अय्याश--भाग(१७) Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

अय्याश--भाग(१७)

सत्यकाम तो चला गया लेकिन उसकी बातों ने मोक्षदा के मन में हलचल मचा दी,मोक्षदा ने सोचा ऐसा कुछ गलत तो कहकर नहीं गया सत्यकाम,मेरे मन में यही सवाल तो उठते हैं अक्सर,जिनके जवाब मैं ढूढ़ नहीं पाती,इस दुनिया में कोई तो ऐसा है जिसके मन में भी मेरे मन की तरह ही सवाल उठते हैं,अक्सर ये समाज रीतिरिवाजों का आवरण ओढ़ाकर कैसें हमारे अन्तर्मन को ढ़क देता है,माना कि इस समाज से अलग रहकर कोई भी इन्सान नहीं रह सकता लेकिन लोगों को गलत रीतिरिवाजों की बलि क्यों चढ़ाया जाता है?बस इसलिए कि ये परम्पराएँ हमारे बुजुर्गों ने बनाईं थी इसलिए उन्हें तोड़कर नए नियम नहीं बनाएं सकते,
क्या एक जीवित स्त्री का अपने मृत पति के साथ सती हो जाना जायज़ है? क्या एक विधवा को रंगों से दूर रखना समाज की रीति है,ऐसे कुरीतियों के कारण मुझ जैसी ना जाने कितनी विधवाएँ एक खुशहाल जीवन जीने को तरसती हैं,सावन में बारिश की बूँदों को देखकर क्या एक विधवा का मन किसी के साथ को नहीं ललचाता?क्यों उसे अपने यौवन को यूँ ही जीवन भर सहेज कर रखना पड़ता है,उमंगें तो उसके मन में भी होतीं हैं,भावनाएं तो उसके मन में भी उठतीं होगीं,वो भी तो और स्त्रियों की भाँति किसी की पत्नी और किसी की माँ कहलाना चाहती है फिर उसे इन सब पारिवारिक खुशियों से क्यों दूर रखा जाता है?क्यों दोबारा उसकी सूनी माँग में सिन्दूर नहीं भर सकता?क्यों दोबारा उसकी हथेलियों पर मेंहदी नहीं रच सकती....?
मोक्षदा ये सब सोच ही रही थी तभी अमरेन्द्र उसके पास आकर बोला.....
अब तेरा जी कैसा है?तबियत ठीक ना हो तो वैद्य को बुलवाऊँ।।
ना भइया! वैद्य जी को बुलवाने की जरूरत नहीं है,अब मैं ठीक हूँ,मोक्षदा बोली।।
ठीक है तो तू अब आराम कर,मैं अब अपने कुछ काम निपटा लूँ,अमरेन्द्र बोला।।
ठीक है भइया!मोक्षदा बोली।।
फिर अमरेन्द्र अपना काम करने चला गया,इतने में झुमकी काकी मोक्षदा के पास आकर बोली.....
बिटिया! लो ये ठंडी छाछ पी लो,तुम्हें अच्छा लगेगा,
मेरा मन नहीं है काकी!छाछ पीने का,मोक्षदा बोली।।
तभी पीछे से सत्या आकर बोला.....
रहने दो काकी ! लोगों को दूसरों का सेवाभाव समझ में नहीं आता,मैनें जीरा भूनकर,काली मिर्च और काला नमक मिला देवी जी के लिए छाछ तैयार की वो इसलिए कि इनका मन अच्छा हो जाएगा क्योकिं गर्मियों के बुखार में छाछ लाभदायक होता है लेकिन मेरी मेहनत बेकार हो गई....
तो क्या ये छाछ तुमने मेरे लिए बनाई थी?मोक्षदा बोली।।
नहीं! खण्डहर वाली चुड़ैल के लिए,सत्या बोला।।
तो क्या मैं तुम्हें चुड़ैल दिखती हूँ? मोक्षदा बोली।।
दिखती तो नहीं हो लेकिन हरकतें किसी चुड़ैल से कम नहीं हैं,सत्या बोला।।
क्या कहा? मेरी हरकतें चुड़ैल जैसी हैं,मोक्षदा ने पूछा।।
जी! हाँ देवी जी,हर वक्त खिजियाई सी रहती हैं आप,सत्या बोला।।
तुम मेरे मन का हाल नहीं जानते इसलिए ऐसा कहते हो,मोक्षदा बोली।।
सभी के पास समस्याएं होतीं हैं लेकिन सबका व्यवहार आपकी तरह नहीं हो जाता,सत्या बोला।।
तुम पुरूष हो सत्या बाबू इसलिए तुम्हारे लिए ये कहना बहुत सरल है,मोक्षदा बोली।।
पहले ये छाछ पी लीजिए फिर बाद में बात करते हैं,सत्या बोला।।
तुम भी बहुत अजीब हो,पहले कड़वी गिलोय पिलाते हो और बाद में ठंडी छाछ,तुम्हारी बातें भी ऐसी ही है कभी तो कड़वा सच,तो कभी दिल को सुकून देने वाली तसल्ली भरी बातें,तुम बहुत ही उलझे हुए इन्सान मालूम होते हो,मोक्षदा बोली।।
सच कहती हैं आप!उलझा हुआ तो हूँ मैं,समाज के इन दकियानूसी विचारों में,सत्या बोला।।
तुम्हें समाज के रीतिरिवाज़ों से आपत्ति क्यों है?मोक्षदा ने पूछा।।
सभी रीतिरिवाजों से आपत्ति नहीं है,बस कुछ ही रिवाज मुझे कचोटते हैं,सत्या बोला।।
वो कौन से रिवाज़ हैं जो तुम्हें पसंद नहीं है,मोक्षदा ने पूछा।।
देवी जी!इस विषय पर फिर कभी बात करेगें,पहले ये बताइए कि दोपहर के खानें में मूँग की दाल और भात बना लूँ,सत्या ने पूछा।।
मेरी वज़ह से तुम्हें कितनी परेशानी उठानी पड़ रही है,मोक्षदा बोली।।
ऐसी कोई बात नहीं है देवी जी! आप को भी बीमार पड़ कर कुछ मज़ा थोड़े ही आ रहा होगा,मन और तन का भरोसा नहीं रहता,मन कभी भी उड़कर मीलो दूर पहुँच जाता है और जरा सी लापरवाही से तन बिगड़ जाता है,इसलिए तो कहता हूँ कि ज्यादा चिड़चिड़ मत किया कीजिए,खुश रहेगीं तो कभी भी बीमार नहीं पड़ेगीं,सत्या बोला।।
कहना सरल है लेकिन करना बहुत ही कठिन,मोक्षदा बोली।।
दुनिया में कुछ भी कठिन नहीं है बस ठानना पड़ता है,सत्यकाम बोला।।
पुरुषों के लिए सब कुछ सरल होगा सत्या बाबू लेकिन स्त्रियों के लिए नहीं,मोक्षदा बोली।।
जी !काफी हद तक मैं आपसे सहमत हूँ,सत्या बोला।।
लेकिन पुरुषों का जीवन भी इतना सरल नहीं होता जैसा कि आप सोचतीं हैं,सत्यकाम बोला।।
क्यों ? आप पुरुषों को तो पूर्ण स्वतंत्रता होती है,कोई भी कार्य सरलता से कर सकते हैं,मोक्षदा बोलीं।।
आप मेरी जगह होतीं तो ऐसा कभी ना सोचतीं,सत्यकाम बोला।।
क्यों? तुम्हारे साथ ऐसा क्या हुआ है? मोक्षदा ने पूछा।।
ये बातें अभी रहने दीजिए क्योकिं मेरे पास अब समय नहीं है मैं दोपहर का भोजन बनाने जा रहा हूँ और सत्या एक बार फिर से मोक्षदा के लिए कई सवाल छोड़कर चला गया......
कुछ देर बाद सत्या ने दोपहर का भोजन तैयार कर लिया और अमरेन्द्र को बुलाने के लिए झुमकी काकी को भेजा,अमरेन्द्र रसोई में आया और सत्यकाम से बोला.....
वाह....मुनीम जी खुशबू तो बहुत अच्छी आ रही है,क्या क्या बना डाला?
बस,ऐसा कुछ खास नहीं,मूँग की दाल बनाई है घी हींग हरी मिर्च का बघार लगाके,साथ में भात,प्याज की चटनी,राई के बघार वाला छाछ,खीरे और प्याज का सलाद,इतना ही,सत्या बोला।।
इसे आप कम कहते हैं,अमरेन्द्र बोला।।
झुमकी काकी! ये थाली देवी जी को दे आओ,फिर मैं तुम्हारी थाली में भी खाना परोसे देता हूँ,सत्यकाम बोला।।
ठीक है सत्या बाबू!और इतना कहकर झुमकी काकी मोक्षदा की थाली लेकर चली गई.....
इधर अमरेन्द्र और सत्या भी भोजन करने लगें साथ में रसोई के बाहर झुमकी काकी खाना खाने लगी,भोजन बहुत ही स्वादिष्ट था,सबको बहुत पसंद आया,खाना खाने के बाद सब आराम करने चले गए....
शाम हुई तो शाम की चाय भी सत्या ने ही बनाई और फिर अमरेन्द्र की चाय और अपनी चाय लेकर वो अमरेन्द्र के पास पहुँचा,सत्या ने देखा कि अमरेन्द्र कुछ जरूरी कागजात देख रहा था,सत्या ने उसके काम विघ्न डालना उचित नहीं समझा,इसलिए उसने उसके बगल में चाय रख दी और अपनी चाय लेकर वो सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर खुली हवा में चाय पीने चला गया,वो छत पर पहुँचा था ही कि उसने देखा कि मोक्षदा वहाँ पहले से खड़ी छत की चारदीवारी के बाहर पेड़ पर बैठे पंक्षियों को बड़े ध्यानमग्न होकर देख रही है,सत्या मोक्षदा के पास पहुँचा और उससे बोला.....
अरे! आप भी यहीं हैं।।
अचानक से सत्यकाम की आवाज सुनकर मोक्षदा चौकीं और उसने अपने पीछे देखा,वो सत्या को देखकर बोली....
अरे! तुम! डरा ही दिया तुमने तो।।
इतने ध्यानमग्न होकर क्या देखा जा रहा था?,सत्या ने पूछा।।
बस,इन पंक्षियों को देख रही थी,कितने स्वतंत्र हैं ये,कोई भी सामाजिक बन्धन नहीं,कोई भी लोक-लाज की फिकर नहीं,बस इस डाल से उस डाल फुदकते रहते हैं,कभी तो खुले आसमान में उड़ते हैं तो कभी धरती पर विचरते हैं तो कभी किसी नदी तालाब में तैरते हैं,सोच रही थी कि कितना अच्छा जीवन होता होगा ना इनका,मोक्षदा बोली।।
ओह...तो ये सोंच रहीं थीं आप! वैसे एक बात बोलूँ,जो दिखता है वैसा होता नहीं है,संघर्ष इन पंक्षियों के जीवन में भी कम नहीं होते,सत्या बोला।।
तुम्हारी बात भी ठीक है,वैसे तुम्हें कैसें पता चला कि मैं छत पर हूँ,मोक्षदा बोली।।
मैं तो यूँ ही चला आया,मुझे क्या मालूम कि आप भी यहाँ होगीं?सत्यकाम बोला।।
दिनभर से बिस्तर पर लेटे लेटे जी ऊब गया था इसलिए छत की खुली हवा में चली आई,मोक्षदा बोली।।
खुली हवा की जरूरत तो सबको होती है,सत्या बोला।।
जी! जब जीवन घुटन देने लगें तो ये खुली हवा संजीवनी का काम करती है,मोक्षदा बोली।।
पता है मोक्षदा जी! इन्सान की सबसे बड़ी समस्या क्या है कि वो चींजे छोड़ना नहीं चाहता,भारमुक्त नहीं होना चाहता है,इसलिए वो स्वयं से परेशान रहता है,क्योंकि सिर पर बोझा लादने की उसको आदत सी पड़ जाती है और फिर सिर पर जितना भार बढ़ता है तो उतनी ही परेशानी भी बढ़ जाती है,पता है मैनें अपने जीवन में केवल यही सीखा है,जो मुक्त होना चाहता है उसे मुक्त कर दो क्योकिं अगर वो तुम्हारा होगा तो कभी ना कभी तुम्हारे पास लौट ही आएगा,एक बात और कहूँ आपको इस संसार में केवल एक ही इन्सान खुशी दे सकता है और वो इन्सान आप स्वयं होते हैं,किसी से उम्मीद लगाने पर आपको निराशा ही हाथ लगेगी इसलिए स्वयं को खुश रखना सीखिए,फिर देखना आपको अपना जीवन खुशहाल लगने लगेगा,सत्या बोला।।
ये गूढ़तम ज्ञान की बातें मैं नहीं जानती और ना ही समझना चाहती हूँ,कृपया तुम अपना ज्ञान अपने पास ही रखों,मोक्षदा बोली।।
अरे! आप तो नाराज़ हो गई,सत्या बोला।।
जी! नहीं! मुझे तुम्हारी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है,मोक्षदा बोली।।
और इतना कहकर मोक्षदा छत पर से चली गई.....
फिर सत्यकाम ने मोक्षदा को ना रोका और ना कुछ कहा,कुछ देर बाद वो नीचें पहुँचा तो अँधेरा गहराने लगा था,उसने झुमकी काकी से कह दिया कि वो अब रात का खाना तैयार करने जा रहा है,क्या क्या तरकारी आई है खेत से?
सत्या बाबू!ये तीन चार ताजी लौकीं,कुछ बैंगन,करेले और हरी मिर्च हैं,इसमें से देख लो कि आप क्या पका सकते हो,झुमकी काकी बोली.......
लौकीं बना लेते हैं,मैं बहुत अच्छे से बना लेता हूँ साथ में बैंगन का भरता भी बना लेता हूँ क्योकिं उसमें ज्यादा समय नहीं लगता और रोटियाँ सेंक देता हूँ,सत्या बोला।।
और फिर सत्या ने रात का भोजन बनाना प्रारम्भ कर दिया,झुमकी काकी ने फटाफट तरकारियाँ काट दी और सत्या सब्जी झौंककर आटा गूँथने लगा,तब तक अँगारों में बैंगन में भुन गए,सब्जी पकने के बाद सत्या ने भरता तैयार करके एक ओर रख दिया फिर रोटियाँ सेंकने लगा और झुमकी काकी से बोला कि अमरेन्द्र बाबू से जाकर कहो कि खाना तैयार है.....
सबने खाना खाया लेकिन मोक्षदा ने भोजन करने से इनकार कर दिया ,उसने झुमकी काकी से कहलवा दिया कि उसे भूख नहीं है,सत्या को महसूस हुआ कि शायद मोक्षदा को उसकी बात बुरी लग गई इसलिए उसने भोजन करने से इनकार कर दिया........

क्रमशः.......
सरोज वर्मा.....