सड़कछाप - 18 dilip kumar द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सड़कछाप - 18

सड़कछाप

(18)

सुबह अमर की आंख बहुत देर से खुली। जागते ही उसने शीशे की खिड़की से बाहर देखा तो अभी भी बहुत कोहरा था। उसने घड़ी में वक्त देखा तो साढ़े नौ बज रहे थे। कमरे में कोई नहीं था। कमरे का हीटर बुझा हुआ था मगर लाइट जली हुई थी। उसने इधर -उधर देखा, टोह ली। ना तो कोई ऊपर के किचेन में था और ना ही बाथरूम में। रात की पूरी घटना उसे याद हो आयी। उसका मन बड़ा अनमनयस्क हो रहा था। शरीर ने बेचैनी का सिग्नल दिया तो उसे याद आया कि उसे पेशाब लगी है और इसी लिये उसकी आँख खुली है शायद।

बाथरूम से वो फारिग होकर लौटा तब भी कमरे में कोई नहीं था। उसने “निशा, निशा’की आवाज़ लगायी तो नीचे के कमरे से एक जनाना आवाज़ आयी”आती हूँ”। थोड़ी देर बाद रेवती एक टूथब्रश और जीभ छीलनी लेकर आयी।

वो आते ही बोली-

“अमर बाबू, दर्द अब भी हो रहा है क्या?तुम्हे शायद रात को ठीक से नींद नहीं आयी इसीलिए सुबह देर तक सोते रहे। इसीलिए मैंने भी तुम्हे नहीं जगाया। रात भर तुम शायद दर्द से छटपटाते रहे तभी तुम सुबह इतनी देर तक सोये हो। निशा बता रही थी कि तुम रात को बड़ी देर तक जगते रहे हो। दिक्कत थी तो हमें क्यों नहीं जगाया तुम्हें अस्पताल ले चलते। इतनी तकलीफ क्यों बर्दाश्त किये रात भर बेटा। “

अमर निरुत्तर था उसने सर झका लिया । वो रेवती से क्या बताता कि रात भर वो क्या करता रहा और उसे नींद क्यों नहीं आयी?रेवती के बोल उसकी उम्मीद से परे थे वो कुछ सोच ही नहीं पा रहा था बस सर झुकाए एकटक फर्श को देखे जा रहा था। रेवती उसके पास आयी और उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा-

“किसी बात की चिंता मत करो बेटा, सब ठीक हो जायेगा। डरो मत, तुम अकेले नहीं हो अब। तुम अब हमारे परिवार के मेंबर जैसे हो। ये ब्रश और जीभ छीलनी लाई हूँ तुम्हारे लिये। जाओ मंजन-वंजन कर लो और फ्रेश हो जाओ। मैं तुम्हारे लिये चाय बनाती हूँ”।

अमर ने सकुचाते हुए कहा-

“नहीं, नहीं मैं घर जाऊंगा अब पैर में दर्द भी नहीं है उतना। आप बस एक टेम्पो बुलवा दीजिये। साइकिल भी तो उस पर लदवानी है”।

रेवती ने तुरंत उसकी बात का प्रतिवाद करते हुए कहा-

“नहीं, नहीं मैं तुम्हें इस हाल में हर्गिज़ नहीं जाने दूंगी। तबियत और बिगड़ गयी तो घर पर तुम्हे कौन देखेगा। तुम बाथरूम हो लो तब तक मैं चाय बनाती हूँ। मुझे नीचे भी काम है। मज़दूर खाना लेने आने लगे हैं और तुम्हारे चाचा बहादुरगढ़ जाने वाले हैं। उनको भी विदा करके आती हूँ। मैं चाय बनने को रख रही हूँ बेटा”।

अमर ब्रश-मंजन लेकर बाथरूम में चला गया वो फारिग होकर लौटा तो बिस्तर के बगल एक स्टूल पर चाय रखी थी । साथ में स्टील के एक बड़े गिलास में हल्दी वाला दूध और साथ में पराठा-सब्ज़ी भी रखा था।

उसे देखते ही रेवती ने कहा”अमर बाबू, तुम ये चाय पी लो, नाश्ता भी कर लो, फिर हल्दी वाला दूध भी पी लेना जो तुम्हारी चोट को फायदा करेगी। अभी दूध बहुत ज्यादा गर्म है, थोड़ी देर बाद पी लेना। मैं नीचे जा रही हूँ। बहुत ज़रूरी है, मज़दूर खाने के लिये खड़े हैं और तुम्हारा चाचा बस निकलने ही वाले हैं। उनकी दोपहर की शिफ्ट है। तुम खा-पीकर आराम करो। मैं जल्द ही आती हूँ काम निबटा कर”ये कहती हुई रेवती सीढ़ियां उतर गयी।

रेवती के जाते ही अमर की हैरानी बढ़ गयी। उसकी पेशानी पर बल पड़ गया। वो सोचने लगा कि “कैसे कैसे लोग हैं इस दुनिया में। जिस औरत रेवती का वो अभी कुछ नहीं है वो उससे पुत्रवत बर्ताव करती है, मगर जिसका वो पुत्र है वो तो उसे छोड़कर ही चली गयी, लौटकर कभी सुधि ना ली कि वो ज़िंदा है या मर गया। पुत्र जैसा तो वो अपनी मौसियों और चाची का भी था मगर उनका भी बर्ताव कितना खराब रहा उसके प्रति।

उन महिलाओं को उसके जीने-मरने से कोई फर्क ही नहीं पड़ता था और ये औरत जिससे फ़िलहाल उसका कोई वास्ता नहीं कैसे जी-जान से उसकी सेवा में जुटी है। अपनी इज़्ज़त, अपनी बेटियों की इज़्ज़त की परवाह ना करते हुए उसे अपने साथ बिस्तर में सुलाया। सुबह से ही ये स्त्री उसकी कितनी चिंता कर रही है और उसने क्या किया रात को इस औरत की बेटियों के साथ,, छी,, छी, ”, ये सोच कर ही उसका मन कसैला हो गया।

हीनता और अपराध बोध ने अमर के विचारों को आ घेरा। ‘कैसे नजरें मिला सकता है वो रेवती से और उन दो लड़कियों से भी जिन्हें उसने बारी-बारी से छला है। उसने उन लड़कियों के निश्छल प्रेम की इज़्ज़त नहीं की बल्कि उनकी इज़्ज़त लूटने पर आमादा था’।

इसी उधेड़बुन में अमर उलझ गया उसकी तन्द्रा तब टूटी जब उसने देखा कि उसके आंसुओं की दो बूंदे पराठों पर टपक पड़ी हैं। पराठे पर आँसू देखे तो वो वास्तविक दुनिया में लौट आया। उसने सोचा कि अभी मेरे मन में पश्चाताप के भाव हैं, बाद में शायद राक्षस की सोच आ जाये। अगर मैं पश्चाताप के ये आँसू अपने शरीर में डाल लूँ तो शायद मुझे हर घड़ी मुझे मेरे पाप और कुकर्म याद आएं। इसलिये उसने पराठे से अपने आंसुओं की बूंदे साफ करने के बजाय उन्हें पूरे पराठे पर फैला दिया और फिर उन्हें खा लिया।

खाते-खाते उसे पराठे का स्वाद कुछ अजीब लगा, कुछ नमकीन कुछ कसैला लगा, कभी बेस्वाद तो कभी स्वादिष्ट लगा। जैसे-जैसे उसके मन ने रंग बदला वैसे वसे उसे स्वाद भी बदल कर मिला। वो नाश्ता करने के बाद लेट गया। नीचे से कभी-कभार किसी के बोलने की आवाज़ आती रही मगर बड़ी देर तक कोई ऊपर ना आया।

अमर को बहुत जोर से रुलाई आ रही थी। उसका मन बहुत ज़ोरों से रोने का हो रहा था। वो फूट-फूटकर, बिलख-बिलखकर दहाड़ें मारकर रोना चाहता था। लेकिन वो यहाँ रोता तो उसे रोने का कारण भी बताना पड़ता और कारण बताने के बाद क्या वो मुँह दिखाने के लायक रह जाता। वो रोने का कारण ना बताता तो लोग उसके विलाप की वजह उसकी चोट समझते और उस चोट का इलाज कराने अस्पताल ले जाते जो उसे कभी लगी ही नहीं, लोग उस दर्द का दिलासा देते जो जो उसके तन-मन पर कहीं था ही नहीं।

अमर ने अनुमान लगाया कि कुछ देर में निशा और उषा भी काम से लौटेंगी। वो आशंकित हो उठा कि वे दोनों बहनें इकट्ठे सामने आईं तो क्या करेगा वो। किससे नजर मिलायेगा और किससे नजर छुपायेगा वो। यही सब सोच रहा था वो।

करीब डेढ़ घण्टे बाद रेवती ऊपर आयी। उसके आते ही अमर ने कहा-

“आंटी, मैं घर जाऊँगा। जाना बहुत ज़रूरी है। मेरे पैर में मोच का दर्द भी अब नहीं है। मैं पैदल-पैदल साइकिल लेकर चला जाऊंगा”।

रेवती चिहुंकते हुए बोली”क्या बात करते हो बेटा, ठीक से पैर जमीन पर धरा भी नहीं जा रहा है। ऐसे हाल में कैसे बाहर जाओगे। आराम करो अभी, ठीक हो जाना तब बाहर जाना”।

अमर ने उतावलेपन से कहा-

“नहीं, नहीं आंटी, जाना बहुत ज़रूरी है। क्लीनिक की चाभी मेरे ही पास है। मैं नहीं जाऊँगा तो क्लीनिक नहीं खुलेगा। उनका कल का कैश भी देना है। हिसाब के बीस हज़ार रुपये मेरे पास हैं। नहीं जाऊंगा तो बड़ी गड़बड़ हो जायेगी। “

रेवती ने उतनी ही फुर्ती से जवाब दिया-

“बेटा, जान है तो जहान है। एक दिन क्लीनिक नहीं खुलेगा तो कौन सी आफत आ जायेगी। फिर उनका कैश कहीं भागा थोड़े ना जा रहा है। हिसाब कल परसों में दे देना”।

अमर ने सोचा अब दबाव बहुत है उसे रुकना ना पड़े और रुकना वो हर्गिज़ नहीं चाहता था।

वो रुआंसा होते हुए बोला-

”आंटी अगर बतरा का नुकसान हुआ तो वो मुझे नौकरी से निकल देगा, फिर मैं बर्बाद हो जाऊंगा। कैश की चिंता में वो पुलिस केस भी कर सकता है”

उसकी बात सुनकर रेवती और भी चिन्तित हो उठी। उसको चिंताग्रस्त देखकर अमर दुविधा में पड़ गया। वो कुछ सोचते हुए बोला-

“आंटी आप चिंता मत कीजए, मैं खुद क्लीनिक नहीं जाऊंगा। घर पहुँचकर पीसीओ से बतरा को फोन कर दूंगा। वो किसी को भेज कर चाभी और कैश मंगवा लेंगे। चाबी और फ़ोन नंबर कमरे पर ही है, मुझे जाना ही होगा। “

नौकरी जाने वाली बात से रेवती मुतमईन हो गयी। वो हथियार डालते हुए बोली-“बेटा, तुम्हारे कपड़े अभी पूरी तरह सूखे नहीं हैं। निशा भी आ जाती तो चले जाना खाना-वाना खाकर”।

अमर ने जल्दी से कहा”नहीं आंटी, मूझे पहले ही जाना होगा । फोन करना होगा तभी कोई आ पायेगा। निशा तो दोपहर बाद आयेगी। तब तक बहुत गड़बड़ हो जायेगी। कपड़ों का क्या है?टेम्पो में बैठकर यही पहने चला जाऊँगा। टेम्पो ना मिले तो रिकसा ही बुला दीजिये, आंटी अभी जाना होगा, हर हाल में जाना होगा”।

थोड़ी देर में एक रिक्शा आ गया। रिक्शामान ने रिक्शा के पीछे अमर की साइकिल को बांध दिया। रेवती ने अमर को सहारा देकर रिकशे पर बैठाया और कहा-

“बेटा, मैं भी चलती हूँ उधर से इसी रिकशे पर चली आऊँगी”।

अमर ने तुरंत प्रतिवाद किया”नहीं आंटी रहने दीजिये, मैं चला जाऊँगा, आप परेशान ना हों”।

रेवती ने उसे डपटते हुए कहा”नहीं अमर, अब मैं तुम्हारी कुछ नहीं सुनूँगी। जितना सुन लिया उतना ही बहुत है”।

अमर ने अपना अंतिम तीर चलाया”निशा और उषा आएंगी तब क्या होगा। फिर आपके मज़दूर आते रहते हैं उनको खाना कौन देगा?”

रेवती ने हँसते हुए कहा-“अरे मेरे भोले भंडारी। उन सबकी चिंता मत करो। पड़ोस की तारा भाभी को बोल दिया है । वो सब देख लेंगी। अब तुम चलो भी”ये कहते हुए वो एक टिफिन लेकर रिक्शे पर बैठ गयीं। अमर निरुत्तर हो गया।

अमर के बताए हुए रास्तों पर चलकर रिक्शा थोड़ी देर में ही अमर के घर पहुंच गया। रेवती ने अमर को सहारा देकर अंदर पहुँचाया, वैसे अमर को किसी सहारे की ज़रूरत थी नहीं। रेवती ने रिक्शामान की मदद से अमर की साइकिल उसके कमरे में रखवाई और उसके कपड़े सूखने को डाल दिये। अमर रेवती के सामने बिस्तर पर लेट गया। उसे लेटा देखकर रेवती को तसल्ली हुई तो फिर वो वापस चलने को तैयार हुई। उसने अमर से कहा-

“बेटा, ये टिफिन है भूख लगे तो खाना लेना। खाना ज़रूर से खा लेना, तुम्हे दवा भी तो खानी होगी। कोई काम पड़े या कुछ भी दर्द, दिक्कत पड़े तो ये मेरे पड़ोस के पीसीओ का नंबर है। फोन कर देना, तनिक भी संकोच मत करना। मैं तुरंत आ जाऊंगी। ना चिंता करना ना घबराना। अब तुम दिल्ली में अकेले नहीं हो, मानो तो एक परिवार हम सब भी हैं तुम्हारे” ये कहते हुए रेवती ने अमर को एक पर्ची पकड़ाई।

अमर ने सहमति में सर हिलाया फिर कुछ याद करते हुआ बोला”आंटी रुकिये, ये टिफ़िन मैं खाली कर देता हूँ और ये अंकल के कपड़े भी बदल कर दिये देता हूँ जो मैंने पहने हैं।

रेवती ये सुनकर रुक गयी। थोड़ी देर में अमर ने रामनरेश के कपड़े और रेवती का टिफ़िन उसको एक झोले में रखकर दे दिया।

जाते-जाते रेवती ने अमर को वात्सल्य भरी नज़रों से आँख भर के देखा तो उसकी आँखें भर आयीं और उसके आँखों के आँसू गालों पर लुढ़क पड़े। अमर बहुत विनीत होकर रिकशे को तब तक देखता रहा जब तक रिक्शा उसकी नज़रों से ओझल नहीं हो गया।

रेवती के जाने के बाद थोड़ी देर तक अमर विचारों के सागर में गोते लगाता रहा लेकिन फिर वो वास्तविक दुनिया में लौट आया। उसने नहा-धोकर साफ सुथरे कपड़े पहने।

अमर के शरीर में ताजगी आयी तो उसका अवसाद भी कुछ कम हुआ और उसके दिमाग ने वैसे ही तिकड़म सोचना शुरू किया जैसा कि आम दिल्ली वासी सोचता है। उसने सबसे पहले ड्यूटी जाने की तैयारी की। ड्यूटी जाने के लिये साइकिल बनवाना ज़रूरी था। साइकिल की अच्छी खासी मरम्मत उसी ने की थी सो उसे रिम बदलवानी पड़ी।

उसका दिमाग आगे के घटनाक्रम पर सोचने लगा। उसे आशंकाओं ने आ घेरा था। वो आशंकाएं क्या थीं, उसे कुछ अनुमान लग नहीं रहा था। दुनिया भर के अच्छे-बुरे विचार उसके दिमाग में आते रहे और वो बेपरवाह साइकिल चलाता रहा। पिछली बार तो उसने होशियारी से अपनी साइकिल नाले में कुदायी थी मगर इस बार वो लापरवाही से एक नाली में जा गिरा। उसे लगा कि वो तेज़ गति से साइकिल चलाते हुए नाली पार कर ले जायेगा। मगर नाली का पाट इतना चौड़ा था कि उसमें उसकी साइकिल का अगला पहिया ही फंस गया। उसने उतरने के बजाय साइकिल पर बैठे-बैठे ही इतनी जोर से पहिये को निकालने की कोशिश की, कि वो पीछे को उलट गया। पीछे भी एक नाली ही थी जो कूड़े से बजबजा रही थी। उसी नाली में शीशे का कोई टुकड़ा उसके हाथ में जा धँसा और जिससे बेतरह खून निकलने लगा।

अमर के बायें हाथ में घुसा शीशा काफी गहरे तक पेवस्त हो गया था। वो उठा तो कपड़े कीचड़ से सन चुके थे हाथ से लगातार खून बह रहा था। उसने दाहिने हाथ से बाएं हाथ के शीशे के टुकड़े निकाले, मगर शीशे का टुकड़ा हाथ में इस कदर धँसा हुआ था कि वो निकलते-निकलते हाथ को और काट गया।

तमाशबीनों के साथ कुछ मददगार भी इकठ्ठा हुए और उसे पास ही में एक डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर ने उसकी मल्हम-पट्टी की, दर्द और टिटनेस का इंजेक्शन लगाया।

अमर जब डॉक्टर से विदा लेने लगा तब डॉक्टर ने देखा कि अमर के पैरों में भी पट्टियां बंधी हुई हैं। उसने मुस्कराते हुए पूछा-

“पैरों में चोट कैसे लगी”?

अमर ने भी मुस्कराते हुए जवाब दिया”जी कल रात साइकिल का बैलेंस गड़बड़ा जाने के कारण साइकिल के साथ नाले में जा गिरा था। वहीं चोट लग गयी थी”।

डॉक्टर ने हँसते हुए कहा-

“कल साइकिल सहित नाले में गिर पड़े आज साइकिल सहित नाली में गिर पड़े। ये साइकिल है या तुम्हारी दुश्मन। पी कर साइकिल मत चलाया करो नहीं तो किसी दिन बहुत बड़ा हादसा हो सकता है”।

अमर ने दृढ़ता से कहा-

“जी मैं शराब नहीं पीता”।

डॉक्टर ने चौंकते हुए कहा-

“फिर गांजा-वांजा या टैबलेट खाते हो क्या?सुनो, यहीं एक क्लीनिक है नशा छुड़ाने वाला। कुछ पैसे लगेंगे और मैं तुम्हें भर्ती करवा कर तुम्हारे नशे की लत छुड़वा दूँगा”।

अमर ये सब सुनकर भन्ना गया। डॉक्टर को पैसे वो पहले ही दे चुका था, वो डॉक्टर को आग्नेय नेत्रों से घूरते हुए क्लीनिक से निकल आया।

अमर के हाथ में दर्द अभी शांत नहीं हुआ था उसके कपड़े भी गंदे थे। कल रात से उसने विचारों का जो ज्वार-भाटा भोगा था अब वो किसी नए एडवेंचर के मूड में हर्गिज़ नहीं था। सो उसने घर की तरफ लौटना मुनासिब समझा। वो कमरे पर पहुँचा, वहीं के पीसीओ से उसने बतरा को फोन करके बता दिया कि वो आज नहीं आ रहा है, वो दूसरी चाबी से क्लीनिक खोल लें।

अमर जब कमरे पर पहुँचा तब तक इंजेक्शन अपना प्रभाव दिखा चुका था। उसके हाथ का दर्द जाता रहा था। लेकिन उसका दिमाग बिल्कुल विचार शून्य था। उसने सोने का निर्णय किया। क्योंकि नींद ना सिर्फ शरीर की थकान दूर करती है बल्कि मन की निराशा को भी सोख लेती है । उसे लगा कि उसने कल जो झूठी चोट तैयार की थी, आज की चोट उसी पाप का प्रतिफल है । इन्ही सब विचारों के उहापोह में उसे ना जाने कब नींद आ गयी। नींद उसे गहरी आयी क्योंकि जो दवाएँ और इंजेक्शन उसके शरीर में गये थे वे सब नींद बढ़ाने में सहायक थे।

दरवाजे पर लगातार हो रही दस्तक से उसकी आंख खुली। उसने उठ कर दरवाजा खोला तो देखा कई लोग वोट मांगने के लिये खड़े हैं। उन लोगों ने अपनी बात कही, वोट की पर्ची दी और उसके चोटिल-हाथ पांव की खैरियत पूछ कर चले गए।

वो बड़ी देर तक बिस्तर पर बैठा रहा, अचानक नींद खुल जाने से वो बहुत खिन्न महसूस कर रहा था। उसने महसूस किया कि उसके हाथ में दर्द फिर उभर आया है। उसने दवा खायी, उसे भूख महसूस हुई तो उसने रेवती का दिया हुआ खाना खाया और फिर बिस्तर पर लेट गया। उसका दिमाग अभी भी विचार शून्य था और जब दिमाग काम करना बंद कर दे तब क्या करना चाहिये?

उसे दिल्ली के मंदिर में सुना हुआ प्रवचन याद आया कि’जब पुरानी चीजों पर आपका वश ना चले, और हालात आपके काबू में ना आ रहे हों तो नई संभावनाओं पर विचार करें। जब पुरानी जगहों से आपके जीवन में कोई परिवर्तन ना हो पा रहा हो तो स्थान-परिवर्तन करें’। “हां यही सही होगा”ये कहते हुए अमर ने हवा में मुक्का मारा।

लेकिन कैसे?अमर का ध्यान बिस्तर पर पड़ी और पोस्टर पर पड़ा जो चुनाव वाले उसे अभी दे गए थे। पोस्टर पर बड़े शब्दों में दिलेराम लिखा हुआ था और उसकी फोटो बनी हुई थी, दुबला-पतला देसी आदमी जो वार्ड मेंबर का चुनाव लड़ रहा था। उसने सोचा कि अभी तक उसने किसी पावरफुल इंसान से संपर्क नहीं बनाए हैं सिर्फ उनके यहाँ नौकरी की है। क्यों ना इस इंसान से सम्पर्क बनाने का प्रयत्न किया जाये और उससे बराबरी से मिला जाये।

फिर ये चुनाव का वक्त है अगर इस वक्त नहीं मिला जाएगा किसी नेता से तो कब मिला जाएगा?ऐसे ही तमाम ख्याल मथते रहे उसके दिमाग को।

अगले दिन काम पर जाने से पहले वो दिलेराम को खोजते-खोजते उसके ठिकाने पर पहुँचा। दिलेराम एक छोटे से दो तल्ले के मकान में रहता था जैसे कि निशा का घर था। दिलेराम के मकान की लंबाई-चौड़ाई निशा के मकान से कम थी। वो पहुँचा तो दिलेराम घर पर ही मिल गया। उसकी खासी आवभगत की दिलेराम ने हालाँकि उस वक्त वो घर पर अकेला ही था। दिलेराम ने अमर से पूछा-

“भाई क्या नाम है आपका, कैसे आना हुआ। मैं क्या मदद कर सकता हूँ आपकी”?

अमर ने हँसते हुये कहा”मेरा असली नाम अमर शुक्ला है। दिल्ली में मैं अमर तन्हा के नाम से जाना जाता हूँ”

दिलेराम हँसा और बोला”बोलो ब्राम्हण देवता, मेरे लायक क्या सेवा है”?

अमर ने भी हँसते हुए कहा”देवता ना बनाओ भाई, इंसान ही बन जाऊं तो बहुत है। मुझे अपना कमरा छोड़ना है, और आपके घर के आसपास कोई रूम लेना है”।

दिलेराम ने कहा “कोई खास बात, वहाँ कोई तंग -तराश करता है तो बताओ चल कर देखा जाए उसको”।

अमर ने मुस्कराते हुए कहा”नहीं वो सब बात नहीं है। मैं इस जगह अपना एक डॉक्टरी का क्लीनिक खोलना चाहता हूँ। डॉक्टरी और लेखन दोनों काम है मेरा”

दिलेराम उत्साहित होते हुए बोला”तब तो बहुत अच्छी बात है। आप इस गली में रहेंगे तो बहुत अच्छा होगा अमर बाबू”।

अमर ने होशियारी से कहा”बाबू ना कहो दिलेराम भाई। मुझे आप कमरा दिला दो मैं जी जान से आपकी इलेक्शन में मदद करूँगा। इलेक्शन बाद भी हमारा साथ रहेगा संगी-साथी बनकर और फिर पड़ोसी बनकर”। दिलेराम अमर की ये बात सुनकर पुलकित हो गया उसने दुबारा गर्मजोशी से हाथ मिलाया अमर से, अमर भी जान चुका था कि ये आदमी काम का है वो भी उससे गर्मजोशी से मिला।

कुछ ही घण्टों में उस देहाती गली में पाँच सौ रुपये में एक बड़ा कमरा मिल गया। उस गली का नाम गोबिंद नगरी था। ये कमरा शिवपूजन नाम के एक मज़दूर का था जो फिलवक्त एक दिहाड़ी मजदूर था। शिवपूजन इस इलाके में बिस्कुट फैक्ट्री के बन्द हो जाने की वजह से बेरोजगार हो गया था और उसे कभी-कभार ही कोई फुटकर रोजगार मिल पाता था। शिवपूजन पक्के कमरे के पीछे टिन शेड बनाकर अपने परिवार के साथ रह रहा था मगर अपना कमरा किराये पर उठा रखा था। ताकि किराये से घर की रसद चलती रहे। शिवपूजन ने अमर से तीन हजार रुपये की पगड़ी भी मांगी थी, अमर ये पैसे दे सकता था मगर उसने अपनी माली हालत छुपाने का फैसला किया। शिवपूजन ने बार-बार कहा लेकिन दिलेराम के हस्तक्षेप से अमर को पगड़ी नहीं देनी पड़ी।

मकान के जिस हिस्से में शिवपूजन रहता था वहीं उसने एक परचून की दुकान भी खोल रखी थी जिसकी बिक्री नगण्य थी। क्योंकि गोबिंद नगरी ऐसे लोगों की बस्ती थी जहाँ हर घर में कोई ना कोई दुकान थी। इस बस्ती में हर कोई हर किस्म का रोजगार करने को तैयार था शर्त बस एक ही थी कि तुरंत पैसे मिलें ताकि शाम को चूल्हा जले।

ये इलाका अदालत के आदेश के बाद बन्द हुई उन फैक्टरियों का था जिन पर ये इल्जाम था कि वे प्रदूषण बहुत फैलाती थीं। जब कारखाने थे तब मज़दूरों ने उसके आस पास अपने तमाम घर आबाद कर लिए थे। अब कारखाने बन्द हो गये तो वो अपना आशियाना छोड़कर कहाँ जाएं। ये सारे मज़दूर आस पास किसी के घर में नौकर थे।

ज़िन्दगी जो भी रंग ना दिखाए, अब ये सारे मज़दूर वर्कर के बजाय नौकर थे। इस बस्ती में ज़िन्दगी ठहरी पड़ी थी सभी को। दरसअल किसी को कहीं पहुँचने की ना तो जल्दी थी और ना ही हड़बड़ी। अभावों ने जीवन की गति को रोक रखा था। लोगबाग जहाँ थे वहीं पड़े रहते थे बस दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाये तो फिर बाकी दुनिया जाए तेल लेने।

इस बस्ती में अभी भी घोड़ा, गधा, बैल, बकरी, मुर्गी सब नजर आ जाते थे और निवासी ग्रामीण पृष्ठभूमि के। दिल्ली गांवों का शहर था, एक ऐसा शहर जिसमें लोग गांव की तरह रहना चाहते थे, अपनों के बीच, संगठित, झुंड बनाकर ताकि ज्यादा से ज्यादा सबल बना रहा जा सके। इस बस्ती में सड़कें घर थीं और सड़क पर दिख रहा हर आदमी सड़कछाप।

अमर ने बिना किसी को विश्वास में लिए एक दूर के ऑटो वाले से बात की जिसे इस बस्ती का इतिहास-भूगोल बिल्कुल मालूम ना था। उसने चुपचाप अपना सामान पुराने कमरे से नये कमरे में शिफ्ट कर लिया। पुराने पड़ोसियों को उसने अपना नया पता हनुमान मंदिर बताया जो गोबिंद नगरी के बहुत बड़े तालाब के उस पार पड़ता था जो वास्तव में पांडव नगर में आता था। वो ऑटो इसलिये पीरागढ़ी से लाया था ताकि कोई पुराना बन्दा उसके नए पते तक ना पहुँच जाए किसी स्थानीय ऑटो वाले के जरिये ।

पहली रात उसकी गोविंद नगरी में बड़ी दिलचस्प रही। जहाँ पुराने कमरे पर किसी को किसी से कोई मतलब नहीं था, वहीं इस कमरे पर उससे बहुत लोग मिलने आये।

अमर से लोग इसलिये भी मिलने आये थे क्योंकि इस बस्ती का हर मज़दूर अपने मकान का कुछ हिस्सा किराये पर उठाना चाहता था। भले ही उसके घर में रहने को इफरात परिवार हों और जगह कम हो, मगर मकान हर हाल में किराए पर उठाना है ताकि बंधा किराया मिले तो घर में दाल-रोटी की गारंटी हो जाये। मगर ये सवाल और भी बड़ा था कि कोई इस बस्ती में रहने को आये ही क्यों?जो खुद उजड़ चुकी हो। जिस घर में औरतें नहीं थीं उस घर के लोग तो अपना पूरा घर किराये पर उठाकर खुद फैक्टरियों में रात बिताते थे।

सुबह होते ही सब काम की तलाश में दूर-दूर तक जाते। अमर सबको जाते हुए देखता वो लौट कर दोपहर में अमर को बताते कि अधिकांश लोगों की मज़दूरी नहीं लगी होती थी। जिनकी मज़दूरी नहीं लगी होती वो बहुत चिन्तित होते कि शाम का चूल्हा कैसे जलेगा?अमर से वे सब अपना दुखड़ा रोते और गुजारिश करते कि अमर उनका कहीं काम लगवा दे। “नानक दुखिया सब संसार”क्या कर सकता था अमर?

जहाँ अभाव होते हैं, वहाँ जरायम पनपते हैं। जरायम होता है तब ये सवाल भी उठता है कि जरायम पर कब्ज़ा किसका हो?ये बस्ती भी अब इस आँच को महसूस कर रही थी। हरियाणा से सटे इस इलाके में जाटों-गुर्जरों की बादशाहत को उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि के लोग चुनौती दे रहे थे। उसका एक ही कारण था कि जो लोग बेरोजगार हुए थे वो अब सरकारी संसाधनों पर हाथ पाँव मार रहे थे। गोबिंद नगरी का हर मज़दूर को लोग “भैया”कहते थे चाहे वो देश के किसी भी प्रान्त का हो। जबकि हर गुट और हर जरायम का मसीहा एक ही था इस बस्ती में”इंदरजीत डॉक्टर”।

इंदरजीत डॉक्टर सिंधी थे। उनका परिवार बँटवारे के वक्त सिंध से दिल्ली आया था, तब वे अबोध बालक थे। बेपनाह उतार-चढ़ाव देखे उन्होंने । फिलवक्त वो एक हारे हुए विधायक थे। पहले वे वैद्की किया करते थे, इसलिये इलाके के लोग उन्हें अब भी वैद्यजी, या डॉक्टर कहकर बुलाते थे। दिलेराम, इंदरजीत के प्यादे हरगोपाल के प्यादे का प्यादा था। जहाँ अभाव, वहाँ जर्म, जहाँ आबादी वहाँ संभावनाएं। जहाँ आबादी हो वहाँ बीमारी और वोट बहुतायत होते हैं सो अमर को ये समीकरण जंच गया।

अमर दिलेराम के जरिये हरगोपाल से मिला।

अगले दिन, अमर हरगोपाल के साथ इंदरजीत डॉक्टर के दरबार में हाज़िर हुआ।

अमर ने लपक कर उनके पाँव छुए।

“जीते रहो, ”का आशीर्वाद देते हुए इंदरजीत ने पूछा”क्या नाम है तुम्हारा”।

“जी, अमर तन्हा, मेरा मतलब है अमर शुक्ला”।

“क्यों पंडित, मेरा पाँव छूकर मुझे पाप लगा रहा है। तेरा नाम तो कवियों वाला है”

अमर ने मुस्कराते हुए कहा-

“जी डॉक्टर साब, कवि ही हूँ, ये रही मेरी किताब”ये कहते हुए उसने इंदरजीत को किताब

भेंट कर दी अपनी”

इंदरजीत ने उस किताब को उलट-पलट कर देखा, खोला अमर की तस्वीर देखी और किताब को हाथ में रखे-रखे बोला-

“ये तो बढ़िया हुआ तुम हमसे मिल गए। मुझे पढे-लिखे लोग का साथ बहुत अच्छा लगता है। और मुझे काफी ज़रूरत भी है ऐसे आदमियों की। “फिर वो थोड़ा सोचते हुए बोला-

“लेकिन अमर बाबू, आपके टैलेंट की यहाँ कोई कद्र नहीं है। ये बेरोजगार, अनपढ़ मजदूरों की बस्ती है गोविंद पुरी यहाँ ना कविता कोई जानता है और ना कवि का कोई महत्व समझता है। फिर क्या मदद करूँ मैं तुम्हारी”

अमर ने हाथ जोड़ते हुए कहा-

“बस आप अपनी शरण में ले लीजिये। आपकी कृपादृष्टि और आशीर्वाद बना रहे और कुछ नहीं चाहिये मुझे”।

इंदरजीत जोर से हँस पड़े और बोले”वो सब तो ठीक है। पर तुम्हारी तरह मुझे बातों की जलेबी बनानी नहीं आती अमर बाबू। तुम कवि हो बात घुमाने में उस्ताद । सीधे-सीधे बताओ क्या मदद चाहते हो”?

अमर ने सधे स्वर में कहा-

“डॉक्टर साहब, बहुत वर्षों से मैं एक डॉक्टर के पास बतौर असिस्टेंट काम कर रहा हूँ। पूरा काम सीख गया हूँ। काम सीखने के चक्कर में ही वहाँ अब तक नौकरी कर रहा था। अब काम पूरी तरह जान गया हूँ। वो डॉक्टर साब मुझे कुछ पैसे-वैसे ही नहीं देते। गुजारा मुश्किल से हो पाता है, अब मैं अपना क्लीनिक गोविंद पुरी में खोलना चाहता हूँ। उसी के लिये आपका आशीर्वाद चाहिये”।

इंदरजीत ने इस बार ठहाका लगाया और कहा”भाई कवि जी, आप मुझे आशीर्वाद दे दो अब, ये आपके आशीर्वाद शब्द का मतलब समझ ना आया मुझे, क्या मतलब है आर्शीवाद का, क्या चाहिये तुम्हे, पैसा, जगह या और कुछ”

अमर ने कहा-

“जी मेरा मतलब, थाना-पुलिस से था और बस्ती में जो दादा टाइप के लोग हैं, उनसे आप........”कहते-कहते अमर ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी।

इंदरजीत अमर की बात सुनकर सोच में पड़ गया, थोड़ी देर बाद उसने कहा-“ठीक है, कल आओ तब बताता हूँ कि कैसे क्या होगा”?

अमर इंदरजीत से दुआ-सलाम करके लौट आया। थोड़ी देर बाद वो बतरा के क्लीनिक पर चला गया। वहाँ की ड्यूटी से वो देर रात लौटा। उसे निशा और उषा दोनों की याद बराबर आती रही, रेवती के दिये स्नेह से उसे जो अपराध बोध हावी होता तो वो बेचैन हो जाता। किसी तरह उसने खुद को काम और दुनियादारी में डुबो रखा था।

अगली सुबह उसने उस बस्ती का पैदल ही दौरा किया। ये बस्ती हताश, हारे हुए लोगों का एक जमघट थी। जिसमें हर किसी को ये उम्मीद थी कि कोई महात्मा गांधी आएंगे जो लोगों की ज़िन्दगियों को बदल देंगे। अदालत के हुक्म पर बन्द हुए तमाम कारखानों के मुलाज़िम अब भी खुद को दिलासा देने के लिये कभी इस नेता तो कभी उस अफसर के चौखट पर अपनी फरियाद लेकर जाते।

अमर के जीवन में तो दर्द बहुत नहीं था मगर इस बस्ती में दुख और पीड़ा के पहाड़ खड़े थे। कुछ वक्फे के बाद वो फिर से इंदरजीत के दरबार में हाज़िर था। आज इंदरजीत पूरे मूड में था उसने आते ही अमर से कहा-

“देख भई कवि जी, तुझे क्लीनिक खोलना है तो खोल, मगर एक बात का खयाल रखना”

अमर ने कहा-“जी आदेश कीजए, ”

इंदरजीत ने कहा-

“कोई बड़ा इलाज तू ना करेगा, क्योंकि तू डॉक्टर तो है नहीं। दूसरी बात कोई मर-मरा गया तो तुझे लेने के देने पड़ जाएंगे। मैं तुझे पुलिस और दादा लोगों से तो बचा लूँगा। बदले में मेरा क्या फायदा होगा”?

अमर ने हाथ जोड़ते हुए कहा-

“जी जैसा आप कहिये, मेरे पास तो फिलहाल कुछ नहीं है”।

इंदरजीत हँसा”वो सब पता है मुझे, कुछ होता तेरे पास तो इस बस्ती में नहीं आता। तुझे मेरी शरण में रहना है तो मेरा वफादार बनकर रहना होगा। मैं जो कहूँगा वो करना होगा, मेरे कामों में मदद करनी होगी”।

अमर ने सहमति में सर हिलाया मगर वो सोच में पड़ गया कि कहीं वो किसी गलत आदमी के पास तो नहीं आ गया। उसे चिंतित देखकर इंदरजीत मुस्कराते हुए बोला-

“घबराओ मत, पण्डित मैं विधायक रह चुका हूँ, गुंडा नहीं। मेरे साथ से ब्राम्हण को कोई नुकसान ना होगा। मुझे खुद पाप लगेगा। तुमसे वही काम लिया जायेगा जिसके तुम लायक हो। दवा-दारू का काम और भाषण लिखाई पढ़ाई । बाकी गुंडे लठैत बहुत हैं मेरे पास पहले से। उसके लिये मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं”।

अमर ने ये सुना तो उसकी जान में जान आई।

अमर ने देवकी की बेटियों की याद से पिंड छुड़ाने के लिये अपने को इस बस्ती में गुम कर लिया। वो बतरा की नौकरी पर जाता। सुबह अपना क्लीनिक खोलता, घर-घर जाकर इलाज करता और अपने क्लीनिक पर मरीज भर्ती भी करता। भर्ती होने वाले हर मर्ज की बस एक ही दवा डिप लगा देना।

मगर हर ड्यूटी से बड़ी थी इंदरजीत के दरबार में हाजिरी । उसे पता था कि अगला चुनाव इंदरजीत यहीं से लड़ेगा, चाहे किसी पार्टी से या निर्दलीय, वो हारे या जीते लेकिन गोबिंद पूरी या उसके जैसी आस पास की तमाम अनाधिकृत बस्तियों का वो मसीहा बना रहेगा। सो इंदरजीत के जरिये वो दिल्ली में इस बार दबंगई से पांव जमा रहा था।

लेकिन इस बार पाँव जरा अलग तरीके से जम रहे थे इसमें शासन और सत्ता में उसकी पहचान बन रही थी। वो पैसा तो कमा रहा था साथ में नेतागीरी भी कर रहा था।

एक दिन वो इंदरजीत के एक जलसे में था। इंदरजीत ने कहा”भाइयों, बहनों, मेरे साथ सेवा करने वाले लोग बहुत हैं । अब देखिये ना उनमें से एक हैं ये अमर शुक्ला जी। ये आपका दुख दर्द समझते हैं और दूर करने की कोशिश भी करते हैं। पहले ये कविताएं लिखते थे लेकिन अब आपका इलाज भी करते हैं। आपका राशन-पानी, थाना-पुलिस सब देखते हैं। जब चाहो तब हाज़िर। हर दम चलते हुए सड़कों पर। एक कवि और एक डॉक्टर आपका नेता बन गया, क्या कहते हो”?

भीड़ से एक आवाज़ आई”सड़कछाप नेता जी”।

ये सुनकर सभी लोग हँस पड़े। अमर पहले तो थोड़ा ये सुनकर हैरान हुआ फिर सबको हँसते देख वो भी हँस पड़ा। उसे हँसते देख इंदरजीत बोले”सड़कछाप नेता जी”। इंदरजीत के मुँह से ये सम्बोधन सुनकर सब दुबारा हँस पड़े।

अमर धीरे-धीरे उस बस्ती में घुल-मिल गया। सुबह -सवेरे दस पांच आदमी फाटक पर। इलाज हेतु कोई एक आध, बाकी सब कहीं ना कहीं ज़िन्दगी के मारे हुए। किसी को पुलिस से तकलीफ तो किसी को नगर निगम से। हर मर्ज की एक ही दवा”नेता जी, ”। लोग उसे मुँह पर नेता जी और पीठ पीछे सड़कछाप नेताजी कहते थे। थाना और पुलिस चौकी से तो उसका दोनों जून का वास्ता पड़ गया था। वैसे भी हालात से मारे हुए लोग सरकार के नियम कानून पर जब दस्तक देते हैँ तो फिर पुलिस से उनका सामना होना लाजिमी है।

पुलिस से वास्ता पड़ने पर उसके जीवन में दो परिवर्तन हुए । “पुलिस की दोस्ती और दुश्मनी दोनों नहीं अच्छी होती है”ये बात उसने गाँठ बांध ली थी, इसलिये उसने खुद की झोलाछाप डॉक्टरी छोड़ दी, क्योंकि ना जाने कब पुलिस की निगाह बदल जाये। ये सच्चाई थी कि इंदरजीत अब एक हारे हुए विधयक थे, विधायक नहीं। दूसरे दिन भर लोगों की सेटिंग-गेटिंग कराते हुए उसके हाथों जो जनसेवा होती थी उसका मेवा उसको भी मिलने लगा था।

उसकी जेबें नोटों से भरी रहती थीं, वो इतना व्यस्त रहता था कि उसे खाना बनाने का अवसर तक ना मिलता था। उसका नाश्ता, खाना किसी ना किसी के घर से आ जाता था। हर शाम को कहीं ना कहीं उसकी दावत होती थी। उसके कपड़े कोई एक धुलता तो प्रेस किसी दूसरे घर में होते। ऐसे माहौल में दो-दो, तीन-तीन दिन बतरा की नौकरी पर नहीं जा पाता। आखिर में जब बतरा ने कोई और लड़का रख लिया तो अमर की नौकरी का अध्याय समाप्त हो गया।

aअमर दिन रात अपने पैर मजबूत करने में लगा रहा, नेता जी, डॉक्टर साहब, कवि जी, और फिर भू माफिया से दोस्ती। जगन दुजाना जो इस इलाके का लिस्टेड भू माफिया था। वो उसके सम्पर्क में था। दुजाना ने कहा था कि वो अमर को घर बनाने भर की जगह देगा, उसके धंधे भले ही अवैध हैं, मगर वो अमर को जमीन वैध ही देगा।

अमर योजनाओं पर काम कर रहा था। वो सोचता कि पैसे तो हैं, ज़मीन का बंदोबस्त हो जाये तो वो यहीं घर बनायेगा। जिसमें उसका परिवार सुख से रहेगा। घर की सोचता तो उसे गांव का घर याद आता, कैसा होगा गांव का घर क्या उन दीवारों को छत नसीब हुई होगी या सड़-गल कर गिर गई होगी। रामजस दादा जिंदा भी होंगे या नहीं और अगर जिंदा होंगे तो उसी खपरैल के घर मे रोटी पो रहे होंगे। अब कैसे दिखते होंगे?अखिल, महेश, विशाखा सब जवान हो गए होंगे। क्या पता, विशाखा शादी करके अपने घर चली गयी हो। चाचा-चाची ना जाने कैसे होंगे, वो सब बूढ़े हो गये होंगे। उसकी माँ और काले तिवारी भी बूढ़े हो गए होंगे। उसकी माँ के बच्चे भी बड़े हो गए होंगे, क्या वो बच्चे मेरे जैसे दिखते होंगे या फिर काले तिवारी जैसे। पता नहीं नाना-नानी किस हाल में होंगे?ज़िंदा भी होंगे या दोनों गुजर गए होंगे। फिर तो दोनों मौसी-मौसा वहीं जुटे होंगे। औऱ पूरी जायदाद कब्ज़ा कर लिए होंगे। क्या पता उसकी माँ को कुछ मिला भी होगा या नहीं। जायदाद तो उसकी भी वैसे ही पड़ी होगी। कौन जोत-बो रहा होगा। फ़िर उसने इन खयालों को अपने दिमाग से झटक दिया। “अब वहाँ नहीं जाना है जहाँ सब मेरी मृत्यु की इच्छा रखते हों, ”राम छोड़िन अयोध्या, जिसका मन भावे वो ले”। लेकिन यहाँ जो घर बनाएगा उसमें कौन रहेगा उसके साथ, उसके बच्चे तो होंगे, मगर पत्नी,,, कौन होगी,, निशा,,, या उषा, उषा नहीं नहीं, निशा, या फिर दोनों”ये सोचते ही उसे हँसी आ गयी।

अमर अपनी कमाई और पोजीशन मजबूत करने के चक्कर में दिन रात दौड़-धूप करता रहा। उसे निशा और उषा दोनों की याद बराबर आती थी, मगर उसने सोच लिया था कि उसका जीवनसाथी कौन बनेगा इस बात का चुनाव वो तभी करेगा, जब उसके सिर पर एक अदद छत होगी क्योंकि दिल्ली में जिसके पास घर नहीं उसके पास मानो कुछ भी नहीं, जिसके पास अपनी एक अदद छत है वो बहुत गर्वित रहता है। इसलिये पहले घर, फिर ये तय होगा कि घरवाली कौन बनेगी। इसके लिये उसे दिन रात मेहनत करनी होगी और पैसे बचाने होंगे। दुजाना से वो हर दूसरे-तीसरे दिन मिलता और कुछ ना कुछ पैसे उसे देता रहता। ये रकम पचास हजार से ज्यादा की हो चुकी थी। दुजाना ने वो जमीन अमर को दिखा दी थी उस जमीन को दुजाना” बर्फी का टुकड़ा” कहा करता था और अमर ये सुनकर बलि-बलि जाता था।

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