अय्याश--भाग(३०) Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अय्याश--भाग(३०)

सत्यकाम अपनी बहन त्रिशला के घर से लौट तो आया लेकिन काशी में उसके ठहरने का कोई ठिकाना नहीं था इसलिए उसने सोचा कि यहाँ वहाँ भटकने से तो अच्छा है क्यों ना मैं काशी की किसी धर्मशाला में एक दो दिन ठहरकर कहीं नौकरी ढ़ूढ़ लूँ और नौकरी मिल जाने पर कोई कमरा लेकर उसमें रहने लगूंँगा,बस बहुत हो गया भटकना,शायद मेरे जीवन में अपनों का साथ नहीं लिखा है और फिर यही सोचकर सत्या ने एक धर्मशाला में अपना ठिकाना बना लिया और दो दिनों के भीतर ही उसे एक विद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापक भी नियुक्त कर लिया गया......
वो पढ़ाने के लिए विद्यालय जाने लगा,वहाँ उसके व्यवहार और कुशल वाणी ने शीघ्र ही सभी अध्यापकों के हृदय में अपनी पहचान बना ली,लेकिन उसके रहने का ठिकाना अभी भी उसी धर्मशाला में ही था,वहाँ विद्यालय में एक अध्यापक जिनका नाम विजय मुखर्जी था, वें बंगाली थे,प्रेमविवाह किया था उन्होंने इसलिए उनके घरवालों ने उस लड़की को पसंद नहीं किया ,इस कारण वें अपनी पत्नी के संग काशी चले आएं और यहाँ आकर इस विद्यालय में गणित के अध्यापक बन गए, वें सत्या की व्यवहार कुशलता से बहुत ही प्रभावित हुए और कुछ ही समय में उसके अच्छे मित्र गए,तब सत्या ने उन्हें अपने रहने की समस्या बताई कि वो एक कमरा लेना चाहता है लेकिन बहुत ढूढ़ने पर उसे कोई भी मुनासिब कमरा नहीं मिला ,क्योंकि उन कमरों का किराया बहुत ही ज्यादा था जिसे देने वो अभी असमर्थ है,....
तब सत्यकाम की बात सुनकर विजय बाबू बोलें.....
बस,इतनी सी समस्या है आपकी, लो अभी समाधान किए देते हैं आपकी समस्या का।।
सच!आपकी नज़र में कोई कमरा है क्या? सत्या ने पूछा।।
हाँ! सत्यकाम बाबू! मेरे एक जान-पहचान वालें हैं,राघवेन्द्र राय उनका बहुत बड़ा तीन तल्ला मकान है,जिसमें उन्होंने कई किराएदारों को किराए से रख रखा है और वें कहीं और अपने दूसरे मकान में रहते हैं,मैं आज ही उनसे बात कर लेता हूँ,मुखर्जी बाबू बोलें।।
धन्यवाद! बहुत बहुत धन्यवाद मुखर्जी बाबू! सत्यकाम बोला।।
आप ऐसा क्यों नहीं करते कि शाम को मेरे घर खाने पर आ जाइए , फिर राघवेन्द्र राय जी से मिलकर आप मेरे घर से खाना खाकर वापस आ जाएगा और अगर मकान आज ही ठीक हो गया तो कल ही अपना बोरिया बिस्तर लेकर मकान में गृहप्रवेश कर लिजिएगा,मुखर्जी बाबू बोले।।
ठीक है तो मैं आ जाऊँगा शाम को आपके घर, लेकिन याद रखिएगा कि मैं शाकाहारी हूँ,क्योंकि मैनें सुना है कि बंगाली माँस-मच्छी के बहुत शौकीन होते हैं,सत्यकाम बोला।।
जी!उसकी चिन्ता ना करें मेरी पत्नी शुभगामिनी और मैं दोनों ही शाकाहारी हैं,मुखर्जी बाबू बोलें।।
जी!तब तो बहुत ही बढ़िया,सत्यकाम बोला।।
और फिर शाम को सत्यकाम मुखर्जी बाबू के घर पहुँचा,उनके घर में उनकी पत्नी और उनकी दो साल की बेटी मीनाक्षी थी,जिसे सत्यकाम ने गोंद में ले लिया और उसके साथ खेलने लगा,तब शुभगामिनी ने सत्या से पूछा....
दादा! आपकी शादी हो चुकी है॥
नहीं! भाभी! अभी तक तो नहीं,सत्या बोला।।
शादी की नहीं या किसी ने दिल तोड़ दिया,मुखर्जी बाबू बोले।।
दोनों ही कारण समझ लीजिए,सत्यकाम बोला।।
ये कैसी बात हुई भला!दोनों बातें कैसे हो सकतीं हैं,मुखर्जी बाबू बोले।।
आपकी तरह प्रेम हर किसी के नसीब में नहीं होता,प्रेम पाने के लिए थोड़ा स्वार्थी बनना पड़ता है,अपनों का दिल दुखाना होता है जो कि मुझसे ना हो पाया और मैनें अपने प्रेम को उसकी राह पर जाने दिया,सत्यकाम बोला।।
हाँ! ये बात तो है मेरे घरवाले तो अभी तक मुझसे नाराज हैं,मुखर्जी बाबू बोले।।
और मेरे भी,शुभगामिनी भी बोली।।
जी! वही तो मैं कभी नहीं चाहता था लेकिन ना चाहते हुए भी फिर भी सब मुझसे नाराज़ हो गए,सत्यकाम बोला।।
लेकिन क्यों? ऐसा आपने क्या किया? शुभगामिनी ने पूछा।।
कुछ नहीं,बस अपने घरवालों के खिलाफ जाकर दूसरें लोगों की मदद की जैसा कि वें नहीं चाहते थे,बस उन्हीं सब कार्यों की सजा मिली मुझे,सत्यकाम बोला।।
अच्छा! आप लोंग बातें कीजिए,मैं तब तक चाय बनाकर ले आती हूँ और फिर इतना कहकर शुभगामिनी चाय बनाने चली गई तब सत्या की बात सुनकर मुखर्जी बाबू बोले..
ओह.....ऐसा क्यों होता है ? हमारे परिवार वाले हमें समझने की कोशिश क्यों नहीं करते?हम अपनी खुशी के लिए कुछ कर लेते हैं तो उन्हें अपना निरादर क्यों लगने लगता है?जब मैनें शुभगामिनी से प्रेमविवाह किया था तो मेरे परिवार को लगा कि मैनें उनकी अवहेलना की है,क्योंकि शुभगामिनी सवर्ण परिवार से नहीं थी,मैनें जब अपने शुभगामिनी से प्रेम वाली बात घरवालों से बताई तो उन्होंने सख्ती से इस विवाह के लिए इनकार कर दिया और ये भी कहा कि उनकी मर्जी के खिलाफ जाकर यदि मैनें शुभगामिनी से विवाह किया तो वें मुझे उनके घर और जायदाद से बेदखल कर देगें और मैनें उनकी बात नहीं मानी,इस बात को लेकर वो सब आज भी मुझसे बात नहीं करते,
कोई बात नहीं मुखर्जी बाबू! दिल छोटा ना कीजिए,एक दिन वें सब जरूर आपको समझेगें,सत्यकाम बोला।।
मुझे इसकी उम्मीद नज़र नहीं आती,मुखर्जी बाबू बोले।।
मुखर्जी बाबू! ये दुनिया ऐसी ही है,आप अच्छा कार्य करेगें तो आपको बुरा कहेगीं और अगर आपने बुरा कार्य कर लिया तो आप बुरे तो हैं ही,इसलिए किसी की ज्यादा फिक्र मत कीजिए,अपना जीवन ईमानदारी और मेहनत जिएं,किसी का बुरा ना करें,फिर देखिएगा वो ऊपरवाला सदैव आपकी सहायता करेगा,सत्यकाम बोला।।
आप भी ठोकरों के खाए हुए मालूम होते हैं,विजय मुखर्जी बोले।।।
जी! तभी तो जिन्दगी जीने का सलीका बहुत कम उम्र में सीख चुका हूँ,आधा वैरागी हो चुका हूँ कुछ समय बाद आधा वैरागी और हो जाऊँगा,सत्यकाम बोला।।
सत्यकाम की बात सुनकर विजय बाबू हँसने लगें फिर बोले......
ना....ना....सत्यकाम बाबू! अभी से बुद्ध की राह मत पकड़िएगा,अच्छी योग्य कन्या ढ़ूढ़कर विवाह कर लीजिए,गृहस्थ जीवन का भी आनन्द उठाइए,जब सुबह शाम नून तेल की चिन्ता रहेगी तो वैराग्य लेने का विचार खुदबखुद मस्तिष्क से चला जाएगा।।
मुझ जैसे इन्सान से भला कौन सी भली कन्या विवाह करना चाहेगी,सत्यकाम बोला।।
विवाह की इच्छा तो कीजिए,कन्याओं की लाइन लगा देगें....लाइन आपके लिए,मुखर्जी बाबू बोले।।
मुखर्जी बाबू! आप मुझे चने के झाड़ पर मत चढ़ाइए,सत्यकाम बोला।।
दादा! आपको कौन चने के झाड़ पर चढा रहा है,रसोई से चाय और पकौड़े लेकर आती हुई शुभगामिनी बोली।।
जी! भाभी!आपके पति-परमेश्वर,सत्यकाम बोला।।
वो क्यों भला? शुभगामिनी ने पूछा।।
मेरा विवाह करवाना चाहते हैं ये,सत्यकाम बोला।।
अच्छा....अच्छा....ये तो बहुत अच्छी बात है,मुझे भी एक सखी मिल जाएगी सुख दुख की बातें करने के लिए,लेकिन विवाह की बात बाद में कीजिएगा,पहले चाय पीजिए ठंडी हो रही है,शुभगामिनी बोली।।
शुभगामिनी के कहने पर सब चाय और पकौड़ियों का आनन्द लेने लगें,कुछ ही देर में विजय मुखर्जी बोले....
चलिए सत्यकाम बाबू ! तब तक हम मकान देख आतें हैं मैनें इस बारें में राघवेन्द्र राय जी से बात कर ली है इत्तेफाक से वें मुझे रास्ते में मिल गए थे,उन्होंने कहा कि आप मकान देख आइएगा,मैं नौकर से कह दूँगा वो आपको मकान दिखवा देगा,उन्होंने बताया कि वहाँ सार्वजनिक रसोई भी है,जहाँ एक महाराज खाना बनाता है,जिन व्यक्तियों का परिवार नहीं है जो अकेले रहते हैं और खाना बनाने में असमर्थ हैं,तो वें वहाँ कहकर अपना भोजन मँगवा सकतें हैं,भोजन पकाने का झंझट खतम और राशन पानी खरीदने का भी,बस कमरा और देख आते हैं कि कैसा है?
जी!ये तो बहुत बढ़िया हुआ,वैसे भी अकेले के लिए खाने पकाने में जी नहीं लगता,सत्यकाम बोला।।
तो फिर उठिए,कमरा देखकर आते हैं,विजय बाबू बोलें।।
और फिर सत्यकाम और विजय बाबू घर देखने चले गए और इधर शुभगामिनी खाने की तैयारी में लग गया,दोनों ताँगें में बैठकर मकान देखने पहुँचें और वहाँ के नौकर को अपना परिचय दिया तो नौकर बोला....
हाँ....हाँ....मालिक का संदेशा आवा रहा,बोलें रहें कि आपका मकान दिखा दें,चलिए सबसे ऊपर वाली मंजिल पर एक कमरा खाली है,
दोनों ऊपर पहुँचें,कमरा तो ठीक था,एक जन के लिए उतनी जगह काफी थीं,साथ में सार्वजनिक स्नानघर था,हर तल्ले में एक एक ही सार्वजनिक स्नानघर था सभी के लिए,विजय बाबू को कमरा नहीं जँचा,वें बोलें.....
इतने सारे लोगों में केवल एक स्नानघर,कमरा भी छोटा है।।
तब सत्यकाम बोला......
अरे! मुखर्जी बाबू! कुछ दिन यहीं काटता हूँ,फिर ठिकाने का मकान ढूढ़कर उसमे चला जाऊँगा,धर्मशाला में रहते रहते जी उकता गया है,इसका किराया भी ज्यादा नहीं है....
जैसी आपकी मर्जी सत्यकाम बाबू! लेकिन दोबारा सोच लीजिए,यहाँ सभी शरीफ नज़र नहीं आते मुझे,मुखर्जी बाबू बोले.....
कोई बात नहीं मुखर्जी बाबू! मुझे इतना फर्क नहीं पड़ता,सत्यकाम बोला।।
ठीक है तो फिर बता दीजिए नौकर से कि आप कब यहाँ रहने के लिए आ रहे हैं? मुखर्जी बाबू बोले....
जी! कल शाम को ही आ जाता हूँ यहाँ रहने,सत्यकाम बोला....
और फिर सत्यकाम और मुखर्जी बाबू मकान का बयाना देकर लौट आएं,तब तक शुभगामिनी ने भोजन तैयार कर लिया था,सत्या और विजय बाबू ने रात के भोजन का आनन्द उठाया और सत्या भोजन करके वापस धर्मशाला लौट आया और दूसरे शाम को वो राघवेन्द्र राय जी के तीन तल्ले वाले मकान में ऊपर के कमरें में रहने के लिए पहुँच गया,नौकर उनका सामान लेकर कमरें में पहुँचा और पूछा....
बाबू साहेब! आपके खाने का प्रबन्ध यही करना है या आपने और कहीं कर रखा है।।
नहीं! मेरे खाने का प्रबन्ध यही की रसोई में कर दो,सत्यकाम बोला।।
ठीक है बाबू साहेब! और इतना कहकर वो नौकर जाने लगा तो सत्या बोला.....
ठहरो! तुम्हारा नाम तो बताते जाओ,नहीं तो तुम्हें पुकारूंँगा कैसे?
नाम...मेरा नाम बंसी है बाबू साहेब! बंसी बोला।।
अच्छा! बंसी! एक सुराही और गिलास भी रख जाना पानी पीने के लिए,सत्यकाम बोला।।
ठीक है बाबू साहेब! और रात खाने में क्या खाऐगें?ये भी बता देते तो अच्छा रहता, मैं रसोइए से कहकर बनवा दूँगा,बंसी बोला।।
मैं तो कुछ भी खा लेता हूँ,मेरे खाने की इतनी फिक्र मत करो,खाना बस शाकाहारी होना चाहिए,सत्यकाम बोला।।
वैसे रसोई के महाराज खाना बहुत ही स्वादिष्ट बनाते हैं आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा और वैसे भी यहाँ की रसोई में शाकाहारी खाना ही पकता है,बंसी बोला।।
तब तो बहुत ही बढ़िया है,सत्यकाम बोला।।।
तो खाना कितने बजे तक खा लेते हैं आप क्योंकि फिर साढ़े दस बजे के बाद रसोई की सफाई हो जाती है और उसे बंद कर दिया जाता है,बंसी ने कहा।
मैं नौ-साढ़े नौ बजे तक खा लेता हूँ,सत्यकाम बोला।।
ठीक है तो बाबू साहेब अपनी हाथघड़ी देखकर बता दीजिए कि अभी कितने बजे हैं,मैं फिर आपको समय से खाना पहुँचा दूँगा,बंसी बोला।।
अभी आठ बजे हैं,सत्यकाम बोला।।
ठीक है तो मैं अभी जाता हूँ,बाद में खाना लेकर आता हूँ और सुराही मैं दूसरे नौकर चुन्नू से भिजवाएं देता हूँ इतना कहकर बंसी चला गया,थोड़ी देर में चुन्नू सुराही और गिलास कमरें में रखकर चला गया,तब तक सत्यकाम ने कमरें में पड़ी चारपाई पर अपना बिस्तर बिछा लिया और उस पर लेटकर कोई किताब पढ़ने लगा,पढ़ते पढ़ते उसे पता ही नहीं चला कि कब सबा नौ बज गए तब तक दरवाजे पर बंसी ने आवाज लगाते हुए कहा.....
बाबू साहेब! खाना लाया हूँ,दरवाजा खोलिए।।
सत्यकाम ने दरवाजा खोला,बंसी भीतर आया और थाली रखते हुए बोला.....
आप पहले देख लीजिए कि इतना भोजन पर्याप्त है ,कुछ कमी हो तो ले आऊँ,सत्यकाम ने थाली के ऊपर ढ़की हुई पत्तल उठाकर देखा तो कटोरी में अरहर की लहसुन के बघार वाली दाल,भिण्डी की सूखी सब्जी,तली हुई हरी मिर्च,आँवले का अचार ,पाँच रोटियाँ,थोड़ा भात,थोड़ा सा गुड़ था,खाना देखकर सत्यकाम बोला.....
ये तो मेरे लिए बहुत ज्यादा है,कल से थोड़ा कम लाना।।
बाबू साहेब! कैसी बातें करते हो? आप के लिए इतनी खुराक ज्यादा नहीं है,खाऐगें नहीं तो काम कैसें करेगें?बंसी बोला।।
बंसी की बात सुनकर सत्यकाम हँसते हुए बोला....
ठीक है....ठीक है.....इतना ही ले आया करो....
आप खाने बैठ जाइए,मैं तब तक यहीं बैठा हूँ,कुछ कम पड़ गया तो,बंसी बोला।।
सत्यकाम बंसी का अपनापन और भोलापन देखकर फिर कुछ ना बोला,वो हाथ धोकर भोजन करने बैठ गया,सत्यकाम अभी आधा खाना ही खा पाया था कि नीचें के तल्ले से कुछ शोर सुनाई दिया ,शोर सुनकर सत्यकाम ने बंसी से पूछा.....
बंसी! ये क्या हो रहा है ? कौन शोर मचा रहा है?
सत्यकाम के सवाल पर बंसी ने जवाब दिया.....
दयाराम मिस्त्री होगा,वही चिल्लाता है बेचारी उस अनाथ लड़की पर,बाहर से पीकर लौटा होगा,घर में राशन नहीं होगा तो वो बेचारी खाना नहीं बना पाई होगी तो चिल्ला रहा होगा उस पर,उसमें बेचारी उस अनाथ बच्ची का क्या कुसूर?कमाता-धमाता नहीं है,दूसरों से उधार लेकर खाना-खर्चा चल रहा है जैसे तैसे,उस बेचारी के पास भी और कोई रिश्तेदार नहीं है इसलिए अपने मामा दयाराम पर आश्रित है,बेचारी बच्ची ना जाने किस पापों की सजा भुगत रही है इस पापी के पास,
ओह...तो ये बात है,सत्यकाम बोला।।
बेचारी बच्ची का हाल बुरा कर रखा है इस पापी ने,बंसी बोला।।
फिर सत्या कुछ नहीं बोला और चुपचाप खाना खाने लगा लेकिन नीचें से आती आवाजों ने उसे कुछ चिन्तित जरूर कर दिया था,सत्यकाम के खाना खाने के बाद बंसी उसकी जूठी थाली लेकर चला गया,सत्या ने कुछ ज्यादा खा लिया था इसलिए उसे घूमने की इच्छा हुई फिर उसने बाहर जाने की सोची,तो उसने कमरें का बल्ब बुझाया,फिर उसने बाहर आकर अपने कमरें की कुण्डी लगा दी क्योंकि अभी तक उसने ताला नहीं खरीदा था ,वैसे भी उसके पास कोई ख़ास और कीमती सामान था नहीं,जिसकी उसे चिन्ता करने की जरूरत महसूस हो......
सत्या नीचें उतरा तो अभी भी वहाँ से चीखने चिल्लाने की आवाज़े आ रहीं थीं,सत्या ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया और वो बाहर चला गया,वो सड़क पर कुछ देर ठहरा,फिर एक पानवाले से उसने सादा पान खरीदा और खाकर अपने कमरें में लौट आया,वो कमरें में लौटा उसने दरवाजा खोलकर कमरें का बल्ब जलाया तो उसे अपनी चारपाई के नीचे से किसी के सिसकने की आवाज़ आई....
उसने नीचें झुककर देखा तो वहाँ एक सोलह-सत्रह साल की लड़की मामूली सी सूती धोती में लिपटी हुई सिसक रही थी,सत्या ने उससे पूछा....
कौन हो तुम?
वो लड़की सत्या की आवाज़ सुनकर धीरे से बोली.....
जी....संगिनी....
जोर से बोलो....सुना नहीं मैनें,सत्या ने कहा।।
मेरा नाम संगिनी है और मैं नीचें वाले तल्ले में रहती हूँ?
यहाँ क्या कर रही हो? सत्या ने पूछा.....
और सत्या का ये सवाल सुनकर वो लड़की फूटफूटकर रोने लगी.....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....