सत्या और संगिनी की गृहस्थी रूपी गाड़ी अब सुचारू रूप से चलने लगी थी क्योंकि अब दोनों पहिओं का सन्तुलन असन्तुलित नहीं था,दोनों एकदूसरे के पूरक बन गए थे,दोनों एकदूसरे की भावनाओं का ख्याल रखते हुए जीवनधारा में बह रहे थे,संगिनी को सत्या के रूप में मनचाहा मीत मिल गया था और सत्या को संगिनी के रूप में प्यारा सा साथी जो वो उसका हरदम ख्याल रखती थी,दोनों को इसके सिवाय कुछ और चाहिए भी नहीं था,सत्या को वो ठहराव मिल गया था जिसकी उसे बहुत समय पहले से आवश्यकता थी,दोनों अपने छोटे से घरोंदे को सँवारने में लगे थे,इसी बीच दोनों के जीवन में एक और खुशी ने दस्तक दी,जिसका उन्होंने दिल खोलकर स्वागत किया और वो खुशी थी उनकी अपनी सन्तान की खुशी,जो कि एक प्यारी सी बेटी थी,उस नन्ही सी परी ने दोनों के जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ बिखेर दी....
अब सत्या के जीवन की दिशा और दशा दोनों ही बदल चुकी थी,सत्या और संगिनी ने प्यार से अपनी बेटी का नाम मिट्ठू रखा,अब मिट्ठू दो साल की हो चली थी,बहुत कुछ बोलने और अपनी बात दोनों को समझाने की कोशिश करती,जब दोनों उसकी बात नहीं समझते तो वो कुछ बड़बड़ाकर अपना गुस्सा जताती,जो कि वो भी दोनों समझ नहीं पाते और जब समझते तो दोनों ठहाका लगाकर हँस पड़ते,जब मिट्ठू अपने अपने माता पिता को हँसता देखती तो वो भी हँस पड़ती,अब उनके इर्दगिर्द खुशियाँ ही खुशियाँ थी।।
शुभगामिनी और संगिनी का रिश्ता अब सगी बहनों सा हो गया था,वहीं मुखर्जी बाबू का भी सत्या के संग अपनापन बरकरार था,मुखर्जी बाबू की बेटी मीनाक्षी अब लगभग पाँच वर्ष की हो चली थी,वो भी मिट्ठू के संग उनके घर खेलने को आ जाया करती,मिट्ठू भी मीनाक्षी के संग बहुत ही सहज थी और उसे देखकर खिलखिला उठती,मीनाक्षी मिट्ठू के संग बड़ी बहन की तरह ही पेश आती थी,दोनों परिवारों के बीच मेलजोल बना हुआ था,वें एकदूसरे को ही अपना परिवार समझने लगे थे।।
अब संगिनी भी बाहर के काफी काम करने लगी थी,सत्या ने गृहस्थी की पूरी जिम्मेदारी अब संगिनी के हाथ में सौंप दी थी,इसलिए संगिनी मिट्ठू को शुभगामिनी के घर छोड़कर बाजार-हाट का काम करने चली जाती,यूँ ही एक दिन संगिनी बाजार गई,काँधे पर सीधा पल्लू सिर तक लिए हुए ,कमर में चाबियों का गुच्छा खोसकर वो राशन की दुकान में रूकी फिर उसने कुछ राशन खरीदा और पैसें चुकाकर ज्यों ही दुकान से बाहर निकली तो उसका किसी ने रास्ता रोक लिया.....
उसने नज़रें उठाकर देखा तो उसका मामा दयाराम मिस्त्री था,मामा को अचानक इतने समय बाद देखकर संगिनी घबरा गई और उसने अपने माथे का पल्लू नाक के नीचे तक खिसका लिया,संगिनी की ऐसी प्रतिक्रिया को देखकर दयाराम बोला.....
क्या हुआ संगिनी? अपने मामा को भूल गई बिटिया!
ना !भूली नहीं,संगिनी ने उत्तर दिया।।
तो मुझे देखकर अपना चेहरा क्यों छुपा लिया? दयाराम ने पूछा।।
बस!ऐसे ही मामा! उनकी पहचान के यहाँ बहुत लोंग रहते हैं,कहीं कोई ऐसी वैसी बातें ना बनाने लगें,इसलिए चेहरा ढ़क लिया,संगिनी बोली।।
अच्छा! तो ये बात है,तेरे कपड़े-लत्ते देखकर तो यूँ लग रहा है कि जैसे तेरे बहुत ठाँट हैं,साड़ी तो बहुत मँहगी मालूम होती है और गले में सोने की कंठी भी नई लगती है,दयाराम बोला।।
नहीं! मामा!ऐसी कोई बात नहीं,बस दाल रोटी चल जाती है,संगिनी बोली।।
घर कहाँ है तेरा? अपने घर ना बुलाऐगी अपने गरीब मामा को,दयाराम बोला।।
फिर कभी मामा! अभी मुझे देर होती है,वें विद्यालय से लौटते होगें,संगिनी ने पीछा छुड़ाने के लिए बहाना बनाया।।
ऐसी भी क्या जल्दी है?दो घड़ी ठहर कर अपने मामा से तो बात कर लें,दयाराम बोला।।
मामा! कृपया करके मेरा पीछा छोड़ो और मुझे घर जाने दो,संगिनी बोली।।
ऐसे कैसे जाने दूँ बिटिया!,तेरी हालत तो सुधर गई है तेरे इस मामा की वजह से,थोड़ा तो मेरा भी ख्याल कर लें, दो दिन से तेरा मामा भूखा है और पी भी नहीं है,कुछ पैसे देती जा,आशीष मिलेगा,दयाराम बोला।।
लेकिन मेरे पास अभी पैसे नहीं बचे हैं,मैनें राशन खरीद लिया है,संगिनी बोली।।
तो कोई बात नहीं ,जितने बचे हैं उतने दे दें,दयाराम बोला।।
संगिनी जल्द से जल्द दयाराम से पीछा छुड़ाना चाहती थी इसलिए उसके बटुएं में जितने रूपऐं थे तो उसने दे दिए और फिर थोड़ी दूर पैदल जाकर एक ताँगा रोका और उसमें बैठ गई,घर पहुँची तो वो बहुत ही परेशान थी और उसने सत्या के घर आने पर ये बात उसके सामने ये सोचकर जाहिर नहीं कि कहीं सत्या दयाराम के पास लड़ने ना पहुँच जाएं इसलिए उसने अपना मुँह बंद रखने में ही अपने परिवार की भलाई समझी....
दिन यूँ ही गुजरने लगे और दयाराम मिस्त्री की बात आई-गई हो गई,संगिनी ने भी उस बात को दिल से निकाल दिया,क्योंकि अब इसी डर से उसने बाजार जाना भी कम कर दिया,वो शुभगामिनी से राशन लाने को कह देती और दोनों बच्चियों को अपने पास रख लेती,उसने ये बात शुभगामिनी से कही और शुभगामिनी ने भी सत्या के सामने कुछ ना बोलने की सलाह दी,ये बात अब तक दोनों सहेलियों के बीच राज थी।।
फिर एक दिन शुभगामिनी की तबियत ठीक नहीं थी,इसलिए उस दिन मजबूरी के कारण संगिनी को बाजार जाना पड़ा,संगिनी अपनी खरीदारी में बेसुध थी और वो सारा सामान खरीद खरीदकर अपने थैलें में भरती जा रही ,थैला भारी होने की वजह से वो उसे धरती पर रखकर फिर से सामान खरीदने लगती ,तभी उसके सामान से भरे थैले को किसी ने उठाने के लिए हाथ बढ़ाया,उसने नजरें उठाकर ऊपर देखा तो वो इसका मामा दयाराम था,दयाराम को देखकर संगिनी के चेहरें की हवाइयाँ उड़ गई,लेकिन वो बोली कुछ नहीं और अपना थैला उठाकर जाने लगी तो दयाराम बोला....
बिटिया!क्यों अपने कोमल हाथों को इतना कष्ट देती है?तेरा मामा अभी जिन्दा है,चल तेरे घर तक तेरा थैला पहुँचवा आता हूँ,
नहीं! मामा!मैं चली जाऊँगी,तुम्हें तकलीफ़ उठाने की जरूरत नहीं है,संगिनी बोली।।
ना! बिटिया! तू मेरे रहते इतना हैरान क्यों होती है?मैं हूँ ना! कबसे तुझे ढूढ़ रहा हूँ,उस दिन के बाद तो तू दिखी ही नहीं,ना जाने कहाँ गुम हो गई थी,दयाराम बोला।।
जाने दो ना! मामा! क्यों हैरान करते हो? संगिनी बोली।।
ऐसे कैसे जाने दूँ? पहले तू मेरे खाने और पीने का जुगाड़ कर दे,फिर तू चली जा!दयाराम बोला।।
लेकिन अब मेरे पास और रूपये नहीं हैं तुम्हें देने के लिए,संगिनी बोली।।
झूठ बोलती है अपने मामा से,ये तेरी कमर पर जो चाबियों का गुच्छा है उससे तो साफ पता चलता है कि तू ही अब घर की मालकिन है,दयाराम बोला।।
नहीं! दे सकती मैं तुम्हें पैसे,बोलो क्या करोगे?संगिनी गुस्से से बोली।।
ये चाकू देख रही है ना !इसकी धार देख,अगर तेरे पति की प्यारी सी गर्दन को सही सलामत रखना चाहती है तो चुपचाप रूपऐं दे दे,नहीं तो अन्जाम अच्छा ना होगा,दयाराम बोला।।
दयाराम की बात सुनकर संगिनी बुरी तरह डर गई और फिर उसने चुपचाप अपने बटुएँ से रूपऐं निकालकर दयाराम को दे दिए और दयाराम एक कुटिल मुस्कान के साथ रवाना हो गया,अब संगिनी को काटो तो खून ना निकले,वो इतनी दहशत में आ गई थी,उसे अपने पति के प्राण अपने प्राणों से भी प्रिय थे,जिस पति के लिए ही वो जी रही थी,उसी के प्राण लेने की धमकी उसका मामा उसे देकर गया था,उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वो अब क्या करें? भीतर ही भीतर वो इस आग में झुलसी जा रही थी,अब उसने घर से बाहर निकलना बिल्कुल से छोड़ दिया था,यहाँ तक कि वो सत्या के संग भी बाहर जाने से डरने लगी थी कि कहीं उसका मामा उसे राह में ना मिल जाएं.....
और यहीं पर वो सबसे बड़ी गलती कर रही थी जो उसने इस भेद को स्वयं तक सीमित रखा था,अगर वो इस भेद को सत्या से साँझा कर लेती तो शायद इस समस्या का कोई ना कोई समाधान निकल आता और फिर संगिनी एक पतिव्रता स्त्री थी,अपने पति से बढ़कर उसके लिए और कुछ भी नहीं था,इसलिए वो जो भी कर रही थी केवल उसके पति की सलामती के लिए ही कर रही थी।।
कुछ दिन और ऐसे ही गुजरे,लेकिन एक दोपहर को संगिनी के घर के दरवाज़े पर दस्तक हुई,संगिनी ने सोचा शुभगामिनी होगी,क्योंकि वो ही अपने काम निपटाकर दोपहर के समय कुछ घड़ी उसके पास बैठने आ जाती थी,इसलिए संगिनी ने झट से घर के किवाड़ खोल दिए लेकिन सामने दयाराम को देखकर सन्न रह गई,उसकी चुप्पी को तोड़ते हुए दयाराम बोला...
बिटिया! भीतर ना बुलाएगी अपने मामा को,मामा से इतना बैर पाल रखा है तूने,
ना! मामा! भीतर मेहमान है,तुम अभी जाओ,संगिनी बोली।।
ऐसे भी कौन से मेहमान पैदा हो गए तेरे,तू अनाथ और तेरा पति भी अनाथ,दयाराम बोला।।
है कोई,मुहल्ले पड़ोस की औरतें बैठी हैं भीतर,संगिनी बोली।।
तो क्या हुआ? मैं भी घड़ी भर उनसे हँसी ठिठोली कर लूँगा तो क्या कुछ बिगड़ जाएगा तेरा?दयाराम बोला।।
नहीं!मामा!कुछ भी हो लेकिन तुम भीतर नहीं आ सकते,जो काम है यही पर बता दो,संगिनी बोली।।
काम क्या होगा तुझसे?बस खाने पीने को कुछ माल मिल जाएं तो मैं यहाँ से उल्टे पाँव लौट जाऊँगा,दयाराम बोला।।
तो ठीक है तुम यही ठहरो मैं रूपऐं लेकर आती हूँ लेकिन आइन्दा कभी भी मेरे घर पर मत आना और फिर इतना कहकर संगिनी किवाड़ बंद कर के भीतर चली गई और कुछ रूपऐं लेकर लौटी,उन्हें दयाराम के हाथ में थमाते हुए बोली.....
कृपया!मेरा पीछा छोड़ दो मामा! तुम्हारे पैर पड़ती हूँ।।
ठीक है तो तू चाहती है कि मैं तेरा पीछा छोड़ दूँ तो अपने गले की सोने की कंठी उतारकर मुझे दे दे,वादा करता हूँ कि फिर कभी तेरे द्वार पर पग ना रखूँगा,दयाराम बोला।।
तो लो और मरो यहाँ से,आज के बाद कभी भी अपनी मनहूस शकल मत दिखाना,संगिनी ने अपनी सोने की कंठी दयाराम को देते हुए कहा.....
फिर दयाराम सोने की कंठी लेकर चला गया और संगिनी ने चैन की साँस ली,लेकिन संगिनी भी बहुत भोली तो उसने दयाराम पर यकीन भी कर लिया कि सोने की कंठी लेने के बाद वो उसे फिर कभी भी परेशान नहीं करेगा,शायद ये संगिनी का भ्रम ही था।।
संगिनी अब दयाराम को लेकर निश्चिन्त हो चुकी थी,उसे लगा कि अब दयाराम उसकी जिन्दगी में दोबारा तूफान बनकर नहीं आएगा,इसलिए अब उसने अपने जीवन से दयाराम नामक काँटे को निकाल फेंका था जो कि उसे बार बार चुभ रहा था,ऐसे ही दो तीन महीने बीते अब संगिनी बाजार भी जाती तो उसे दयाराम ना मिलता,लेकिन संगिनी को एक दिन बंसी काका बाजार में मिल गए,वें भी उस मकान की रसोई के लिए सौदा लेने आएं थे जहाँ पर पहले संगिनी भी रहा करती थी,
संगिनी को देखकर बंसी काका बोले.....
अरे बिटिया! कइसन हो,सब कुशल मंगल है ना!
हाँ! बस !तुम्हारा आशीर्वाद है,संगिनी बोली।।
और बाबूसाहेब भी ठीक हैं ना!,बंसी ने पूछा...
हाँ! काका! वें भी ठीक हैं,संगिनी बोली।।
और तुम्हार गुड़िया तो अच्छी है ना! अब तो खूब बड़ी हो गई हुई,बंसी ने पूछा।।
हाँ! काका! खूब बातें करती है संगिनी बोली।।
संग नहीं लाई,बंसी बोला।।
ना! काका! शुभगामिनी जीजी के पास छोड़कर आई हूँ,संगिनी बोली।।
बहुत अच्छा! वहीं हैं ना ! जिनके घरवाले बाबूसाहेब के ही विद्यालय में हैं,कोई बात नहीं लेकिन बिटिया तुम्हरे साथ होती तो उसे देख लेते,बंसी बोला।
हाँ! वही हैं,काका घर आना! और खूब जी भर करके देख लेना उसे और मेरे हाथ का बना खाना भी खाना,संगिनी बोली।।
जरूर बिटिया! आएगें किसी दिन,बंसी बोला।।
अच्छा तो फिर ठीक है तो मैं चलूँ,कहीं गुड़िया जीजी को परेशान ना कर रही हो,संगिनी बोली।।
ठीक है बिटिया! बंसी बोला,
और जैसे ही संगिनी जाने को मुड़ी तो बंसी काका ने उसे रोकते हुए कहा......
बिटिया! एक बात तो रह ही गई....
वो क्या काका?संगिनी ने पूछा।।
तुम्हें पता है तुम्हारा मामा दयाराम चार-पाँच महीने से जेल में है,उसके पास से पुलिस ने सोने की कंठी बरामद की,जिस सुनार के पास वो उसे बेचने गया था तो उस सुनार ने पुलिस को इत्तिला कर दिया,दयाराम कहता है कि वो कंठी उसकी है,लेकिन जिसके पास खाने के लिए रोटी ना हो तो उसके पास सोने की कंठी कहाँ से आ सकती है,बस यही बात बतानी थी और फिर इतना कहकर बंसी अपने रास्ते चला गया और संगिनी दुविधा में पड़ गई....
क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....