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आँच - उपन्यास
Dr. Suryapal Singh
द्वारा
हिंदी फिक्शन कहानी
आँच अठारह सौ सत्तावन के संघर्ष की पृष्ठभूमि को उकेरता उपन्यास यह उपन्यास ? इक्कीसवीं सदीं का दूसरा दशक। उदारीकरण के बढ़ते क़दम। भारतीय ही नहीं सम्पूर्ण एशियाई बाज़ारों को आच्छादित करने की पूरी कोशिश। खुदरा बाज़ार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए खोलने का दबाव। भारत की केन्द्रीय सरकार असमंजस में। अमीरी और गरीबी की बढ़ती खाई। आर्थिक विकास दर का बढ़ाव रुका। विकास के पाश्चात्य माडल पर प्रश्न उठे। गठबन्धन सरकारें अपने को बचाने में ही व्यस्त, कड़े फैसले लेने में असमर्थ। ‘माल’ उच्च और मध्यमवर्ग को अपने कब्जे़ में करते हुए। अलग अलग वर्गों के लिए अलग अलग बाज़ारें।
आँच अठारह सौ सत्तावन के संघर्ष की पृष्ठभूमि को उकेरता उपन्यास यह उपन्यास ? इक्कीसवीं सदीं का दूसरा दशक। उदारीकरण के बढ़ते क़दम। भारतीय ही नहीं सम्पूर्ण एशियाई बाज़ारों को आच्छादित करने की पूरी कोशिश। खुदरा बाज़ार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ...और पढ़ेलिए खोलने का दबाव। भारत की केन्द्रीय सरकार असमंजस में। अमीरी और गरीबी की बढ़ती खाई। आर्थिक विकास दर का बढ़ाव रुका। विकास के पाश्चात्य माडल पर प्रश्न उठे। गठबन्धन सरकारें अपने को बचाने में ही व्यस्त, कड़े फैसले लेने में असमर्थ। ‘माल’ उच्च और मध्यमवर्ग को अपने कब्जे़ में करते हुए। अलग अलग वर्गों के लिए अलग अलग बाज़ारें।
अध्याय दोयह कोठा भी नख़्ख़ास है ! तालियों की गड़गड़ाहट, सिक्कों की बौछार के बीच लचकभरी बेधक आवाज़ । महफ़िल झूम उठी जब उसने छेड़ा- मोरा सैयां बुलावे आधी राति, नदिया बैरन भई।थिरकते पाँवों के बीच घुँघअओं की रुनझुन। ...और पढ़ेएक की आँखें उसी पर गड़ी हुई। तेरह साल की उम्र। कसकती आम के फाँक सी आँखें। शरीर पर जैसे सुनहला पानी चढ़ा हुआ। सौन्दर्य की प्रतिमा सी। थिरकती तो लगता लास्य की नेत्री लोगों को भाव, लय और ताल सिखा रही है। यह आयशा थी। नदिया बैरन भई... नदिया बैरन भई... नदिया बैरन भई… उतारती हुई। उसी के साथ
अध्याय तीनयहि ठइयाँ टिकुली हेराइ गई गोइयाँ! आयशा अब महकपरी बन गई। पर उसकी महक परीख़ाने से बाहर नहीं जा सकती। परीख़ाने में परियाँ हैं, पर उनके पंख कटे हुए। ‘क्या तेरे जीने का मक़सद यही था?’ आयशा ने ...और पढ़ेसे पूछा। ‘तेरी हैसियत क्या है? माता-पिता ने क्या नाम रखा था? इसका भी तो पता नहीं। जिसने जन्म दिया उसने किसी दूसरे को दे दिया। उसने नाम रख दिया-राधा। अम्मी के कोठे पर आई तो नाम हो गया आयशा। आयशा से अब महकपरी। साथ की और परियों को देखती हूँ तो मन उदास हो जाता है। परीख़ाने क़ैदख़ाने में
हिन्दू मुस्लिम दोनों समुदायों में तनाव बढ़ रहा था। नवाब ने हज़रत अब्बास की दरगाह देखते हुए उस स्थान पर भी जाने का मन बनाया जहाँ हिन्दुओं ने प्रतिरोध में अपनी दुकानें बन्द कर रखी थीं। शरफ़ुद्दौला ग़ुलाम रज़ा ...और पढ़ेको प्रधान वज़ीर से निर्देश मिला कि बाज़ार को सजाया जाए। पर दूकानें बन्द होने के कारण रज़ा खाँ को बाजार को सजाने में कठिनाइयाँ आईं। दोपहर में जब बादशाह हाथी पर सवार होकर बाजार से गुज़रे, उनकी हीरे की अँगूठी गिर गई। एक महिला को मिली। उसने बादशाह तक अँगूठी पहुँचा दी। बादशाह ख़ुश हुए। उस महिला को दस
अध्याय चार मुश्किल समय है? अली नक़ी खाँ को महाउल महाम (वज़ीरे आज़म) बनाकर वाजिद अली शाह चुप नहीं हुए। उन्होंने न्याय, प्रशासन, सेना, पुलिस सभी में सुधार करने की कोशिश की। सामान्य जन को न्याय उपलब्ध कराने के ...और पढ़ेचाँदी के छोटे बक्से उनके साथ चलते थे जिसमें कोई भी आदमी अपनी शिकायत डाल सकता था। इन बक्सों की चाभी शाह के पास रहती। हर सुबह दर्बार के समय ये बक्से खोले जाते और शिकायतकर्त्ता को न्याय मिलता। अक़्सर यात्राओं में लोग अपनी शिकायतें शाह तक खुद पहुँचाते। वे धैर्य से सुनते और तुरन्त कार्यवाही करते। न्याय करते समय