अगले दिन मैं एक लंबे सफर के बाद देर रात तक काशी पहुंच चुका था, काशी रेलवे स्टेशन के विश्राम गृह में कुछ घण्टो की नींद लेने के बाद सुबह तड़के सबसे पहले काशी के प्रसिद्ध अस्सी घाट पर स्नान करने के बाद सीधा स्वामी बटुकनाथ जी के आश्रम पहुंचा, चूंकि उनका नाम काशी की प्रख्यात हस्तियों में शामिल था इसलिए आश्रम तक पहुंचने में कठिनाई नही हुई......आश्रम में पहुंचते ही एक अलग किस्म की धनात्मक ऊर्जा ने मन को प्रफुल्लित कर दिया था.....स्वामी जी कितने पहुंचे हुए संत है,इस बात का अहसास आश्रम में उमड़ी हुई भीड़ को देखकर मुझे हो पाया था....उनसे मिल पाना मुझे किसी स्वप्न के पूर्ण होने जैसा प्रतीत हो रहा था....फिर भी किसी तरह से मैंने आश्रम के एक सेवादार को मां के द्वारा लिखा गया पत्र सौंप कर उसे स्वामी जी तक पहुंचाने के लिए तैयार कर लिया था.....
भीड़ में मौजूद कई लोगो ने बताया कि अत्यधिक भीड़ होने के कारण स्वामी जी से मिलने के लिए कई दिनों का इंतजार करना पड़ता है......यह सुनकर मैं बेचैन हो गया था....पर यह बेचैनी बस कुछ ही देर की थी...क्योंकि लगभग एक घण्टे बाद ही वह सेवादार पुनः मेरे पास वापस आया और बताया कि स्वामी जी ने बुलावा भेजा है........कुछ ही देर बाद मैं स्वामी बटुकनाथ जी के सम्मुख था.....सिर पर चन्दन का तिलक लगाएं हुए भगवा वस्त्र धारण किये हुए स्वामी जी के मुखमण्डल पर एक अलग किस्म का तेज स्पष्ट झलक रहा था....मैंने उन्हें प्रणाम किया,तो उन्होंने मुस्कुराते हुए सबसे पहले मेरे और मेरी माँ के कुशलक्षेम पूंछे,उसके बाद यहां आने का कारण।
मैंने सारा घटनाक्रम उनको बताने के बाद,साथ में लाया हुआ वह प्राचीन कलश उनके समक्ष प्रस्तुत कर दिया....
स्वामी जी ने उस कलश को एक हाथ से स्पर्श किया...और फिर आंखे बंद करके ध्यान मग्न हो गए..... कुछ देर के पश्चात उनकी आंखें खुली....पर इतनी देर में उनके चेहरे के भाव पूरी तरह से परिवर्तित हो चुके, उनकी आंखों में क्रोध के बादल साफ साफ उमड़ते हुए मुझे नजर आ रही थी..शायद उन्हें कुछ ऐसा ज्ञात हुआ था,जिसने उनको क्रोध दिला दिया था......मैने उनसे कोई सवाल किए बिना ही उनके जबाब की प्रतीक्षा की....
और फिर उन्होंने अपनी प्रभावशाली वाणी में रहस्योद्घाटन करना आरम्भ किया....
"आम शैतान नही है वो....यह आरम्भ है अंधेरे के उस सबसे बड़े उपासक को निंद्रा से जगाने का.....यह आरम्भ है इंसानियत को मिटा कर विनाशलीला के एक काले अध्याय को फिर से लिखने का....... दुनिया पर काली शक्तियों के बल पर विश्व विजेता बनने की सदियों पुरानी उस दबी हुई अतृप्त इच्छा को पूर्ण करने के लिए वह दुष्ट एक बार फिर सिर उठा रहा है।.....रोकना होगा.....महाताण्डव की इस शुरुआत को रोकना होगा"
स्वामी जी की वाणी से निकले शब्दों को सुनकर मैं विचिलित हो गया......मैंने हाथ जोड़कर उनसे निवेदन करते हुए कहा कि आपके मुख से निकला एक एक शब्द अकाट्य सत्य है परंतु कृपा करके एक बार विस्तार से यह सब बता दें ।
उसके बाद स्वामी जी ने बताना आरम्भ किया
आज से सैकड़ो वर्ष पूर्व सारी दुनिया पर विजय प्राप्त करने के पश्चात यूनान का सम्राट सिकन्दर 326 ईसा पूर्व काबुल एवं तक्षशिला के राज्यो पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के बाद अपनेने जीवन के सबसे बड़े उद्देश्य अर्थात भारत पर विजय प्राप्त करने के स्वप्न को पूरा करने के लिए हिंदुकुश पर्वत को पार कर रहा था.…..उसने अपनी मां को विश्व विजेता बन कर लौटने का वचन दिया था,और इस वचन को पूर्ण करने के लिए न जाने कितने राज्यो के राजाओं के गलों को काटकर उसकी रक्तपिपासु तलवार अपनी प्यास बुझा चुकी थी......दरअसल सिर्फ एक बहादुर योद्धा ,एक कुशल सम्राट,अथवा बड़ी सेना का साथ में होना ही सिकन्दर की लगातार होती जीतों का कारण नही था......इसका सबसे बड़ा,और रहस्यमय कारण था उसकी माँ ....अर्थात ओलंपिया.....ओलंपिया शैतान की उपासक थी,और अपनी अनन्य साधना से शैतान को प्रसन्न करके कुछ महाघातक काली शक्तियां प्राप्त कर चुकी थी.....उन्ही काली शक्तियों के बलबूते उसने अपने छोटे से राज्य मकदूनिया के साम्राज्यवाद की चपेट में पहले तो यूनान को लिया और फिर एक के बाद एक अन्य देशों को भी....ओलंपिया की इन्ही काली शक्तियों से जन्म हुआ था 'तिमिरा' का...... इंसान जैसी शक्ल सूरत वाला तिमिरा दरअसल एक ऐसा शैतान था जो दो काली शक्तियों 'बैट-वुल्फा' और 'किल्योथुम्बा' का संयुक्त रूप था....
वुल्फा....एक खतरनाक एवं वहशी भेड़िया-मानव जिसमें कई शैतानी चमगादडों की भी शक्तियां सम्मिलित थी और किल्योथुम्बा.....वह वहशी दरिंदा…..जो लाशों को खाकर अपनी भूख मिटाता था…..किल्योथुम्बा को जब भी भूख लगती तो वह एक साथ मानवो की कई बस्तियों को लाशो के ढेर में बदल देता था।
इतनी खतरनाक शक्तियों से मिल बना हुआ 'तिमिरा' सिकन्दर के प्रतिनिधि के रूप में जब भी किसी युध्द में आगाज करता था, तो उसकी खूनी तलवार बड़ी से बड़ी फौज में इस कदर हाहाकार मचाती थी....कि उसके द्वारा नृशंसता के साथ अंगभंग किये गए सैनिको के शवों को देखने मात्र से ही शेष बची सेना स्वंय ही घुटने टेक देती थी.....तिमिरा सिर्फ यही नही रुकता था,युध्द के दौरान ही वह दुश्मन राज्य में घुस कर उस देश के शासक के परिवार के प्रत्येक महिला,पुरूष,बच्चों के साथ बर्बरता की सारी हदें पार करता हुआ उन्हें भीषण यातनायें देने के बाद एक एक करके प्रजा के सामने ही मौत के घाट उतार देता था...….तिमिरा यह सारे काम बेहद गुप्त रूप से करता था,यहां तक कि वह अपना चेहरा भी नकाब से ढके रहता था...इसके पीछे की वजह यह थी कि कहीं किसी प्रकार से दुनिया के सामने यह संदेश न जा सके कि सिकन्दर के विश्व विजेता बनने के पीछे उसकी योग्यता का नही काली शक्तियो के रूप में तिमिरा का हाथ है।
अब तिमिरा की खूनी तलवार भारतीय खून से सराबोर होकर अपनी स्वामिनी महारानी ओलंपिया एवं उसके पुत्र सिंकंदर के जीवन का उद्देश्य पूरा करनी चाहती थी ।
पर उन्हें शायद नही पता था कि हम तब भी विश्व गुरु थे.....भारत के वेद, पुराणों,ऋषि,मुनियों में ज्ञान का वह समंदर भरा पड़ा था, जो तिमिरा जैसी सैकड़ो काली शकितयों को धूल चटाने के लिए पर्याप्त था.....
भारत पर आक्रमण करने की यही भूल सिकन्दर के जीवन की प्रथम एवं अंतिम भूल सिध्द हुई…....यहां उसका सामना करने के लिए तैयार खड़े थे पंजाब-सिंध साम्राज्य के पुरुवंशी महान सम्राट वीर पोरस......सम्राट पोरस अपनी बौद्धिक क्षमता एवं युद्दकौशल के कारण बड़े से बड़ा युध्द जीतने का माद्दा रखते थे......
पोरस के गुरु भद्रबाहु उत्कृष्ट स्तर के विद्धान एवं ज्ञानी थे....काली शक्तियो के जिस अस्तित्व को दुनिया ने नकार दिया था,उसको उन्होंने पल भर में भांप लिया था.......सिकन्दर की सेना ने झेलम नदी को पार करते हुए जैसे ही युद्ध का आरम्भ किया......अपने शैतानी इरादों को पूरा करने के लिए तिमिरा ने भी मार काट मचाना शुरू कर दिया........पर गुरु भद्रबाहू ढाल बन कर उसके सम्मुख आ खड़े हुए...... ऋग्वैदिक काल के पवित्र शंख को वैदिक शक्तियो एवं धार्मिक अनुष्ठान के द्वारा दिव्यास्त्र में परिवर्तित करके गुरु भद्रबाहु ने तिमिरा का अंत किया.......अंत होते ही तिमिरा अपने वास्तविक स्वरूप अर्थात इन्ही दो काली शक्तियो वैट-वुल्फा एवं किल्योथुम्बा में विभाजित हो गया.....चूंकि इन काली शकितयों को कभी भी पूर्ण रूप से समाप्त नही किया जा सकता था,सिर्फ काबू अथवा कैद किया जा सकता था......तो गुरु भद्रबाहू ने इन्हें दो अलग अलग अभिमन्त्रित कलशों में कैद कर दिया.......और पुरु राज्य के कुछ सैनिकों को इन कलशों को सावधानी पूर्वक जंगल में किसी निर्जन स्थान पर जमीन में दफन करने भेज दिया।
काली शक्तियो के अंत के साथ ही सिकन्दर की सेना कमजोर पड़ने लगी.......सम्राट पोरस के पराक्रम और हाथियों से सुसज्जित बहादुर सेना ने बहुत जल्दी सिकन्दर के विश्व विजेता बनने के ख्वाब को धूल में मिला दिया.........बुरी तरह शिकस्त लेकर लौटे सिकन्दर और उसकी माँ को 'शैतान' की दो पसंदीदा शक्तियों को खोने का खामियाजा भुगतना पड़ा.....फलस्वरूप इस घटना के तीन वर्ष के अंदर ही 323 ईसा पूर्व सिकंदर की रहस्यमय ढंग से मौत हो गयी........
उधर भारत में पोरस ने अपने अखण्ड साम्राज्य की स्थापना की.......उसके बाद सम्राट पोरस, गुरु भद्रबाहु के साथ स्वयं उस स्थान पर गए जहां पर सैनिको द्वारा उन कलशों को दफनाया गया था.…...वहां उन्होंने अपने आराध्य भगवान शिव के मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा भी कराई......और उसी मन्दिर में गुप्त रूप से एक अभिमन्त्रित हीरे की भी स्थापना करवाई जो मन्दिर में मौजूद धनात्मक ऊर्जा को एक बन्धन रूपी शस्त्र में परिवर्तित करके जमीन के अंदर कलश में कैद उन काली शक्तियों के लिए एक दिव्यपाश का कार्य करेगा…..अतः यदि भविष्य में किसी प्रकार से किसी के द्वारा जाने अनजाने में जमीन से निकाल कर उस कलश को खोल भी दिया जाये तब भी वह शक्तियां कैद से बाहर न निकल सकें......
जिस भेड़िये जैसे चेहरे वाले शैतान का जिक्र तुमने किया है......वह वैट वुल्फा ही है......शायद मन्दिर में मौजूद वह दिव्य हीरे का प्रभाव किसी प्रकार से समाप्त हो गया है तभी वह कैद से आजाद हो गया है..........अब सबसे बड़ा डर तो यह है कि वह दूसरा शैतान क्लियोथुम्बा भी आजाद न ही जाए......क्योंकि उसके आजाद होते ही दोनों संयुक्त रूप से उसी नरभक्षी 'तिमिरा' में परिवर्तित हो जायेगे जिसके आगे बढ़ते कदम सिर्फ कटे हुए सिर और खून से भीगा हुआ रास्ता मांगते है.....और एक बार समाप्त होने के बाद दोबारा 'तिमिरा' की वापसी तो पहले से भी कई गुना खतरनाक होगी।
इसी के साथ स्वामी बटुकनाथ जी ने अपनी वाणी को विराम दिया।
उनके इस रहस्य से पर्दा उठाते ही मैं अवाक रह गया था।
......कहानी जारी रहेगी.....