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हांटेड एक्सप्रेस - (भाग 06)

मैं और मालती सूर्योदय के कमरे की ओर भागे....सूर्योदय फर्श पर बैठा हुआ था....उसके हावभाव देख कर हम दोनों ही सन्न रह गए.....सूर्योदय की आंखे खुली हुई थी,और वह बुत सा बना हुआ खिड़की की ओर निहार रहा था.....उसकी खुली आँखों से लगातार आंसू बहे जा रहे थे.....उसका चेहरे पर भय का समंदर छाया हुआ था....ऐसा लग रहा था कि मानो अभी अभी उसने कोई डरावनी भयंकर चीज देखी हो...जिसके सदमें से वह एकदम पत्थर हो गया हो......सूर्योदय को मैंने गोद मे उठा कर सामान्य करने की बहुत कोशिश की पर वह कुछ बताने की स्थिति में ही नही था, वह तो लगातार खिड़की की ओर टकटकी लगा कर देखे जा रहा था.....उसे लेकर हम दूसरे कमरे में आ गए थे......

"शायद कोई जंगली जानवर आ गया हो खिड़की पर....उसे देख कर डर गया होगा"
मैंने मालती को सांत्वना देते हुए कहा

"....पहले तो ऐसा कभी नही हुआ..आखिर ऐसा भी कौन सा जानवर हो सकता है......वैसे कुछ दिन से कुछ अजीब सा व्यवहार हो रहा है इसका.....कोई बात नही सुनता.....हमेशा गुस्से में रहता है...."

मालती और मां दोनो ने ही सूर्योदय के बदलते व्यवहार पर गौर किया था,यह मुझे कुछ अजीब सा लगा...

थोड़ी देर बाद सूर्योदय कुछ सामाय सा हो गया था....रोते रोते थक गया था काफी,इसलिए मालती के पास ही सो गया था......
मैं खाना खाने के बाद मां के पास गया,देखा कि मां गहरी नींद में सो रही है।

बाहर तेज बारिश हो रही थी......जोर से कड़कती हुई बिजली के बीच मुझे अपना दरवाजा पीटे जाने की आवाज भी सुनाई दी....
इतनी रात में कौन हो सकता है....मैं यही सोचते हुए दरवाजे तक गया......लाइट तो थी नही,इसलिए टॉर्च के सहारे दरवाजे तक पहुंच कर दरवाजा खोला.......बाहर कोई भी नही था......आसपास टॉर्च की रोशनी डालते हुए सड़क की ओर देख कर आवाज भी दी,पर वहां कोई भी नही था.....मुझे लगा कि हो सकता है तेज कड़कती बिजली और बादलों की गड़गड़ाहट के बीच शायद मुझे ही कोई वहम हुआ हो.....अभी दरवाजे पर कुंडी लगा कर मैं पलटा ही था,कि दरवाजे पर एक बार फिर से दस्तक हुई.....दरवाजा हिलता हुआ साफ दिखाई दे रहा था.....आखिर कौन हो सकता है, मन में तमाम सवालों के साथ मैंने हिम्मत करके एक बार फिर दरवाजा खोला.......अब थोड़ा थोडा डर मेरे दिलोदिमाग पर भी दस्तक़ देना आरम्भ कर चुका था,क्योंकि इस बार भी सामने कोई नही था,सिर्फ सामने ही नही टॉर्च की रोशनी में दूर दूर तक भी कोई नही दिखा.....मैंने फटाक से दरवाजा बंद कर लिया......कहीं मां को जो महसूस हो रहा है,वो सब सत्य तो नही यह सोच कर अब मन कुछ भयभीत सा हो चला था.....पर अगले ही पल फिर एक बार दिल को तसल्ली थीं.....नही नही ये सब सिर्फ कोरी कल्पनायें ही होती है, बुरी शक्तियों जैसी कोई चीज होती ही नही है......धीमे धीमे फिर अपने कमरे की ओर पलटा ही था.....कि तीसरी बार उसी घटना की पुनरावृत्ति हुई......अब मेरा दिल बुरी तरह धड़कने लगा था ,दिमाग मे अजीबोगरीब ख्याल आ रहे थे,पहली बार ऐसी स्थिति से सामना हुआ था.....समझ ही नही आ रहा था क्या करूँ,फिर भी हिम्मत करके दबे पैरों से दरवाजे तक पहुंचा.....पर इस बार पता नही क्यों दरवाजा खोलने की हिम्मत ही नही हो रही थी.......तभी दरवाजे के उस पार से कुछ लोगो की सम्मिलित आवाज आई....."बाबू जी....दरवाजा खोलिये"

जबाब में मैंने अंदर से ही आवाज देकर पूंछा "कौन?"

"बाबूजी मैं .....परशुराम,...और छेदीलाल भी है साथ में"

अब कुछ अच्छा महसूस हुआ, मैंने दरवाजा खोला और सामने परशुराम और छेदी के साथ कुछ और परिचित चेहरों को खड़ा देख पहले तो चैन की सांस की उसके पश्चात उन पर गुस्सा दिखाया
"क्यों परेशान कर रखा है इतनी देर से,मुझसे भी मजाक करोगे तुम लोग अब?"

मेरे गुस्से का आशय सामने खड़े वह लोग शायद समझ न सके.....
वह ट्रेन की पटरियों एवं रेल्वे सम्बन्धित अन्य कार्य करने वाले मजदूर एवं ट्रैकमैन वगैरह थे,जो इसी रेलवे परिसर में ही बने हुए सरकारी आवासों में ही रहते थे.... मैंने उनके चेहरों पर गौर किया तो देखा कि उन सब के चेहरो का रंग उड़ा हुआ है.....मेरे सवाल का जबाब दिए बिना ही छेदीलाल बोला " हुजूर गजब होइ गिया...आप जल्दी चलिए साथ"

मैंने झुंझलाते हुए पूंछा
"अरे ऐसी भी क्या आफत आ पड़ी ,जो तुम सबके सब इतनी रात में मूसलाधार बारिश के बीच मुझे बुलाने आये हो"

जबाब में परशुराम लगभग रोते हुए बोला "बाबू जी ...व...वो ध...धनीराम की मौत हो गयी"

उसकी बात सुनकर मैं अवाक रह गया.."क्या?....पर कैसे....अभी तो अच्छा खासा छोड़ कर आया था मैं उसे केबिन में"

परशुराम- "बाबू जी जब देर रात तक वह घर नही पहुंचा तो उसकी पत्नी और बेटी उसे बुलाने केबिन की ओर गयी थी,रास्ते में उन्हें उसकी लाश उस पीपल के पेड़ के पास पड़ी हुई दिखाई दी,तो दोनों भागती हुई हमें बुलाकर ले गयी......वह मर चुका है बाबू जी,और उसकी पत्नी और बेटी वहीं बिलख बिलख कर रो रही हैं....."

मैंने जल्दी से रेन कोट पहना,छाता साथ लिया और उन लोगो के साथ घटनास्थल की ओर बढ़ गया।

सबसे आगे छेदी लाल हाथ मे लालटेन लिए हुए चल रहा था,उसके पीछे मैं,परशुराम और 4-5 अन्य मजदूर......

जल्दी ही हम उस जगह तक पहुंच चुके थे, मुझे सामने देख धनीराम की पत्नी छाती पीट पीट कर रोने लगी,उसकी बेटी तो रो रोकर सदमें की वजह से बेहोश भी हो चुकी थी......मैंने धनीराम की ओर नजर डाली तो वह वीभत्स,डरावना दृश्य देख कर मेरा कलेजा ही मुंह मे आ गया.....धनीराम का जिस्म बुरी तरह से लहूलुहान था, उसका पेट फंटा होने से आंते बाहर आ चुकी थी.....गर्दन में कई सुराख हो गए थे,जिनसे बहकर खून बारिश के पानी के साथ मिलकर दूर दूर तक फैल गया था..कुछ दूरी पर उसकी फूटी हुई लालटेन भी पड़ी हुई थी.....सारे शरीर में घाव ही घाव.....उफ्फ ...इतनी क्रूरता, इतनी निर्दयता......कम से कम कोई इंसान तो ऐसा नही कर सकता

"किसी खतरनाक जंगली जानवर का काम है यह"
थोड़ा सामान्य होने के बाद मेरे मुंह से निकला

यह सब देखने के बाद मेरी मानसिक स्थिति गड़बड़ाने लगी थी,धनीराम का विकृत शरीर देखने की अब और अधिक हिम्मत मुझमें शेष नही बची थी....

"परशुराम,तुम लोग धनीराम के शव को उसके घर ले कर चलो, क्योंकि अभी इस वक्त ऐसे मौसम में पुलिस को भी सूचना पहुँचाना सम्भव नहीं......"

वह लोग धनीराम के बिखरे शरीर को संभालने लगे तब तक मैं अकेला ही लड़खड़ाते कदमों से वापस अपने घर निकल आया.....धनीराम का यह हाल देखकर मैं पूरे होशोहवास में भी नही था.….दिल बहुत व्यथित हो रहा था.......अचानक मुझे अपने पीछे किसी के चलने की आवाज सुनाई दी......ऐसा लग रहा था जैसे पानी से भरी हुई उस सड़क पर किसी और के पैरों की ध्वनि मेरा पीछा कर रही हो....मैं पलटा, और पीछे टॉर्च डाल कर देखा,तो कोई नजर न आया.......
मैं वापस मुड़ा .......तभी मेरी आँखों के ठीक सामने ही कुछ दूर......एक इंसान की आकृति का धुंधला साया मेरी दायीं ओर से सड़क को पार करते हुए झाड़ियो में गुम हो गया.......मैंने टॉर्च की रोशनी डाल कर उस साये को यहां वहां ढूंढने का काफी प्रयास किया पर कुछ भी नजर न आया..........
अब तक मैं भी समझ चुका था,कि यहां सब कुछ सामान्य नही है......।

.........कहानी जारी रहेगी......


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