अय्याश--भाग(१५) Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अय्याश--भाग(१५)

स्नान करने के बाद जब सत्या और अमरेन्द्र भोजन करने बैठें तो अमरेन्द्र के घर की बूढ़ी नौकरानी झुमकी भोजन से परोसी हुई पीतल की थालियाँ लेकर उपस्थित हुई,झुमकी को देखकर अमरेन्द्र बोला....
अरे! झुमकी काकी ! तुम खाना परोस रही हो,मोक्षदा कहाँ हैं?
जी! छोटे मालिक वो मोक्षदा बिटिया तो रसोई में हैं,कहतीं थीं कि तुम ही भोजन दे आओ,झुमकी बोली।।
वो क्यों नहीं आती भला भोजन परोसने ? अमरेन्द्र ने पूछा।।
बिटिया कहती थी कि उन्होंने मेहमान से अच्छा व्यवहार नहीं किया,झुमकी बोली।।
पगली कहीं की!झुमकी काकी!उससे कहो कि मेहमान ने उसकी बातों का बुरा नहीं माना,अमरेन्द्र बोला।।
ठीक है तो मैं बता देती हूँ,इतना कहकर झुमकी रसोई में चली गई और फिर दोनों भोजन करने लगे,झुमकी रसोई में पहुँची और मोक्षदा से बोली....
बिटिया! छोटे मालिक कहते हैं कि खाना तुम ही परोस दो,मेहमान जी गुस्सा नहीं है....
नहीं काकी! अभी तुम परोस दो,शाम का भोजन मैं परोस दूँगी,मोक्षदा बोली।।
ठीक है बिटिया! जैसा तुम ठीक समझो,झुमकी बोली।।
सत्या ने बड़े दिनों बाद जीभर कर खाना खाया था,मोक्षदा ने खाना भी अच्छा बनाया था,अमरेन्द्र ने भी सत्या की खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ी थी,खाना खाने के बाद अमरेन्द्र ने सत्या को उसका कमरा दिखाया और बोला.....
आज से आप इसी कमरें में रहेगें....
जी! बहुत बढ़िया,बड़ा आभार आपका जो आपने मुझे नौकरी और सिर छुपाने की जगह दी,सत्या बोला।।
इसमें आभार कैसा? आपको नौकरी की जुरूरत थी और मुझे मुनीम की,हम दोनों ने एक दूसरे की जरुरत को पूरा कर दिया,अमरेन्द्र बोला।।
लेकिन फिर भी आपका बहुत बहुत धन्यवाद,नहीं तो मैं यूँ ही मारा मारा ही फिरता रहता,सत्यकाम बोला।
मैने कुछ नहीं किया,ये सब खेल तो वो ऊपर वाला रचता है,वो जैसे हमें नचाता है तो हम नाचते जाते हैं,आपके भाग्य में अब यहाँ रूकना लिखना था इसलिए उन्होंने आपको यहाँ भेज दिया,अमरेन्द्र बोला।।
शायद आप ठीक कहते हैं,सत्यकाम बोला।।
जी! ये देखिए आपकी इस वाली खिड़की से बाहर वाला आम का बगीचा दिखता है और इस वाली खिड़की से घर का आँगन दिखता है,दोनों खिड़कियाँ खोलने पर ग़जब की हवा आती है,ये आपका बिस्तर है और इस अलमारी में काफी किताबें है जो आपके काम आ सकतीं हैं,पानी के लिए मैनें सुराही रखवा दी है और कुछ जरूरत हो तो बताइएगा,संकोच मत कीजिएगा,अब आप आराम करें शाम को बातें होगीं और इतना कहकर अमरेन्द्र सत्या के कमरें से चला गया....
अमरेन्द्र के जाने के बाद सत्या ने अलमारी खोली और उसमे से अपनी पसंद की एक किताब निकालकर अपने बिस्तर पर लेटकर पढ़ने लगा,किताब पढ़ते पढ़ते उसे ना जाने कब नींद आ गई......
सत्या जब तक जागा तो तब तक काफी शाम हो चुकी थी,उसे आँगन से कुछ आवाज़ आई तो उसने अपनी खिड़की से झाँककर देखा तो वहाँ मोक्षदा गाय का दूध दोह रही थी,गाय के बगल में एक बछड़ा वहीं गड़े खूँटे से बँधा था जो बार बार अपनी माँ के पास आना चाह रहा था,तब मोक्षदा उस बछड़े से बोली.....
थोड़ा सबर कर ले गुन्नू बस अभी दूध दोह कर तुझे खोले देती हूँ तो तू भी अपनी माँ का दूध पी लेना....
जब मोक्षदा की पीतल की बाल्टी दूध से भर गई तो उसने झुमकी को बुलाया.....
ओ....झुमकी काकी! जरा ये दूध से भरी बाल्टी तो ले जाओ,
मोक्षदा की पुकार सुनकर झुमकी आँगन में आई और दूध से भरी बाल्टी उठाकर रसोईघर की ओर चल पड़ी...
तब मोक्षदा काकी से बोली....
काकी! इसे बड़ी वाली बटलोई में पलटकर चूल्हे पर धीमी आँच में चढ़ा दो ,मैं अभी आती हूँ,फिर रात की रसोई भी तो बनानी है....
ठीक है बिटिया! और इतना कहकर झुमकी काकी चली गई.....
सत्यकाम सोकर जागा था तो उसे मुँह धुलने की इच्छा हो रही थी और हाथ मुँह धुलने के लिए तो कुँए पर जाना होगा और वहाँ पर मोक्षदा थी,सत्या ने मन मे सोचा कि कहीं ऐसा ना हो कि वो कुएँ पर हाथ मुँह धुलने जाएं तो मोक्षदा उस पर पहले की तरह फिर से भड़क उठे.....
लेकिन उसे मुँह धोने की वाकई इच्छा हो रही थी इसलिए उसने अपने जी को कड़ा किया और आँगन में पहुँच गया,वहाँ उसने देखा कि मोक्षदा बछड़े को प्यार कर रही है,सत्यकाम ने चुपचाप बाल्टी उठाई और कुएँ में लटका कर बाल्टी में पानी भरने पर उसे खींचने लगा,बाल्टी खीचने की आवाज़ से मोक्षदा का ध्यान आवाज़ की ओर गया तो उसने मुड़कर देखा तो वो सत्यकाम था और उसने जैसे ही सत्यकाम को देखा तो घबराकर रसोई की ओर जाने लगी,
वो जल्दबाजी में गुन्नू को बाँधना भूल गई और गुन्नू भी मोक्षदा के पीछे..पीछे....मा....मा....करते चल पड़ा,गुन्नू को अपने पीछे आता देख मोक्षदा बोली.....
गुन्नू! चल जा! अपनी माँ के पास जा।।
लेकिन गुन्नू कहाँ मानने वाला था और वो नहीं चाहता था कि मोक्षदा उसके पास से जाएं.....
ये देखकर सत्यकाम को हँसी आ गई,सत्या को हँसता देखकर मोक्षदा को गुस्सा आ गया और वो बोली....
क्यों जी! हँसते क्यों हों? यहाँ कोई हास्य प्रतियोगिता चल रही है क्या?
हास्य प्रतियोगिता तो नहीं चल रही है लेकिन अगर कोई अपना उपहास स्वयं ही उड़वाना चाहे तो मैं क्या करूँ?सत्या बोला।।
बड़े विद्वान बने फिरते हो जी! स्वयं को बहुत बड़ा ज्ञानी समझते हो,मोक्षदा बोली।।
जी!मैं कोई ज्ञानी या विद्वान नहीं हूँ,बस मैं तो ऐसे ही कह रहा हूँ,सत्या बोला।।
अभी तो बड़ा बोल रहे हो, दोपहर में नहीं बोल सकते थे कि तुम भइया के साथ यहाँ आएं हो,मोक्षदा बोली।।
जी! आपने मौका ही नहीं दिया,सत्या बोला।।
ठीक है.....ठीक है.....नाम क्या है तुम्हारा? मोक्षदा ने पूछा।।
जी! सत्यकाम चतुर्वेदी ,वैसे मुझे सब सत्या भी कहते हैं,सत्यकाम बोला।।
वो सब तो ठीक है,पहले ये बताओ चाय पिओगे,भइया के लिए बनाने जा रही थी,तुम कहो तो तुम्हारे लिए भी बना लूँ,मोक्षदा बोली।।
मेरे लिए चाय पीना इतना जरूरी नहीं है ,सत्या बोला।।
तुम किसी बात का ठीक से जवाब नहीं दे सकते क्या? मोक्षदा गुस्से से बोली।।
ठीक से ही तो जवाब दिया है मैनें,सिर के बल थोड़े ही खड़े होकर बोल रहा हूँ,सत्यकाम बोला।।
तुमसे तो बात करना ही बेकार है,ऐसा करो बैठक में चले जाओ,भइया भी वहीं होगें,मैं थोड़ी देर में चाय लेकर आती हूँ और इतना कहकर मोक्षदा चली गई.....
कुछ ही देर में सत्यकाम बैठक में जा पहुँचा,जहाँ पहले से ही अमरेन्द्र बैठा बहीखाते देख रहा था,शायद उसे कुछ रूपयों का हिसाब नहीं मिल रहा था,ज्यों ही अमरेन्द्र ने सत्यकाम को देखा तो बोला...
आ गए मुनीम साहब! आप ही इन बहीखातों का हिसाब मिला दीजिए,मुझसे तो नहीं हो पा रहा है....
लाइए तो जरा देखूँ कि कहाँ गड़बडियांँ हो रही हैं,सत्यकाम बोला।।
और फिर सत्या ने ज्यों ही हिसाब मिलाना शुरू किया तो थोड़ी ही देर में सारा हिसाब मिल गया,तब तक मोक्षदा चाय लेकर बैठक में आ चुकी थी,मोक्षदा चाय के साथ आलू की पकौडियांँ भी लेकर आई थी,उसने चाय रखी और बैठक से चली गई.....
अमरेन्द्र और सत्या बातें करते-करते चाय पीने लगें,तभी झुमकी बैठक में आई और अमरेन्द्र से बोली.....
छोटे मालिक! बिटिया ने पुछवाया है कि रात के खाने में क्या बनेगा?
अरे! मुझसे क्या पूछती हो?मोक्षदा से कहो कि कुछ भी बना ले,अमरेन्द्र बोला।
ये सुनकर झुमकी रसोई में चली लेकिन कुछ देर बाद फिर से बैठक में वापस आई और अमरेन्द्र से बोली....
छोटे मालिक! बिटिया कहती है कि वैसे तो वो कुछ भी बना लेती लेकिन घर में मेहमान है तो कुछ अच्छा ही बनाना पड़ेगा ना!
तब अमरेन्द्र मुस्कुराते हुए बोला......
झुमकी काकी!जाकर मोक्षदा से कह दो कि अब ये मेहमान नहीं हैं,ये अब से हमारे यहाँ ही रहेगें,मैनें इन्हें अपना मुनीम नियुक्त कर लिया है.....
तब तो ठीक है,मैं जाकर बिटिया से कहें देती हूँ और इतना कहकर झुमकी काकी वहाँ से चली गई.....
कुछ ही देर में रात का खाना तैयार हो चुका था और तब मोक्षदा ने झुमकी से कहा कि भइया से पूछकर आओ कि खाना लगा दूँ....
और फिर झुमकी अमरेन्द्र के पास आकर बोली....
छोटे मालिक! खाना बन गया है,बिटिया खाने के लिए बुला रही हैं....
हाँ....हाँ....खाना लगवाओ, हम दोनों अभी आते हैं,अमरेन्द्र बोला।।
और फिर दोनों ने हाथ धुले और खाना खाने रसोई में पहुँचें......
रसोई में लालटेन की हल्की रोशनी थी ,अमरेन्द्र और सत्यकाम अपने अपने आसनों पर खाना खाने के लिए जा बैठे,पीतल की थाली में एक तरफ बैंगन का भरता था,पीतल की कटोरी में अरहर की तड़के वाली दाल,साथ में आम का अचार और घी से लथपथ चूल्हें की सिंकी गरमागरम रोटी थी,अमरेन्द्र ने सत्यकाम से कहा.....
खाना शुरू कीजिए....
और फिर सत्या खाना खाने लगा,मोक्षदा चूल्हे के पास बैठी रोटी सेंक रही थी,सत्या ने उस समय मोक्षदा का चेहरा गौर से देखा,माथे पर पसीना और गालों पर बिखरी बालों की लटें,चूल्हें की उठती हुई लपटों की रोशनी में मोक्षदा का चेहरा कुछ और भी ज्यादा दमक रहा था,लेकिन उसने मोक्षदा के चेहरें पर साथ साथ एक गहरी उदासी भी देखी,ऐसा लगता था कि उसने सीने में एक तूफान छुपा रखा है,जिस तूफान को शायद वो कभी छेड़ती नहीं है,उसे डर है कि कहीं उसने इस तूफान को छेड़ा तो कहीं भयानक तबाही ना झेलनी पड़े...
कुछ ही देर में अमरेन्द्र और सत्यकाम खाना खाकर रसोई से चले गए,तब मोक्षदा बोली.....
काकी! अब तुम भी खा लो....
बिटिया! तुम मेरी थाली में खाना परोस दो ,मैं अपनी कोठरी में जाकर खा लेती हूँ,झुमकी काकी बोली।।
ठीक है काकी! तुम पहले कोठरी से अपनी थाली तो ले आओ।।
ठीक है बिटिया! और फिर इतना कहकर झुमकी काकी कोठरी से अपनी थाली लेने चली गई....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा......