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हांटेड एक्सप्रेस - उपन्यास
anirudh Singh
द्वारा
हिंदी डरावनी कहानी
पालमपुर,
हिमांचल प्रदेश के कांगड़ा जिले का एक छोटा सा रेलवे स्टेशन।
दिसम्बर की इस सर्द रात में ढेड़ बजे मेरे लिए पूरी तरह अनजान था यह स्टेशन और फिर ऊपर से कड़कड़ाने वाली ठंड के साथ काले घने अंधेरे के साथ लिपटा वह घनघोर कोहरा।
जिस ट्रेन से मैं यहां आया था उसको गुजरे दो घण्टे बीत चुके थे,तब से न तो कोई यात्री गाड़ी यहाँ से गुजरी थी,और न ही मालवाहक ट्रेन।
टीनशेड़ के नीचे बने उस छोटे से प्लेटफार्म के चारो ओर से खुले हुए वेटिंग रूम में कम्बल ओढ़ कर दुबका हुआ मैं सुबह होने का इंतजार कर रहा था...क्योकि इस स्टेशन पर उतरने के बाद अपने गंतव्य स्थल पर जाने के लिए इस वक्त तो कोई वाहन मिलने की उम्मीद थी नही।
अब तो स्टेशन पर खुली हुई एकमात्र चाय नाश्ते की दुकान पर भी ताला लग चुका था, शायद दूसरी कोई ट्रेन इस स्टेशन से हाल फिलहाल गुजरने वाली नही थी।
पालमपुर, हिमांचल प्रदेश के कांगड़ा जिले का एक छोटा सा रेलवे स्टेशन। दिसम्बर की इस सर्द रात में ढेड़ बजे मेरे लिए पूरी तरह अनजान था यह स्टेशन और फिर ऊपर से कड़कड़ाने वाली ठंड के साथ काले घने ...और पढ़ेके साथ लिपटा वह घनघोर कोहरा। जिस ट्रेन से मैं यहां आया था उसको गुजरे दो घण्टे बीत चुके थे,तब से न तो कोई यात्री गाड़ी यहाँ से गुजरी थी,और न ही मालवाहक ट्रेन। टीनशेड़ के नीचे बने उस छोटे से प्लेटफार्म के चारो ओर से खुले हुए वेटिंग रूम में कम्बल ओढ़ कर दुबका हुआ मैं सुबह होने का
घड़ी पर नजर डाली तो अभी भी रात के ढाई बजे थे, इस सुनसान से स्टेशन पर रात का सन्नाटा मन को विचलित करने लगा था। आगे क्या करूँ?, यह सोच ही रहा था कि अचानक अपने कंधे पर ...और पढ़ेसे किसी हाथ का स्पर्श महसूस करके मैं बुरी तरह चौंक गया। पलट कर पीछे देखा तो एक सूट बूट पहने सज्जन से इंसान को खड़ा देख कर जान में जान आई, सामान्य कद काठी,सांवले रंग वाले लगभग 50 वर्ष की उम्र वाले उन महोदय का पहनावा एवं हुलिया कुछ अजीब सा था। उसने काला कोट एवं पेंट पहना हुआ,पैरो
मुझे मेरे घरेलू नाम से सम्बोधित करने के बाद वह टीसी उस डिब्बे से उतर कर जा चुके थे...शायद आगे की यात्रा वह इंजन में अपने सहकर्मियों के साथ बैठ कर ही करने वाले थे...मैं हतप्रभ था....मन किया कि ...और पढ़ेपीछे जाकर अपनी शंका का समाधान कर आऊँ,पर तब तक मुझे महसूस हुआ कि ट्रेन आगे बढ़ चली है। तभी मैंने गौर किया कि कुछ देर पहले सामने बैठे जिस वृद्ध व्यक्ति से मैंने कुछ पूंछना चाहा था,वह तब से अभी तक लगातार मुझे घूर रहा है....उसकी नजरें लगातार मेरी ओर ही है,यह बात मुझे कुछ अजीब सी लगी.....मैंने डिब्बे
मेरे ठीक बगल में वही अधेड़ महिला बैठी हुई थी,जो कुछ देर पहले विंडो सीट पर मौजूद थी......वह महिला सुबक सुबक कर रोते हुए अपने आंसुओ को साड़ी के आँचल से पोंछ रही थी...... मेरी स्थिति काटो तो खून ...और पढ़ेवाली थी....क्योंकि इतना सब कुछ होने के बाद इतना तो मेरी समझ में आ ही चुका था कि यहां मौजूद प्रत्येक शख्स सामान्य इंसान न होकर एक छलावा है......और अब, जब वह मेरे ठीक बगल में आ बैठी थी तो ऐसे में मेरी घिग्घी बढ़ जाना लाजिमी था। पर कहते है न कि कोई भी डर एक सीमा तक होता
जान बचाकर आखिर कौन नही भागना चाहता.....मैं कुछ देर पहले मौत के जिस मायाजाल से बच कर निकला था,आखिर क्यों दोबारा उस के आसपास भी जाने का दुस्साहस करूंगा?......पर जब मैं ट्रेन में बैठ कर वापस जाने का फैसला ...और पढ़ेचुका था,तो ऐसा लगा जैसे कोई अदृश्य शक्ति मुझे जाने से रोक रही हो......वो अदृश्य शक्ति मेरे द्वारा दादा जी के अंतिम समय में दिया हुआ वचन था या फिर कुछ और.....पर जो कुछ भी था उसने मेरे मस्तिष्क को झकझोर कर मुझे ट्रेन से उतार ही लिया था....... 'क्या दादाजी को यहाँ मौजूद खतरों के बारे में पता था?