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सन्यासी - उपन्यास
Saroj Verma
द्वारा
हिंदी सामाजिक कहानियां
कभी कभी इन्सान अपने जीवन से विरक्त होकर इस सांसारिक जीवन से सन्यास लेकर सन्यासी बन जाता है, लेकिन क्या वो सच में इस संसार के चक्रव्यूह से निकल पाता है,शायद नहीं! क्योंकि सांसारिक जीवन को त्यागकर उस ईश्वर की शरण में जाना,इतना भी आसान नहीं होता जैसा कि हमें दिखाई देता है,क्योंकि हमें उस सर्वशक्तिमान ईश्वर की शरण में जाने के लिए आत्मिक परिपक्वता एवं अडिग विश्वास की जरूरत होती है और ये दोनों भाव हमारे भीतर यूँ ही प्रवेश नहीं करते,उसके लिए हमें कड़ी तपस्या और अपनी इन्द्रियों को वश में करना आना चाहिए.....
क्या इस कहानी का नायक अपनी इन्द्रियों को वश में करके कड़ी तपस्या करने के बाद सन्यासी बन बन पाता है या नहीं आइए देखते हैं....
तो कहानी शुरू करते हैं....
कभी कभी इन्सान अपने जीवन से विरक्त होकर इस सांसारिक जीवन से सन्यास लेकर सन्यासी बन जाता है, लेकिन क्या वो सच में इस संसार के चक्रव्यूह से निकल पाता है,शायद नहीं! क्योंकि सांसारिक जीवन को त्यागकर उस ईश्वर ...और पढ़ेशरण में जाना,इतना भी आसान नहीं होता जैसा कि हमें दिखाई देता है,क्योंकि हमें उस सर्वशक्तिमान ईश्वर की शरण में जाने के लिए आत्मिक परिपक्वता एवं अडिग विश्वास की जरूरत होती है और ये दोनों भाव हमारे भीतर यूँ ही प्रवेश नहीं करते,उसके लिए हमें कड़ी तपस्या और अपनी इन्द्रियों को वश में करना आना चाहिए..... क्या इस कहानी का
जयन्त अपनी साइकिल से जब काँलेज पहुँचा तो उसे बहुत भूख लगी थी,इसलिए कैन्टीन जाकर उसने कुछ खाने का सोचा,लेकिन कैन्टीन में कुछ भी उसके मतलब का कुछ भी नहीं था,इसलिए वो वहाँ से वापस चला आया और तभी ...और पढ़ेदोस्त वीरेन्द्र उसे दूर से दिखा और उसने उसे देखकर हाथ हिलाया, इसके बाद वीरेन्द्र उसके पास आकर बोला.... "भाई! तेरा मुँह क्यों लटका हुआ है"? "यार! मेरा तो वही रोज रोज का टन्टा है,बाबूजी से बहसबाजी फिर इसके बाद भूखे काँलेज चले आना, कैन्टीन गया था कुछ खाने के लिए लेकिन वहाँ मेरे मतलब का कुछ भी नहीं था,इसलिए
दिनभर यूँ ही काँलेज में वक्त गुजारने के बाद जयन्त घर पहुँचा,उसने साइकिल की घण्टी बजाकर चौकीदार से बंगले का गेट खोलने को कहा,जैसे ही नलिनी ने साइकिल की घण्टी की आवाज़ सुनी तो वो फौरन ही समझ गई ...और पढ़ेउसका बेटा जय काँलेज से वापस आ गया है,इससे पहले की जयन्त अपने कमरे में पहुँच पाता, तो वो जयन्त के कमरे में पहुँचने से पहले ही कुछ मूँग दाल के लड्डू और मठरियाँ लेकर वहाँ पहुँच गई और जैसे ही जयन्त अपने कमरे में घुसा तो नलिनी ने उससे पूछा... "आ गया तू! मैं कब से तेरा इन्तजार कर
इसके बाद सुरबाला मुस्कुराते हुए जयन्त के कमरे से चली गई,सुरबाला के जाने के बाद नलिनी ने जयन्त से पूछा.... "जय! क्या तू सच में एक दिन सन्यासी बन जाऐगा?" अपनी माँ की बात सुनकर जयन्त मुस्कुराते हुए उनसे ...और पढ़े"क्या पता...हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है,ये तो दुनिया वालों पर निर्भर करता है कि वो मुझे क्या बनाते हैं?" "बेटा! ये तेरी जिन्दगी है,इसका फैसला तो तेरे हाथ में होना चाहिए कि तू क्या बनना चाहता है",नलिनी बोली.... "लेकिन माँ! दुनियावालों का मिजाज़ देखकर भरोसा उठ है मेरा सब पर से,सब के मन में केवल
सुबह हुई तो घर में बवाल मचा हुआ था,क्योंकि प्रयागराज ने जयन्त की शिकायत शिवनन्दन जी से कर दी थी,जब कि इस बारें में शिवनन्दन जी को भी सब पता था क्योंकि उन्होंने रात में सब सुन लिया था,लेकिन ...और पढ़ेसे कुछ बोले नहीं थे,उन्होंने सोचा इस मसले पर सुबह ही बात होगी,इसके बाद शिवनन्दन जी ने इस बात को लेकर जयन्त से बात करने की सोची,फिर जयन्त को सबके सामने पेश किया गया और तब शिवनन्दन जी ने जयन्त से पूछा.... "तुम्हें किसने अधिकार दिया पति-पत्नी के बीच में बोलने का" "कोई किसी को जानवरों की तरह पीटे जाएँ