अध्याय पाँच
यह बाज़ार है मियाँ !
सन् 1837 में बहादूर शाह ‘ज़फ़र’ सत्तासीन हुए थे। तीन वर्ष बाद उन्होंने ज़ीनत महल से शादी की। उस समय वे चौंसठ वर्ष के थे और ज़ीनत उन्नीस की। अनेक लोगों ने इस शादी का मज़ाक उड़ाया था। शाह के कई पत्नियाँ और बेटे थे। शादी के वक़्त तक ज़ीनत भी असमंजस में थीं। पर शाही इच्छा की अनदेखी नहीं की जा सकती थी। कहावत है मुई हाथी भी सवा लाख की। भले ही सल्तनत न रही पर अब भी एक लाख महीने की पेंशन। नज़राना, ज़मीन-ज़ायदाद, बाग़ों की आमदनी अलग से। ज़ीनत महल ने आते ही बादशाह का दिल जीत लिया। साल के अन्दर एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया जिसे जवांबख़्त कहा गया।
सल्तनत के काम से मुक्त होकर बादशाह शेरो-सुख़न में रुचि लेने लगे। वे सदा इसी तरह नहीं थे। उन्हें घुड़सवारी का शौक था। अस्त्र-शस्त्र संचालन में कुशल थे। दानिशमंदी से सल्तनत की चुनौतियों का सामना करते। ज्यों ज्यों अँग्रेजों का शिकंजा कसता गया, वे आरामतलब होते गए। असद उल्लाहखाँ ‘ग़ालिब’ और ‘ज़ौक’ से वे इस्लाह भी लेते, उनके साथ बैठकर शेर भी पढ़ते। नए ग़ज़लगो नवाब मिर्ज़ा ‘दाग़’ की माँ का सम्बन्ध भी शाही परिवार से जुड़ गया था। शाही पेंशन और अन्य आमदनी से शाह के बड़े कुनबे का ही नहीं, नौकर-चाकर, इष्ट मित्र का भी पालन-पोशण होता। लोग आश्चर्य करते कि मात्र इतनी आमद से शाही खर्च कैसे चलता है? कहने वाले कहते कि यहाँ बरक़त बरसती है। शाही खज़ाने से चवन्नी भी कोई पा जाता तो बहुत खुश होता।
दिल्ली में अमीरों, अधिकारियों, कर्मचारियों की एक बड़ी जमात रहती थी। उनके साथ कितने ही चोबदार, पालकी वाले , सेवा-बरदार पलते। शायर, संगीतकार नर्तक-नर्तकियाँ, स्वाँग करने वाले , मदारी ही नहीं, किस्सागो भी अच्छा कमा लेते। कारीगर हुनर से पैसा कमाते। किसान यद्यपि कभी-कभी प्राकृतिक आपदाओं बाढ़-सूखे पाला-पत्थर आदि से पीड़ित होते पर सामान्य दिनों में अच्छी उपज पा जाते। ज़मीन पर आबादी का दबाव कम था। आवश्यकताएँ सीमित थीं। किसान परिवारों में भी प्रायः शिक्षा का प्रसार था। किसान जानवर पालते थे। दूध-दही का प्रायः अभाव नहीं रहता था। इसीलिए बच्चे भी स्वस्थ रहते। गावों में कुश्ती के दंगल होते। बच्चे बैजल्ला, लच्ची डाँड़ी खेलते। खुश रहते। वही असहाय रहते जो कोई उपयुक्त काम न कर पाते। किसी राजा, चकलेदार, जमींदार या शाही सेना में भरती होना भी रोज़ी का एक साधन था। जब से ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ में सत्ता आने लगी अँग्रेजी कमांडरों के अधीन बहुत सी पलटनें तैयार हुईं। कम्पनी सेना में अधिकारी अँग्रेज ही होते किन्तु देशी सिपाहियों की संख्या अधिक होती। देशी सिपाहियों की तनख़्वाहें बहुत कम होतीं। साल में दस-बारह रुपये से अधिक वे बचा न पाते। अँग्रेजी सेना को इधर-उधर भागना अधिक पड़ता, कभी अफगानिस्तान, कभी रंगून, कभी भारत में ही एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में। अँग्रेज अफ़सरों की लापरवाही से कई बार समय से वेतन या बकाया वेतन न मिलने पर पलटन के सिपाही कसमसा उठते। विद्रोह पर उतर आते।
मुगल सत्ता के अन्तिम बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ दिल्ली पर सत्तासीन अवश्य थे पर उन्हें भी पता था कि उनका शासन नाममात्र का ही है। अँग्रेजी शासन की जड़़ें मजबूत हो रही थीं। शायद ‘ज़फ़र’ को अपनी शक्ति का अनुमान था। इसीलिए वृद्ध शाह शेरो शायरी में मन बहलाने लगे। जिस ईस्ट इंडिया कम्पनी ने मुगलों से भारत में व्यापार करने की अनुमति माँगी थी, वही अब मुगलों की सत्ता का शीघ्रता से अन्त करने में लगी थी। अँग्रेज अधिकारी बादशाह की इज़्ज़त पर बट्टा लगाते। मौक़ा पाते ही तौहीन करने से नहीं चूकते। बादशाह देखते और चुप लगा जाते। देश के अधिकांश क्षेत्रों में अँग्रेजों का शासन हो चुका था। कोई भी भारतीय सिपाही कम्पनी की सेना में तीस साल सेवा करने के बाद भी अधिकारी नहीं बन सकता था। भारतीय सिपाहियों की अँग्रेज कोई इज़्ज़त न करते। सिपाही पूरी मेहनत करते पर उन्हें अक्सर ‘बेवकूफ़, जंगली, निग्गर’ कहा जाता। अँग्रेज अधिकारी भारतीय रीतिरिवाज , भाषा और संस्कृति का मज़ाक उड़ाते। धर्म की धज्जियाँ उड़ाते। सिपाही सुनते, कसमसाते पर कुछ कर न पाते। ईस्ट इंडिया कम्पनी विलायती माल खपाने और मुनाफ़ा कमाने में लगी थी। जो कारीगर कपड़ा बनाते उन्हें हतोत्साहित किया जाता। लंकाशायर का बना कपड़ा बाज़ारों में बिकने के लिए भरा पड़ा था। जो व्यापारी विलायती माल बेचते, उन्हें अँग्रेजी शासन की ओर से सहूलियतें दी जातीं। उनका सम्मान किया जाता। छोटे उद्योगों का जाल छिन्न भिन्न हो रहा था। इससे युवक बेरोज़गार होने लगे थे।
ढाका के कपड़ा कारीगरों का दल अँग्रेज प्रशासक से मिल कर लौटा तो बहुत उदास था। घर लौटकर भी चैन कहाँ? क्या किया जाय? सभी की ज़बान पर यही सवाल । घर की औरतों ने पूछा कि साहब ने किस लिए बुलाया था? पुरुषों से बातें जानकर सभी का चेहरा फ़क पड़ गया। छोटे बच्चे भी परेशान हो उठे। अब क्या होगा? फुसफुसाहट में ही धीरे-धीरे ख़बर पूरे क्षेत्र में फैल गई। सायंकाल सभी फिर इकट्ठा हुए। क्या किया जाय? यही प्रश्न फिर सामने।
‘हम मेहनत करके अपने बाल-बच्चों का पेट पालते हैं। पर कम्पनी बहादुर से यह भी देखा न गया।’ करामत ने सिर खुजाते हुए कहा।
‘अब क्या किया जाय?’ अन्सारी ने फिर वही सवाल किया। किसी की समझ में कुछ आ नहीं रहा था। ‘कम्पनी से लड़ना आसान नहीं है। हम कारीगर लोग हैं। ताना-बाना, भरनी हमारा हथियार है।’ करामत बताते रहे। ‘पीढ़ियों से हम लोग यह धन्धा करते आए हैं। हम किसी को नुक़्सान नहीं पहुँचाते पर कम्पनी बहादुर....।’ कहते हुए अन्सारी की आँखें भर आईं।
‘हम-आप नुक़्सान पहुँचा रहे हैं। कम्पनी अपना माल बेचना चाहती है। हमारा माल नहीं बनेगा तो कम्पनी का माल आसानी से बिकेगा।’ करामत ने समझाया। ‘पर हम उनके माल को बेचने से रोक तो नहीं रहे हैं।’ अन्सारी ने टोका।
‘यह बाजार है मियाँ। हमारा माल बनेगा तो उनके माल से टक्कर होगी।’ करामत की बात लोगों की समझ में आने लगी। ‘तब तो मामला और मुश्किल होता जा रहा है।’ अन्सारी उदास हो गए।
‘क्या कोई हमारी मदद कर सकता है?’ एक युवक ने पूछा।
करामत ने नज़र दौड़ाई। ‘बहुत मुश्किल है।’ उनके मुख से निकला। ‘सब जगह कम्पनी का ही राज होता जा रहा है। कहीं दूसरी जगह भी नहीं जा सकते।’
‘पर घर छोड़ना इतना आसान नहीं है चाचा।’ युवक ईमान का दर्द छलक उठा। ‘घर, बाज़ार सब छोड़कर कहाँ जाओगे?’
‘मुश्किल दिन आने वाले हैं। लोगों का धन्धा चौपट हुआ तो बच्चे क्या करेंगे?’ अन्सारी की कराह निकली।
‘चोरी-डकैती करेंगे?’ युवा बोल पड़ा। उसकी आँखें जल रही थीं।
‘जब अपना धन्धा करने को नहीं मिलेगा तो क्या होगा? कभी कभी मजबूरी में भी हथियार उठाना पड़ता है। विलायती कम्पनी चाहती है कि विलायती माल ही यहाँ बिके पर हम लोग कहाँ जाएँगे? कैसे ज़िन्दा रहेंगे?’ युवा ईमान बेचैन हो बड़बड़ाता रहा। ‘अपना धन्धा करना है चाचा तो अँग्रेजी कम्पनी का राज ख़त्म करना होगा’, ईमान ने मुक्का लहराते हुए कहा। ‘चुप बेटा चुप।
कोई सुन लेगा तो कम्पनी बहादुर सब को मौत के घाट उतरवा देगा।’ करामत ने टोका। ‘क्या सच बोलना गुनाह है चाचा?’ युवा ईमान ने अपना ओंठ काटते हुए पूछा।
1848 में अर्ल आफ डलहौजी ईस्ट इंडिया कम्पनी का गवर्नर जलरल बन कर कलकत्ता आए थे। उम्र चौवालीस वर्ष। कुछ करने की इच्छा शक्ति से भरपूर। आज छह वर्ष बाद वे अपने दफ़्तर में बैठे भारत के नक़्शे पर नज़र डाल रहे थे। जिस कम्पनी ने व्यापार के लिए मुगलों से अनुमति ली थी उसे अब शासन और व्यापार दोनों का चस्का ही नहीं लग गया बल्कि देश के अघिकांश भाग पर उसका कब्ज़ा हो चुका है। डलहौजी का दिमाग़ दौड़ रहा है। हाथ में पेंसिल। नक़्शे पर पेंसिल से निशान बनाते हुए। उनकी पेंसिल अवघ पर आकर रुक गई। उन्होंने अवध और कम्पनी के बीच की संधियों का अध्ययन कर लिया है। वे निरपेक्षता नहीं, पूर्ण स्वामित्व के पक्षधर हैं। अवध जिसे अन्न का भंडारगृह कहा जाता है, यदि कम्पनी के शासन में आ जाए तो?
नक़्शे को देखते हुए डलहौजी के मन में विभिन्न तरह के बिम्ब उठते रहे। अब देर करने की ज़रूरत नहीं। वे सोचते रहे। ‘ओ यो’ उनके मुख से निकला। अब डलहौजी की नज़र लग गई है अवध पर। वे जो तय कर लेते हैं, करके ही दम लेते हैं। उनकी विलय नीति ने अनेक रियासतों में हड़कम्प मचा दिया है। जिन राजाओं और नवाबों की कोई सन्तान नहीं थी उन्हें वारिस गोद लेने की अनुमति नहीं मिली। उनका राज कम्पनी शासन में मिला लिया गया। कभी-कभी किसी राजा के मरने की प्रतीक्षा भी मुश्किल से की गई। राजा के मरने के पहले ही विलय की योजना बन गई। नागपुर पर कब्ज़ा कर लिया गया। पंजाब और ब्रह्मा (म्यांमार) को जीतकर कम्पनी ने पहले ही अपने अधिकार में कर लिया था। डलहौजी के मन में अवध खटकता रहा। नक़्शे में उन्होंने अवध के क्षेत्र को घेर दिया। फिर पेंसिल से उसे रँग दिया। अवध के नवाब के तो कई बच्चे हैं। फिर.... फिर क्या? उपाय तो करना है। वे सोचते रहे।
कर्नल ओट्रम पाँच दिसम्बर 1854 को प्रभारी रेजीडेन्ट के रूप में लखनऊ पहुँचे। नवाब वाजिद अली शाह अस्वस्थ थे। प्रधान वज़ीर अली नक़ी खाँ और भावी नवाब मिर्ज़ा फ़लक क़द्र ने गर्म जोशी से रेजीडेन्ट का स्वागत किया। कुछ दिनों बाद कर्नल ओट्रम डॉ० फायरेर के साथ नवाब से उनके व्यक्तिगत कक्ष में मिले। डॉ० फायरेर ने अनुभव किया कि दो सप्ताह पहले वे जब नवाब से मिले थे, की अपेक्षा आज अधिक अस्वस्थ लग रहे हैं। रेजीडेन्ट की एक यह औपचारिक भेंट थी। नवाब की अस्वस्थता को देखते हुए उन्होंने राजकीय कार्यों की कोई चर्चा नहीं की, यह सोचकर कि कहीं उस चर्चा से नवाब के स्वास्थ्य पर बुरा असर न पडे़।
कर्नल स्लीमन जब रेजीडेन्ट थे, वे निरन्तर नवाब एवं उनकी शासन प्रक्रिया की शिकायत गवर्नर जनरल से करते रहे। कर्नल ओट्रम के आ जाने से नवाब , राजमाता और उनके सहयोगियों ने थोड़ी राहत की सांस ली। पर नए रेजीडेन्ट के हाथ भी बँधे थे। कर्नल ओट्रम के कार्यभार ग्रहण के पहले ही 21 नवम्बर को डलहौजी ने रेजीडेन्ट को कार्य करने के लिए कुछ आवश्यक सिद्धान्त तय करते हुए लिखा था-
नवाब की मृत्यु होने पर तत्काल उनके बड़े लड़के को गद्दी पर बिठा दिया जाय। वज़ीर प्रशासन पूर्ववत चलाते रहें। 1801 की संधि के अनुरूप रेजीडेन्ट का नियंत्रण बना रहेगा जब तक भारत सरकार से कोई निर्देश न प्राप्त हो।
यदि नवाब के मृत्यु की संभावना न हो तो रेजीडेन्ट पूर्व में चले आ रहे सिद्धान्तों के अनुरूप प्रशासन का काम देखते रहेंगे। यद्यपि भारत सरकार अवध के कार्यों में अधिक हस्तक्षेप करने के पक्ष में नहीं है किन्तु इस बात को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता कि अवध की सरकार को पिछले सात वर्षो से मेरे पूर्ववर्ती ने परिवीक्षा पर रखा था।....
हमारी पूर्व चेतावनी अब भी लागू है और हमें पूरा विश्वास है कि अवध की सरकार ने उन सुधारों को नहीं लागू किया है जिनकी अपेक्षा सात साल पहले की गई थी। हमारी चेतावनियों का कोई असर नहीं हुआ।....
मैं यह प्रस्तावित करता हूँ कि प्रभारी रेजीडेन्ट लखनऊ में कार्यभार ग्रहण करने पर उस क्षेत्र की जाँच कराएँगे यह देखने के लिए कि अवध के प्रशासन की वही स्थिति है जो कर्नल स्लीमन ने समय समय पर अपनी रिपोर्टों में दिखाई है। लार्ड हार्डिंग ने सात वर्ष पहले जिन सुधारों की अपेक्षा नवाब से की थी, उनमें से कितने का पालन हुआ है और 1801 की संधि के अनुसार कम्पनी सरकार को जो दायित्व सौंपा गया था तथा 1831 में विलयम बेंटिंग द्वारा जिसकी पहचान की गई और सात वर्ष पहले लार्ड हार्डिंग द्वारा जिसे पुनः याद दिलाया गया, उन दायित्वों को ईमानदारी से पूरा करने के लिए क्या कोई सख़्त कदम उठाने की ज़रूरत है जो अवध राज्य के बुराइयों की दवा बन सके।
मैं हमेशा सोचता रहा हूँ कि अवध की जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्वों की अधिक उपेक्षा करना एक बड़ी नैतिक भूल है। मैंने हमेशा इस मत को खुले आम प्रकट किया है।
डलहौजी तथा उनके कौंसिल के सदस्यों जे.ए. डोरिन, कर्नल जॉन लो, बारनीस पीकाक, जानपीटर ग्रान्ट को भी अस्थायी हस्तक्षेप की नीति पसन्द नहीं थी। अस्थायी हस्तक्षेप के सम्बन्ध में अक़्सर एक उदाहरण दिया जाता- यदि एक आदमी अपने हाथी को भीड़ में लाता है। उसमें हाथी को नियंत्रित करने की शक्ति है किन्तु वह लोगों को रौंदने से बचाने के लिए हस्तक्षेप नहीं करता। जज़ उसे फाँसी की सज़ा देगा जैसे उसने अपने ही हाथों लोगों को मारा हो। अहस्तक्षेप के पक्ष में की गई कोई भी दलील उसे फाँसी से बचा नहीं सकेगी।
सदस्य अवध को कम्पनी के अधिकार में देखना चाहते थे। डलहौजी और कौंसिल के सदस्यों की संस्तुतियों को देखते हुए एडमान्स्टन, भारत सरकार के सचिव ने अपने 24 नवम्बर के पत्र द्वारा कर्नल ओट्रम को निर्देशित किया कि अवध की दशा पर जाँच कराकर रिपोर्ट प्रस्तुत करें।
जैसे ही रेजीडेन्ट को पत्र मिला, उन्होंने अवध की सीमा से सटे जिलों- शाहजहाँपुर, फतेहगढ़, कानपुर, फतेहपुर, आज़मगढ़, जौनपुर, गोरखपुर, इलाहाबाद के मजिस्ट्रेटों को लिखकर पूछा कि पिछले कुछ वर्षों (छह या सात) में क़त्ल, लूट, जानवरों के खुलने या डकैती की घटनाएँ क्रमशः बढ़ी हैं या घटी हैं। यदि घटी तो क्या यह अवध सरकार की कुशलता के कारण या आबादी की घटोत्तरी के कारण।
कम्पनी के लाट साहब को उम्मीद थी कि अवध के चारों ओर कम्पनी का शासन है। अवध के कुप्रबन्ध से परेशान होकर लोग कम्पनी शासित क्षेत्रों में शरण लेते होंगे। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं था। फतेहपुर के मजिस्ट्रट के अतिरिक्त सभी ने शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए अवध के नाज़िमों की प्रशंसा की। फर्रुखाबाद के मजिस्ट्रेट ने लिखा कि किसी विशेष विपदा को छोड़कर कोई अवध से उनके क्षेत्र में नहीं आया। यही स्थिति पूरे क्षेत्र की थी। नवाबी सेना से जुड़े अधिकारियों- मेजर ट्रूप, कैप्टन बनबरी, कैप्टन ओर और कैप्टन सिंकलेयर से भी जानकरी माँगी गई। इन अधिकारियों ने भी ऊँचे अधिकारियों के भ्रष्टाचार आदि की शिकायत तो की पर अपराघ बढ़ना स्वीकार नहीं किया।
कर्नल ओट्रम बेलीगारद के लान में टहल रहे हैं। प्रातः का समय। मार्च की हल्की गुलाबी ठंड अत्यन्त सुखद। उन्होंने ओस से नहाए एक लाल गुलाब के फूल को तोड़कर कर हाथ में लिया ही था कि उनकी पत्नी आ गईं। फूल उन्हें भेंट किया। पत्नी ने खुशी से उन्हें चूम लिया। दोनां साथ साथ टहलते रहे। ख़ानसामा दो कुर्सियाँ ले आया। एक छोटी मेज़ भी लगा दी। एक तश्तरी में दो कप और केटली में चाय ले आया। दोनों कुर्सियों पर आकर बैठ गए। चाय की चुस्कियों के साथ हलकी-फुलकी बातें भी। पर ओट्रम का मन अशान्त था। जो रिपोर्टें प्राप्त हुई हैं, वे लार्ड डलहौजी को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं थी। बार बार बडे़ साहब के निर्देश उनके दिमाग में कौंध जाते। वे उठ पड़े। पत्नी ने टोका। कुछ ज़रूरी फाइलें देखना बताकर वे अपने दफ़्तर में जाकर बैठ गए। मजिस्ट्रेटों और सैन्य अधिकारियों की रिपोर्टां को फिर से
एक बार पढ़ा। अब भी उन्हें कोई सार्थक बिन्दु दिखाई नहीं पड़ा। उनकी मेज़ पर ही पूर्व रेजीडेंट कर्नल स्लीमैन की भेजी हुई रिपोर्टों की फाइल थी। उन्होंने उसे पढ़ना शुरू किया। ज्यों ज्यों वे पढ़ते जाते उनका चेहरा प्रसन्नता से दीप्त होता जाता। इस फाइल का उपयोग तो किया जा सकता है, उन्होंने सोचा। पुरानी रिपोर्टें नवाब के खि़लाफ़ कोई कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त हैं। साल-छह महीने में कहीं कुछ बदल तो गया नहीं। कम्पनी को नवाब के खि़लाफ़ सबूत चाहिए। पूर्व रेजीडेन्ट की रिपोर्टें ज़रूरी दस्तावेज़ का काम करेंगी। दफ़्तर से निकलकर वे बंगले पर गए। अब एक सार्थक रिपोर्ट भेजी जा सकती है। नहा कर निकले। कपडे़ पहनकर डायनिंग टेबल पर आकर बैठ गए। पत्नी भी आकर बैठीं। मक्खन टोस्ट, सेब की कुछ फाँके उसके साथ काफी, यही हल्का जलपान लेकर वे दफ़्तर के लिए जल्दी निकले। आज उन्हें रिपोर्ट पर काम करना था।
जिस समय रेजीडेन्ट अपने दफ़्तर में बैठकर रिपोर्ट लिखवा रहे थे ठीक उसी समय ज़र्द महल में नवाब राजमाता के साथ विचार-विमर्श में व्यस्त थे। आज उन्हें नींद नहीं आई थी। राजमाता भी कई दिनों से बहुत चिन्तित दिख रही थीं। उनके खि़लाफ़ रिपोर्टें जा रही हैं। कम्पनी बहादुर तो इसी ताक में बैठे हुए हैं कि कोई बहाना मिले और अवध कम्पनी के शासन में आ जाए। उनका यह पुश्तैनी शासन आगे शायद बरक़रार न रहे। कम्पनी बहादुर की नज़रें अवध पर लगी हुई हैं। ‘हम अपनी रैयत का पूरा ख़याल रखते हैं,’ नवाब ने कहा ‘रैयत भी हमसे मुहब्बत करती है। पर कम्पनी बहादुर को इन सबसे मतलब नहीं।’ राजमाता ने कहा,‘पुराने रेजीडेन्ट तो हम लोगों से दुश्मनी ही साधते रहे। नए क्या करेंगे यही देखना है।’ ‘खुदा तो इन्साफ़ करता है’, नवाब के मुँह से निकला। ‘ज़रूर करता है’,राजमाता ने हुँकारी भरी। ‘अगर रेजीडेंट दुश्मनी साधते हैं तो हम बडे़ लाट से मिलेंगे। वह भी नहीं सुनेंगे तो विलायत तक जाएँगे। मलिका से मिलेंगे। संसद में बात रखवाएँगे। यूँ ही छोड़ने वाले नहीं हैं। बेटे, तू फ़िक्र न कर। कई राज्यों को कम्पनी सरकार ने हड़प लिया है। वर्षो से अवध के बारे में भी यह लोग साज़िश रच ही रहे हैं। यहाँ की ज़रख़ेज ज़मीन इनके मुँह में पानी भर देती है। अंग्रेज लोग हम सबको बेवकूफ़ समझते हैं। हमारे मज़हब, रस्मो-रिवाज की खिल्ली उड़ाते हैं। हमारे सिपाहियों को ईडिएट कहते हैं। ईसाई मज़हब फैलाने की कोशिश करते हैं। मज़हबी जुनून फैलाकर उसका फ़ायदा उठाना चाहते हैं। हर जगह टाँग अड़ाते हैं। कुछ दिन पहले ही हनुमान गढ़ी के मामले को तूल देने की कोशिश की गई। वह तो कहो तू ने बड़ी दानिशमन्दी और हिम्मत से काम लिया।’ राजमाता ने बेटे की तारीफ़ की। तारीफ़ के कुछ शब्द सुनकर नवाब को राहत मिली। इस समय राजमाता और रैयत से ही उन्हें मुहब्बत मिल रही है। नाश्ता तैयार हो चुका था। माँ और बेटे दोनों दस्तरख़्वान की तरफ़ बढ़ गए।
रेजीडेन्ट महोदय अब भी अपने दफ़्तर में जमे हुए हैं। वे बोलते जा रहे हैं और लिपिक उन्हें कागज़ पर उतारता जा रहा है। लंच का समय हो गया पर साहब रिपोर्ट लिखवाने में ही व्यस्त हैं। जब लंच का समय बीतने लगा तो मैडम ने खानसामा को दौड़ाया। खानसामा को देखते ही कर्नल ओट्रम उठ खड़े हुए। लिपिक भी कागज़ समेटता हुआ अपनी सीट की तरफ बढ़ गया। घर जाते हुए भी ओट्रम के दिमाग़ में रिपोर्ट की ही बातें घूम रही हैं। बेलीगारद के पुराने रिकार्ड उन्हें राहत दे रहे हैं। अब रिपोर्ट बन जाएगी जिससे बडे़ साहब भी सन्तुष्ट होंगे। घर पहुँचकर वे सीधे भोजन की मेज़ पर बैठ गए। मैडम बात करना चाहती थीं, पर साहब का दिमाग़ जिस उलझाव में था उसमें इधर उधर की बातों के लिए जगह न थी। मैडम ने कहा भी, ‘ह्वाई, ह्वाई, ह्वाई यू लुक सो.....?’ पर कर्नल इस क्यों का उत्तर भी न दे सके केवल इतना कहा ‘टुडे आइ एम बिजी इन आफिसियल वर्क।’ ‘यू पीपुल ऑर आलवेज़ बिज़ी’ मैडम ने ताना दिया।
कई दिनों की मेहनत के बाद जब रिपोर्ट तैयार हो गई, कर्नल ओट्रम बहुत खुश हुए। आज आठ बजे शाम जब वे दफ़्तर से उठे तो सीधे घर पहुँचे और पत्नी को बाहों में भरते हुए कहा, ‘अ...हैव डन द जॉब।’ दोनों खाने की मेज़ पर आ गये। खानसामा शैम्पेन की बोतल और सुराहीदार गिलास रख गया। एक प्लेट में तले हुए गर्म गर्म कबाब लिए हुए खानसामा उपस्थित हुआ। मैडम ने शैम्पेन को दोनों गिलासों में ढाला। कबाब के साथ चुस्कियाँ लेते एक दूसरे का चेहरा देखकर मुस्कराते रहे। मैडम ने गिलास में पुनः शैम्पेन ढाला। उसे पीते हुए ओट्रम के मुँह से निकल गया, ‘‘अब यह अवध हमारा होगा। द किंग विल गो।’’ मैडम ने सुना और उछल पड़ीं। उनके धक्के से शैम्पेन की बोतल लुढ़क गई और सारा शैम्पेन बह गया। खानसामा के सहयोगी इल्तिफ़ात ने बात सुनी और चौंक गया। वह यहाँ मुगलई गोश्त बनाने के लिए नियुक्त हुआ है। साहब को मुगलई गोश्त पसंद है। इल्तिफ़ात जब घर लौटा तो साहब की बात उसे परेशान करने लगी। उसका परिचय एक मुन्नी जान तवायफ़ से था जिसका नवाब के यहाँ आना जाना था। वह मुन्नी जान के यहाँ पहुँचा। उन्हें अलग ले जाकर बताया कि किसी तरह यह बात नवाब तक पहुँच जाए कि उनके खि़लाफ़ साज़िश हो रही है। मैंने बडे़ साहब को यह कहते सुना है कि अवध अब हमारा होगा। मुन्नी जान भी दुखी हुई। नवाब से उसे परवरिश मिलती थी। नवाब ने कितने ही गायकों, संगीतकारों को काम में लगा दिया था, यद्यपि इसकी आलोचना भी लोग किया करते थे। पर कोई नवाब को सत्ताच्युत नहीं देखना चाहता था।
लखनऊ की बाज़ारें देशी और विलायती माल बेचतीं। मस्जिदों में अजान होती मंदिरों की घंटियाँ घनघनातीं। कभी-कभी कोई सिरफिरा अफ़वाह फैलाकर पानी में पत्थर फेंक देता। लहर उठती, धीरे-धीरे पानी शान्त हो जाता। अँग्रेज जिस ताँगेवाले पर बैठ जाते उस पर देशी आदमी नहीं बैठने देते। कभी कभी ताँगेवाले को कुछ पकड़ा देते पर बहुत बार कुछ नहीं देते। ताँगेवाले कुछ माँगने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। व्यापारी अँग्रेजी जानने वालों को अपना सलाहकार या सहायक बनाने लगे थे। इसीलिए कुछ संभ्रान्त घरों के बच्चे अँगेजी पढ़ने की ओर उन्मुख हुए थे।
उस समय पंडित, कायस्थ और मौलवी आम जन को शिक्षित करते थे। जो बच्चों को निःशुल्क शिक्षित करते वे प्रायः हुकूमत से माफ़ी ज़मीन पाते। यह ज़मीन सौ रुपये लगान तक की होती। गाँव में भी संस्कृत पढ़ाने वाले पंडित और फारसी-कैथी पढ़ाने वाले कायस्थ मिलते। बनारस संस्कृत शिक्षा का बड़ा केन्द्र था। दस-पाँच वर्ष स्थानीय पंडितों या विद्यालयों में पढ़ने के बाद अधिक उँची शिक्षा के लिए बच्चे बनारस जाते। शुल्क लेने वाले अध्यापक प्रायः चार आने से आठ आने तक शुल्क लेते।
सूर्योदय से सूर्यास्त तक के कार्यक्रम के बीच दोपहर दो घण्टे का अन्तराल भोजन, विश्राम के लिए होता। मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में मस्जिद के साथ मक़्तब होते जिसमें अरबी-फारसी और कुरऑन की शिक्षा दी जाती। उच्च शिक्षा के लिए मदरसे थे। उसके साथ यतीनख़ाने की भी व्यवस्था होती।
ईसाई मिशनरी भी अंग्रेजी और देशी भाषाएँ पढ़ाते। ईसाई मिशनरियों ने लखनऊ में दो स्कूल खोले-
क्रिश्चियन गर्ल्स स्कूल और लामार्टीनियर कालेज।
क्रिश्चियन गर्ल्स स्कूल को अवध सरकार से दो सौ रुपये प्रतिमाह की सहायता प्राप्त होती। इसमें अँग्रेजी के साथ वर्नाक्युलर की भी पढ़ाई होती। लामार्टीनियर का संचालन मिशनरी और ब्रिटिश सरकार के हाथ में था। सन् 1851 में इस कालेज में कुल 186 छात्र पंजीकृत थे। इसमें 73 क्रिश्चियन 47 मुस्लिम और 66 हिन्दू थे। अठारह अध्यापकों में सात उर्दू, अरबी और फारसी के थे। अँग्रेजी और फारसी का अध्ययन कर लड़के सरकारी और गै़रसरकारी दोनों तरह की नौकरियों में वरीयता पा जाते। कुछ बच्चे जो इन विद्यालयों में प्रवेश नहीं ले पाते किन्तु अंँग्रेजी सीखना चाहते, वे मिशनरी अध्यापकों से सम्पर्क करते।
चौक में रहने वाले दोनों बच्चे कुदरत अली हम्ज़ा और बद्रीनाथ एक फ़ादर से अँग्रेजी भी सीख रहे थे। फ़ादर पढ़ाते-पढ़ाते जब तब इन दोनों को ‘इडियट’ कह देते। हिन्दू और मुस्लिम रीति-रिवाजों की खिल्ली उड़ाते। पर अपना शुल्क एक महीने का अग्रिम लेते। एक दिन फ़ादर से पढ़कर दोनों लौट रहे थे। हम्जा़ ने कहा’, मैं पढ़ाई बंद कर रहा हूँ बद्रीनाथ।’
‘ऐसा न करो हम्ज़ा। तुम्हारे साथ मुझे भी सहारा मिलता है।’
‘फ़ादर गाली बकता है। हमारे रस्मो रिवाज और मज़हब को बुरा बताता है। मैं इसे बर्दास्त नहीं कर पा रहा हूँ।’ हम्ज़ा का दर्द फूट पड़ा।
‘हम लोगों ने दो महीनों में एक किताब पढ़ी है। अभी कुछ दिन पढ़कर ही हम लोग काम लायक अँग्रेजी सीख पाएँगे। फ़ादर नहीं जानता कि अध्यापक को कैसा व्यवहार करना चाहिए। हमें सब कुछ सुनते हुए यह भाषा सीख लेनी चाहिए।’ बद्रीनाथ ने राह चलते हुए समझाया।
‘नहीं बद्रीनाथ। अब बहुत हो चुका। मेरा मन करता है कि फ़ादर का गला घोट दूँ।’ हम्ज़ा रोश से भर गया। ‘पागल न बनो हम्ज़ा। फ़ादर का गला घोट कर हमें क्या मिलेगा? देख रहे हो लखनऊ में अँग्रेजों का दख़ल बढ़ता जा रहा है। अगर उनकी साज़िश समझना चाहते हो तो भी अँग्रेजी सीख लो।’ बद्रीनाथ समझाते रहे।
इसके बाद दोनों चुपचाप चलते रहे। चौक आ गया। बद्रीनाथ अपने घर की ओर मुड़े तो हम्ज़ा से कहा, ‘वादा करो पढ़ाई नहीं छोड़ोगे।’ हम्ज़ा ने धीरे से कहा ‘वादा ’ और अपनी गली की ओर मुड़ गया। हम्ज़ा के वालिद ने पूछा, ‘पढ़ाई ठीक से चल रही है?’ ‘फ़ादर हमें गधा कहता है।’ हम्ज़ा अपने को रोक नहीं सके।
अँग्रेज तो पूरी हिन्दुस्तानी जमात को बेवकूफ़ कहते हैं।’ वालिद की आवाज़ भी भर्रा गई थी।
‘अब्बू क्या अँग्रेज यहाँ राज करेंगे?’
‘कुछ कहा नहीं जा सकता बेटा। अवध के चारों ओर अँग्रेजों का कब्ज़ा हो चुका है। अवध उन्हें खटक रहा है। बहुत मुश्किल समय आ गया है।’
‘क्या कुछ किया नहीं जा सकता अब्बू?’ तब तक ढाका से आया ईमान चौक का एक चक्कर लगा कर आ गया। अब्बू कुछ काम से बाहर निकले। ईमान और हम्ज़ा बैठक में बातें करते रहे।
‘मैं आया था अँग्रेजों के राज के बाहर रोज़ी की तलाश में। पर भाई हम्ज़ा यहाँ के हालात भी कुछ अच्छे नहीं हैं। मैं कुछ कारीगरों से मिलकर आया हूँ। वे भी उदास हैं। देशी धन्धे चौपट हो रहे हैं। विदेशी माल की आमद बढ़ती जा रही है। इस ज़रखेज़ ज़मीन के लोग बेरोज़गार हो जाएँगे।’
‘क्या होगा ईमान भाई? तुम तो अँग्रेजी राज में रह रहे हो?’ हम्ज़ा भी कुछ उदास दिखे। इसी बीच हम्ज़ा की बहन नसरीन एक तश्तरी में गुड़ की बनी पार्ही के टुकड़े तथा दो गिलास पानी लेकर आ गई। बांस के मोढ़े पर रखा। ‘पानी पी लो, फिर बात करना।’ खिला हुआ चेहरा। चेहरे पर ओस सी पवित्र मुस्कान। वह अन्दर चली गई। दोनों ने पार्ही के टुकडे़ खाकर पानी पिया और फिर बात करने लगे।