सड़कछाप - 19 dilip kumar द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सड़कछाप - 19

सड़कछाप

(19)

अमर ने तन -पेट काट कर दिन रात जी तोड़ मेहनत करके और तमाम जोड़-तोड़ और उधारी के बदौलत आखिर प्लाट ले ही लिया। दुजाना के उसने कुछ पैसे रोक लिए क्योंकि उसे घर भी तो बनवाना था। दुजाना को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि जिस तरह का चलता-पुर्जा आदमी अमर बन चुका था, वैसे में उसे अमर जैसे लोगों से सम्बंध बनाये रखना काफी मुफीद हो सकता था। छोटे से प्लाट का बैनामा ना होने के बाद भी अमर ने उस पर ईंट, बालू गिरवा दिया । लेकिन अमर ये जानता था कि इतने बिल्डिंग मटेरियल से उसे छत नसीब नहीं होगी। उसे और पैसे जुटाने होंगे, कहाँ से लाये वो पैसे, दिल्ली में अधिकतम उधार वो ले चुका था। लेकिन मिस्री, मजदूर की मजदूरी तो उधार नहीं रह सकती। क्या करे वो?

अचानक अमर ने सोचा” कि जिन जिन लोगों की उसने नौकरी की है क्यों ना उन सबको टटोला जाए । वे सब लोग पैसे वाले हैं, उसे उधार दे सकते हैं फिर अब तो दिल्ली का स्थायी बाशिंदा है, उसकी साख है उसे थोड़ी बहुत उधारी तो दे ही सकते हैं। भाटिया, भल्ला, बतरा इन सबसे थोड़ा-थोड़ा ले तो काफी मदद हो जाएगी। मदद माँगने में क्या जाता है, नहीं देंगे तो क्या ले लेंगे, वैसे भी अब वो सड़कछाप नेता जी के नाम से मशहूर है, सो सड़कछाप आदमी को इतना अकड़ू नहीं होना चाहिये। पैसे तो रेवती और गुरपाल से भी मिल सकते हैं थोड़ा बहुत । लेकिन उनसे मदद नहीं लूंगा मैं, उन लोगों ने मेरे लिये बहुत कुछ झेला है और मेरे लिये बहुत कुछ किया है, अब मेरी बारी है कि मैं उनके हिस्से के तकलीफें कुछ कम करूँ । घर बनने के बाद रेवती आंटी की बेटी से विवाह करूँगा, और गुरपाल चाचा को खलासी की नौकरी छुड़वाकर यहाँ गोबिंद नगरी में अपने क्लीनिक पर बैठाउँगा, और अगर क्लीनिक पर कुछ नहीं कर सके तो यहीं इसी बस्ती में किसी रोजगार में लगा दूँगा। फिर भी अगर पैसे पूरे ना पड़े तो गांव जाऊंगा, आखिर गांव में भी मेरा काफी कुछ है, जो सिर्फ मेरा है, नाना की सम्पति से भी शायद कुछ मिल जाये मुझे। पता नहीं जिंदा भी हैं नाना या मर-खप गए होंगे। देखता हूँ क्या हो सकता है गांव में। अरे हाँ, उधार क्यों, बतरा के यहाँ तो मेरी तीन महीने की तनख्वाह बाकी है । हर्जा-नागा ही सही लेकिन तीन महीने तक तो वो नौकरी पर जाता ही रहा है। तनख्वाह तो बनती है ज्यादा से ज्यादा नागा के पैसे काट लेंगे बतरा सर। जितना मैं बतरा सर को जानता हूँ उन्होंने हिसाब-किताब मेन्टेन कर रखा होगा। सो पहले उधारी से पहले मज़दूरी वसूली जाए। कल ही जाता हूँ बतरा सर के पास, फिर आगे पैसों के बारे में जुगाड़ करते हैं”यही सब सोचते-सोचते सो गया अमर।

अगली सुबह तैयार होकर अमर ने कुछ जरूरी काम निपटाए और फिर वो बाद दोपहर बतरा के पास पहुँच गया। बतरा से मिलने वो मोटरसाइकिल और एक हट्टे-कटटे सहयोगी के साथ गया था। ओमप्रकाश, इंदरजीत का पट्ठा था सो अमर उसे अपने साथ लिवा लाया था। अमर ने बतरा से हिसाब लिया उसे सैंतीस सौ साठ रुपये मिले। बतरा ने नागे के पैसे तो काटे मगर अमर को पैसा देने में कोई आनाकानी नहीं की। ये शायद ओमप्रकाश पहलवान की उपस्थिति के सबब था। अमर को बतरा से इतनी आसानी से पैसे मिलने की उम्मीद नहीं थी। जिस बतरा ने अमर से कुत्ते का मल फिंकवाने के लिये दो दिन इंतजार किया और अपना बैडरूम छोड़कर अलग कमरे में सोया वो इतनी आसानी से पैसा दे देगा अमर को इस बात का हर्गिज़ गुमान ना था।

बतरा से पैसे लेने के बाद उसने रामप्रकाश से मिलने की सोची। रामप्रकाश के पास उसका कुछ कमीशन का पैसा भी निकल रहा था। रामप्रकाश बतरा के क्लीनिक के पास डायग्नोस्टिक सेंटर औए मेडिकल स्टोर चलाता था। दरअसल बतरा की सारी दवाएं और जांच रामप्रकाश के जिम्मे ही थीं। वो रामप्रकाश से मिला। दुआ -सलाम के बाद राम प्रकाश ने भी हिसाब-किताब करके उसे तीन सौ रुपये दिए। जब अमर चलने को हुआ तब राम प्रकाश ने कुछ याद करते हुए कहा-

“अमर तुम्हारे पूरी तरह नौकरी छोड़ देने के बाद तुम्हे खोजते -खोजते एक औरत आई थी। उस दिन क्लीनिक तो बन्द था मगर मेरी दुकान खुली थी। क्या नाम बताया उसने अपना मैं भूल गया। मगर थी पैंतालीस-पचास साल की”।

अमर चौंक गया। उसका माथा ठनका कहीं कोई पुलिस केस वगैरह तो नहीं कर दिया उन लोगों ने या और कोई कांड ना हुआ हो। उसने मन ही मन डरते हुए मगर प्रत्यक्ष में संयत रहते हुए पूछा-

“क्या पूछ रही थी वो और क्या बताया तुमने”

रामप्रकाश ने उसे ताड़ते हुए कहा”तुम्हारा चेहरा काहे उड़ गया पण्डित ये सुनते ही। मैंने क्या बताया वो तो बाद की बात है, पहले ये बताओ कि तुम क्या कांड कर आये हो उस औरत के साथ जो वो तुम्हें ढूंढ रही थी, ”ये कहते हुए रामप्रकाश कुटिलता से हँसा।

अमर ने हँसते हुए कहा-

“तुम भी छठिया गए हो का, उसकी और हमारी उमर का फर्क देखो, वो हमारी महतारी की उम्र की औरत होगी। कुछ तो शर्म करो बोलने से पहले। वो रेवती आंटी होंगी। उनके पति शराबी हैं, बीमार रहते हैं । कोई दवाई-आपरेशन या कर्ज़ा माँगने आई होंगी”।

रामप्रकाश ये सुनकर झेंप गया। वो बात सम्भालते हुए बोला-

“हां, हां, यही नाम था। बहुत परेशान थीं । तुम्हारा नया पता, फोन नंबर मांग रही थीं। उस दिन डॉ साहब की दुकान भी बंद थी। मैंने कहा था कि पता लगते ही खबर कर दूंगा। दूसरे दिन डॉक्टर साहब से तुम्हारे बारे में पूछा, उन्हें भी कुछ पता नहीं था तो वे क्या बताते । वो औरत हर दूसरे-तीसरे दिन मुझे फोन करती रही। लेकिन मैं क्या बताता मुझे कुछ पता हो तब ना। जिस दिन वो आई थी वो जाते-जाते एक चिट्ठी भी छोड़ गई थी तुम्हारे लिये, ”।

अमर ने ततपरता से कहा-लाओ, दो कहाँ है वो चिट्ठी। “

“यहीं गल्ले में तो थी, रुको देता हूँ”ये कहकर वो पैसों के गल्ले में चिट्ठी को खोजने लगा। अमर बेचैनी से उसे देखता रहा। काफी देर तक खोजने के बाद भी जब चिट्ठी ना मिली तो अमर झल्ला उठा और बोला-

“कहाँ खो गयी, किसी का सामान ध्यान से रखा जाता है”।

रामप्रकाश को उसकी झल्लाहट नागवार गुजरी वो भी तल्खी से बोला-

“पण्डित अपनी गलती पर हमपे ना चिल्लाओ। महीना भर पहले की बात है। कहीं मिस हो गई होगी। गल्ले पर कई लोग बैठते हैं। कहीं साफ-सफाई में खो गयी होगी। एक छोटा सा पन्ना तो था। महीना भर से ऊपर की बात है। जाकर मिल काहे नहीं लेते अपनी आंटी से कहीं वो पाकिस्तान में थोड़े ना हैं”।

अमर को ये बात नागवार गुजरी, अब वो बतरा का सहायक अमर नहीं था, विधायक का करीबी अमर था। । उसे एक मेडिकल का बन्दा हूल दे, दिन भर थाना-पुलिस से उसका साबका था। फिर उसके पास साढ़े छह फुट का पहलवान ओमप्रकाश भी था। उसने रामप्रकाश को गन्दी सी गाली दी और कहा”लेटर काहे खो दिए, तुम्हारी बहन ने पाकिस्तान में लव लेटर भेजा था क्या उसमें, दो कौड़ी के दलाल”।

रामप्रकाश कुछ कहता तब तक वहाँ ओमप्रकाश आ गया। उसकी भीमकाय देह देखकर रामप्रकाश और उसके दुकान के अन्य लोगों ने चुप रहना बेहतर समझा। अंगारों पर लोटता हुआ और अनिष्ट की आशंका से जूझता हुआ अमर वहाँ से लौट आया।

वो अपने कमरे पर आया और लेट गया। उसका क्रोध शांत हुआ तो निराशा और अपराधबोध ने उसे आ घेरा।

वो सोचने लगा”क्या हुआ होगा, रेवती आंटी के घर, हे ईश्वर कोई अनिष्ट ना हुआ हो। निशा या उषा ने आपस में मुझे लेकर कोई बवाल तो नहीं कर लिया। उन दोनों बहनों ने आपस में मुझे लेकर झगड़ा ना किया हो। रेवती आंटी पर तो कोई मुसीबत तो नहीं आ गयी। लेकिन वो इतनी बहादुर महिला हैं वो मेरी मदद क्यों लेंगी। सबसे खुद ही जूझ लेती हैं। कहीं रामनरेश ने कोई कांड तो नहीं कर दिया। पुलिस का केस वगैरह हो गया हो। उसे छुड़ाने में या उन्हीं का इलाज कराने के लिये आंटी मुझसे मदद माँगने आयी हों। या रामनरेश मर ही ना गए हों। नहीं, नहीं अगर वो मर गए होते तो आंटी मेरी मदद क्यों मांगती, उनके मर जाने के बाद बार-बार मुझे फ़ोन क्यों करतीं । इस बात की कोई तुक नहीं है। ज़रूर कुछ अनिष्ट है तभी रेवती आंटी लगातार मुझे खोज रही हैं। मुझे उनसे कल ही मिलना चाहिये”यही सब सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई।

दरवाजे पर दस्तक हुई तो उसकी आंख खुली । उसने दरवाजा खोला तो सामने दिलेराम खाना लिए खड़ा था, । अमर ने सोचा कि खाना ले लूँ, अगर कोई बहाना बनाऊंगा तो अभी ये खुद बैठ जायेगा या चार लोगों को बतायेगा तो आठ लोग मिलने-देखने चले आएंगे। उसका इरादा किसी से भी बात करने का हर्गिज़ भी ना था। । सो उसने दिलेराम को टालते हुए कहा-

“सर और बदन में बहुत दर्द है, मैंने दवा ले ली है लेकिन आराम नहीं है अभी। सो जाऊं तो शायद कुछ पीड़ा कम हो । लोगों का बता देना कि इतनी टाइम मुझे जगाएं ना”।

दिलेराम आया तो किसी काम से ही था मगर अमर के जवाब से वो समझ गया कि ये बात करने का मुफीद वक्त नहीं है। उसने इसरार में सिर को जुम्बिश दी और वहाँ से चला गया। उसके जाते ही अमर ने कमरे में अंधेरा कर दिया और बिस्तर पर निढाल होकर पड़ गया। रोशनी थी कमरे में तो ख्याल भी छिटके हुए थे मगर कमरे में अंधेरा हुआ तो जमीर ने जिरह करनी शुरू कर दी। इस अदालत से भाग कर कहाँ जाए कोई।

“खुद ही मुद्दई, खुद ही गवाह, खुद ही मुजरिम और खुद ही मुंसिफ। ये सवाल बड़ी तुर्शी लिये हुए थे कि अगर एक औरत उसकी माँ के बारे में उसके मन में कड़वाहट है तो उसका बदला क्या वो उसकी जिंदगी में आयी हुई हर औरत से लेगा। सरोजा अगर उसकी जन्म देने वाली माँ है और किसी कारणवश उसके साथ ना रह सकी तो उसका खामियाजा रेवती क्यों भुगते, वो भले ही रेवती को माँ ना मानता रहा हो, मगर रेवती ने जब तब उसे बेटे की तरह मान दिया और वक्त वक्त पर ये जतलाया भी था कि भगवान ने दो बेटियों के बाद एक बेटा दे दिया था। लेकिन उसने क्या दिया रेवती को, वो अपनी माँ को तो दोषी मानता है कि चली गयी उसे छोड़कर अपने फायदे के लिए लेकिन वो खुद भी तो रेवती आंटी को छोड़ आया अपने फायदे के लिये। तो वो भी तो दोषी ही हुआ। किसी पलायन के दो मानक नहीं हो सकते । और निशा उस बेचारी का क्या दोष, यही कि जिस दिल्ली में उसे कदम -कदम पर दुत्कार, फटकार और परायापन मिला था । वहीं पर उसने पहली बार इज्जत दी, उसके मन के घावों पर फाहे रखे, बदले में उसने क्या किया उसके साथ,,,,, विश्वासघात। प्रेम का नाटक उसके साथ करता रहा और प्रेम उषा पर लुटाता रहा। जहाँ से उसे प्रेम मिला, विश्वास मिला वहॉं पर उसने छल किया, और अपनी खुशी के लिये गोरी रंगत के आकर्षण में उलझ गया। उषा से भी उसने एक किस्म का छल ही किया। निशा से प्रेम सम्बन्ध में होते हुए भी उषा से प्रेम की पींगे बढाना छल नहीं तो और क्या है, भले ही वो उषा सब जानती थी और उसकी मौन सहमति थी लेकिन उसे तो रिश्तों में ईमानदार रहना चाहिए था। और रेवती आंटी का क्या, उनकी यही ग़लती है उसे सगे बेटे जैसा मानकर अपने साथ बिस्तर तक पर सुलाया अपनी जवान बेटियों के साथ तो क्या वो उनकी दोनों बेटियों के साथ एक साथ प्रेम संबंध करके उन दोनों लड़कियों की जिंदगी बर्बाद कर दे, नहीं, नहीं ये अन्याय होगा उन तीनों के प्रेम और विश्वास के प्रति, वो इतना नीचे नहीं गिर सकता। उसे आज कोई फैसला लेना ही होगा, निशा या उषा,,, घर भले ही बाद में बने, घरवाली कौन होगी ये तय करना ही होगा। नहीं तो वो क्या मुंह दिखायेगा ईश्वर को और अपनी आत्मा को।

जमीर ने जलील किया, आत्मा ने जिरह की तो मन की गाँठे खुल गयीं। उसने तय कर लिया कि कल वो जाकर रेवती आंटी से निशा के साथ विवाह की बात करेगा। अगर उषा ने उस रात की बात निशा और रेवती आंटी को बता दी होगी तो वो अपनी गलती मानते हुए निशा और रेवती आंटी से माफी मांग लेगा और उषा से भी क्षमा याचना कर लेगा। और यदि उषा ने ये बात किसी को नहीं बताई होगी तो वो उषा को हर हाल में समझाकर इस प्रेम संबंध का अंत कर देगा। लेकिन क्या उषा मान जाएगी इतनी आसानी से,,,,,, वो भी तब जब मैं उसकी अस्मत की अंतिम सीमा रेखा को छू आया हूँ,,, क्या कोई लड़की की इस मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को पार करने वाले व्यक्ति की बात को महज समझाने से मान जाएगी वो भी इस संगीन उम्र में,,, हो अपने मन के उठ रहे सवालों को खुद ही उसने जवाब दिया,,, अब जो भी हो मुझे उषा को समझाना ही होगा चाहे उसके पाँव पकड़कर ही क्यों ना समझाना पड़े।

अगली सुबह वो तैयार हुआ, इस बार भी उसे लड़कियों से मिलने जाना था लेकिन अमर ने सजने-संवरने का कोई उपक्रम ना किया। वो एक ऐसी जगह जा रहा था जहाँ पर उसके इरादे तो नेक थे, मगर मन में कहीं ना कहीं एक खटका जरूर था कि अगर निशा के घर वाले हमलावर हुए तो। वो कुछ ना कुछ ऐसा तो कर ही आया था जो गुनाह की श्रेणी में आता था। फिर क्या करे,, अगर किसी को साथ ले जाये तो, ?लेकिन साथ ले जाने पर इस अगर कोई बखेड़ा खड़ा हुआ तो उस बखेड़े की आंच इस बस्ती तक आ सकती है और उसकी छवि यहां चौपट हो सकती है। लेकिन सुरक्षा के भी तजाके थे, अनाथ बचपन और दिल्ली से मिले दस्तूरों से वो चका रहता था।

काफी देर तक वो इन बातों पर विचार किया, फिर उसने दिलाराम को बुलवाया जो काम पर जाने की तैयारी कर रहा था । अमर ने उसे एकांत में ले जाकर कहा-

“दिलेराम भाई, मेरी बात को ध्यान से सुनो, सिर्फ सुनो, कारण मत पूछना क्यों”?

दिलेराम ने हैरानी से कहा-

“ऐसी क्या बात है, अमर भाई, फिर भी जैसा आप कहोगे वैसा ही होगा। मैं काम पर जा रहा था”।

अमर ने दो सौ रुपये उसके हाथ पर रखते हुए कहा-

“ये रखो, आज तुम्हे मेरा काम करना है, मदद करनी है”

दिलेराम ने वो पैसे अमर की जेब मे रख दिये औए कहा-

“भाई -भाई से मजदूरी नहीं लेता वो भी मदद की तो बिल्कुल नहीं, काम बोलो”

अमर पहले हँसा, फिर गम्भीर स्वर में बोला-

“मैं निहाल विहार जा रहा हूँ, क्यों, किसलिये, किसके पास ये सब मत पूछो, तुम इंदरजीत विधायक जी के घर चले जाओ, उनके आफिस में ही बैठे रहना, दो बजे तक अगर मेरा फोन ना आये, तो विधायक जी से बता देना

और ओमप्रकाश या जिसे भी विधायक जी भेजें उसे लेकर निहाल विहार पुलिस स्टेशन आ जाना। ध्यान से ये कागज़ रख लो, अगर पुलिस स्टेशन पर मैं ना मिलूँ तो निरंकारी पुलिस चौकी है वहाँ भी एक बार चेक कर लेना”ये कहते हुए अमर ने दिलेराम को एक कागज दिया।

दिलेराम ने वो कागज़ ले लिया और चिंतित स्वर में कहा-

“अमर भाई, आपकी बात सुनकर मेरा दिल बैठा जा रहा है। वहाँ जाने का चाहे जो भी कारण हो लेकिन अगर ऐसी कोई नौबत आ सकती है तो मुझे भी साथ ले चलो, एक से भले दो भाई, कुछ दुख -तकलीफ होगी तो दोनों भाई मिल कर झेलेंगे”।

अमर की आँख नम हो गई, उसे अपने भाई अखिल और महेश याद आये लेकिन फिर उनका स्वार्थ भी याद आया, और एक ये जो उसका कुछ नहीं उसके लिये हर मुसीबत झेलने को तैयार बैठा है, कैसा है ये संसार?

उसने अपनी आँखों के पोरों को पोंछा, और फिर दिलेराम के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-

“कोई मुसीबत नहीं आनी है दिलेराम भाई। “रखें राम तो भक्षे कौन, भक्षे राम तो रखे कौन”। फिर थोड़ा ठहर कर वो बोला-

“बिना मरे स्वर्ग नहीं दिखता, ये मेरी अपनी ही लड़ाई है। मैं निबट लूँगा। बस टाइम याद रखना दो बजे तक, अगर कोई हादसा नहीं हुआ तो उससे पहले ही मैं तुम्हें फोन कर दूँगा। अब मैं निकलता हूँ। “

“हनुमान स्वामी, मातारानी आपकी रक्षा करें भाई”दिलेराम ने भावुक होते हुए कहा।

अमर ने मुस्कराते हुए सर हिलाया और वहाँ से चल दिया। उसने एक मोटरसाइकिल का इंतजाम कर लिया था विधायक के कार्यालय से। मिनटों में ही मुख्य सड़क पर आ गया और फर्राटा भरते हुए रेवती के घर की तरफ चल पड़ा।

दिलेराम की बात से उसकी आंख तो नम हो गई थी मगर रास्ते में उसने ये नोटिस किया कि उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं जबकि मन शांत है फिर भी आँसू अकारण क्यों निक्ल रहे हैं। भीड़ भरी सड़कों पर भी वो ना कुछ फोकस करके देख पा रहा था ना कुछ सोच पा रहा था। दो जगह सिग्नल तोड़ा एक जगह लड़ते-, लड़ते बचा। मति शून्य हो रही थी उसकी आँसू बहे ही जा रहे थे।

जब वो रेवती की घर के पास वाले नाके पर पहुँचा तो उसने सोचा कि रोता चेहरा, डबडबाई आंखों के साथ उस घर में जाना ठीक नहीं होगा। उसने हेलमेट उतारा और मोटरसायकिल के शीशे में अपना चेहरा देखा तो आँसू और डर से उसका चेहरा जर्द हो गया था। उसने एक नल पर मुँह धोया और फिर सोचने लगा कि बिना किसी अनिष्ट के ऊपर वाले ने इतने आँसू क्यों उसकी आँखों से गिरवा दिए। मुंह धोकर वो थोड़ी ही देर में रेवती के दरवाजे पर पहुँच गया।

दरवाजे पर कोई खास हलचल ना थी। उसने मोटरसाइकिल खड़ी की, हेलमेट को बाइक पर टांग दिया । उसने देखा कि रसोई का दरवाजा हल्का सा खुला हुआ है। अंदर कोई खास हलचल ना थी, दिख रहा था कि दो -तीन लोग बैठे खाना खा रहे हैं। वो दरवाजे के पास चला गया, उसने देखा रेवती बचे हुए खाने को बड़े बर्तनों से छोटे बर्तनों में डाल रही है।

अमर थोड़ी देर उन्हें चुपचाप देखता रहा फिर बोला-

“आंटी जी नमस्ते, ”

रेवती चौंक पड़ी, कमरे में खाना खा रहे लोग भी थोड़ा हैरान हुए कि ये शख्श कौन है। रेवती झट से उठी और कमरे से बाहर आ गयी और निर्विकार भाव से बोली-

“जीते रहो बेटा, ऐसा करो अमर बाबू, चलो ऊपर बैठो मैं आती हूँ पाँच मिनट में “

अमर ने कहा -ऊपर निशा है या नहीं। अकेले ऊपर बैठ कर क्या करूँगा, अभी तो उषा भी नहीं होगी। मैं यहीं खड़ा हूँ आप चिंता ना करें तब तक अपना काम निबटा लें। तभी ऊपर चलेंगे। “

रेवती निर्विकार भाव से बोली –

“ऊपर उषा-निशा कोई नहीं है, कोई ना रहा”ये कहते हुए रेवती का गला रुंध गया और आँखों से आँसू बहने लगे।

अमर ये दृश्य देखकर सन्न रह गया। उसका दिल धड़क उठा। उसने धीरे से कहा-

रोइये मत आंटी जी, बताइये क्या हुआ, कहाँ हैं सब”।

रेवती ने अपने साड़ी के पल्लू से अपने आँखों के पोरों को पोंछते हुए कहा-

“ऊपर चलो, मैं आकर बताती हूँ”।

अमर ऊपर आ गया। वो उसी चौकी पर बैठा जिस पर उस रात लेटा था। उसे कनरे की हर चीज बेरौनक लग रही थी। वो चुपचाप कमरे में बैठा खाली दीवारों को निहारता रहा। उसे हर चीज बेरौनक लग रही थी। रह-रह कर नीचे से आवाजें आ रही थीं। उसे वक्त काटना मुश्किल लग रहा था। दिल मे खटका लगा हुआ था कि आखिर रेवती आंटी रो क्यों रही थीं और उन्होंने ये क्यों कहा कि उषा-निशा कोई नहीं है।

अमर इसी दुविधा में डूबता-उतराता रहा तब करीब बीस मिनट बाद रेवती आई। वो ऊपर आते ही ऊपर के किचेन में घुस गयी। अमर के लिये अब सस्पेन्स बर्दाश्त कर पाना मुश्किल होता जा रहा था। उसने रेवती को पुकारा-“आंटी जी, सुनिये तो क्या कर रही हैं आप”?

“बस आती हूँ, दो मिनट”रेवती ने किचन के अंदर से ही कहा।

थोड़ी देर बाद रेवती दो कप चाय लेकर आयी। दोनों बैठकर चाय पीने लगे। अमर ने चाय पीते-पीते पूछा”क्या हुआ आंटी जी, आप मुझे खोजने गयीं थीं। सब खैरियत तो है”।

रेवती ने अमर की तरफ भावशून्य होते हुए देखा और कहा”कब चिट्ठी दी थी अमर बाबू, हम पर इतना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा, सब जानते थे तब भी अब आये हो । कितना खोजा तुमको, कहां थे इतने दिन”।

“मुझे अचानक गांव जाना पड़ा था, कई महीनों तक वहीं रहा। पहले घर के एक लोग गुजर गए थे, फिर घर-जायदाद का बंटवारा हुआ । कुछ मुकदमेबाजी भी हुई, इसी में बहुत टाइम लग गया। यहां की चिट्ठी-पत्री का कोई पता मेरे पास नहीं था। कोई टेलीफोन नंबर भी नहीं था कि किसी तरह सम्पर्क कर पाता। मौत किसी को बताकर नहीं आती सो मुझे अचानक गांव जाना पड़ा, बेबस था, मजबूर था”अमर ने बड़ी सफाई से झूठ बोला।

“लेकिन अचानक से घर बदल लिया, काम छोड़ दिया, तुम्हारे घर कितने बार गई, पड़ोस के पीसीओ से तुम्हारे बतरा साहब का नंबर बहुत तलाशने पर मिला, वहाँ भी गई, महीनों हो गए चिट्ठी छोड़े, आज आये हो अमर बाबू सब कुछ खत्म होने के बाद”रेवती ने सुबकते हुए कहा।

“घर मकान मालिक ने खाली करवा दिया था, सो मैंने अपना सामान एक दूसरे परिचित के घर रख दिया था और नया घर भी नहीं लिया कि अचानक गांव जाना पड़ा”सच्चे इल्जामों पर अमर झूठ की सुदृढ़ बुनियाद रखते हुए बोला। फिर थोड़ा ठहरकर कहा-

“कल ही बतरा सर के यहाँ हिसाब लेने गया था, वहीं पता लगा कि आप आईं थीं। कोई चिट्ठी दे गयीं थी डेढ़ दो महीने पहले, वो चिट्ठी मुझे अब तक मिली नहीं, दुकानदार रामप्रकाश ने कहीं खो दी थी। तो मैं तो जान ही नहीं पाया कि मामला क्या है। वो तो आपका नाम भी भूल गया था, मग़र उसने आपकी कद-काठी बताई तो मैं अनुमान लगाकर खुद चला आया इधर। लेकिन आपने ऐसा क्यों कहा सब कुछ खत्म, क्या हुआ है । बताइये तो रामनरेश अंकल ठीक तो हैं। उषा और निशा कहां हैं कब लौटेंगी?

रेवती रोने लगी, अमर सकते में पड़ गया, थोड़ी देर तक रोने के बाद रेवती ने बताया-

“नहीं लौटेंगी मेरी बेटियां, निशा जेल में है और उषा भगवान के घर चली गयी, मर गयी मेरी उषा तुम्हारे कारण अमर बाबू”ये कहते हुए रेवती बिलख-बिलखकर फूट-फूट कर रोने लगी।

अमर को ये सुनकर मानो काठ मार गया हो। सहसा उसे यकीन ही नहीं हुआ कि उसने क्या सुना है। मृत्य, जेल ये कैसे शब्द हैं उन दो युवतियों के लिये, जिनके बारे में वो सोच रहा था कि आज एक स्कूल में होगी और दूसरी ब्यूटी पार्लर में। आज वो निशा से विवाह की बात करने वाला था तो वो जेल कैसे पहुँच गई। उषा को वो समझाने वाला था कि उन दोनों को एक दूसरे के मोहपाश से मुक्त होना है, क्योंकि इस रिश्ते की कोई मंज़िल नहीं, ये छलावा है महज। ये समझने से पहले वो इस दुनिया से चली गयी। जमीन पर विलाप कर रही इस औरत को ये बताने आया था कि अब उसे अपनी बेटी निशा की चिंता ना करे। अब वो हजार -पांच सौ की नौकरी से निकल कर एक पक्के मकान की मालकिन बनने वाली है विवाहित होकर। लेकिन ये क्या हो गया विधाता?ये रो रही औरत कह रही है कि इसकी एक बेटी की मौत और दूसरी बेटी के जेल में होने का जिम्मेदार मैं हूँ। हे ईश्वर, ये कैसे,, ये पाप कैसे हो गया मुझसे,,, इन्हें उबारने आया था और ये मेरी वजह से डूब गए। आखिर मैं कैसे जिम्मेदार हूँ?

अमर ने थोड़ी देर तक इंतजार किया, रेवती बदस्तूर रोये जा रही थी । वो जमीन पर औंधे मुंह पड़ी थी। सोच-सोच कर अमर के लिये भी परिस्थिति असह्य होती जा रही थी। उसने रेवती को कंधे से पकड़कर उठाया और बिस्तर पर बैठाया। अंदर जाकर एक गिलास पानी ले आया । रेवती अब भी बेहाल थी। उसने तौलिये से रेवती के मुँह पोंछा, आँसू पूरे चेहरे पर फैला था। फिर उसने रेवती को पानी पीने को दिया। दो घूंट पीकर रेवती ने गिलास रख दिया। थोड़ा संयत होने के बाद अमर की तरफ देखा।

अमर ने रोनी सूरत बनाते हुए कहा”आंटी बताइये ना प्लीज, ये सब कैसे हो गया आंटी। मेरी किस गलती की वजह से, जल्दी बताइये इस अपराध बोध से सोच-सोच कर मेरा कलेजा फटा जा रहा है। बताइये प्लीज”।

रेवती ने अमर को विस्फारित नेत्रों से देखा, फिर अपने क्रोध को काबू में करते हुए और शब्दों को चबाते हुए बोली-

“तुम्ही जिम्मेदार हो अमर बाबू। किसने कहा था तुम्हे दो -दो लड़कियों से प्रेम की पींगे बढाने को एक साथ।

वो भी तब जब दोनों सगी बहनें हों। मुझे नहीं पता कि निशा से मिलते-जुलते रहे, उसी दरम्यान उषा से ना जाने कब तुम्हारे संबंध हो गए। निशा के बहाने उषा से मिलने आते रहे। और मेरी भोली बच्ची निशा समझती रही कि तुम उससे प्रेम करते हो और उससे मिलने आते हो। दरअसल निशा तुम्हारे लिये सीढ़ी थी उषा तक पहुंचने की। निशा भी, उषा भी, लानत है, इसके बाद तुम्हारी नजर मुझ पर थी क्या, मेरे भी जांघों में हाथ डाल के मनमानी कर लेते उस रात, जैसे मेरी कमसिन बेटियों के जाँघों में हाथ डाला था उस रात। मुझ पर भी मनमानी कर लेते किसने रोका था तुम्हे उस रात”?ये कहकर रेवती एकटक अमर को देखने लगी।

अमर को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके कानों में पिघला हुआ शीशा डाल दिया हो । ये सब सुनने के बाद उसमें ताब ना रहा कि वो रेवती से नजरें मिला सके। उसने सिर झुका लिया।

उधर रेवती ने फिर रोना शुरू कर दिया। उसके हवास उसके काबू में नहीं थे। वो लगातार रोये और अमर को कोसे जा रही थी। अमर ने जब कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। तब उसने अमर से कहा-

“तुमने हमें कहीं का ना छोड़ा, अब क्या बचा है जो यहाँ लेने आये हो। मेरी दोनों बेटियों को तो खा ही गये थे। अब क्या हड़पना है अमर बाबू। अच्छा-अच्छा अभी मैं बची हूँ, मुझे भोगने आये हो। जरूर भोगो, लो में हाज़िर हूँ, अभी कपड़े उतार कर बिछ जाती हूँ तुम्हारे सामने, ना रात, ना आड़ की जरूरत है तुम्हें है ना, इसीलिये आये हो ना, तो बैठे क्यों हो चलो आ जाओ, लूटो मुझे भी जैसे मेरी बेटियों को लूटा, आओ, उठो, जुटो, ”।

अमर ने अपना चेहरा उठाया। उसका चेहरा आंसुओं से तर-ब-तर था। वो फंसे हुए स्वर में बोला-

“कैसी बातें करती हैं आंटी, आप मेरी माँ जैसी हैं”।

“चुप करो अमर, तुम्हारे जैसे घिनौने आदमी के लिये क्या माँ, क्या बहन, तुम किसी को ना छोड़ोगे। तुम तो ऐसे मौके पर उस कोख का भी लिहाज ना करोगे जिसने तुम्हे पैदा किया होगा। “रेवती ने उन्माद में कहा।

“उस कोख ने भी तो मेरा लिहाज नहीं किया, जिसने मुझे पैदा किया तभी तो मैं इतना गलत कर गया। उसी की वजह से किसी औरत की इज़्ज़त नहीं करता था। “अमर ने रोते हुए कहा।

रेवती ने आमर को एक चांटा जड़ दिया और चीखते हुए बोली”अपने पाप और कुकर्म छिपाने के लिये उस औरत पर इल्जाम ना लगाओ। जिसने तुम्हे पैदा किया। तुम अब गिरगिट की तरह रंग बदल रहे । तुम्हारे जैसे आदमी को तो जिंदा नहीं छोड़ना चाहिये। निशा को छुड़ाना ना होता तो अभी तुम्हारी गर्दन काटकर फांसी पर चढ़ जाती । “

अमर ने आँसू पोंछते हुए कहा-

“मार डालो, आंटी जी, मैं आपका गुनाहगार हूँ, पापी भी हूँ। लेकिन अभी तक मैं ये नहीं जान पाया कि मेरी गलती क्या इतनी बड़ी थी। दूसरे आखिर हुआ क्या था। “

रेवती ने कहा “सब तुम्हारा किया धरा है, और अनजान बन रहे हो। फिर तुम्हारे पाप की तुम्हारी माँ कैसे जिम्मेदार हुई, बताओ तो, मैं भी तो जानूँ कि दुनिया मे ऐसी कौन सी माँ है जो अपने बच्चे को ये सब सिखाती है”

अमर सर झुकाए हुए ही तफसील से उसके पिता की हत्या, नाना की परवरिश, माँ के विवाह, भागकर दिल्ली आने और फिर उसके बाद के हालात का तफसील से बयान किया जिसे रेवती बड़े ध्यान से सुनती रही

थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा फिर अमर ने कहा”मेरे मन में जो अपनी माँ, चाची, और मौसियों को लेकर जो कड़वाहट थी, शायद यही वजह है कि औरतों के मामले में बदला लेने वाली मेरी सोच हो जाती हो”।

थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा रहा, फिर रेवती बोली-

“ये कोई वजह नहीं हुई मेरी बेटियों की जिंदगी से खेलने की, तुम्हारी माँ ने तुम्हारे साथ ठीक नहीं किया तो उसका बदला तुम दुनिया भर की औरतों से लोगे। खुद को कवि कहते हो और ऐसी बचकानी सोच। लानत है। सुनो अमर, तुम मर्द हो, मेरे बाप, निशा के बाप की तरह, तुमने भी औरत को ही गलत समझा सबकी तरह। कभी पता लगाने की कोशिश की तुमने कि तुम्हारी माँ तुम्हे छोड़ कर क्यों गयी। “

अमर ने तपाक से कहा-

“गलत थी इसलिये गयी, मरद चाहिए इसलिये”।

“अच्छा, फिर तभी क्यों नहीं चली गयी थी जब तुम्हारे बाप का मर्डर हुआ, तब तो और जवान रही होगी और अच्छे मरद मिल जाते उसको, । कभी सोचा तुमने क्यों नहीं गयी वो तब मरद के लिए”।

अमर ने कहा”हो सकता है, कुछ मामला रहा हो”।

रेवती ने कहा”तुम नहीं समझोगे। औरत पहले तो अपनी औलाद के लिए जीती है फिर अपनी इज़्ज़त के लिये। जब तुम छोटे थे तब तुम्हारी माँ ने दूसरा मरद नहीं किया क्योंकि वो जानती थी कि दूसरा मरद तुम्हे नहीं अपनायेगा। इसीलिये वो नहीं गयी क्योंकि उसका गुजारा मरद के बिना चल गया। फिर जब तुम बड़े हो गए तब वो चली गयी तो इसके लिये दो बातें हो सकती हैं पहला तो उसे लगा कि अब तुम अपनी देखभाल खुद कर सकते हो, और दूसरा उस जगह उसकी इज़्ज़त-मरजाद को कोई बड़ा खतरा पैदा हो गया होगा, रहना मुश्किल हो गया होगा । इसीलिए चली गयी होगीं। मेरी बात पर यकीन ना हो तो कभी जाकर देखना, इस बात को पूछना, पता लगाना”।

अमर ने फंसे हुए स्वर में कहा-

“ठीक है, मैं उनसे पूछुंगा”

रेवती ने कहा”औलाद अबोध हो तो खुदकुशी भी नहीं कर सकती औरत, विवाह तो बड़ी दूर की बात है। मुझे देखो अपनी बेटियों का मुंह देखती रही इस नरक जैसी ज़िन्दगी को जहर खाकर खत्म ना कर सकी। लेकिन तुमने मेरे जीने का सहारा छीन लिया। बेटियां थीं, ज़िन्दगी भर एक हूक मन में रही। कि काश मेरा भी कोई एक बेटा होता। तुमको देखा तो ऐसा लगा कि भगवान ने मेरी सुन ली। बेटियां थी हीं, बेटे की कमी दामाद बन कर तुम पूरी कर दोगे। लेकिन तुम ऐसे निकले। तुम्हारे किये पर मुझे कोई अचरज नहीं हो रहा है। जो इंसान अपनी माँ के लिये मन में नफरत पाले घूम रहा है उस इंसान के लिये दूसरे की ममता की क्या बिसात। अमर तुमने हम सबको बहुत दुख दिये, उन लड़कियों को बर्बाद किया और मुझसे एक बेटे की उम्मीद छीन ली। तुम कभी सुखी नहीं रहोगे, अमर । तुम्हे अपनी माँ, और इस माँ का श्राप लगेगा। तुम कातिल हो मेरी बेटी के”। ये कहकर रेवती फिर रोने लगी।

अमर ने इस बार उसे चुप नहीं कराया। अमर ने सोचा कि इन्हें रो लेने दो, इससे इनका गुस्सा और तनाव दोनों कम हो जायेगा। थोड़ी देर तक रो बिलख कर रेवती शांत हो गयी। अमर ने तब उससे पूछा-

“आंटी जी, आपका श्राप ज़रूर लगना चाहिये मुझे, अगर मैने पाप किया हो। अगर मैंने अपनी माँ के साथ नाइंसाफ़ी की हो तो उसका भी दंड मैं ईश्वर से मांगूगा। लेकिन मुझे पता तो चले कि हुआ क्या है?मैं अपने मरे हुए बाप की कसम खा कर कहता हूँ कि मैं उषा से सिर्फ दो ही बार जीवन में मिला हूँ। वो भी इसी जगह इसी कमरे में आप सबके रहते हुए। ये सच है कि उस पर शुरू में थोड़ा बहुत आकर्षित मैं भी था और वो भी थी मुझ पर। लेकिन प्रेम मैं निशा से ही करता था। आज इसी इरादे से यहाँ आया था कि निशा से विवाह की बात करूँगा और उषा को समझा दूँगा कि जो कुछ हुआ वो बचपना था, गलत था। लेकिन यहाँ आकर ये पता लग रहा है। आखिर हुआ क्या था, जो इतना सब कुछ हो गया। “

रेवती थोड़ी देर तक अमर को अपलक देखती रही। उसे अमर की बातों पर विश्वास ना हुआ लेकिन फिर भी उसने बताना शुरू किया-

“सुनो, अमर सब सही था। ये बात निशा को पता चल गई थी कि तुम और उषा एक दूसरे पर आकर्षित हो रहे हो, इसीलिये वो तुम्हे घर नहीं लाती थी। जन्मदिन पर मेरी निशा को तुम किसी महंगे होटल पर ले जाना चाहते थे। लेकिन वो तुम्हारी मेहनत की कमाई बर्बाद नहीं करना चाहती थी। इसलिये तुमको घर बुलाया। तुम घर आये तुमको चोट लगी लेकिन तुम नथ ले आये उषा के लिये। उषा ने इसे तुम्हारा प्यार समझा। निशा और उषा के बीच से अगले दिन से ही खटपट शुरू हो गयी। दोनों में आये दिन झगड़े होने लगे। तुमने निशा को कपड़े दिए तो वो तुमसे शादी की बातें सोचने लगी और उषा को सोने की नथ दी तो वो तुमसे विवाह के सपने देखने लगी। उन दोनों में आये दिन बवाल होने लगा। बात जब बर्दाश्त से बाहर हो गयी तब मैंने सोचा कि तुमको बुलाकर दूध का दूध और पानी का पानी कर देती हूँ। तुमको हमने कहां-कहां नहीं खोजा । मगर तुम्हारा कुछ पता ना चला। थक हार कर एक दिन मैंने उन दोनों को कहा कि तुम अब नहीं आओगे इसलिये तुमको भूल जाएं। तब उस दिन दोनों लड़कियों ने बताया कि उस रात तुमने उनकी लाज की अंतिम हद पार कर दी थी भले ही हाथों से ही सही। पहली बात तो मुझे अपनी बेवकूफी पर गुस्सा आया कि मैं पुत्र मोह में अंधी होकर तुमको अपना बेटा ही मान बैठी। जबकि उस रात मेरे बगल बेटा नहीं बल्कि एक डाकू लेटा था जो मेरी बेटियों को इज्जत पर बुरी नजर गड़ाए था और कामयाब भी रहा अपने गन्दे इरादों में। अपनी झुंझलाहट और गुस्से में मैंने उन दोनों को बहुत पीटा और बेइज्जत भी किया कि विवाह से पहले अपनी लाज की मर्यादा गंवा आयीं दोनों। खास तौर से उषा को बहुत जलील किया क्योंकि निशा से तो तुम जुड़े ही हुए थे। “

अमर हतप्रभ होकर ये सब सुन रहा था। रेवती ने सुबकते हुए कहा”मेरी फ़टकार और तुम्हारे भाग जाने से दोनों बेटियां बहुत दुखी थी। उषा ने इस बात को बहुत मन से लगा लिया कि उसने गलत आदमी से संबंध रखे। जिस पर उसकी बड़ी बहन का हक था। इसी अफसोस में उसने जहर खा लिया, जाने से पहले उसने एक चिट्ठी लिखी थी। वो तो मर गयी। निशा बेचारी तो जीते जी मर गईं। उस पर मुसीबत ये कि पुलिस ने निशा पर मुकदमा बना दिया कि उसी के कारण उषा ने खुदकुशी की है। पुलिस तो निशा को पिछले महीने ही गिरफ्तार कर लेती। रुपया -पैसा देने से कुछ दिन रुकी रही। जब हमारे पैसे खत्म हो गए पुलिस को देते-देते तब पुलिस ने उसको गिरफ्तार कर लिया। आज बारह दिन से निशा जेल में है । एक वकील से बात हुई है। वो बहुत पैसे मांग रहे हैं। अब हम ये घर बेच दे और क्या, उसी को बेच देंगे, चाहे सड़क पर आ जाएं”ये कहकर रेवती रोने लगी।

अमर ने कहा”वो चिट्ठी है आपके पास जो उषा ने लिखी थी। मुझे दिखाइए जरा। “

रेवती ने कहा-

“वो चिट्ठी तो पुलिस ले गयी, बस उसकी फोटो कॉपी है”। रेवती ने कहा।

“निकालिये तब तक मैं एक फोन करके आता हूँ”अमर ने कहा।

“फिर कहाँ जा रहे हो, किसे फोन करने, कब लौटोगे, लौटोगे भी या नहीं”रेवती ने पूछा।

अमर ने कहा”आप चिंता मत करें अब मैं कहीं नहीं जाऊँगा। यमराज भी आ जाएं तो नहीं, बस आता हूँ अभी”।

अमर नीचे उतर आया। थोड़ी दूर जाकर उसने एक पीसीओ से इंदरजीत विधायक के ऑफिस में दिलेराम को फोन कर दिया कि सब खैरियत है।

अमर लौटकर रेवती के पास पहुंचा तो रेवती ने उसे वो चिट्ठी दी। अमर ने वो चिट्ठी पढी और जेब मे रख ली।

रेवती से अमर ने कहा-

“बेटा कहती हो मुझे, तो भूखा मार डालोगी कल से कुछ ना खाया है। खाना बनाओ, और अब अगर बेटा आ गया है तो माँ को चिंता करने की जरूरत नहीं। अब सब कुछ मैं ही करूँगा। “

रेवती अमर की बातों से हैरान हुई मगर खाना बनाने किचन में चली गयी। उसे जाते हुए देख अमर के नेत्र सजल हो उठे।

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