अध्याय चार
मुश्किल समय है?
अली नक़ी खाँ को महाउल महाम (वज़ीरे आज़म) बनाकर वाजिद अली शाह चुप नहीं हुए। उन्होंने न्याय, प्रशासन, सेना, पुलिस सभी में सुधार करने की कोशिश की। सामान्य जन को न्याय उपलब्ध कराने के लिए चाँदी के छोटे बक्से उनके साथ चलते थे जिसमें कोई भी आदमी अपनी शिकायत डाल सकता था। इन बक्सों की चाभी शाह के पास रहती। हर सुबह दर्बार के समय ये बक्से खोले जाते और शिकायतकर्त्ता को न्याय मिलता। अक़्सर यात्राओं में लोग अपनी शिकायतें शाह तक खुद पहुँचाते। वे धैर्य से सुनते और तुरन्त कार्यवाही करते। न्याय करते समय वे शाही परिवार की सिफ़ारिशों को भी नज़रअंदाज़ करते।
एक दिन शाह अपनी सवारी पर हुजूर बाग़ जा रहे थे। एक महिला उनके घोड़ों के सामने आ गई। शाह ने उसकी तक़लीफ़ पूछी। उसने बताया कि उसकी सुन्दर बेटी को पड़ोसी जमींदार ने अपहृत कर लिया है। उसकी बातें सुनकर शाह क्रोध से कांपने लगे। उन्होंने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे इस महिला के साथ जाएँ। लड़की को छुड़ाकर जमींदार को कै़द कर लाएँ। सिपाहियों ने आदेश का पालन किया।
नवाब को अर्ज़ी प्राप्त हुई जिसमें लिखा था कि एक कलवार को मीर मुहब्बत बाकर के आदेश से क़त्लकर दिया गया है। बाकर नवाब निशात महल के रिश्तेदार थे। अर्दाश्त करने वाला कलवार के शव को भी साथ लिए था। नवाब ने वज़ीरे आज़म और दीवान ख़ाना के दरोगा से पूछा कि इस सम्बन्घ में आवश्यक कार्यवाही क्यों नहीं की गई। मीर बाकर और निशात महल के सम्बन्ध को क्यों तवज्जो दी गई? इसी बीच निशात महल की ओर से सिफ़ारिश की गई कि एक हिन्दू का क़त्ल हुआ है। इसलिए सज़ा को हल्का कर दिया जाय। किन्तु नवाब ने किसी की सिफ़ारिश नहीं सुनी। उन्होंने आदेश दिया कि मीर मुहब्बत बाकर क़त्ल किए गए व्यक्ति के वारिसों की परवरिश का राज़ीनामा दाखि़ल करें तथा यह लिखित आश्वासन दें कि भविष्य में ऐसी गलती नहीं करेंगे। उनका दो महीने का वेतन भी ज़ुर्माने के तौर पर ज़ब्त कर लिया गया।
एक गांव में दो व्यक्तियों इब़्राहीम खाँ और जहाँगीर खाँ के पास फलों का बाग़ था। वह मौज़ा नवाब खुर्द महल को जाग़ीर के रूप में प्राप्त था। उनके दरोगा मुंशी गुलाम हुसैन ने बाग़ पर कब्ज़ा कर बहुत से पेड़ अपने काम के लिए काट डाले। इब्राहीम और जहाँगीर ने दरोगा का कोई प्रतिरोध नहीं किया। बड़े अधिकारियों से वे राहत की उम्मीद करते थे पर ऐसा कुछ हुआ नहीं। एक दिन जब नवाब अपनी सवारी से जा रहे थे, दोनों ने गुहार लगाई। नवाब ने धैर्य से इनकी बातें सुनी और कहा राजमहल आओ। राजमहल में पूरी बात सुनकर अनेक अधिकारियों और खुर्द महल के विरोध के बावजूद दरोगा को आदेश दिया कि क्षतिपूर्ति करें। इस निर्णय से सभी अधिकारियों को एक सबक़ मिला।
नवाब सेना को भी चुस्त करना चाहते थे पर कम्पनी सरकार के सहमत न होने से वे बहुत कुछ न कर सके। नवाब के साथ जुड़े संगीतकार, नर्तक, किन्नर सभी में पद की लिप्सा बढ़ गई थी। इनमें से कई-कुतुब अली, गुलाम रज़ा, तुरब अली, बहादुर सिंह, हाजी अली शरीफ़ विभिन्न पदों पर स्थापित हो गए। मसीहुद्दीन को रेजीडेंसी का दरोगा बना दिया गया। रेजीडेंट ने इन नियुक्तियों पर आपत्ति की। अंजामुद्दौला को रेजीडेंसी वकील बनाने पर रेजीडेंट को विशेष आपत्ति थी। उन्होंने रेजीडेंट के संदेश को तीन दिन तक नवाब तक नहीं पहुँचाया था। इसीलिए वे अंजामुद्दौला की बर्ख़ास्तगी चाहते थे। नवाब ने अंजामुद्दौला को तो नहीं हटाया पर गुलाम रज़ा को घाँघरा पलटन की कमान से हटा दिया। कुछ दिन बाद कुतुब अली ने एक और शरारत की। उन्होंने सुल्तानपुर के शुजाखुर के तालुकेदार बलभद्र सिंह को, जो सरकारी ख़ज़ाने का लगभग एक लाख रुपया इधर उधर करने के आरोप में बन्दी थे, बिना वज़ीर-ए-आज़म को बताए अब्दुल हाजी ख़ान रिसालदार के कहने से छोड़ दिया। नवाब को सारी बातें मालूम हुईं तो उन्होंने कुतुब अली से कलम रखवा लिया।
रेजीडेंट संगीतकारों, नर्तकों और किन्नरों को प्रशासन में जगह देने से असन्तुष्ट थे। उन्होंने 22 जून 1848 को नवाब से भेंट की और चाहा कि किन्नरों और गायकों को प्रशासनिक पदों पर नियुक्त न किया जाय। रेजीडेंट ने एक मसौदा तैयार किया था जिसको नवाब ने देखा एक-आध जगह थोड़ा परिवर्तन किया और आदेश दिया कि इस मसौदे पर मुहर लगा दी जाय। रेजीडेंट ए.एच.रिचमंड ने जो मसौदा बनाया था उसमें उल्लेख था कि किन्नरों (हिजड़ों), गायकों या अनुपयुक्त व्यक्तियों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नियुक्ति या हस्तक्षेप करने का अधिकार सेना, कोतवाली पुलिस, क़ैदियों तथा राजस्व सम्बन्धी या न्यायिक कार्यो, चुंगी तथा अन्य कर वसूली, बाज़ार का प्रभार, खुफिया विभाग तथा सरकारी शिकायतों के कामों में न हो।
इस सन्धि से शाही प्रबन्ध में किन्नरों, गायकों आदि का हस्तक्षेप बन्द हो गया। बादशाह ने राजस्व वसूली में भी सुधार का निर्देश दिया। अमानी का बहुत सा हिस्सा इजारा में बदला गया। प्रयोग के तौर पर कुछ क्षेत्रों में अमानी तन्त्र को रहने दिया गया। रेजीडेन्ट ने भारत सरकार को लिखा कि जो भी सुघार किए जा रहे हैं उनसे बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। वाजिद अली शाह ने आमिलों को निर्देश दिया कि वे सम्बद्ध सेनाओं का वेतन प्राप्तियों से ही दे दें। शेष बची राशि को लखनऊ के खज़ाने में पहुँचाएँ। इससे सैनिकों को वेतन मिलने में आसानी हुई।
वाजिद अली शाह के कार्यकाल के प्रारम्भिक लगभग तेईस महीनों तक रिचमंड ही रेजीडेंट रहे। उन्होंने अपनी समझ के अनुसार अवध प्रशासन में दखल देने की कोशिश की। इनके बाद ले.कर्नल डब्ल्यू.एच.स्लीमन 11जनवरी 1849 को लखनऊ के रेजीडेंट बने। इसके पहले उन्होंने ठगी विभाग के अघीक्षक के रूप में बहुत नाम कमाया था। वे राजपूताना के रेजीडेंट होना चाहते थे, पर उन्हें लखनऊ का रेजीडेंट बनाया गया। 1948 में ही लार्ड डलहौजी गवर्नर जनरल बनकर आ गए थे। उन्होंने स्लीमन को लिखा कि अवध, जो एक सम्पन्न किन्तु सताया हुआ क्षेत्र है, ऐसे अधिकारी की अपेक्षा कर रहा है जो अवध के आन्तरिक प्रशासन का कुशलता पूर्वक पुनर्गठन कर सके। मैं आपके नाम को लखनऊ के रेजीडेंट के रूप में प्रस्तावित करते हुए यह अनुभव करता हूँ कि आप अवध में होने वाले परिवर्तनों के कुशल वाह क होंगे। स्लीमन ने नियुक्ति के पाँच सप्ताह बाद ही गवर्नर जनरल को लिखा कि नवाब किसी भी प्रशासकीय कार्य के लिए अनुपयुक्त हैं। वज़ीरे-आज़म अली नक़ी खाँ के लिए लिखा कि वे अपने पद भार के लिए बिलकुल अनुपयुक्त तीसरे दर्जे के आदमी हैं। इन्होंने अवध का प्रशासन रईसों के एक बोर्ड को सौंपने की वकालत की और कहा कि पूरे अवध में अच्छी सड़कें होंगी तथा नदियों में यात्रा करने वाले उतने ही सुरक्षित होगें जितना कम्पनी शासन की सुरक्षा में हैं। जो कुछ भी किया जाएगा वह सताए हुए लोगों के भले के लिए किया जाएगा। अवध में विशेष परिवर्तन के रूप में स्लीमन के दिमाग़ में यह बात नहीं थी कि अवध को कम्पनी की हुकूमत में ले लिया जाएगा। रेजीडेंट कुछ अधिक उत्साहित थे। उन्होंने मोक़े-बे-मौक़े वाजिद अली शाह की तौहीन की। इसी उत्साह में बिना नवाब को बताए बिधारी के जमींदार के भाई छत्तर सिंह को गिरफ़्तार करवा लिया। उन पर आरोप था कि उन्होंने एक यात्री का सिर कलम कर दिया था। जाँच में यह घटना झूठी पाई गई। रेजीडेंट के इस अनावश्यक हस्तक्षेप का नवाब ने विरोध किया।
शाही रीतिरिवाज हों या रेजीडेन्ट की ठसक दोनों में टकराव बढ़ता रहा। रेजीडेन्सी में रात में तैनात एक सिपाही डयूटी पर रहते बन्दूक के सहारे सो गया। उसकी बन्दूक दग गई, उसके पंजो को पार करती हुई गोली छत से टकराई। पर सिपाही ने कह दिया कि कुछ लोग आए थे। उनकी गोली से ही हाथ घायल हुआ। रेजीडेन्ट ने सन्देह किया कि वसी अली ने कुछ लोगों को उसके क़त्ल के लिए भेजा था। उन लोगों ने सिपाही पर गोली चला दी और भाग निकले। नवाब ने वज़ीर और अन्य अधिकारियों के सामने वसी अली तथा उसके साथ के तीन किन्नरों को बुलाया। उन लोगों ने घटना से अनभिज्ञता प्रकट की। इस घटना में किसी तरह की भागीदारी से इनकार किया। नवाब ने जाँच का विवरण रेजीडेन्ट को भेजा पर वे इस जाँच परिणाम से सहमत नहीं थे। उन्होंने बेलीगारद से शाही पुलिस हटाकर अपने आदमियों को तैनात कर दिया।व्यक्तिगत मानापमान की घटनाएँ और भी हुईं। जो शाही नियम-कानून में कहीं फँसता, वह रेजीडेन्ट की शरण में चला जाता। रेजीडेन्ट उसे प्रश्रय देते। इससे एक निश्चित प्रशासकीय व्यवस्था बनाने में दिक्क़तें आती गईं।
व्यक्तित्व के टकराव की ही बात नहीं थी। रेजीडेन्ट नियुक्तियों में भी हस्तक्षेप करते। वजीरे आज़म का सहायक सचिव वसी अली खाँ था। वह प्रबुद्ध, पढ़ा लिखा था। अँग्रेजी नियमों-कानूनों की उसे जानकारी थी। अपने काम में भी वह बहुत होशियार था तथा पूरी ईमानदारी और मुस्तैदी से काम करता था। अँग्रेजी के जानकार उन दिनों कम मिलते थे। स्लीमन को लगा कि जब तक वसी दफ़्तरे विज़ारत में है वहाँ से गुप्त सूचनाएँ प्राप्त करने में कठिनाई होगी। वसी अली से कुछ लोग ईर्ष्या भी करने लगे थे। उनकी सहायता से स्लीमन ने वसी अली को हटाने की योजना बनाई। वसी अली को बर्ख़ास्त करने की ही नहीं बल्कि उन्हें लखनऊ से निष्कासित करने की माँग रखी। स्लीमन ने लिखा कि वसी अली के दोष को इंगित करने की ज़रूरत नहीं है। यह नौकरी कोई उनकी जाग़ीर नहीं है और न यह पैतृक है। इसलिए उनकी बर्ख़ास्तगी के लिए सबूत ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं है।
नवाब ने यह कह कर संतोष किया कि अपने मित्र रेजीडेन्ट के निर्देशों के पालन में वसी अली को लखनऊ से निष्कासित किया जा रहा है। 6 मार्च 1849 को वसी अली को लखनऊ बदर किया गया, यद्यपि वसी अली का यह निष्कासन लम्बा नहीं चला। उसने भारत सरकार के सचिव (विदेश विभाग), इलियट को कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें भेंट करके प्रसन्न कर लिया। उसका निष्कासन तो रद हो गया पर पुरानी नौकरी न मिली और स्लीमन उस पर सन्देह करते रहे।
नियुक्ति के हस्तक्षेप की घटनाएँ बढ़ती ही गईं। बादशाह ने करम अहमद नाम के अपने कर्मचारी को हटा दिया। करम अहमद रेजीडेंट के लिए खुफियाग़ीरी करता था और शाही अधिकारियों एवं कर्मचारियों के बीच असन्तोष उपजाने में लगा रहता था। स्लीमन को करम अहमद का हटाया जाना पसन्द नहीं आया। उन्होंने नवाब को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि महामहिम इसी तरह कार्य करते रहेंगे तो मुझे वज़ीर-ए-आज़म, वकील आदि से भेंट करना बन्द करना पड़ेगा। मैं गवर्नर जनरल को लिख दूँगा कि महामहिम अपनी प्रजा को मुझसे मिलने से मना कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में बेलीगारद को ख़त्म कर देना और ब्रिटिश सेना को हटा लेना ही अच्छा होगा। नवाब ने विद्रोही रुख़ अख़्तियार कर लिया है। नवाब को अन्ततः रेजीडेन्ट की इच्छाओं के समक्ष झुकना पड़ा। करम अहमद अपने पद पर बहाल हुआ।
रेजीडेन्ट विद्रोही तालुकेदारों को भी शरण देकर शाही फ़रमानों की घज्जियाँ उड़ा देते। कालाकांकर के राजा हनुवन्त सिंह जिन्होंने लगान देने से मना कर दिया था, तहसीलदार पर अपने सैनिकों से आक्रमण करवा दिया था वह लखनऊ छावनी में रेजीडेन्ट के संरक्षण में खुलेआम रह रहे थे। इस तरह की कार्यवाहियाँ कम्पनी हुकूमत और लखनऊ के नवाब के बीच हुई सन्धियों का खुला उल्लंघन था। नवाब ने प्रतिरोध में रेजीडेन्ट को लिखा पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। ऐसी स्थिति में विद्रोही तालुकेदारों को संयमित कर पाना सम्भव कहाँ हो पाता?
स्लीमन ने पहली रिपोर्ट के सात महीने बाद ही 24 सितम्बर 1849 को फिर एक कई पन्नों की रिपार्ट भेजी जिसमें यह कहा गया कि अवध की दशा उसी तरह अब भी असन्तोष जनक है। जानमाल की असुरक्षा उसी तरह है जैसी पिछली रिपोर्ट में दी गई थी। सैनिकों की नियुक्ति में भी रिश्वतख़ोरी की शिकायत की। अदालतों के बारे में लिखा कि लखनऊ को छोड़कर अन्य अदालतें बेकार हैं। अख़बार नवीसों को उन्होंने सबसे बुरा बताया। उन्होंने उदाहरण के लिए रघुबर सिंह से सम्बन्धित कुछ घटनाओं को सन्दर्भित किया। यद्यपि इस रिपोर्ट में तमाम सुनी सुनाई बातें थीं जिनका सच्चाई से कोई नाता नहीं था। इस रिपोर्ट में सैकड़ों स्त्री-पुरुष ,बच्चों को गुलाम की तरह बेचे जाने का उल्लेख था यद्यपि इस तरह की घटना न तो कभी दर्बार के सामने आई और न ही रेजीडेन्ट ने इसके वास्तविक स्थान का उल्लेख किया। पूरे अवध में गुलामी प्रतिबन्धित थी। यदि अवध में कहीं इस तरह की घटना घटित होती तो दर्बार तक उसकी सूचना अवश्य आती। इस तथाकथित घटना से प्रभावित लोगों के रिश्तेदारों ने भी कभी कोई शिकायत दर्ज़ नहीं कराई।
नवाब वाजिद अली शाह तमाम कठिनाइयों के बीच भी संगीत और इश्क़ के लिए समय निकाल ही लेते। ऐसा लगता था कि उनके दिमाग़ में दो खाने बने हुए हैं। एक में परेशानियाँ हैं और दूसरे में इश्क़ और हुस्न का बाज़ार। वे जब चाहें एक खाने से दूसरे में छलाँग लगा सकते हैं। अवध में तरह तरह की समस्याएँ उठ रहीं थीं, पर जैसे ही शाम होती वे अपने परी बाज़ार में पहुँच जाते। उन्होंने मलिका-ए-आलिया किश्वर आरा की एक बाँदी को देखा। वे उसी पर लट्टू हो गए। ख़्वाजासरा को संकेत किया। उन्होंने प्रयास भी किया, पर मलिका-ए-आलिया ने मना कर दिया। हज़रत महल से किया हुआ वादा उन्हें याद आने लगा। इधर नवाब तड़पते रहे। जब उनसे नहीं रहा गया, वे राजमाता के यहाँ पहुँच गए। राजमाता तुरन्त ही समझ गईं। कहा,‘मैं इसे तुम्हारे पास इसलिए नहीं भेज रही हूँ, क्योंकि इसकी पीठ पर साँपिन का निशान है। जिसके पास जाएगी उसको ख़तरा पैदा हो जाएगा।’ नवाब तुरंत लौट पड़े। उन्हें अपनी जान ज़्यादा प्यारी थी। पर लौटते समय उनका दिमाग़ कुलाँचे भरने लगा। राजमहल में कितनी ख़वातीन हैं जिनके साथ मैंने निक़ाह किया है। यदि उनमें भी किसी की पीठ पर साँपिन का निशान हो तो...? वे एक बार सिहर उठे। जाँच ज़रूरी है, वे सोचते रहे। दूसरे दिन सुबह उन्होंने ख़्वाजासरा को बुलाया और कहाकि एक अहम जाँच होनी है। ख़्वाजासरा घबड़ागया, पूछा,‘ हुजूर, कैसी जाँच?’ देखना ये है कि किसी ख़ातून की पीठ पर साँपिन का निशान तो नहीं।’ ‘क्या राजमहल की सभी ख़वातीन की जाँच होगी?’ ख़्वाजासरा ने पूछा। ‘नहीं। मलिका-ए-आलिया और ख़ास महल की जाँच नहीं होगी। बकिया सभी ख़वातीन जाँच के दायरे में होंगी।’
हुजूर का आदेश पाते ही ख़्वाजासरा बशीरुद्दौला की बाँछें खिल गईं। वह सोचने लगा कि यही मौक़ा है ख़ातूनों से कुछ ऐंठ लेने का। ख़ातूनों को जैसे ही पता चला कि उनकी जाँच होगी, वे परेशान हो उठीं। एक दूसरे से पूछने लगीं कि अब क्या होगा? एक बाँदी से उन लोगों को पता चल गया कि उनकी पीठ पर साँपिन का निशान तो नहीं है, इसी की जाँच होनी है। सभी एक दूसरे को अपनी पीठ दिखाने लगीं। ‘देख लो कहीं साँपिन का निशान तो नहीं है।’ ख़वातीन डरी हुई थीं। ख़्वाजासरा न जाने किस-किस की पीठ पर साँपिन का निशान बता दे। अधिकांश ने रुपया , सोने-चाँदी का जे़वर ख़्वाजासरा को भेंट किया। ख़्वाजासरा जाँच करते रहे। अन्ततः उन्होंने निशात महल, ख़ुर्शीद महल, शैदा बेगम, हज़रत महल, बड़ी बेगम,छोटी बेगम सहित आठ ख़वातीन में साँपिन का निशान ढूँढ़ ही लिया। इन आठों को राजमहल के बाहर आवास दिया गया। आठों बाहर आ गईं। हज़रत महल बहुत दुखी थीं। कभी सोचा नहीं था कि ऐसा कुछ सहना पड़ेगा। सभी दुखी थीं, पर हज़रत महल पर इसका असर बहुत अधिक था। उन्होंने वाजिद अली शाह के बेटे को जन्म दिया है। उन्हें हज़रत महल नाम से नवाज़ा गया है, पर इस बेहुरमती से क्या वे उबर पाएँगी? नए घर में बाँदी ने रोशनी की। वे एक मोढ़े पर बैठी थीं। अपनी ज़िन्दगी के बारे में सोचने लगीं। जिस माता-पिता ने जन्म दिया उसका पता नहीं। जिसने पालकर बेच दिया उसको मैं क्या कहूँ? कोठे पर आ गई थी। वहाँ से चली तो महकपरी बनी। महकपरी से इफ़्तिखा़रुन्निसा बेगम फिर हज़रत महल। और महल को महल से बाहर कर दिया गया। या रब! कैसै कैसै दिन देखने होंगे मुझे? बिर्जीसक़द्र का क्या होगा? क्या उसे भी हुजूर का ऐरा ग़ैरा बच्चा कहा जाएगा? सोचते विचारते उसकी आँखों में आँसू भर आए। क्या बिर्जीसक़द्र को लिए लिए भागना पड़ेगा मुझे? कौन जाने? ज़िन्दगी की राहें बहुत हमवार तो नहीं होतीं। कुछ देर वे चुप रहीं। एक शेर उनके जेहन में उतरा-
या रब क्या क्या दिखलाएगा मुझे,
किस गली कूचे भरमाएगा मुझे
वे अपनी सोच में डूबी थीं और बग़ल की दालान में बिर्जीसक़द्र नज़ीर की नज़्म ‘रीछ का बच्चा’ के बन्द दुहराते और कपड़े की खोल में रुई भर कर बनाए गए रीछ के बच्चे के साथ मदारी का स्वाँग कर रहे थे-
कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा
ले आए वहीं हम भी उठा रीछ का बच्चा
सौ नेअमते खा खा के पला रीछ का बच्चा
जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा
जब हम भी चले साथ चला रीछ का बच्चा।
था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोंटा
लोहे की कड़ी जिसपे खड़कती थी सरापा
काँधे पे चढ़ा झोलना और हाथ में प्याला
बाज़ार में ले आए दिखाने को तमाशा
आगे तो हम और पीछे था वह रीछ का बच्चा।
हज़रत महल अपना ग़म भूलकर बच्चे के खेल में खो गईं। बच्चा बार बार दोनों बन्द दुहराता और स्वाँग करता। नज़ीर साहब भी क्या ख़ूब शायर हैं। छोटी छोटी चीज़ों पर ऐसा लिख गए हैं कि……...।
वे सोचती रहीं। चाहे इलाही के नूर की चर्चा हो या कन्हैया जी के खेलकूद की, जवानी-बुढ़ापा हो या बरसात की बहारें सब कुछ उनके कलाम में हाज़िर है। देखो बिर्जीस भी मदारी बने उन्हीं के कलाम दुहरा रहे हैं। राजमहल में क़दम रखते हुए मैंने भी तो उन्हीं की ग़ज़ल गाई थी। उन्हें राजमहल की पहली महफ़िल याद आने लगी। कितनी तारीफ़ मिली थी उसे! काश वह इतनी सुन्दर न होती ! काश ।
कुछ दिन बाद ख़्वाजासरा बशीरुद्दौला का संदेश आया कि एक हिन्दू पण्डित ने साँपिन का निदान ढूँढ़ लिया है। वह अपने मंत्र जाप से साँपिन के ख़तरे को ख़त्म कर देगा। साथ की अन्य ख़वातीन ख़ुश हुईं। चलो देर से ही सही मर्ज़ की दवा तो मिल गई।
पूजा-पाठ सम्पन्न हुआ। पण्डित को दक्षिणा दी गई। ‘अब शाह-ए-अवध को इन साँपिनों से कोई ख़तरा नहीं।’ यह आश्वासन देकर पण्डित अपने घर गया। नवाब को आठो ख़वातीन की याद आने लगी जिनकी पीठ पर साँपिन का निशान पाए जाने पर उन्हें बाहर किया गया था। उन्होंने मलिका-ए-आलिया से भी बात की। उनकी भी राय थी कि सभी को राजमहल में वापस बुला लिया जाय। किसी कठिन परिस्थिति में नवाब मलिका-ए-आलिया से ही राय लेते थे। ख़वातीन को बुलाने के पक्ष में राजमाता की राय जानकर नवाब खुद आश्वस्त हुए।
आठों ख़वातीन को राजमहल में आने का संदेश मिला। बड़ी और छोटी बेगम राजमहल के अपने पुराने आवास पर आ गईं। पर छह महिलाओं को अपना निष्कासन अच्छा नहीं लगा था। यह बुलावा भी उन्हें उत्साहित नहीं कर सका। वे बराबर सोचती रहीं कि हमारी ज़िन्दगी का क्या यही हश्र होना है? जब चाहो घर से बाहर कर दो, जब चाहो बुला लो। जैसे उनका कोई वजूद ही नहीं। बिना वजूद के जीना भी कोई जीना है। हज़रत महल भी बुलावे से उत्साहित नहीं हुईं। कई दिन तक वे इसी मुद्दे पर सोचती रहीं। एक मन कहता कि लौट जाना चाहिए दूसरा मन कहता कि लौटने का कोई मतलब नहीं। लौट गई और फिर निकाली गई तो? हज़रत महल हर कोने से इस मुद्दे पर सोचती रहीं। तेरी अपनी कोई प्रतिष्ठा है? तू नारी है तो क्या इसी तरह अपने को खोकर भागती रहेगी। अन्त में सभी छह ने कड़ा निर्णय लिया,‘नहीं लौटना है।’ छब्बीस वर्ष की हज़रत महल के लिए यह निर्णय लेना आसान नहीं था। पूरी ज़िन्दगी पड़ी थी। पर उसे अपनी इज़्ज़त से खिलवाड़ अच्छा नहीं लगा। छब्बीस बरस कट ही गए हैं, आगे भी ज़िन्दगी कट ही जाएगी। उसने लौटना कुबूल न किया। राजमाता ने भी चाहा कि सभी लौट आएँ पर हज़रत महल समेत छह ख़वातीन टस से मस न हुईं। बिर्जीसक़द्र जान-ए-आलम से मिलने जाते रहे, पर हज़रत महल का जाना न हो सका। एक दिन शाम को चिराग़ जलने के बाद वे अपने मोढ़े पर बैठी थीं। शायद खुदा से भी जवाब तलब करना चाहती थीं। या रब मेरी किस्मत को तूने किस क़लम से लिखा है? क्या एक ख़ातून को अपने मन मुताबिक जीने का हक़ नहीं है? मानती हूँ जान-ए-आलम हमारे लिए सब कुछ हैं पर हमारी ज़िन्दगी का भी कोई मक़सद होना चाहिए। तूने क्या लिख रखा है मेरी ज़िन्दगी के लिए? मैं अपने को बेग़ैरत नहीं बना सकती। जान-ए-आलम के इस हुक्म को बजा पाना बहुत मुश्किल लगता है मुझे। क्या तू हमारे मन की बात भी जानता है? अभी तक मैं हर बात में इंशाअल्लाह कहती रही। पर मुझको बाहर करने की क्या तुम्हारी भी ख़्वाहिश थी, क्या तुम्हारी ख़्वाहिश से ही मैं कोठे पर आई? बार बार घर बदला। राजमहल पहुँची और वहाँ से बाहर हुई। अब आगे क्या कराना चाहता है तू? मैंने किसी के साथ दग़ा नहीं की। किसी को धोखा नहीं दिया। कभी ईमान नहीं बेचा। पर मुझे कहीं एक साबित ठौर क्यों नहीं मिल सकी? क्या तुम्हारी दुनिया में जगह की कमी हो गई है? अन्त में तो दो गज़ ज़मीन ही काम आती है, पर मेरे लिए वह भी नहीं। मैंने कौन सा ऐसा गुनाह किया है जिसकी सज़ा रोज़बरोज़ मिल रही है। किसी को किसी बहाने घर से निकाला जा सकता है। निकालना है तो बहाने मिल ही जाएँगे। सारी तक़लीफ़ क्या ख़वातीन को ही झेलना है। ये सवाल मेरे मन को मथ रहे हैं। या रब कभी मौक़ा मिले तो इन सवालों के जवाब ज़रूर देना। इन्हीं विचारों में खोई हुई थी कि बिर्जीसक़द्र आ गया। बताने लगा,‘अम्मी आज मैंने अब्बू से बात की। अब्बू तो बड़े सिंहासन पर बैठते हैं। तमाम लोग उन्हें झुककर सलाम करते हैं। अब्बू बादशाह हैं न? बादशाह बहुत बड़ा आदमी होता है न? हम बादशाह के बेटे हैं तो तू राजमहल में क्यों नहीं रहती? अब्बू पूछ रहे थे कि तेरी अम्मी का हाल चाल कैसा है? तू वहाँ रहती तो उन्हें हाल चाल पूछने की ज़रूरत न होती। एक दिन उनके साथ ही दस्तरख़्वान पर बैठकर मैं भी खाऊँगा। आखि़र मैं भी बादशाह का बेटा हूँ। अम्मी, सब लोग कहते हैं कि बादशाह को फ़ुरसत नहीं मिलती। क्या यह सच है अम्मी? क्या सब बड़े आदमियों को फुरसत नहीं होती है? बच्चों के साथ उठने बैठने के लिए तो फुरसत निकालनी चाहिए न? आज मैंने अब्बू के हाथ की उँगलियों में चमकती अँगूठियाँ देखीं। बहुत अच्छी लग रही थीं वे अँगूठियाँ। अम्मी तुझे राजमहल से बाहर क्यों किया गया ? क्या कोई ग़लती हो गई थी अम्मी? बिर्जीस के इन सवालों से हज़रत महल का दर्द और उभर आया। बच्चे से वे क्या कहें? कैसे बताएँ कि उसे बाहर क्यों रहना पड़ रहा है। बेटे को न तो बता सकती है न राजमहल लौट सकती है। उसकी भरी-भरी आँखें देखकर बिर्जीस ने पूछा, ‘अम्मी तू रो क्यों रही है? क्या सवाल पूछकर मैंने तुझे दुख पहुँचाया? तू तो कहती है मैं हमेशा हिम्मत से काम लेती हूँ फिर यह रोना क्यों ? अब मैं सवाल नहीं पूछूँगा।’ बिर्जीस के इन लफ़्ज़ों से अम्मी और परेशान हो उठी। अन्दर का दर्द किससे कहे? इतने छोटे बिर्जीस से इन बातों की चर्चा नहीं की जा सकती। कितना मासूम है यह! अम्मी और अब्बू दोनों का प्यार उसे चाहिए, पर हर बच्चे को दोनों का प्यार नसीब नहीं होता। भले ही हुकूमत के वारिसों में उसका नाम नहीं है। पर मैं अपने प्यार से उसे पालूँगी। जान-ए-आलम भी उसे देखकर खुश होते हैं। इतना ही बहुत है। जो कुछ कर पाऊँगी करूँगी, पर लौटकर अब राजमहल तो नहीं जा सकती। सीता जी भी एक बार चौखट से बाहर हुई थीं। वे भी तो चौखट के अन्दर कभी नहीं गईं। वे भी एक ख़ातून थीं। आज लोग उनकी पूजा करते हैं। या खुदा मुझे मुआफ़ करना। मैं राजमहल लौट नहीं सकती।
कर्नल स्लीमन ने एक योजना बनाई। उन्होंने एक दिसम्बर 1849 से अवध का दौरा करने का निश्चय किया। अवध की हुकूमत इसके खि़लाफ़ थी। रेजीडेन्ट भी अपनी योजना के प्रति पूर्णतः कटिबद्ध थे। यद्यपि नवाब ने उन्हें अनुमति नहीं दी थी, पर वे दौरे पर निकल पड़े। अपने भ्रमण के दौरान उन्होंने तीन सौ शिकायती अर्जि़याँ इकट्ठी कीं। ऐसे मुकदमों की भी सुनवाई शुरू कर दी जिनका निपटारा दो-तीन दशक पूर्व हो चुका था। दौरे के साथ ही अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो उठा। बहुत से तालुकेदार आपस में कानाफूसी करने लगे कि अब अवध हुकूमत जाने ही वाली है। दबंग किस्म के तालुकेदार लगान देने में आनाकानी करने लगे। रेजीडेन्ट ने एक विस्तृत आख्या तैयार की जिसकी प्रति राज्य के प्रशासन को भी दी। स्लीमन की रिपोर्ट में सभी बातें सही नहीं थीं। इधर उधर सुनी हुई बातों पर भी रिपोर्ट बना दी गई थी। उनकी रिपोर्ट में बहुत सी असंगतियाँ थीं। बिना परीक्षण किए ही बहुत-सी बातें रिपोर्ट में डाल दी गईं थीं। इन्होंने अवध की भूमि उसके किसानों तथा हरी भरी फसलों की प्रशंसा की किन्तु यह भी लिखा कि यहाँ के किसान अधिक लगान देते हैं। लार्ड डलहौजी और स्लीमन के विचारों में भी मतभेद था। स्लीमन ने खुद लिखा कि मुझे डर है लार्ड डलहौजी और मेरे विचारों में फ़र्क है।