अय्याश--भाग(३१) Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अय्याश--भाग(३१)

उस लड़की को रोता हुआ देखकर सत्यकाम कुछ परेशान सा हो गया और उससे कहा.....
तुम पहले रोना बंद करो।।
सत्या की बात सुनकर वो लड़की चुप हो गई और चारपाई के नीचे से बाहर निकलकर डरी- सहमी सी वहीं चारपाई के पास सिकुड़कर बैठ गई फिर सत्या ने सुराही से गिलास में पानी भर कर उसे दिया और बोला.....
पानी पी लीजिए,फिर तसल्ली से मुझे बताइएं कि क्या हुआ?
उस लड़की ने एक ही साँस में गिलास का सारा पानी खतम कर दिया और जैसे ही बोलने को हुई तो बंसी वहाँ आ पहुँचा,वो सत्यकाम से बोला......
आप आ गए बाबूसाहेब! माँफ कीजिए,आपकी मर्जी के बिना मैनें इस बच्ची को आपके कमरें में छुपने की इजाजत दे दी,ये यहाँ ना छुपती तो इसका कंस मामा दयाराम इसे आज मार मारकर हधमरा कर देता,वो इसे मार रहा था तो बचाव के लिए ये कमरें से बाहर भागी,कोई भी इसका मदद करने को तैयार ना था तो मैनें इशारा कर दिया कि ऊपर वाले तल्ले में चली जाओ,मैं अभी वहाँ पहुँचता हूँ,संगिनी के आने बाद मैं यहाँ आया तो आपके कमरें की कुण्डी लगी थी,ताला नहीं लगा था तो मैंने संगिनी बिटिया से कहा कि तुम इस कमरें में छुप जाओ,बाकी मैं देख लूँगा.....
बंसी की बात सुनकर सत्या बोला.....
अच्छा! तो ये बात है,यही है वो लड़की।।
जी! बाबूसाहेब! किस्मत की मारी है,घर के काम-काज में निपुण है,सीना-पिरोना भी जानती है,शकल सूरत भी बुरी नहीं है,ऊपर से पढ़ी लिखी भी है,मेरे गाँव से चिट्ठी आती है तो मैं संगिनी बिटिया से ही पढ़वा लेता हूँ,बहुत भली है बेचारी,बंसी बोला।।
लेकिन ये यहाँ हैं तो इनके मामा जी इन्हें ढूढ़ रहें होगें? सत्या बोला।।
अरे! वो तो इसे मारने पीटने के बाद पीकर पड़ा होगा कमरें में,उसे इसकी कहाँ फिक्र है?बंसी बोला।।
तो इनसे पूछिए कि इन्होंने खाना खाया,सत्या ने बंसी से कहा।।
तब बंसी संगिनी से बोला.....
संगिनी बिटिया! खाना खाया।।
डरी सहमी सी संगिनी बोली.....
घर में कुछ था ही नहीं,जो बना लेती,कल से घर में खाना ही नहीं पका,
इसका मतलब है आप कल से भूखीं हैं,सत्यकाम बोला।।
संगिनी बिटिया! तुम मुझे बता देती तो मैं तुम्हारे लिए रसोई से खाना ला देता....राम....राम ..बेचारी कल से भूखी है,बंसी बोला।।
ऐसा करो बंसी! तुम अभी रसोई से खाना लाकर इन्हें खिला दो और इनके खाने के पैसे मेरे खाते में चढ़वा देना,सत्यकाम बोला।।
जी! बाबूसाहेब! अभी ला देता हूँ,बिटिया के लिए खाना,बंसी बोला।।
और फिर बंसी संगिनी के लिए रसोई से खाना लेने चला गया,इधर सत्यकाम ने फर्श पर एक चादर बिछाते हुए संगिनी से कहा.....
आप आराम से इस पर बैठ जाइए,डरिए मत,आप यहाँ सुरक्षित हैं।।
और फिर संगिनी अपनी धोती का पल्लू अपने कंधों के चारों ओर लपेटते हुए चादर पर बैठ गई,कुछ देर तक कमरे में यूँ ही खामोशी छाई रही,ना फिर सत्या कुछ बोला और संगिनी भी यूँ ही शान्त बैठी रही,कुछ ही देर में बंसी भोजन की थाली लेकर आ पहुँचा और संगिनी के सामने थाली रखते हुए बोला.....
लो बिटिया! खाना खा लो।।
तब संगिनी बोली.....
मामा जी भूखे बैठे हैं और मैं खाना खा लूँ,ये खाना मुझसे ना खाया जाएगा।।
पगली! उस पापी के बारें में इतना सोचती है,चलो खा लो खाना,फिर मैं तेरे मामा के लिए भी थाली ला दूँगा,बंसी बोला।।
नहीं! मैं ये खाना नहीं खा सकती,संगिनी बोली।।
तब बंसी सत्यकाम से बोला....
बाबूसाहेब! आप ही समझाइए संगिनी बिटिया को।।
खा लीजिए ना खाना! देखिए ना बंसी कितना परेशान हो रहा है,सत्यकाम ने संगिनी से कहा.....
सत्या की बात सुनकर संगिनी फूट फूटकर रोने लगी,उसकी ऐसी हालत देखकर सत्या बोला.....
आप रोतीं क्यों हैं?सबके जीवन में सुख दुख तो लगें रहते हैं,लेकिन इन्सान यूँ हिम्मत हार के तो नहीं बैठ जाता,मुश्किलों से लड़ना सीखिए,यूँ रोने धोने से कुछ ना होगा,हौसला रखिए सब ठीक हो जाएगा।।
सत्यकाम की बात सुनकर संगिनी बोली.....
हौसला.....कैसें रखूँ हौसला?माँ-बाप कम उम्र में ही छोड़कर चले गए और ये मामा जी भी जब देखो तब क्या क्या सुनाते रहतें हैं,हाथ भी उठा देते हैं,ऐसे जीवन से तो मर जाना अच्छा।।
शायद अभी आपने दुनिया में दुःखी लोगों को देखा नहीं है,उनका दुख देखेगी तो आपको अपना दुख बहुत कम लगने लगेगा,इसलिए आँसू पोछकर खाना खा लीजिए,फिर बात करते हैं ना!,सत्यकाम बोला।।
हाँ! बिटिया! बाबूसाहेब! सही कहते हैं,पहले खाना खा लो,फिर अपनी बात बताकर अपना जी हल्का कर लेना, बंसी बोला।।
फिर सत्यकाम और बंसी के समझाने पर संगिनी हाथ धोकर खाने बैठ गई,दो दिन से भूखी थी इसलिए जल्दी से पूरी थाली साफ कर दी उसने,संगिनी के खाना खाने के बाद बंसी बोला.....
बिटिया! तुम थोड़ी देर यही बैठो,तुम बाबूसाहेब के पास सुरक्षित हो,मैं ये थाली नीचे रखकर आता हूँ और खाना भी खा लूँगा,क्योंकि रसोई साफ करने का समय हो गया,जो कि मुझे करनी है नहीं तो रसोइया मालिक के पास जाकर मेरी शिकायत लगा देगा,
ठीक है बंसी !तुम जाओ! कमरें के किवाड़ खुले हैं,मैं तब तक छत पर ही टहल लेता हूँ,सत्यकाम बोला।।
नहीं! बंसी काका! मैं भी अब अपने कमरें में जाऊँगीं,मेरे कारण बाबूजी की नींद खराब होती है,संगिनी बोली।।
नहीं! ऐसी कोई बात नहीं है,सत्यकाम बोला।।
नहीं....नहीं....मैं अब जाऊँगीं,कहीं मामाजी की आँख खुल गई और मैं उन्हें कमरें में नहीं मिली तो वें और भी ज्यादा गुस्सा करेगें,संगिनी बोली।।
ठीक है अगर आपको ऐसा लगता है तो आप जा सकतीं हैं,सत्यकाम बोला।।
फिर संगिनी बंसी के साथ नीचें चली गई फिर सत्या ने अपने कमरें के दरवाजे बंद किए और जाकर चारपाई पर लेट गया और संगिनी के बारें में सोचकर थोड़ा परेशान हो गया, यही सोचते सोचते फिर ना जाने कब उसकी आँख लग गई....
सुबह हुई और सत्या सुबह का नाश्ता करके विद्यालय चला गया पढ़ाने के लिए,वहाँ जाकर उसने रात वाली घटना का सारा विवरण मुखर्जी बाबू को सुना दिया,तब मुखर्जी बाबू बोले....
लगता है आपको अपनी जीवन संगिनी मिल गई.....
आप भी कैसा मज़ाक कर रहे हैं मुखर्जी बाबू?वो ना जाने मुझसे उम्र कितनी छोटी होगी और फिर मेरे मन में उसके प्रति ऐसे कोई भी भाव नहीं है,मैं विवाह करने का विचार ही अपने मन से निकाल चुका हूँ,अब ये प्रेम-मौहब्बत जैसी चीजों से मेरा कोई वास्ता नहीं,गृहस्थ जीवन से भी मेरा कोई सरोकार नहीं,सत्यकाम बोला।।
सत्यकाम बाबू!अगर गृहस्थ जीवन में कदम नहीं रखेगें तो जीवन में ठहराव कैसें आएगा?मुखर्जी बाबू बोले...
क्या जीवन में ठहराव के लिए गृहस्थी में फँसना आवश्यक है? सत्यकाम ने पूछा।।
बिल्कुल!ये अल्पविराम भी अति आवश्यक है जीवन के लिए,वो कहते हैं ना कि शादी का लड्डू ऐसा लड्डू है जो खाए वो भी पछताएं और जो ना खाएं वो भी पछताएं,मुखर्जी बाबू बोले।।
तो फिर मुखर्जी बाबू !मुझे इस लड्डू को खाने में कोई दिलचस्पी नहीं,सत्यकाम बोला।।
जैसी आपकी मर्जी! विजय बाबू बोले।।
मुखर्जी बाबू! आप कहाँ की बात कहाँ खींचकर ले गए,वो बेचारी तो हालातों की मारी थी इसलिए छुपने के लिए मेरे कमरें में आ पहुँची और आप हैं कि उसे मेरी जीवन संगिनी बनाने पर तुले हुए हैं,मुझे तो उस पर बहुत दया आई,फूट फूटकर रो रही थी,एक तो अनाथ और ऊपर से उसका कंस मामा,जो उस पर जुल्म ढ़ाता है,सत्यकाम बोला।।
तो फिर सम्भल कर रहिएगा,कहीं आपकी ये दया प्रेम में ना परिवर्तित हो जाएं,क्योंकि कमबख्त इस दिल का कोई भरोसा नहीं होता,क्या पता कब किस पर आ जाएं,मुखर्जी बाबू हँसते हुए बोले।।
देखते हैं कि आपकी बातें कहाँ तक सच होतीं हैं? सत्यकाम बोला।।
अच्छा चलिए! अब मैं चलता हूँ,बाकी बातें बाद में,बच्चों को पढ़ाने का समय हो गया है और ये कहकर मुखर्जी बाबू पढ़ाने चले गए और इधर सत्यकाम उनकी बातें सोच सोचकर मुस्कुराने लगा फिर मन में बोला....
मैं और प्रेम,इस मामले में तो मेरी किस्मत ही खराब है,जिसे मैं चाहता हूँ वो हमेशा मुझसे दूर चला जाता है।।
शाम हुई,विद्यालय की छुट्टी हो गई तो सत्यकाम ने सोचा अब रहने का ठिकाना निश्चित हो गया तो क्यों ना कुछ जरूरत का सामान खरीद लूँ और यही सोचकर वो बाज़ार की ओर चल पड़ा,उसने अपने लिए दो कुर्ते खरीदें,एक चटाई खरीदी,तेल की शीशी,एक ताला और साबुन भी खरीदा,इतना सब सामान लेकर वो अपने कमरें पहुँचा,तब तक दिन ढ़ल चुका था,बंसी ने सत्या को देखा तो बोला....
बाबूसाहेब!आप आ गए,चाय लाऊँ आपके लिए।।
बंसी की बात सुनकर सत्या बोला.....
नेकी और पूछ पूछ,एक प्याला गरमागरम चाय पिला दो तो मज़ा ही आ जाएं।।
बस! आप कमरें में पहुँचकर हाथ पैर धोइएँ,बस मैं अभी चाय लेकर आता हूँ,बंसी बोला।।
सत्या!अपने कमरें में पहुँचा,उसने कपड़े बदलकर हाथ पैर धुले और चारपाई पर बैठकर बंसी की प्रतीक्षा करने लगा,कुछ ही देर में बंसी चाय लेकर कमरें में आ पहुँचा और बोला.....
लीजिए बाबूसाहेब! चाय और गरमागरम आलू की कचौरियांँ।।
वाह....ये तो बहुत ही बढ़िया है,यहाँ का रसोइया तो बड़ा मेहरबान है जो इस मकान के किराएंदारों को शाम की चाय के साथ कचौरियांँ भी परोसता है,सत्यकाम बोला।।
नहीं! बाबूसाहेब! यहाँ का रसोइया मेहरबान नहीं है,ये कचौरियांँ और चाय तो संगिनी बिटिया ने भिजवाई है,उसका मामा आज राशन ले आया था तो उसने आज कचौरियांँ बनाई थीं,कल रात की आपकी दयालुता देखकर उसने आपके लिए ये कचौरियांँ भेजी हैं,बंसी बोला।।
अच्छा! तो उपकार का बदला चुकाया जा रहा है,लेकिन उसे ये सब करने की आवश्यकता नहीं है,उसकी जगह कोई और भी होता तो मैं उसके साथ भी ऐसा करता,सत्यकाम बोला।।
लेकिन बाबूसाहेब! बिटिया! ने ये उपकार का बदला नहीं चुकाया है,बस ऐसे ही भिजवाई थीं कचौरियांँ,बंसी बोला।।
ठीक है तो मैं खा लेता हूँ,मैनें इन्हें खाने से इनकार तो नहीं किया ना! सत्यकाम बोला।।
फिर सत्यकाम ने कचौरियों और चाय का आनंद उठाया,कचौरियांँ वाकई बहुत स्वादिष्ट बनीं थीं,ऐसे ही उस मकान में रहते अब सत्या को एक हफ्ता होने को आया था,एक दिन शाम को जब सत्या अपने विद्यालय से लौटकर कमरें पहुँचा तो छत पर संगिनी मौजूद थी और वों छत पर सूखे हुए कपड़े उठाने आई थीं,संगिनी की नज़र जैसे ही सत्या पर पड़ी तो वो बोली.....
नमस्ते बाबू जी!
सत्या ने एकाएक सुना तो पीछे मुड़कर देखा और बोला.....
अरे!आप! नमस्ते! उस दिन की कचौरियांँ बहुत ही स्वादिष्ट थीं।।
ये सुनकर संगिनी बोली....
जी!धन्यवाद!
और अब आप ठीक तो हैं ना!,सत्या ने पूछा।।
जी!ठीक हूँ! और इतना कहकर संगिनी ने सूखे हुए कपड़े डोरी से उतारें और नींचे चली गई....
और सत्या उसे जाते हुए देखता रहा,फिर उसने अपने कमरें में जाकर अपने कपड़े बदलकर हाथ मुँह धुलें और नीचें फर्श पर चटाई बिछाकर बच्चों की काँपियाँ चेक करने बैठ गया,देखते ही देखते रात के खाने का वक्त हो गया और सत्या को पता भी नहीं चला और बंसी सत्या का रात का भोजन लेकर उसके कमरें में आ भी पहुँचा.....
सत्या ने हाथ धुले और खाने बैठ गया,सत्या खाना खाकर ज्यों ही उठा तो फिर नीचें से उस रात की तरह आवाज़े आने लगी,आज शोर कुछ ज्यादा ही तेज़ था,दयाराम चीख चीख कर कह रहा था कि तुझे इसके साथ जाना ही होगा,मैं अब तेरा खाना-खर्चा नहीं उठा सकता......
दयाराम की आवाज़ सुनकर बंसी बोला.....
बाबूसाहेब! मैं अभी नीचें जाता हूँ,ये थाली मैं बाद में ले जाऊँगा,मुझे लगता है कि संगिनी बिटिया मुसीबत में है,उसे मदद की जरूरत है।।
ठहरो बंसी! मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ,सत्यकाम बोला।।
फिर सत्या ने जल्दी से कमरें के किवाड़ बंद किए और बंसी के साथ नीचें चला गया,वहाँ का दृश्य देखकर वो परेशान हो गया ,वहाँ पूरे मकान के किराएदार इकट्ठे थे और सब वहाँ खड़े होकर तमाशा देख रहे थे लेकिन कोई भी कुछ बोल नहीं रहा था तब सत्या ने दयाराम से पूछा.....
ये क्या हो रहा है?
ये मेरी भाँजी है और मैं इसकी शादी इस सेठ के साथ करना चाहता हूँ लेकिन ये लड़की नहीं मानती,शादी से इनकार करती है,दयाराम बोला।।
तो क्या तुम इस बूढ़े के साथ इनका विवाह करना चाहते हो? सत्या ने पूछा।।
बूढ़ा ही सही लेकिन पैसें वाला तो है ये वहाँ राज करेगी...राज,दयाराम मिस्त्री बोला।।
दिमाग़ खराब हो गया है तुम्हारा,जो इस बूढ़े के साथ इनका विवाह करने चले हो,ये बूढ़ा इनकी तिगुनी उम्र का है,सत्यकाम बोला।।
तो क्या हुआ? ये सेठ मुझे इसके बदले में रूपया भी तो दे रहे हैं,दयाराम बोला।।
इसका मतलब तुमने इनका सौदा किया,लाज नहीं आई तुम्हें ऐसा करते हुए,सत्यकाम बोला।।
मेरे पास खाने के लिए तो जुटता नहीं है तो इसकी शादी कैसें करूँ? मुझे यही तरीका सही लगा तो यही कर रहा हूँ,कोई भी बिना रूपयों के इससे शादी करने को तैयार नहीं तो क्या करूँ? दहेज माँगते हैं सब....दहेज,कहाँ से लाऊँ दहेज,खुद को बेच दूँ क्या? दयाराम बोला।।
तो तुम इन्हें बेच दोगें,सत्यकाम ने पूछा......
बाबूजी! बड़ी बड़ी बातें करना बहुत आसान है,लेकिन करना कठिन है,अच्छा तो आप ही बताओ,आप करेगें इस अनाथ और गरीब लड़की से शादी,अगर करते हैं तो मैं फिर इसका सौदा इस बूढ़े के साथ नहीं करूँगा,दयाराम बोला।।
दयाराम की बात सुनकर सत्या असमंजस में पड़ गया....
तब सत्या को देखकर दयाराम बोला.....
पड़ गए ना! बाबूजी सोच में,वही तो मैं कहता हूँ कि कहना आसान है और करना कठिन।।
मैं ये विवाह करने को तैयार हूँ ,लाइए सिन्दूर मैं अभी इनकी माँग भर देता हूँ।।
ये सुनकर दयाराम परेशान हो उठा,उसे परेशान देखकर सत्या बोला....
अब क्या हुआ? लाइए सिन्दूर!
दयाराम भी कहाँ कम था उसने सोचा सत्यकाम तो ऐसे ही कह रहा है इसलिए भीतर गया और भगवान की अलमारी से सिन्दूर की डिबिया लाकर बोला......
ठीक है तो,ये रहा सिन्दूर! अब भर दीजिए इसकी माँग!
सत्या ने सिन्दूर की डिबिया अपने हाथ में ले ली और उसे खोलकर फौरन ही सिन्दूर निकाल कर संगिनी के पास जाकर उसकी माँग भर दी.......
ये सब देखकर वहाँ मौजूद सभी लोगों की आँखें खुली की खुली रह गईं......

क्रमशः......
सरोज वर्मा.......