सन्यासी -- भाग - 13 Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सन्यासी -- भाग - 13

उस रात शिवनन्दन जी ने जयन्त को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन जयन्त नहीं माना,जिससे सुमेर सिंह का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया,वो तो वैसे भी गुण्डागर्दी करने वाला इन्सान था,वो ऐसे धान्धलियाँ कर करके ही रुपया कमा रहा था,कहा जाएँ तो बेईमानी करना ही उसका धन्धा था, वो काँलेज में बाबू किसी की सिफारिश पर बना था ,जिसके लिए उसने अँग्रेज अफसरों के मुँह में बहुत रुपया ठूँसा था, काँलेज के बाबू की नौकरी तो वो जमाने को दिखाने के लिए करता था,उसके और भी बहुत से दो नंबर के धन्धे थे,सुनने में तो ये भी आता था कि वो बड़े बड़े सेठों को लड़कियाँ भी मुहैया करवाया करता था......
ऐसे ही अनापशनाप तरीकों से वो अपनी तिजोरी भर रहा था,उसकी पत्नी उसके गलत कामों का विरोध करती थी तो वो उसके साथ मारपीट करता था,उसके दो बेटे भी थे जो अपने पिता के गलत कार्यों में उसका कभी भी साथ नहीं देते थे,सुमेर सिंह के गलत व्यवहार और गलत तरीकों से रुपया कमाने की वजह से उसके सभी रिश्तेदारों ने उससे मुँह मोड़ लिया था,लेकिन तब भी सुमेर सिंह सुधरने का नाम नहीं ले रहा था और अब उसका एक दुश्मन और पैदा हो गया था और वो था जयन्त,जयन्त को अपने रास्ते से हटाने के लिए उसने बहुत से हथकण्डे अपना लिए थे,लेकिन तब भी जयन्त नहीं माना था,उसे पता था कि जयन्त सीधी तरह से हाथ में आने वाला नहीं है,इसलिए सुमेर सिंह ने जयन्त को सबक सिखाने लिए एक अलग ही रास्ता चुन लिया.....
एक दिन की बात है जब शाम को लखनलाल काँलेज से अपने घर लौटा तो उसे घर में अपनी बेटी फागुनी कहीं नहीं दिखी,घर का सामान भी बिखरा पड़ा था और बकरी भी घर के बाहर बँधी थी,ऐसा लग रहा था कि शायद दिनभर से बकरी को दाना पानी नहीं दिया गया है,इसलिए लखनलाल बकरी को खोलकर बाहर आकर मैदान में आकर फागुनी को ढूढ़ने लगा,लेकिन उसे बहुत ढूढ़ने पर भी अपनी बेटी फागुनी कहीं नहीं दिखी, अब बकरी भी फागुनी को खोजने लगी,लेकिन बकरी भी फागुनी को नहीं खोज पाई और वो लखनलाल के पास लौट आई,फागुनी को नदारद देखकर लखनलाल का दिमाग चकरा गया,वो घबरा गया और दौड़ा दौड़ा और भी लोगों के पास गया और उन सबसे पूछने लगा कि उन सभी ने फागुनी को कहीं देखा है,लेकिन सबने ना में जवाब दिया,फागुनी को ढूढ़ते ढूढ़ते अब रात हो चुकी थी और लखनलाल को रह रहकर अब बुरे बुरे ख्याल आने लगे थे,तब लखनलाल के एक सहकर्मी ने उससे कहा कि...
"लखन! तू ऐसा कर,अब तू जयन्त बाबू के घर चला जा,शायद वे तेरी कुछ मदद कर पाएँ"
"लेकिन मुझे नहीं मालूम की वो कहाँ रहते हैं",लखनलाल बोला...
तब लखनलाल के सहकर्मी ने उसे जयन्त का पता बता दिया,क्योंकि उसे मालूम था कि जयन्त कहाँ रहता है,अब लखनलाल जयन्त का पता पूछते पूछते उसके घर जा पहुँचा,वो जयन्त के घर के दरवाजे पर पहुँचा और दरवाजे पर दस्तक दी,दरवाजा जयन्त की माँ नलिनी ने खोला और लखनलाल से उसके आने का कारण पूछा,तब लखनलाल ने उनसे पूछा....
"जी! क्या जयन्त बाबू यहीं रहते हैं"?,
"हाँ! लेकिन तुम्हें उससे क्या काम है",नलिनी ने पूछा...
"जी! बहुत जरुरी काम है,ऐसा समझ लीजिए कि किसी की जिन्दगी और मौत का सवाल है",लखनलाल ने नलिनी से कहा....
"ठीक है! तुम यहीं ठहरो,मैं अभी उसे बाहर भेजती हूँ",नलिनी बोली...
"जी! बहुत बहुत धन्यवाद",लखनलाल बोला...
"वैसे तुम्हारा नाम क्या है"?,नलिनी ने लखनलाल से पूछा...
"जी! मैं लखनलाल! काँलेज का चपरासी हूँ",लखनलाल बोला...
"ठीक है,मैं अभी उसे बाहर भेजती हूँ"
और ऐसा कहकर नलिनी जयन्त के कमरे में जाकर उससे बोली...
"जय! बाहर कोई लखनलाल आया है और तुझे पूछ रहा है"
"लखनलाल आया है,वो भी इस वक्त,ऐसा क्या जरूरी काम आन पड़ा उसे",जयन्त ने हैरान होकर नलिनी से कहा...
"कहता था कि किसी की जिन्दगी और मौत का सवाल है",नलिनी जयन्त से बोली....
"ऐसा कहा उसने",जयन्त ने फिर से हैरान होकर पूछा...
"हाँ! ऐसा ही कह रहा था वो",नलिनी बोली...
फिर क्या था,जयन्त भागकर दरवाजे की ओर भागा और लखनलाल के पास जाकर पूछा...
"क्या हुआ,इस वक्त आएँ हो तो कुछ ना कुछ बात जरूर हुई होगी,वरना तुम इस तरह से कभी ना आते",
"हाँ! बाबूजी! फागुनी कहीं नहीं मिल रही है,मैं उसे खोज खोजकर थक गया",लखनलाल रोते हुए बोला...
"फागुनी नहीं मिल रही है,आखिर कहाँ जा सकती है वो,तुमने आस पास के लोगों से पूछा",जयन्त ने परेशान होकर लखनलाल से कहा...
"सबसे पूछ लिया बाबूजी! जब वो नहीं मिली तभी तो मैं आपके पास आया हूँ",लखनलाल बोला....
"क्या कह रहे हो,कहीं नहीं मिली",जयन्त ने हैरान होकर कहा...
"हाँ! बाबूजी! जब मैं घर पहुँचा तो घर का सामान भी बिखरा पड़ा था और बकरी भी भूखी प्यासी बँधी थी, कुछ ना कुछ तो जरूर हुआ है मेरी फागुनी के साथ,उसे कुछ हो गया तो मैं बेमौत मर जाऊँगा,सयानी लड़की है कुछ ऊँच नीच हो गई तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा",लखनलाल रोते हुए बोला...
"ऐसा मत कहो लखनलाल! कुछ नहीं होगा फागुनी को,मैं कुछ करता हूँ,तुम यहीं ठहरो मैं बस अभी आया",
और ऐसा कहकर जयन्त भीतर चला गया और फिर भीतर जाकर वो अपनी बुशर्ट बदलते हुए अपनी माँ नलिनी से बोला....
"माँ! मैं जरा बाहर जा रहा हूँ,,बाबूजी पूछे तो कह देना कि सो गया है"
"लेकिन तू इतनी हड़बड़ी में जा कहाँ रहा है?",नलिनी ने परेशान होकर पूछा...
"कुछ जरूरी काम है,थोड़ी देर में लौट आऊँगा",जयन्त बाहर जाते हुए बोला...
"अरे! कुछ तो बताता जा",नलिनी ने परेशान होकर फिर से कहा....
"अभी कुछ भी बताने का वक्त नहीं है माँ! बस तुम ये समझ लो कि किसी की जिन्दगी और मौत का सवाल है,आओ अब आकर दरवाजे बंद कर लो"
ऐसा कहकर जयन्त ने बुशर्ट पहनी,पैरों में चप्पलें डालीं और साइकिल बाहर निकालते हुए लखनलाल से बोला...
"चलो बैठो साइकिल पर!"
फिर दोनों साइकिल पर सवार होकर फागुनी को ढूढ़ने निकल पड़े और उधर नलिनी परेशान सी होकर दोनों को जाते हुए देखती रही...
दोनों रातभर फागुनी को ढूढ़ते रहे लेकिन फागुनी उन्हें कहीं ना मिली,फागुनी के ना मिलने पर लखनलाल दहाड़े मार मारकर रोने लगा,जयन्त ने उसे दिलासा देने की बहुत कोशिश की लेकिन लखनलाल तो फागुनी का बाप था, बेटी के खो जाने पर भला अपने दिल पर पत्थर कैंसे रख सकता था,उस पर से सयानी लड़की, फागुनी को लेकर उसके दिमाग में ना जाने कैंसे कैंसे विचार आ रहे थे,अब फागुनी को ढूढ़ते ढूढ़ते सुबह होने को थी,जयन्त ने अपनी हाथघड़ी में वक्त देखा तो वो सुबह के लगभग चार बजा रही थी,चारों तरफ अब भी अँधियारा ही छाया था क्योंकि उस दिन अमावस की रात थी,फिर दोनों थकहार कर झोपड़ी में पहुँचे,अभी जयन्त और लखनलाल झोपड़ी में जाकर लालटेन जलाकर बैंठे ही थे कि तभी लखनलाल का पड़ोसी लच्छूलाल उसके पास हड़बड़ी में आकर बोला....
"लखनलाल! जल्दी चलो,ऊ...फागुनिया.......!"
लच्छू की बात सुनकर लखनलाल ने उससे पूछा...
"कहाँ है फागुनिया,का हुआ उसको"?
और फिर लखनलाल का सवाल सुनकर लच्छू अपने माथे पर हाथ धरकर दहाड़े मार मारकर रो पड़ा.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा...