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अनैतिक - उपन्यास
suraj sharma
द्वारा
हिंदी फिक्शन कहानी
आज लॉकडॉउन खुलने के एक महीने बाद या फिर कहूँ की ६ महीने बाद मै अपनी कर्मभूमि जर्मनी जा रहा हूँ, वैसे इस जर्मनी ने मुझे बहोत कुछ दिया है. नाम, पैसा, प्यार, दोस्त और गाँव वालो की नज़रो में खुद के लिए, पापा के लिए वो इज्जत. मेरे पापा की छाती ५६ की हो जाती जब कोई उन्हें कहता, "आपका बेटा तो जर्मनी में है". ३ साल पहले जब मै कॉलेज पूरी करके जॉब करने इस अन्जान देश में आया था तो पुरे घर में ख़ुशी का माहोल था, मुझे आज भी याद है
आज लॉकडॉउन खुलने के एक महीने बाद या फिर कहूँ की ६ महीने बाद मै अपनी कर्मभूमि जर्मनी जा रहा हूँ, वैसे इस जर्मनी ने मुझे बहोत कुछ दिया है. नाम, पैसा, प्यार, दोस्त और गाँव वालो की नज़रो ...और पढ़ेखुद के लिए, पापा के लिए वो इज्जत. मेरे पापा की छाती ५६ की हो जाती जब कोई उन्हें कहता, "आपका बेटा तो जर्मनी में है". ३ साल पहले जब मै कॉलेज पूरी करके जॉब करने इस अन्जान देश में आया था तो पुरे घर में ख़ुशी का माहोल था, मुझे आज भी याद है
"कितने कॉल करोगी माँ? घर पर तो तब ही आऊंगा ना तब टैक्सी लाकर छोड़ेगी", मैंने घर में घुसते हुए कहा..पर तूने तो एक भी कॉल नहीं उठाया? माँ की आंखों में खुशी थी और आंसू भी, अक्सर जब ...और पढ़ेमै जर्मनी से आता या जाने के लिए निकलता तो माँ की ममता झलक ही जाती..हाँ, वो बैटरी लो हो गयी थी! अगर कॉल उठात तो फोन पूरा स्विच ऑफ हो जाता, वैसे रात के २:३० बज गए है आप अब तक जाग रही हो? मै आगे कुछ बोलू उसके पहले पापा कमरे में से निकलते हुए बोले..बेटा जब तू बाप
मैंने तुरंत फोन रखा और माँ के पास जाकर पूछा, " किधर गए थे आप इतनी सुबह? माँ ने प्लेट में ढोकला रखते हुए बोली, "क्या? क्या कहा सुबह? बेटा लगता है तूने अब तक बाहर नहीं देखा है, ...और पढ़ेके १२ बज रहे है और बाजू वाले दुबे आंटी है ना उनका कॉल आया था, कुछ काम था तो वहीं गई थी, उठ गया तू? हां, वो कोई लड़की आयी थी, दरवाज़ की घंटी की आवाज़ से नींद खुल गई, और बॉस का कॉल भी आया था.. कल ही तो आया तू और आज बॉस ने काम के लिए कॉल भी कर
ना कोई भाई ना ही बहन बस अकेला था इसीलिए कोई साथ खेलने वाला नहीं था तो कभी कभी पापा के मोबाइल में भी अक्सर लूडो खेला करता, मैंने गेम की सारी सेटिंगस कर दी थी अब बस खेलना ...और पढ़ेकरना था की तभी.. डोर बेल बजी, माँ काम में वस्त थी और पापा तो फिर पापा थे तो जाना मुझे ही पड़ा, जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला- "हाय रोहन तुम? वॉट ए सरप्राइज? कब आये? कितने दिनों बाद देखा है तुम्हे..." हाय रीना ....कैसी है तू ...बस २-३ दिन पहले ही आया हूँ... और हम दोनों एक दुसरे के गले लगे, मेरा ध्यान
काम ज्यादा होने के वजह से मै रोज सिर्फ थोड़ी देर ही खेल पाता. कभी कभी तो एक गेम खेलने को भी वक़्त नही मिलता था ऐसे ही कुछ दिन गुजरे.. अब मै पूरी तरह गेम समझ गया था ...और पढ़ेज्यादातर गेम जितने लगा, रात को भी नींद ख़राब करके खेलने लग गया था शायद गेम का नशा छा रहा था, पैसे तो कुछ मिल नही रहे थे पर जैसे जैसे गेम जीतता गया मुझे ऐसा लगने लगा की इस गेम का अपुन भगवान् है . अब हर जगह जब भी खाली वक़्त मिलता बस खेलता रहता, इसी बिच