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अय्याश--भाग(२१)

कुछ देर में मोक्षदा अपना खाना परोसकर बैठक में पहुँची और सत्यकाम के बगल में अपनी थाली लेकर बैठ गई,जैसे ही सत्यकाम ने मोक्षदा की थाली में आम का नया अचार देखा तो बोला.....
अरे! आप अपने लिए अचार लेकर आईं हैं और मेरी थाली में लौकी की सादी सी सब्जी और रोटी,ये तो बहुत नाइन्साफ़ी है।।
तो तुम मेरी थाली से ये अचार उठा लो,मोक्षदा बोली।।
जी! नहीं! आप अपने लिए लाईं हैं तो आप ही खाएं,सत्यकाम बोला।।
ठहरो! मैं अभी तुम्हारे लिए भी रसोई से अचार लेकर आती हूँ,इतना कहकर मोक्षदा उठने लगी तो सत्यकाम ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा....
जी! आप बैठिए! मैं आपकी थाली से ही अचार ले लेता हूँ...और सत्या ने मोक्षदा की थाली में रखें अचार के दो टुकड़ो में से एक टुकड़ा उठा लिया...
हाथ छोड़ो मेरा! किस अधिकार से हाथ पकड़ते हो,मोक्षदा बोली।।
एक दोस्त के अधिकार से,सत्यकाम बोला।।
इतना सुनते ही मोक्षदा चुपचाप अपनी जगह पर बैठकर खाना खाने लगी,लालटेन की मद्धम रोशनी में कभी वो सत्या को देखती तो कभी अपनी थाली को,जब सत्या का ध्यान मोक्षदा पर जाता तो वो दूसरी ओर देखने लगती,कुछ ही देर में दोनों का खाना खतम हो गया और फिर मोक्षदा सत्यकाम से बोली....
तुम आज छत पर सो जाओ,अन्दर गर्मी बहुत है....
और आप कहाँ सोएगीं?सत्यकाम ने पूछा।।
मैं रसोई वाले आँगन में सो जाऊँगीं,क्योंकि भइया नहीं हैं और काकी भी नहीं है इसलिए छत पर सोओगे तो मुझे अगर कुछ जरूरत महसूस हुई तो आवाज़ देकर आसानी से बुला सकती हूँ और बाहर गली में होतीं आहटें भी पता चलतीं रहेंगीं,मोक्षदा बोली।।
जी! ठीक है,सत्यकाम बोला।।
ऊपर छत पर चारपाई पड़ी है,अपने कमरें से बिस्तर उठाकर ले जाओ,मोक्षदा बोली।।
और फिर मोक्षदा के कहे अनुसार सत्यकाम अपना बिस्तर लेकर छत पर चला और मोक्षदा रसोई वाले आँगन की चारपाई पर ही लेट गई,लेकिन फिर कुछ देर बाद मोक्षदा को प्यास लगी तो उसने चारपाई से उठकर पानी पिया तभी उसे याद आया कि सत्यकाम तो पानी लेकर नहीं गया अगर उसे रात में प्यास लगी तो,यही सोचकर मोक्षदा बिल्कुल छोटी वाली पानी से भरी गागर और गिलास लेकर छत पर पहुँची और सत्यकाम के सिरहाने गागर रख दी.....
मोक्षदा की आहट पाकर सत्यकाम ने पूछा....
आप!सोईं नहीं अब तक....
तुम भी तो जाग रहे हो,मोक्षदा बोली।।
मेरे जागने का कारण तो कुछ और ही है,सत्यकाम बोला।।
कितने ताज्जुब वाली बात है ना सत्यकाम बाबू! तुम्हें तुम्हारे जागने का कारण पता है और मुझे पता ही नहीं है कि मैं क्यों जाग रही हूँ? मोक्षदा बोली।।
और इतना कहकर मोक्षदा जाने लगी तो सत्यकाम बोला.....
जा रहीं हैं,दो घड़ी बैठकर मुझसे बात कर लीजिए,शायद मुझे नीद आ जाए,
तुम्हारी नींद से मुझे क्या लेना देना? मैं जाती हूँ,मोक्षदा बोली।।
इतनी निष्ठुर ना बनिए,सत्यकाम बोला।।
क्यों ?तुम तो निष्ठुर के साथ साथ निर्मोही भी हो, उसका क्या?मोक्षदा बोली।।
ठीक है जाना चाहतीं हैं तो जाइएं अब ना रोकूँगा,सत्यकाम बोला।।
मुझे पता था कि तुम ऐसा ही कहोगे,तुम्हारे पास रूकना ही कौन चाहता है? तुम निष्ठुर,निर्मोही के साथ साथ दुष्ट भी हो,राक्षस भी हो ,बस इतना अन्तर है कि भगवान ने तुम्हें शकल सूरत अच्छी दी है,बड़े बड़े दाँत और चपटी नाक देनी चाहिए थी,मोक्षदा गुस्से से बोली।।
चलिए आपने ये तो कहा कि मेरी सूरत अच्छी है,सत्यकाम बोला।।
उसी सूरत का तो घमण्ड करते फिरते हो,मोक्षदा बोली।।
मेरे पास घमण्ड करने लायक कुछ भी नहीं है देवी जी!सत्यकाम बोला।।
तुम्हारी बकवास सुनने का मेरे पास समय नहीं है,मैं अब यहाँ से जाती हूँ और इतना कहकर मोक्षदा गुस्से से भनभनाते हुए सीढ़ियों से नीचे उतरकर अपने बिस्तर पर आकर लेट गई......
और मन ही मन बडबड़ाने लगी.....
बड़ा आया अकलमंद,एक यही तो दुनिया में समझदार है बाकि सब बेवकूफ जो ठहरे,ना जाने क्या समझता है खुद,जैसे कहीं का राजा महाराजा हो.....
तभी छत से सत्यकाम की आवाज़ आई.....
राजा महाराजा नहीं हूँ देवी जी!मैं तो भिखारी हूँ.....भिखारी....वो भी रास्ते का,आपके भइया मुझे रास्ते से उठाकर लाएं थे....
तुम सब सुन रहे हों,मोक्षदा ने पूछा।।
जी! हाँ!,सत्यकाम बोला।।
हाँ!हाथी जैसे कान है ना तुम्हारे इसलिए तुमने सब सुन लिया..,मोक्षदा बोली।।
खुशी हुई जानकर कि मेरे कान हाथी जैसे हैं,तारीफ के लिए शुक्रिया,सत्यकाम फिर से बोला।।
सत्यकाम की बात सुनकर मोक्षदा मन ही मन मुस्कुराई लेकिन फिर बोली कुछ नहीं और चुपचाप आँगन में पड़ी चारपाई पर लेट गई,लेकिन दोनों की आँखों में नींद नहीं थी,कारण एक ही था,फर्क इतना था कि मोक्षदा अपने मन की बात कह चुकी थी और सत्यकाम ने अपने मन के भावों को भीतर ही छुपा रखा था,लेकिन इन्सान कितना भी अच्छा हो पर वो खुदा तो नहीं बन सकता,अगर इन्सान खुदा बन सकता तो शायद दुनिया से अब तक ग़मों का नामोनिशान मिट गया होता....
खैर ये दिल के खेल और रतजगों के बारें में वो ही जानता होगा जिसने कभी किसी को हृदय से चाहा हो,प्रेम के सागर में गोते लगाएं हो,हृदय की बातें वो ही समझ सकते हैं जिसने कभी किसी को हृदय की तलहटी से प्रेम किया हो,क्यों कि प्रेम में डूबे व्यक्ति के मस्तिष्क और हृदय हमेशा विपरीत दिशा में कार्य करते हैं,क्योंकि हृदय और मस्तिष्क कभी एक जैसा नहीं सोच पाते......
वहीं इन दोनों के साथ हो रहा था,दोनों का हृदय प्रेम से भरा था लेकिन सामाजिक बंधनरूपी बेड़ियों ने उनके मस्तिष्क को जकड़ रखा था,इसलिए मुक्त होकर अपने अपने प्रेम को स्वीकार करना उनके वश में नहीं था,कहा जाए तो जीवन ऐसा ही है सभी को मन चाही चीज नहीं मिलती और जिसे मिल जाती है वो उसकी कद्र नहीं करता,वैसे कहा जाए तो सभी समस्याओं का समाधान है,सबका जीवन सरल हो सकता है लेकिन स्वयं इन्सान ने ही अपना जीवन कठिन बना रखा है,ना ना प्रकार के बंधन और परम्पराओं को वो सदियों से अपने बुजुर्गो की धरोहर मानता आया है और उस धरोहर को सम्भाल कर रखना अपना धर्म समझता है,शायद सामाजिक बंधनों और परम्पराओं के बिना हम जीवन जीने के बारें में सोच ही नहीं सकते,ये सामाजिक बंधन ही शायद हमारी संस्कृति की पहचान हैं और इनके बिना हमारा कोई भी मूल्य नहीं,हम निराधार है,इसलिए हम इन परम्पराओं को मानने हेतु विवश हो जाते हैं....
और दोनों ही कुछ देर बाद सो गए,करीब आधी रात के वक्त जोर की आँधी आईं जो कि अक्सर गर्मियों में ऐसा होता है,तब तक सत्यकाम भी जाग चुका था लेकिन नीचे अपने कमरें में जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था क्योकिं मोक्षदा ने रात को उसे छत पर सोने की हिदायत जो दी थी,
एकाएक तभी किसी आवाज़ से मोक्षदा की नींद टूटी उसे कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ? तभी गौशाला से गाय और बछड़े के रंभाने की आवाज़ आई और वो लालटेन लेकर घर के पीछे बने कुएँ वाले आँगन की ओर पहुँची,उसने देखा कि आँधी से छप्पर गिर चुका है और छप्पर को साधने वाली मोटी लकड़ियाँ माँ बेटे के ऊपर गिरी पड़ीं हैं,मोक्षदा ने लालटेन जमीन पर रखी और उन लकड़ियों को जोर लगाकर उन दोनों पर से हटाने लगी....
वो उन दोनों पर से मोटी लकड़ियाँ हटाने में तो कामयाब हो गई लेकिन वो लकड़ियाँ उससे सँधी नहीं और उसके ऊपर ही आ गिरी और वो उनमें दब गई,उन्हें अपने ऊपर से हटाने की कोशिश करने लगी लेकिन वो हटा नहीं पा रही थी,ये देखकर गाय और बछड़ा और जोर से रंभाने लगें,उनके रंभाने की आवाज़ सुनकर सत्यकाम को चिंता हुई और वो नीचें आया,उसने देखा कि चारपाई पर मोक्षदा नहीं है इसलिए वो भी कुएँ वाले आँगन में पहुँचा और वहाँ का दृश्य देखकर उसके होश उड़ गए......
वो फौरन ही मोक्षदा के पास पहुँचा और उसके ऊपर गिरी लकड़ियों को उसने उठाया,फिर उसने सारे छप्पर को एक ओर किया,गाय और बछड़े को खोल दिया फिर मोक्षदा को गोद में उठाकर मोक्षदा के कमरें में लाकर बिस्तर पर लिटा दिया,तब तक बारिश होने लगी,तब मोक्षदा बोली.......
मुझे छोड़ो पहले तुम गाय और बछड़े को सूखी जगह पर बाँध दो ,उनका छप्पर भी टूट गया है,वें भींग जाएगें.....
सत्या फौरन ही बाहर आया और उन दोनों को उस कोठरी में बाँध दिया जहाँ ईधन वाली लकड़ियाँ और उपले रखें रहते थे,फिर फौरन ही आकर उसने मोक्षदा से पूछा......
कहीं ज्यादा चोट तो नहीं आई.....
तब मोक्षदा बोली.....
जब चोट हृदय पर लगी हो तो कोई भी पीड़ा कष्टदायी नहीं लगती।।
पहेलियाँ मत बुझाइए,साफ साफ बताइएं,सत्यकाम ने गुस्से से पूछा......
कमर में और पैरों में चोट आई है,मोक्षदा बोली....
सत्यकाम फौरन लालटेन लेकर रसोई में पहुँचा,चूल्हें में एक उपला सुलगाया और एक कटोरी में हल्दी और तिल का तेल गुनगुना करके लेकर आया और मोक्षदा से बोला चोट वाली जगह पर लगा लीजिए....
मोक्षदा ने अपने पैर की एड़ी में लगी चोट पर तेल और हल्दी का लेप लगा लिया लेकिन अपनी कमर तक उसका हाथ नहीं पहुँचा तो बोली....
रहने दो,मैं नहीं कर सकती हाथ नहीं पहुँच रहा....
मै कुछ मदद कर दूँ,अगर आपको एतराज ना हो तो,सत्यकाम बोला।।
इस दर्द पर तो तुम लेप लगा दोगें लेकिन जो तूफान मेरे दिल में छुपा है उसका इलाज कैसे करोगे? मोक्षदा ने पूछा....
आपने फिर से फालतू बातें शुरू कर दीं,सत्यकाम बोला।।
सच में तुम्हें लगता है कि ये फालतू बातें हैं,मोक्षदा बोली।।
देखिए! आप जिद कर रहीं हैं,सत्यकाम बोलना।।

किसी को चाहना अगर जिद है तो इसे जिद ही समझो,मोक्षदा बोली।।
बहस मत कीजिए,लाइए मैं लेप लगा दूँ,जल्दी आराम लग जाएगा,सूजन आ जाएगी तो दिक्कत हो जाएगी,सत्यकाम बोला।।
लेकिन सत्यकाम की बातों को मोक्षदा नजरअंदाज करते हुए बोली....
एक बार मेरी आँखों में आँखों डालकर कह दो कि तुम मुझे नहीं चाहते,
हाँ! नहीं चाहता मैं आपको,सत्यकाम बोला।।
उस तरफ मुँह करके मत बोलो सत्यकाम!मेरी आँखों में आँखें डालकर बोलो....
मोक्षदा ने सत्यकाम का चेहरा अपने हाथों में लेकर ये पूछा.....
अब ये सुनकर सत्यकाम फफक पड़ा और बोला....
मोक्षदा मुझे मजबूर मत करों,मैं तुम्हारी आँखों में देखकर झूठ नहीं बोल सकता.....
तो फिर जो दिल में है कह क्यों नहीं देते? अपने साथ साथ क्यों मुझे भी सजा देते हो,मोक्षदा चीख पड़ी.....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....


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