहर कोई शुभ काम होता तो बैंड बजते और लोग पैसे लुटाते। तमाम बारातें भी वहां से निकलतीं और गुरुद्वारे के सामने थोड़ी देर ठहरती भी थीं। अमरेश ने देखा कि इन बारातों में सिक्के नहीं बल्कि पाँच और दस के नोट उड़ाये जाते थे। उसने ये भी गौर किया कि नाचने वाले लड़कों पर न सिर्फ पैसे लुटाए जाते हैं बल्कि उनके हाथ में भी नोट दिये जाते हैं। उसने इस बात पर बहुत महीन तजबीज की, कि नाचने वाले लोग कुछ खास नहीं नाचते हैं। वो बारातों के साथ चलता रहता और देखता कि कैसे ठुमके लगते हैं और कैसे नागिन डांस होता है। तीन-चार दिन में ही उसने डांस की गति पकड़ ली। चौथे दिन बारात में वो भी नाचने लगा और रुपये भी बटोरने लगा। बैंड वालों ने ऐतराज किया मगर फिर भी वो सत्रह रुपये झटकने में कामयाब रहा। फिर तो ये सिलसिला ही चल निकला। तीन दिनों की पांच बारातों में पैसे झटककर और डांस करके अस्सी रुपये कमाये। बिना काम के अस्सी रुपये,,,,, वाह रे दिल्ली।

इतवार को उसके फूफा लौट आये। वे बहुत निराश थे, राजस्थान में उनके व्यापार को घाटा हुआ था मगर अमरेश बहुत उत्साहित था। उसके फूफा ने रोटी-सब्ज़ी बनायी तो उसे रास ना आयी। वो घर से पेटदर्द का बहाना करके निकला और होटल पर जाकर उसने पनीर और पुलाव खाया। जय नारायण कुछ तो घाटे के सदमे में थे और कुछ बीमार भी लेकिन पापी पेट किसी को बैठने दे तब ना !

अमरेश ने उनका बनाये हुए खाने को हाथ तक ना लगाया। उसे अब हरदम चटर-पटर खाने की आदत पड़ गयी थी और हाथ में पैसे हों तो क्या रोक?उसने छोला-भटूरा, कचौरी का नाश्ता किया और इधर-उधर मटरगश्ती करता रहा। शाम होने से पहले ही वो टीका लगाने वाली डिब्बी लेकर शिव मंदिर हाज़िर हो गया। आजमगढ़ के लड़कों को उम्मीद थी कि अमरेश आयेगा जरूर और अमरेश उनकी उम्मीद के अनुरूप आया भी । पूरी शाम अमरेश ने घूम-घूम के टीके लगाये और पैसे भी कमाये।

अमरेश को हैरानी थी कि आजमगढ़ के भोजपुरी भाषी लड़के ना तो उसकी तरफ देख रहे हैं और ना ही कुछ कड़वा बोल रहे हैं जबकि आज अमरेश को झगड़े-झंझट का पूरा अंदेशा था। वो सतर्क था मगर पूरी शाम कुछ ना हुआ। मंदिर पर जब आमदरफ्त कम हुई तो वो अपने कमरे की तरफ चल पड़ा। हालांकि वो चौकन्ना था पर आशंकित नहीं। वो थोड़ी दूर चलता तो फिर घूम कर देख लेता कि कहीं कोई उसके पीछे आ तो नहीं रहा है हमला करने। वैसे तो वो गाते-गुनगुनाते चल रहा था मगर रास्ते में कई बार उसने ऐसा किया कि पलटकर हमले की आहट ली हो।

रास्ते में एक मैदान था जिसका बहुत बड़ा हिस्सा कूड़ाघर में तब्दील हो चुका था। उसे पेशाब लगी थी सो वो उसी कूड़ेघर में दुबक लिया। पेशाब से फारिग होने के बाद उसे ना जाने क्या सूझी कि वो वहीं खड़े होकर अपनी आज की कमाई गिनने लगा तब तक दो मजबूत हाथों ने उसे पकड़कर उसे उसी की पेशाब में गिरा दिया और फिर दे लात-घूंसे, थप्पड़, अनगिनत, लगातार पड़ते रहे। अमरेश ने चिल्लाकर खुद को छुड़ाने की कोशिश की मगर वो असफल रहा। तब तक किसी ने उसके सर पर बोतल फोड़ दी, खून का फव्वारा बह निकला।

खून की धार देखकर हमलावर खुद ही भागो, भागो चिल्लाने लगे और तुरत-फुरत वहाँ से नौ-दो ग्यारह हो गये। वो अंधेरे से किसी तरह उठकर मुख्य सड़क तक गिरते-पड़ते पहुंचा। उसकी चेतना लुप्त हो रही थी। लोग उसको घेरे हुए थे। उसके बहते खून को रोकने का उपाय कर रहे थे। किसी ने उसी की ही शर्ट निकालकर उसके सर पर बांध दी थी। लोगों ने उसका पता पूछा तो उसने फर्नीचर ब्लॉक, जग्घर मेडिकल बताया और वो बेहोश हो गया।

अमरेश को होश आया तो उसने खुद को एक बंद कमरे में पाया। उसके फूफा जय नारायण उसके सिराहने बैठे थे। अमरेश अपना माथा छुआ तो उस पर बहुत दूर तक पट्टियां बँधी थीं। उसने कराहते हुए अपने फूफा से पूछा “कहाँ हूँ मैं”?

जय नारायण ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा”एक डॉ साहब का क्लीनिक है ये, नर्सिंग होम ही समझो। हमारे ही मेडिकल वाली लाइन से जुड़े आदमी हैं । हमारे मेडिकल एजेंसी से यहाँ माल

आता है तो जान -पहचान है। अपने खास हैं। अगर सरकारी अस्पताल में ले जाते तो पुलिस केस हो जाता। कौन पड़े थाना -पुलिस के झमेला में। यहीं ठीक हो जाओगे। सात टांका लगा है तुमको। किससे इतना बवाल कर लिये?क्या खेल-कूद का कोई लफड़ा था। दिल्ली के लड़के बहुत हरहट होते ही हैं। बात क्या थी?”

इतने सारे सवाल एक साथ, अमरेश ने सोचा कि वो बोलेगा तो उसकी पोल-पट्टी खुल सकती है, चालाकी पकड़ी गयी तो सहानभूति भी जाती रहेगी। जब फूफा को कुछ नही पता तो उन्हें कुछ बताना भी ठीक नहीं होगा। ।

उधर जय नारायण लगातार बड़बड़ाते रहे कि “तकदीर ही खराब है बेचारे इस लड़के की। बेचारे के माई-बाप ने साथ छोड़ दिया। चाचा-पित्ती भी नहीं पूछ्ते हैं। सब चाहते हैं कि मर जाये लड़का तो उसके हिस्से की धन-जायदाद उनको मिले। आज अगर कुछ ऊँच-नीच हो जाती और ये लड़िका जान से हाथ धो देता तो क्या मुँह दिखाता मैं दुनिया को। दिल्ली में सबको चर्बी चढ़ी हुई है। जाटों-पंजाबियों का बस चले तो भैया लोगों को दिल्ली से खेद दें। दिल्ली मानो इन सबके बप्पा की जागीर हो। साडडी दिल्ली कहते रहते हैं दिन -रात। मानो अंग्रेज़ जाते-जाते इनके नाम पट्टा-बैनामा कर गए थे। देखो तो मार-मार कर क्या हाल कर दिये हैं इस सीधे देहाती लड़के का। इधर अकेले हैं हम परदेस में। रोजी -रोटी की मजबूरी है नहीं तो जो लोग मारे हैं उन सबके पीछे स लाठी डालकर मुंह से निकाल लेता जो लोग हमारे लौंडे को हाथ लगाये हैं अकेला पाकर, भांडुए, साले, हराम के पिल्ले,,,,, ”वो लगातार गालियां बके जा रहे थे।

अमरेश ने अपनी आँखें बंद कर ली उसके माथे और सिर में काफी दर्द था अभी भी। उसने खुद को काफी हताश और कमजोर पाया। उसने धीरे से अपनी नेकर में हाथ डालकर तस्दीक की उसके नोट महफूज थे फिर पैंट की जेब में हाथ डाला तो वहाँ भी कुछ रेजगारी और नोट सुरक्षित थे। उसे तसल्ली हुई ।

उसने अपने फूफा की संवेदना को महसूस किया तो उसे पिता याद आये और वो रो पड़ा। उस नीम अंधेरे कमरे में उसके गर्म आँसू किसी ने ना देखे बस वो अश्क उसके चेहरे और आँखों को बड़ी देर तक भिगोते रहे।

तीन दिन तक उस क्लीनिक में रहने के बाद अमरेश अपने फूफा के कमरे पर आ गया। पंद्रह दिन तक उसके शरीर के विभिन्न हिस्सों का इलाज चलता रहा जिसमें उसे वायरल बुखार भी हुआ। पंद्रह दिन बाद वो बिल्कुल स्वस्थ हो गया। बालों में मांग काढ़ने वाली जगह पर एक लंबा चीरा लग गया था जो दूर से ही दिखता था। त्वचा उस स्थान पर बाल विहीन हो गयी थी। फल, जूस, दूध और बढ़ी हुई खुराक की बदौलत उसकी सेहत जल्द ही सुधर गयी। अमरेश ये बात जान चुका था कि दिल्ली में आसानी से मिलने वाला पैसा जानलेवा भी हो सकता है। आज किसी ने सिर्फ बोतल फोड़ी है उस पर कल को अगर कोई चाक़ू-छूरी चला देता तो?शहर के नामालूम किस कोने में उसकी लाश पड़ी रहती ना जाने कितने दिनों तक?

अमरेश ने तय कर लिया था कि अब ना वो मंदिर पर जाकर लोगों को टीका लगायेगा और ना ही बारात के आगे नाचकर पैसे लूटेगा। क्योंकि कल को अगर बैंड वाले भी उसको अकेला पाकर हमला कर दें तो?उसने अपने फूफा से काम करने की इच्छा व्यक्त की। उस लेन में उन दिनों चाइल्ड लेबर के छापे बहुत पड़ रहे थे तो लोगों ने उसे काम देने में आनाकानी की। दो-तीन जगह काम की कोई सूरत निकली भी तो वे अनगढ़ लड़के को वेतन देने को तैयार ना हुये। रोजगार देने वालों का इरादा था कि कुछ महीने तक पहले काम सीख कर हाथ साफ करे तब तक सिर्फ खर्चा-खुराकी का प्रस्ताव था। ये एक किस्म का बेगार ही था।

बमुश्किल उसे टेैंट लगाने वाली टोली में काम मिला। साढ़े तीन सौ रुपये पगार मुकर्रर हुई लेकिन मुसीबत ये थी टेैंट का गोदाम पीरागढ़ी में था जो कि आसफ अली रोड से खासी दूरी पर था। वहाँ गाँव के लोग तो नहीं थे लेकिन जंवार और रायबरेली जिले के काफी लोग थे। अमरेश ने मन कड़ा किया और वहाँ से अपना झोला-झंडा उठा लिया और वहाँ से चल निकला। वैसे भी आसफ अली रोड पर अब उसके लिये कुछ नहीं बचा था। उसे एक शंका भी थी कि अगर वो आजमगढ़ वाले लड़के दुबारा मिल गये तो उसे मार ही ना डालें। वैसे भी वो दिल्ली जीवित रहने के लिये आया था, कामयाब होने के लिये मरने के लिये नहीं। उसके स्कूल के मास्टर रणवीर सिंह कहा करते थे “कहीं मारे मर्द, कहीं भागे मर्द”, इसलिए अब उसकी आसफ अली रोड से भागने में ही भलाई है।

अमरेश पीरागढ़ी पहुँच गया । एक मंदिर से सटा हुआ दो बड़े-बड़े कमरों वाला गोदाम जिसमें माल

ठूँसा रहता, और ठुंसे माल के रजाई-गद्दे पर आठ-दस लेबर पड़े रहते। टेैंट की गाड़ी के साथ जाओ, फिर टेैंट के मजदूरों के साथ टेंट लगाओ। रात भर रखवाली करो, कोई समस्या हो तो उसका मौके पर निस्तारण करो। सबसे खास बात जितना और जो भी सामान गया है सबकी वापसी सुनिश्चित करो।

जहाँ टेैंट लगता था वहाँ खाने -पीने का इंतजाम हो ही जाता था। कुछ ना कुछ नेग-बख्शीश का जुगाड़ हो जाता था। सो तनख्वाह पूरी की पूरी बच रही थी। पैसे जुड़ रहे थे, जुड़ते ही जा रहे थे अब उनको सुरक्षित रखने में समस्या आ रही थी। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था तब तक उसे उसके चचेरे भाई अखिल की चिट्ठी मिली। वो अन्तरदेशी फूफा के पते पर आयी थी। जिसे उसके गाँव का एक पीरागढ़ी ले आया था। अखिल ने गाँव का हाल-खबर लिखी था। चिट्ठी का मजमून यूँ था-

”श्री रामचंद जी की जय हो, बाद नमस्ते इधर सब कुशल मंगल है । गाँव में सब ठीक है । पाला पड़ने से गेंहू और सरसों की फसल खराब हो गयी है। सो उधारी के अनाज से पेट पाला जा रहा है। दादा चरस-गांजा पीते रहते हैं और तुम्हें याद करते रहते हैं, उसे यानी अमरेश को याद करके अक्सर रोते भी रहते हैं। पूरा घर उसे याद करता रहता है। उसके पिता ने कहा है कि अमरेश को कह दो कि वो लौट आये और गाँव में ही रहकर पढ़ाई करे। तुम्हारी मम्मी भी ठीक हैं, उनको एक लड़का और पैदा हुआ है कुछ दिन पहले। मुझे एक बार मिली थीं डॉक्टर के यहां। तुम्हारे दोनो भाई गोरे हैं और बहुत सुंदर हैं। परीक्षा ना देने के बावजूद मास्टर रणविजय सिंह ने तुमको आठवीं में पास कर दिया है। मैंने फुर्सतगंज के राम अधीन सिंह इंटर कॉलेज में कक्षा नौ में नाम लिखा लिया है। साठ रुपये मनी आर्डर से भेज दो तो तुम्हारा नाम भी लिख जायेगा। बाद में आकर इम्तिहान दे देना। नहीं तो गाँव के किसी लड़के को तुम्हारी जगह परीक्षा में बैठाने का जुगाड़ किया जायेगा। विशाखा कह रही है कि अमरेश भैया रक्षाबंधन तक आ जाना और महेश ने तुमको नमस्ते कहा है और घर में सब ठीक है ।

तुम्हारा भाई -अखिलेश्वर”।

अमरेश ने पत्र पढ़ा तो उसकी आँखे भर आयीं। पहले वो सिसक-सिसककर फिर बिलख-बिलख कर रो पड़ा। जिस गाँव को वो भुला बैठा था आज वो खत के मार्फत उसके सामने आकर खड़ा हो गया। यहाँ दिल्ली में खुला आकाश है, उड़ान है । दिन भर वो आजाद पक्षी की तरह वो उड़ता रहता है लेकिन रात को जब सब इकट्ठा होते हैं तो सिर्फ अपने परिवार की बातें करते हैं,, परिवार चाहे देश में हो या परदेस में। लेकिन उसका परिवार तो है नहीं। परिवार माने क्या सिर्फ माँ-बाप, नहीं-नहीं, चचेरे ही सही ये सब भी तो उसके अपने ही थे, उसी के खून-पानी।

अपनों की परिभाषा और विस्तार अलग-अलग होता है। गाँव में जहाँ रक्त संबंध ही अपने माने जाते हैं वहीं यहाँ दिल्ली में गाँव-जंवार और जिले का होना ही अपनेपन के लिये काफी था। उसने हालात का गहन अन्वेषण किया तो ये पाया कि विद्या ही दिल्ली में उसकी तकदीर बदल सकती है। सो उसने सौ रुपये का मनी आर्डर और एक पत्र गाँव भेजने का निश्चय किया। पत्र में उसने लिखा”-

सियावर रामचंद् की जय,

नमस्ते के बाद तुम्हारी कुशलता की कामना है। तुम्हारा पत्र मिला । गाँव का समाचार प्राप्त हुआ। मैं दिल्ली में ठीक हूँ। फूफाजी से अलग नौकरी कर रहा हूँ। दूसरी डाक से मनी आर्डर भी भेजा है सौ रुपये का। साठ रुपये का दर्जा नौ का फारम भर देना। दस -दस रुपये महेश और विशाखा को दे देना। दस रुपये तुम रख लेना और बाकी का दस रुपया चाची को दे देना। वो हनुमान स्वामी को प्रसाद चढ़ा देंगी। मैं मजे में हूँ तुम लोगोँ की याद बहुत आती है । मैं थोड़ा-बहुत कमा लेता हूँ और चार पैसे बचा भी लेता हूँ। चाचा-चाची और दादा को मेरा चरण स्पर्श कहना। शेष शुभ-

तुम्हारा भाई-अमरेश”।

अमरेश ने जान-बूझकर पत्र में अपनी माँ का जिक्र नहीं किया था। उसकी माँ ने दूसरे पुत्र को जन्म दिया है ये जानकर उसे दुख हुआ और उसने खुद को अपमानित महसूस किया लेकिन दिल्ली दुख मनाने का अवसर कहाँ देती है।

अमरेश अपने काम में जी-जान से जुटा रहा। समय का पहिया निर्बाध गति से चलता रहा । उसे गाँव से खत आते रहे और वो गांव वालों को खत लिखता रहा। इस दरम्यान उसकी माँ के भी एक दो खत उसे आये जिन्हे उसने बिना पढ़े ही फाड़ दिया और अखिल को पत्र लिखकर अपनी नाराजगी जतायी कि क्यों उसने उसका पता उसकी माँ को बताया। उसका उसकी माँ से कोई वास्ता नहीं और उसकी माँ उसके लिये मर चुकी है। भविष्य में ना तो वो उसकी माँ के बारे में उसे पत्र लिखे और ना ही उसका हाल उसकी माँ को बताये। उसकी माँ औऱ उसके नाना से इस जनम में उसका कोई संबंध नहीं रहेगा।

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