अय्याश - उपन्यास
Saroj Verma
द्वारा
हिंदी सामाजिक कहानियां
अय्याश! ये ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसने समाज में अच्छे कार्यों के बदले केवल बदनामी ही पाई,दिल से अच्छे और सच्चे इन्सान की ऐसी दशा कर दी समाज ने कि फिर वो समाज मे अय्याश के नाम से ...और पढ़ेहो गया,उसने मानवतावश ऐसे कार्य कर दिए जिससे समाज को लगा कि वें कार्य समाज के विरूद्ध हैं,यहाँ तक के उसके अपने सगे-सम्बन्धियों ने भी उसका साथ छोड़ दिया।। अन्त तक जो उसके साथ रही वो उसकी माँ थी,उसे जीवन में केवल तिरस्कार और अपमान के सिवाय कुछ ना मिला,वो अत्यन्त सत्यवादी था और कोई भी कार्य वो खुले मन
अय्याश! ये ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसने समाज में अच्छे कार्यों के बदले केवल बदनामी ही पाई,दिल से अच्छे और सच्चे इन्सान की ऐसी दशा कर दी समाज ने कि फिर वो समाज मे अय्याश के नाम से ...और पढ़ेहो गया,उसने मानवतावश ऐसे कार्य कर दिए जिससे समाज को लगा कि वें कार्य समाज के विरूद्ध हैं,यहाँ तक के उसके अपने सगे-सम्बन्धियों ने भी उसका साथ छोड़ दिया।। अन्त तक जो उसके साथ रही वो उसकी माँ थी,उसे जीवन में केवल तिरस्कार और अपमान के सिवाय कुछ ना मिला,वो अत्यन्त सत्यवादी था और कोई भी कार्य वो खुले मन
पंडित भरतभूषण चतुर्वेदी की बेगुनाही साबित हो चुकी थी और उनके गाँव से चले जाने पर सभी गाँव वालों को पश्चाताप हो रहा था,लेकिन अब कोई फायदा नहीं था,चतुर्वेदी जी जब अपने आप को बेगुनाह बता रहे थे तो ...और पढ़ेकिसी ने नहीं सुनी.... ये खबर पाकर वैजयन्ती के मायके से उनके बड़े भाई दीनानाथ त्रिवेदी उन सबको अपने गाँव लिवा जाने के लिए जा पहुँचे,वैजयन्ती ने बहुत मना किया कि वो अपने पति का घर छोड़कर कहीं नहीं जाएगी,हो सकता है कि किसी दिन वें लौंट आएं,तब दीनानाथ वैजयन्ती की बात सुनकर बोले.... वैजयन्ती! पड़ोस में बता दो कि
दीनानाथ जी फौरन इलाहाबाद आएं और लड़कों के कमरें पहुँचे,गंगाधर ने उन्हें फौरन गिलास में घड़े से पानी भरकर दिया लेकिन दीनानाथ जी ने पानी से भरा गिलास फेंक दिया और बोलें.... तुम लोगों का धरम भ्रष्ट हो चुका ...और पढ़ेतुम लोगों के हाथ से पानी भी नहीं पी सकता,मेरा धरम भी भ्रष्ट हो जाएगा,तुम लोगों ने एक चरित्रहीन औरत का अन्तिम संस्कार किया,कुल का नाम डुबोते शरम ना आई तुम तीनों को,समाज में नाम खराब कर दिया मेरा।। लेकिन मामा जी उसमें रज्जो जीजी का कोई दोष ना था,सत्यकाम बोला।। चुप कर नालायक! मुझसे जुबान लड़ाता है,तू ही इन
दूसरे दिन विन्ध्वासिनी की विदाई थी और सत्यकाम अपने घर में उदास बैठा था,उसके मन का हाल केवल गंगाधर और श्रीधर ही समझ सकते थे,तब सत्यकाम की माँ वैजयन्ती घर के भीतर आई और सबसे बोली.... तुम सब यहाँ ...और पढ़ेहो,वहाँ भाभी तुम सबको बुला रही है, मन नही है मेरा वहाँ जाने का इसलिए नहीं गया,सत्यकाम बोला।। ठीक है सत्या का मन नहीं था और तुम दोनों क्यों नहीं आएं? वैजयन्ती ने गंगाधर और श्रीधर से पूछा। सत्या नहीं आया तो हम भी नहीं आएं,श्रीधर बोला।। विन्ध्यवासिनी की विदाई होने वाली है,चलो वहाँ ,वो तुमलोगों को पूछ रही थी,वैजयन्ती
सभी लठैत दीनानाथ त्रिवेदी की बात मानकर रामभक्त को गाँव से निकालने के लिए जुट पड़े,उन्होंने रामभक्त को बदनाम करने का तरीका निकाला और एक रोज सुबह के वक्त जब हीरा गाँव के बाहर वाली बावड़ी से पानी लेने ...और पढ़ेक्योकिं गाँव के भीतर वाले कुएँ और तालाब से उसे पानी भरने की मनाही थी इसलिए, तो तभी एक लठैत जिसका नाम बाँके था वो उसके पीछे लग गया.... और रास्तें में हीराबाई के साथ छेड़छाड़ करने लगा,हीराबाई ने शोर मचाया तो वहाँ आस पास मौजूद गाँव के दो चार लोंग इकट्ठे हो गए,तब हीराबाई उन सबसे बोली.... देखिए ना
सेठ हजारीलाल ने फिर अपने परिवार से सत्यकाम का परिचय करवाया,सेठ हजारीलाल के घर में उनकी दूसरी पत्नी मधुमाल्ती तथा उनका बेटा परमसुख था जो कि अभी केवल दस साल का ही था और सेठ जी की दूसरी पत्नी ...और पढ़ेजी से उम्र में बहुत छोटी थी,सेठ हजारीलाल की पहली पत्नी का देहान्त हो चुका था जिसे उनको एक बेटी थी,जिसका वें ब्याह कर चुकें और वो अपने ससुराल में सुखपूर्वक थी।। सेठ हजारीलाल ने अपने घर की एक कोठरी में सत्या को शरण देदी,वहाँ और भी कोठरियाँ थी जिनमें नौकर रहते थे,लेकिन जो कोठरी सबसे बेहतर थी,जिसमें बड़ा सा
सत्यकाम इस बात से बिल्कुल बेखबर था कि सेठ जी को मधुमाल्ती और उसके रिश्ते से परेशानी है,अपनी बड़ी बहन की तरह ही मधुमाल्ती से उसका रिश्ता था,लेकिन सेठ जी की आँखों पर तो शक़ की पट्टी लग चुकी ...और पढ़े,इसलिए वो इस रिश्ते में पवित्रता ना देखकर गंदगी देख रहे थें।। तब एक रोज़ सेठ जी ने सत्यकाम को घर से बाहर निकालने की तरकीब निकाली,दोपहर के समय जब सत्या उनकी दुकान पर गया तो सेठ जी उसी वक्त अपने घर आ गए चूँकि सत्यकाम अपनी कोठरी का ताला लगाकर नहीं जाता था,वो कहता था उसके पास है ही
उस तवायफ़ को नाश्ता देकर सत्या फौरन डिब्बे से बाहर चला आया और बाहर आकर एक पेड़ के नीचें बैठ गया फिर कुछ सोचते हुए उसकी आँखों से दो आँसू भी टपक गए,वो कुछ देर यूँ ही बैठा रहा ...और पढ़ेउठा और अनमने मन से स्टेशन के बाहर आ गया.... काफी देर बाद अपना कार्य पूर्ण करके वो वापस अपने डिब्बे पर पहुँचा,वहाँ मुरारी नाश्ते के लिए उसका इन्तजार कर रहा था,मुरारी ने उसे देखते ही कहा.... आ गए ब्राह्मण देवता! बड़ी देर लगा दी,रेलगाड़ी बस आधे घण्टे में यहाँ से निकलने वाली है।। हाँ!रातभर से इस डिब्बे में ही
जब वीरेन्द्र ने मलखान से बोल-चाल बंद कर दी तो मलखान इस अपमान से तिलमिला गया और वो मन ही मन विन्ध्यवासिनी से बदला लेने की सोचने लगा,उसने सोचा अपने अपमान का बदला लेने के लिए कुछ ना कुछ ...और पढ़ेकरना ही पड़ेगा,इसलिए वो इसके लिए योजनाएं बनाने लगा उसने सोचा पहले मैं सबसे माँफी माँग लेता हूँ जिससे मुझे वीरेन्द्र के घर में फिर से घुसने को मिल जाएगा और फिर मैं अपने अपमान का बदला आसानी से ले सकता हूँ,यही सोचकर वो एक दिन वीरेन्द्र के गोदाम पर पहुँचा और आँखों में झूठ-मूठ के आँसू भरकर उसके पैरों
विन्ध्यवासिनी अपने पति और सास की दशा देख देख कर परेशान हो रही थी और बराबर रोएं जा रही थी,उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि इतनी रात को वो ऐसा क्या करें कि दोनों के प्राण बच ...और पढ़ेऔर दूसरी तरफ दुष्ट मलखान विन्ध्यवासिनी को रोता देख मंद मंद मुस्कुरा रहा था।। और फिर कुछ ही देर में उसकी सास ने अपने प्राण त्याग दिए वो सास को लेकर रो ही रही थी कि इतने में उसके पति का दम भी निकल गया,पति को जाता देख वो खुद को रोक ना सकी और उसकी जोर से चीख निकल
जब विन्ध्यवासिनी ने कोई जवाब ना दिया तो सत्यकाम ने फिर से पूछा.... पानी पिओगी बिन्दू! लाऊँ तुम्हारे लिए गिलास भरकर।। नहीं! अभी मुझे प्यास नहीं है सत्या! विन्ध्यवासिनी बोली।। चलो ! अभी तक तुम्हें मेरा नाम तो याद ...और पढ़े,सत्यकाम बोला।। तुम्हारा नाम भला कैसें भूल सकती हूँ कभी? विन्ध्यवासिनी बोली।। मुझे मुरारी ने सब बता दिया है, सत्यकाम बोला।। क्या बता दिया है? विन्ध्वासिनी ने पूछा।। तुम्हारे बारें में,सत्यकाम बोला।। तो अब तुम तो मुझे गलत समझ रहे होगे,विन्ध्यवासिनी बोली।। नहीं!अब भी तुम मेरे लिए वैसी ही पवित्र हो जैसी की तुम पहले थी,सत्यकाम बोला।। मैं एक तवायफ़
उस औरत के पति के सवाल पूछने पर सत्यकाम कुछ अचम्भित सा हुआ फिर बोला.... जी! मैं दीनानाथ जी का ही भान्जा हूँ ।। मैं शुभेंदु चटोपाध्याय और ये मेरी पत्नी कामिनी,तुम्हारे मामा दीनानाथ मेरे पिता के मित्र हैं,वें ...और पढ़ेअच्छा...अच्छा...बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर,सत्या बोला।। लेकिन तुम यहाँ कैसैं? सुनने में आया था कि दीनानाथ जी ने तुम्हें घर से निकाल दिया था,शुभेंदु जी ने पूछा।। जी! शायद मुझे कारण बताने की आवश्यकता नहीं है,आपको तो कारण मालूम ही होगा,सत्यकाम बोला।। पता तो है,तुमने इतना गलत काम करके ठीक नहीं किया था? शुभेंदु जी बोले।। गलत काम....आप भी उसे
वैजयन्ती ने जब ये सुना कि उसका बेटा तवायफ़ो के पास जाने लगा है तो उसे स्वयं से बहुत शर्मिन्दगी हुई,उसे अपनी परवरिश पर अब संदेह हो रहा था,वो मन ही मन सोच रही थी कि क्या उसने यही ...और पढ़ेदेखने के लिए उसे पालपोसकर बड़ा किया था।। वैजयन्ती जो भी अपने बेटे के बारें में सोच रही थी उसमें उसका भी कोई कुसूर ना था,उसे तो जिसने जो बताया उसके बेटे के बारें में तो उसने समझ लिया,वो अपने बेटे की सच्चाई से बिल्कुल ही बेख़बर थी,वैजयन्ती को ये अन्दाजा ही कहाँ था कि उसका बेटा जो कार्य कर
सत्या फौरन ही श्रीधर के गले लग गया ,दोनों इतने दिनों बाद एकदूसरे से गले मिले तो दोनों की ही आँखें नम हो गई,फिर श्रीधर ने सत्या से पूछा.... और बता कैसा है तू? मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ,तू ...और पढ़े,सत्या बोला।। मैं भी एकदम भला चंगा हूँ,श्रीधर बोला।। और गंगा कहाँ है? वो नहीं आया,सत्या ने श्रीधर से पूछा... ये सुनकर श्रीधर कुछ ना बोला और पेड़ के ओट में जाकर उदास सा खड़ा हो गया,उसका ऐसा रवैय्या देखकर सत्या उसके पास गया और फिर से पूछा.... बोलते क्यों नहीं? जवाब दो मेरे सवाल का! कहाँ है गंगा? मुझ
स्नान करने के बाद जब सत्या और अमरेन्द्र भोजन करने बैठें तो अमरेन्द्र के घर की बूढ़ी नौकरानी झुमकी भोजन से परोसी हुई पीतल की थालियाँ लेकर उपस्थित हुई,झुमकी को देखकर अमरेन्द्र बोला.... अरे! झुमकी काकी ! तुम खाना ...और पढ़ेरही हो,मोक्षदा कहाँ हैं? जी! छोटे मालिक वो मोक्षदा बिटिया तो रसोई में हैं,कहतीं थीं कि तुम ही भोजन दे आओ,झुमकी बोली।। वो क्यों नहीं आती भला भोजन परोसने ? अमरेन्द्र ने पूछा।। बिटिया कहती थी कि उन्होंने मेहमान से अच्छा व्यवहार नहीं किया,झुमकी बोली।। पगली कहीं की!झुमकी काकी!उससे कहो कि मेहमान ने उसकी बातों का बुरा नहीं माना,अमरेन्द्र बोला।।
झुमकी काकी अपनी कोठरी से थाली लेकर आई तो मोक्षदा ने थाली में खाना परोस दिया और स्वयं की थाली लगाकर खाने बैठ गई,झुमकी काकी भी रसोई से बाहर खाना खाने बैठ गई,खाते खाते झुमकी काकी बोली.... बिटिया ! ...और पढ़ेबात बोलूँ।। हाँ!काकी कहो ना! मोक्षदा बोली।। मुझे तो लड़का नेक दिखें है,तुम्हारी क्या राय है? काकी ने पूछा।। स्वाभाव का तो सरल ही दिखता है,अब मन का कैसा हो कुछ कहा नहीं जा सकता ,मोक्षदा बोली।। अब छोटे मालिक ने अपना मुनीम बनाया है तो कुछ सोचकर ही बनाया होगा,झुमकी काकी बोली।। भइया की बातें ,भइया ही जानें मैं
सत्यकाम तो चला गया लेकिन उसकी बातों ने मोक्षदा के मन में हलचल मचा दी,मोक्षदा ने सोचा ऐसा कुछ गलत तो कहकर नहीं गया सत्यकाम,मेरे मन में यही सवाल तो उठते हैं अक्सर,जिनके जवाब मैं ढूढ़ नहीं पाती,इस दुनिया ...और पढ़ेकोई तो ऐसा है जिसके मन में भी मेरे मन की तरह ही सवाल उठते हैं,अक्सर ये समाज रीतिरिवाजों का आवरण ओढ़ाकर कैसें हमारे अन्तर्मन को ढ़क देता है,माना कि इस समाज से अलग रहकर कोई भी इन्सान नहीं रह सकता लेकिन लोगों को गलत रीतिरिवाजों की बलि क्यों चढ़ाया जाता है?बस इसलिए कि ये परम्पराएँ हमारे बुजुर्गों ने बनाईं
उस रात मोक्षदा के खाना ना खाने से सत्या कुछ चिन्तित सा हो गया,उसे बुरा लग रहा था कि उसकी बातों ने मोक्षदा के हृदय को शायद आहत किया है,उसने सोचा वो मोक्षदा से सुबह माँफी माँग लेगा और ...और पढ़ेसोचते सोचते उसे कब नींद आ गई उसे पता ही नहीं चला..... सुबह हुई और आज मोक्षदा की तबियत ठीक थी इसलिए उसने ठीक समय पर जागकर सुबह के सारे काम निपटा लिए थे,वो घर के पीछे के आँगन में तुलसीचौरें के पास अपनी आँखें बंद किए खड़ी थीं, उसके बाल गीले और खुले हुए थे,तभी सत्यकाम जागा और उसने
मोक्षदा रसोई में पहुँची और दोपहर के भोजन की तैयारी में जुट गई,चूल्हें में आग सुलगाते हुए उसने झुमकी काकी से कहा.... काकी!तनिक कटहल तो काट देना।। बिटिया! बस अभी काटे देती हूँ,झुमकी काकी बोली। फिर मोक्षदा वहीं रसोई ...और पढ़ेबाहर के आँगन में एक कोने पर रखे सिलबट्टे पर मसाला पीसने लगी,कुछ देर में मसाला पिस गया तो वो मसाला उठाकर रसोई में पहुँची और चूल्हे पर लोहे की कढ़ाई चढ़ाकर कटहल की सब्जी बनाने लगी,फिर उसने कुछ कच्चों आमों को चूल्हे के भीतर भूनने को डाल दिए और आटा गूँथने लगी,कुछ ही देर में सारा भोजन तैयार हो
उधर छत पर खड़ी मोक्षदा वहीं घुटने के बल बैठ गई और फूटफूटकर रोने लगी,वो मन में सोच रही थी कि क्या करें? क्या ना करें,क्योंकि एक तरफ उसका भाई था और दूसरी तरफ उसका प्यार,वो भाई जिसने केवल ...और पढ़ेखातिर आज तक ब्याह नहीं रचाया और दूसरी तरफ उसका प्रेमी जिससे वो ब्याह रचाना चाहती है।। जिन्दगी ने उसे किस दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया था,वो यही सोच रही थी,काश के आज उसकी माँ जिन्दा होती तो वो उसके कलेजे से लगकर जीभर के रो लेती,उससे अपना दुःख बाँटकर मन हल्का कर लेती,लेकिन आज वो कितनी मजबूर है,क्या
कुछ देर में मोक्षदा अपना खाना परोसकर बैठक में पहुँची और सत्यकाम के बगल में अपनी थाली लेकर बैठ गई,जैसे ही सत्यकाम ने मोक्षदा की थाली में आम का नया अचार देखा तो बोला..... अरे! आप अपने लिए अचार ...और पढ़ेआईं हैं और मेरी थाली में लौकी की सादी सी सब्जी और रोटी,ये तो बहुत नाइन्साफ़ी है।। तो तुम मेरी थाली से ये अचार उठा लो,मोक्षदा बोली।। जी! नहीं! आप अपने लिए लाईं हैं तो आप ही खाएं,सत्यकाम बोला।। ठहरो! मैं अभी तुम्हारे लिए भी रसोई से अचार लेकर आती हूँ,इतना कहकर मोक्षदा उठने लगी तो सत्यकाम ने उसका हाथ
मोक्षदा की बात सुनकर सत्यकाम के आँसू आखिर छलछला ही पड़े और वो बोला.... ये सज़ा ही तो है मेरी प्यारी मोक्षदा! जो मैं ना जाने कब से भुगत रहा हूँ? मैं जिसे चाहता हूँ उसे अपना बना ही ...और पढ़ेसकता,उसे अपने कलेजे से लगा कर ठंडक नहीं पहुँचा सकता,उसके हाथों में अपना हाथ लेकर ये नहीं कह सकता की तुम मेरे जीवन में एक किरण की भाँति आई और देखते ही देखते मेरा जीवन उजाले से भर गया,तुम्हारे प्रतिबिम्ब को मैं निःसंकोच अपने लोचनों में स्थान नहीं दे सकता,तुमसे खुलकर ये नहीं कह सकता कि तुम ही मेरी प्राणप्यारी
फिर अमरेन्द्र ने सबसे कहा कि.... वें सब कल ही मोक्षदा को देखने आ रहे हैं,इसलिए सारी तैयारियांँ आज से शुरू करनी होगीं,मैं महाराज को बुलवाकर कुछ मीठा और नमकीन बनवा लेता हूँ और वही कल का भोजन भी ...और पढ़ेदेगा,मोक्षदा अब केवल आराम करेगी,इतने सालों बहुत काम कर चुकी।। सही कहा छोटे मालिक आपने,झुमकी काकी बोली।। तो फिर सत्यकाम बाबू चलिए मेरे साथ ,महाराज से बात करके आते हैं,अमरेन्द्र बोला।। जी चलिए! सत्यकाम बोला।। और फिर दोनों घर से निकलने ही वाले थे कि मोक्षदा बोल पड़ी.... दोपहर का भोजन तो कर लेते भइया! फिर कहीं जाते।। अरे! मेरा
सत्यकाम अमरेन्द्र के घर से कुछ भी लेकर नहीं आया था,वो बिल्कुल खाली हाथ था उसके पास अगर कुछ था तो वो था मोक्षदा की कढ़ाई किया हुआ रूमाल,जिसे उसे मोक्षदा ने उपहारस्वरूप भेंट किया था,जिस रास्ते पर वो ...और पढ़ेरहा था वो रास्ता उसका स्वयं का चुना हुआ ही था।। वो रास्ते में यूँ पैदल चलता रहा जहाँ आसरा मिल जाता तो वही टिक जाता,रात कभी किसी पेड़ के तले गुजारता तो दिन के पहर रास्तों पर चलते चलते,अगर कहीं मजदूरी का काम मिल जाता तो एक दो दिन मजदूरी करके आगें जाने के लिए खर्चा निकाल कर फिर
सत्या भी उस महिला को जाते हुए देखता रहा लेकिन रोक ना सका,ये रामप्यारी भी देख रही थी लेकिन उसने सत्या से कुछ पूछा नहीं,बस उसके दर्द को समझते हुए मौन हो गई,दोनों बरतन बेंचकर घर लौटे,रामप्यारी ने रात ...और पढ़ेभोजन बनाकर थाली सत्या के सामने परोस दी,भोजन से भरी थाली देखकर सत्या बोला.... माई! ले जाओ इसे,आज खाने का मन नहीं है!! ये सुनते ही रामप्यारी ने पूछा.... कौन थी वो? बस! थी कोई जान-पहचान वाली,सत्या बोला।। ऐसा लगता है कि कभी बहुत गहरा रिश्ता रहा था तुम दोनों के बीच,रामप्यारी बोली।। था तो ! बहुत गहरा रिश्ता था,सत्या