आँच - 4- मुश्किल समय है?(भाग -2) Dr. Suryapal Singh द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँच - 4- मुश्किल समय है?(भाग -2)

एक ओर अवध के भाग्य का फ़ैसला होना था दूसरी ओर मुसलमानों ने हनुमानगढ़ी के पास की एक ज़मीन में नमाज़ पढ़ने पर ज़ोर दिया। औरंगजेब के समय में हनुमानगढ़ी को ध्वस्त कर दिया गया था और उसी के मलबे से बगल में एक मस्जिद का निर्माण करा दिया गया था, किन्तु हिन्दुओं ने उस स्थान को छोड़ा नहीं। जब शुजाउद्दौला बक्सर जाने के लिए उधर से गुज़रे तो उन्होंने हिन्दुओं के लिए मन्दिर बनवा दिया जिस पर बैरागियों ने पूजा अर्चना शुरू कर दिया। औरंगजेब ने जो ढाँचा खड़ा किया था, वह धीरे धीरे गिर गया। बाद में राजा दर्शन सिंह ने हनुमानगढ़ी को एक मजबूत दीवार से घेर दिया और बैरागियों के लिए कई कमरे बनवा दिए। 1855 में कुछ मुस्लिमों ने पुरानी मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की योजना बनाई जिसका बैरागियों ने कड़ा विरोध किया। अयोध्या और आसपास के मुस्लिमों ने शाह गुलाम हुसैन और उनके शिष्य मौलवी मुहम्मद शाह के नेतृत्व में आंदोलन शुरू कर दिया। सुल्तानपुर के नाज़िम आगा अली ने इन लोगों को समझाया कि वे अपना आन्दोलन तब तक स्थगित कर दें जब तक हुकूमत जाँच के बाद आप लोगों के अधिकार को मान न ले। मामला तत्काल दर्बार को सन्दर्भित किया गया। नवाब ने भी स्थिति की नजा़कत को भाँपते हुए सुल्तानपुर के नाज़िम और अयोध्या के कोतवाल मुनीम बेग खाँ को जाँच करने का आदेश दिया। इतना सब होने के बाद भी लगभग तीन सौ आन्दोलनकारी गुलाम हुसैन के नेतृत्व में जामा मस्जिद में इकट्ठा हुए और बैरागियों के खि़लाफ़ सभी को तैयार किया। उन्होंने उक्त मस्जिद की जगह पर 28 जुलाई को नमाज़ अदा करने की तारीख़ तय की। हिन्दुओं में भी आक्रोश पैदा हुआ और बहुत से हिन्दू जमींदार बैरागियों के मदद की तैयारी करने लगे। कैप्टन ओर उस समय फ़ैज़ाबाद में थे। उन्हें ख़बर मिली। वे अयोध्या आए। दोनो पक्षों से बात की। उन्हें समझाया और जाँच कराने का आश्वासन दिया। कैप्टन ओर एक बन्दूक सहित कुछ अपने सैनिकों को हनुमानगढ़ी और विवादित स्थान पर तैनात कर फै़ज़ाबाद लौट गए। कैप्टन हेयरसी भी अट्ठाइस जुलाई को दो बजे फ़ैज़ाबाद पहुँचे। अगले दिन कैप्टन हेयरसी और ओर दोनों अयोध्या पहुँचे और दोनों पक्षों को समझाने-बुझाने लगे। मुसलमान कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। अंग्रेज अधिकारियों ने मुस्लिमों से कहा कि वे नवाब के आदेश की प्रतीक्षा करें। यदि वे चाहें तो लखनऊ जाकर अपनी अर्ज़ी दे सकते हैं। बैरागी हर आदेश को मानने के लिए तैयार थे। अन्त में मुस्लिमों से कहा गया कि वे चार-पाँच दिनों की प्रतीक्षा करें जिससे इस घटना क्रम की सूचना नवाब को दी जा सके और वे समुचित कार्यवाही कर सकें। दोनों कैप्टन यह सोच रहे थे कि चार-पाँच दिन में और पलटनें और बंदूकें मँगवा ली जाएँगी। लेकिन मुस्लिमों ने इस प्रस्ताव को भी नामंजूर कर दिया तथा दोपहर नमाज़ के बाद बैरागियों पर आक्रमण करने की धमकी दी। कैप्टन ओर इन लोगों से उलझना नहीं चाहते थे। उन्होंने अपने डेढ़ सौ सैनिकों को वहाँ मुस्तैद करा दिया। इस बीच प्रस्ताव आया कि चारदीवारी में एक दरवाज़ा बना दिया जाय। कुछ लोगों का कहना है कि कैप्टन हियरसी ने यह प्रस्ताव किया था। कुछ लोग मजबूत दरवाज़ा लाने के लिए दौड़े। जब वे लौट रहे थे तो बैरागियों ने उन्हें घेर लिया और कहा कि दरवाज़ा बनाने का इरादा छोड़ दो। इसी पर दोनों समूहों में लड़ाई शुरू हो गई। इसी लड़ाई के बीच मुस्लिमों ने हनुमानगढ़ी में प्रवेश करना चाहा, बैरागियों ने उन्हें रोका और उनके नेता घायल हो गए। कैप्टन ओर और हेयरसी ने झगड़े को बचाने की कोशिश की। उन्होंने एक सिपाही को इस सन्देश के साथ भेजा कि वे अपने हथियार डाल दें और चले जाएँ। उन लोगों ने कहा कि वे अपने हथियार के साथ ही जाएँगे। तब तक बैरागियों ने बहुत से मुस्लिमों के टुकड़े कर डाले थे। शाह गुलाम हुसैन अपने कुछ अनुयायियों के साथ दीवार फाँदकर निकल गए। अनेक मुस्लिमों का क़त्ल हो चुका था और बहुत से घायल हो गए थे। बैरागी भी मरे और घायल हुए। उसके बाद बैरागियों ने नगर में भी तांडव मचाया। कैप्टन ओर ने मुस्लिमों की सुरक्षा के लिए जगह-जगह अपने सैनिकों को तैनात किया और फ़ैजा़बाद लौट गए।

इस संघर्ष की सूचना फ़ैज़ाबाद पहुँची तो वहाँ की मुस्लिम आबादी आक्रोशित हो उठी। आक्रोशित भीड़ को तितर-बितर करने के लिए तहसीलदार मिर्ज़ा अली को बहुत मशक्क़त करनी पड़ी। शहर कोतवाल के प्रयासों से भीड़ तितर-बितर हुई। शाह गुलाम हुसैन अयोध्या से भागकर फ़ैज़ाबाद के निकट कोन्हाई गाँव पहुँचे। वहाँ से उन्होंने अपने आन्दोलन को संगठित करने की कोशिश की। रेजीडेन्ट ने नवाब को सुझाव दिया कि शाह गुलाम हुसैन, मौलवी मुहम्मद शाह तथा उनके साथियों को गिरफ़्तार कर लिया जाय तथा उनसे सदाचार के लिए ज़मानतें ली जाएँं। नवाब ने उन्हें आश्वासन दिया कि आन्दोलनकारियों के खि़लाफ़ कड़ी कार्यवाही की जाएगी। उन्होंने स्वयं कहा कि इस शरारत की जड़ गुलाम हुसैन ही है। महामहिम ने रेजीडेन्ट को आश्वस्त किया कि चकलेदार आग़ा अली ख़ान और राजामान सिंह को झगड़े का हल निकालने के लिए फै़ज़ाबाद भेजा गया है। बीस बन्दूकों सहित चार पैदल पलटन भेजी गई है। रेजीडेन्ट ने नवाब को सुझाया कि कैप्टन ओर, राजा मान सिंह और आग़ा अली ख़ान को मामले को सुलझाने के लिए अधिकृत कर दिया जाय। उन्होंने इस सलाह की तारीफ़ की और इसे स्वीकार कर लिया। लखनऊ में भी इस झगड़े की हवा लगी और इस्लाम के बैनर तले अमेठी में लोगों को इकट्ठा होने के लिए कहा गया। शहर के हज़ारों लोग अमेठी जाने के लिए तैयार हुए जिनको नवाब के गार्डो ने अमेठी जाने से रोका। नवाब ने शहर के मुख्य स्थलों पर लोगों के इकट्ठा होने की मनाही करा दी और अपने सैनिक तैनात कर दिए। पूरे अवध में संदेश प्रसारित कर दिया गया कि कोई हिन्दू या मुस्लिम दंगाइयों का साथ न दे। इन आदेशों के प्रसारित होने के बाद जब नवाब ने जाँच कमेटी गठित की तो उसमें उन तीनों व्यक्तियों को नहीं रखा जिसका सुझाव रेजीडेन्ट के साथ बैठक में दिया गया था। उन्होंने जिन लोगों को जाँच का काम सौंपा, वे थे-मौलवी निहालुद्दीन, हफ़ीजुल्लाह, फ़ैज़ाबाद के इमाम अली मुहम्मद तथा फ़ैज़ाबाद के क़ाज़ी। इन लोगों ने अनेक साक्ष्यों की जाँच परख की और फैसला मुस्लिमों के पक्ष में दिया। मस्जिद के पक्ष में गवाही देने वालों में हिन्दू और मुस्लिम दोनों थे। इस रिपोर्ट ने सारा दायित्व हिन्दुओं पर डाल दिया। वह जाँच समिति, जिसका सुझाव रेजीडेन्ट ने दिया था, भी जाँच करने के लिए आई। सात अगस्त को उसकी पहली बैठक हुई। राजा मान सिंह को जाँच का काम सौंपा गया और यह तय पाया गया कि उस जाँच का अन्तिम सत्यापन समिति के लोग करेंगे। राजा मान सिंह की जाँच में गढ़ी के अन्दर कोई मस्जिद नहीं मिली। उन्होंने हनुमानगढ़ी के महन्त से दो अनुबन्घ भी प्राप्त कर लिया। ग्यारह अगस्त को इस समिति ने रिपोर्ट दी कि बहुत से सुन्नी सिपहसालार और मुस्लिम सैनिकों ने आम मुस्लिमों से जो बात की है उससे वे आशावान हैं कि मिंस्जद पुनः स्थापित होगी और उनके भाइयों का बदला लिया जाएगा। इस समिति ने मौलवी निहालुद्दीन की समिति का भी विरोध किया और कहा कि नवाब ने पहले जो आदेश दिया था उसका यह खुला उल्लंघन था। रेजीडेन्ट ने भी इस समिति का विरोध किया और सुझाव दिया कि इसकी रिपोर्ट को कोई तवज्जो न दी जाय। रेजीडेन्ट ने हनुमानगढ़ी के महन्त से प्राप्त दोनों अनुबन्ध भी नवाब को अग्रसारित कर दिया। 10 अगस्त 1855 पहले के अनुबन्ध जिसमें महन्त बलराम दास, किसनदास, बंशीराम और देवीराम ने हस्ताक्षर किया था, में उल्लेख किया गया कि-
गुलाम हुसैन तथा अन्य ने हनुमानगढ़ी में एक मस्जिद का दावा किया है तथा इसी प्रकरण को लेकर हम लोगों से विवाद हुआ और जाफ़र अली और करमख़ान तथा अवध के अन्य लोग दुखी और नाराज़ होकर गुलाम हुसैन के साथ हो गए। अपनी पुरानी मित्रता और जान पहचान को ध्यान में रखते हुए हम घोषणा करते हैं कि हमारी उनसे कोई दुश्मनी नहीं है तथा आग़ा अली खाँ, राजा मानसिंह और कैप्टन ओर को अपनी ओर से हम मध्यस्थ स्वीकार करते हैं। हम महावीर की शपथ लेकर लिखते हैं कि हम अपनी ओर से किसी प्रकार की अशान्ति या गुलगपाड़ा इस शर्त पर नहीं करेंगे कि हमें कोई न छेड़े और न बुरा भला कहे। हमारी ज़मात के बैरागी कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जो इस अनुबन्ध के विपरीत हो। जैसे हम जाफ़र अली तथा अन्य को अपना मित्र मानते थे, अब भी मानेंगे। यदि हम इस अनुबन्ध के विपरीत कोई कार्य करते हैं तो सरकार जो भी सज़ा देगी, हमें मान्य होगी।
दूसरे अनुबन्ध में स्वीकार किया गया कि-
गुलाम हुसैन तथा अन्य ने दावा किया है कि हनुमानगढ़ी में एक मस्जिद थी। इस पर मुस्लिमों और हम लोगों के बीच विवाद हुआ। इसकी जाँच के लिए तीन व्यक्ति नियुक्त किए गए हैं। इनकी उपस्थिति तथा अपनी स्वेच्छा से हम यह लिखते हैं कि यदि ये तीनों महानुभाव जाँचकर यह सिद्ध करेंगे कि हनुमानगढ़ी में एक मस्जिद थी और इस सम्बन्ध में आदेश पारित करेंगे तो हम उसे स्वीकार करेंगे। इस संदर्भ में हम किसी प्रकार की आपत्ति नहीं करेंगे। जो हमने स्वीकार किया है, उसी के सबूत के तौर पर यह लिखा है।
इस समिति ने फै़ज़ाबाद में शुजाउद्दौला के मकबरे पर एक जनसभा की जिसमें अयोध्या और फै़ज़ाबाद के मुसलमानों से अपने दावे रखने को कहा गया। जो भी उपस्थित हुए, उनमें किसी ने भी मस्जिद होने की पुष्टि नहीं की। समिति ने उन सोलह व्यक्तियों को भी बुलाया जिनके बयान निहालुद्दीन समिति ने दर्ज़ किए थे। केवल ग्यारह उपस्थित हुए और उनके बयान भी पहले से भिन्न थे। महन्त ने कहा पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से अगर मस्जिद रही होती तो शहर कोतवाल ने देखा होता। जुम्मन ख़ाँ जो हनुमानगढ़ी के भवनों की मरम्मत में पिछले सोलह वर्षों से थे, ने भी बताया कि उसने कभी गढ़ी के आसपास कोई मस्जिद नहीं देखी। समिति ने शहर कोतवाल मुनीम बेग को पत्र लिखकर जानकारी माँगी। कोतवाल ने लिखा-पिछले तीस वर्षों से मैं अवध हुकूमत के अन्तर्गत शहर कोतवाल के पद पर हूँ। मेरे इस कार्यकाल में किसी भी मुस्लिम ने मुझे यह नहीं बताया कि हनुमानगढ़ी के आसपास कहीं कोई मस्जिद है और न अवध हुकूमत की ओर से ही इस संदर्भ में कोई जाँच करने का आदेश प्राप्त हुआ। राजा दर्शन सिंह जब नाज़िम थे तो उनके साथ मैं हनुमानगढ़ी गया था लेकिन वहाँ मैंने कोई मस्जिद नहीं देखी। मैंने यदि मस्जिद देखी होती तो देखभाल की व्यवस्था करता और मामले की सूचना अवध दर्बार को भी भेजता।



वैरागियों ने अवध के सूबेदार मंसूर अली खान सफ़दर जंग तथा नवाब वज़ीर शुजाउद्दौला की सनदें दिखाईं जिसमें अयोध्या के अधिकारियों को निर्देश दिया गया था कि वे हनुमानगढ़ी में महन्तों के रहने के लिए बनने वाले भवनों के निर्माण में मदद करें। इन सनदों में भी हनुमानगढ़ी के पास किसी मस्जिद का उल्लेख नहीं है। पहली सनद सफदर जंग द्वारा अभयराम बैरागी को दी गई थी। दूसरी सनद भी शुजाउद्दौला द्वारा अभयराम बैरागी को ही दी गई थी।
समिति ने उन्तीस अगस्त को मौलवी हफ़ीजुल्लाह सहित बहुत से सम्भ्रान्त मुसलमानों को हनुमानगढ़ी में बुलाया और उन्हें मस्जिद की जगह चिह्नित करने को कहा। उनमें से कोई भी जगह के सम्बन्ध में निश्चित सूचना नहीं दे सका। इन सभी कार्यवाहियों के बाद समिति ने बैरागियों के पक्ष में फ़ैसला दिया। रेजीडेन्ट ने नवाब को इस फ़ैसले को मानने के लिए कहा। जब यह रिपोर्ट लखनऊ पहुँची मुस्लिमों में एक सनसनी फैल गई। उनमें से बहुत से इकट्ठे हुए और शपथ ली कि इस धार्मिक काम के लिए जान की बाजी लगा देंगे। मौलवियों की एक परिषद ने मौलवी अमीरुद्दीन उर्फ अमीर अली को पाँचवा इमाम और इस अभियान का नेता चुना। अमीर अली अपने दो सौ अनुयायियों के साथ दो सितम्बर को लखनऊ से कूच कर गया। रेजीडेन्ट को चार दिन तक इसकी सूचना नहीं दी गई और न अख़बार नवीसों ने ही इस घटना की रिपोर्ट दी। अमीर अली ने पहला पड़ाव अमेठी में किया जहाँ मीर सफ़दर अली चकलेदार ने उसे मनाने की कोशिश की। उन्होंने यह भी कहा कि यदि किसी कानूनी जाँच में मस्जिद के अस्तित्व का पता चलेगा तो वे मस्जिद बनवाने की भरसक कोशिश करेंगे। मौलवी अब्दुल रज़्ज़ाक और उसके साथी तो लखनऊ लौट आए मगर अमीर अली पर कोई असर नहीं पड़ा। जब जेहादियों के रुख़ का पता वज़ीर-ए-आज़म को लगा तो उन्होंने नवाब से भेंट की। उन्हें यह बताया कि मैं इस मामले को दानिशमन्दी से निपटाने की कोशिश कर रहा हूँ लेकिन किन्नर लोग पर्दे के पीछे से इसे प्रोत्साहित कर रहे हैं। मौलवी अमीर अली बसीरुद्दीन और उसके लिपिक मीर हैदर का रिश्तेदार था। बसीरुद्दीन को जब वज़ीर-ए-आज़म की आशंका ओं का पता लगा तो उसने मीर हैदर को अमीर अली को बुलाने के लिए भेजा जिससे वह अपनी स्थिति साफ़ कर सके। मीर हैदर अमीर अली से मिला। अमीर अली वज़ीर-ए-आज़म से मिलने के लिए इस शर्त पर तैयार हुआ कि उसकी व्यक्तिगत सुरक्षा की जाएगी और सुरक्षित वापसी का बन्दोबस्त किया जाएगा।
अमीर अली लखनऊ आया और अमजद अली शाह के मकबरे में रुका। वज़ीर-ए-आज़म ने उसे समझाने की कोशिश की कि उसे खि़लअत प्रदान की जाएगी,किन्तु यह बातचीत टूट गई क्योंकि अमीर अली मस्जिद के अलावा और कुछ सुनने को तैयार नहीं था। वज़ीर-ए-आज़म ने उसे गिरफ़्तार करने का मन बनाया, बसीरुद्दीन ने याद दिलाया कि उसकी सुरक्षित वापसी का वादा किया जा चुका है। अमीर अली ने लखनऊ छोड़ दिया और आन्दोलन को पुनर्गठित करने में लग गया। छह सितम्बर को नवाब ने रेजीडेन्ट को लिखा कि अमीर अली विद्रोहियों को इकट्ठा करने में लगा है, लेकिन उसके विद्रोह को दबाने की व्यवस्था की गई है। अमीर अली ने बाँसा में अपना शिविर लगाया। सरकार को उसकी शक्ति का पता लगा तो तहसीलदार को उसे रोकने के लिए भेजा गया। रमज़ान अली और मीर सफ़दर अली को उसे वापस लाने का दायित्व दिया गया। दोनों ने मौलवी से मुलाकात की। बातें बढ़ जाने से अमीर अली ने इन दोनों को गिरफ़्तार कर लिया। कुछ समय बाद अपना अहं शान्त होने के बाद छोड़ दिया। मोहर्रम का महीना चल रहा था। वज़ीर-ए-आज़म ने शेख़ हुसैन अली को मौलवी के पास भेजा और यह संदेश दिया कि कम से कम मोहर्रम भर के लिए वे अपने अभियान को स्थगित कर दें। मौलवी को समझाया गया कि इस बीच नवाब को मौक़ा मिल जाएगा और उनसे किसी अनुकूल निर्णय की अपेक्षा की जा सकती है। मौलवी ने छह अक्टूबर तक के लिए अपना अभियान स्थगित कर दिया और अपने साथियों सहित सुहाली चला गया।



लखनऊ में अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था। हिन्दू और मुसलमान अपने अपने को सुरक्षित रखने की कोशिश में लगे थे। बद्री और हम्ज़ा मौलवी फ़ख़रुद्दीन अली से उर्दू फ़ारसी पढ़ रहे थे। तनाव देखते हुए बद्री घर से नहीं निकले। हम्ज़ा चौराहे तक आए। बद्री को नहीं देखा तो उन्हें बुलाने उनके घर की ओर चले गए। बद्री घर पर ही थे। हम्ज़ा ने पुकारा ‘बद्री’,तो बद्री के पिता आ गए। कहा,‘बेटा हम्ज़ा, शहर की हालत देख ही रहे हो। बद्री को कुछ हो गया तो मैं अनाथ हो जाऊँगा बेटा। उसकी माँ रो रोकर मर जाएगी। पढ़ाई तो फिर हो जाएगी पर....।’
‘चाचा, आप फ़िक्र न कीजिए। मेरे रहते कोई बद्री की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकेगा।’
‘भीड़ के आगे किसी की नहीं चलती यह तो जानते हो न?’
‘हाँ जानता हूँ। लेकिन शहर में अच्छे लोग भी हैं केवल जोश में पागल ही नहीं बसते हैं। हमें ऐसे लोगों के मंसूबों पर पानी फेरना है। डर कर बैठ जाना नहीं।’तब तक बद्री अपनी कापी लेकर बाहर आ गए। पिता से कहा, ‘बापू, हम्ज़ा भाई के साथ जाने में कोई ख़तरा नहीं है। वह ठीक कह रहा है। मैं मौलवी साहब से पढ़कर घर आ जाऊँगा।’
बद्री और हम्ज़ा दोनों चल पड़े। ‘हम अपना सब काम करते हुए जोश में पागल लोगों को जवाब दे सकते हैं, घर में बैठकर नहीं।’ हम्ज़ा ने बात आगे बढ़ाई। ‘अल्लाह का घर झगड़े की जड़ बन जाएगा,इसे शायद अल्लाह ने भी न सोचा होगा।’ बद्री कहते हुए आगे बढ़ते रहे।
अल्लाह झगड़ा करने की इजाज़त नहीं देता। पर आदमी है कि अल्लाह के नाम पर ही झगड़ा करता रहता है।’ हम्ज़ा ने कुछ सोचते हुए कहा।
‘मज़हब के नाम पर बहुत ख़ून-ख़राबा होता रहा है हम्ज़ा, हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों में। खून-ख़राबा करके धर्म फैलाने का काम क्या आगे भी चलता रहेगा?’ बद्री ने पूछा। ‘हम कबायली जेहनियत को छोड़ नहीं पा रहे हैं बद्री। हर शहर में हिन्दू-मुसलमान दोनों रह रहे हैं। हिन्दू अपने धर्म के रीति-रिवाज अपनाएँ और मुसलमान अपने। दोनों एक दूसरे का आदर करें। कोई यह न सोचे कि सब के सब मुस्लिम हो जाएँगे या सबके सब हिन्दू। ज़बर्दस्ती धर्म फैलाने की बात तो गुनाह है लेकिन लोग इस बात को कहाँ सोचते हैं। मज़हब के नाम पर जब चाहो लोगों को इकट्ठा कर सकते हो। वे मरने मारने को तैयार हो जाएँगे।’ बद्री और हम्ज़ा इसी तरह की बातें करते मौलवी फ़ख़रुद्दीन अली के दरवाजे़ पर पहुँच गए। मौलवी साहब बच्चों को पढ़ाकर ही अपनी जीविका चलाते थे। बद्री और हम्ज़ा के अलावा आठ बच्चे और थे। दो-दो बच्चों का समूह बनाकर वे पढ़ाते थे। हर बच्चे से केवल आठ आने शुल्क के रूप में लेते थे। इस तरह उन्हें महीने में कुल पाँच रुपये मिल जाते थे। यदि कोई बच्चा समय से शुल्क न दे सके या देने में असमर्थ हो, तो भी वे उसे खुशी खुशी पढ़ाते। कभी-कभी इसीलिए महीने में पाँच रुपये से कम भी मिलता। पर वे खुश रहते। कहते, ‘खुदा का शुक्र है कि मैं बच्चों को तालीम देने का काम कर रहा हूँ। बच्चे तो खुशनुमा फूल हैं, जहाँ जाएँगे सुगंघ बिखेरेंगे।’ जिस समय बद्री और हम्ज़ा पहुँचे, मौलवी साहब के हाथ में एक पर्ची थी और वे उसे बड़े ग़ौर से पढ़ते हुए चौकी पर बैठे थे। दोनों ने उन्हें आदाब किया। वे खुश हो गए। बोल पड़े,‘मैं तुम दोनों का ही इन्तजा़र कर रहा था। यह भी सोच रहा था कि शहर की अफ़वाह के कारण हो सकता है तुम लोग न आओ।’ ‘मैं तो नहीं आने वाला था। मेरे बापू रोक रहे थे। पर हम्ज़ा भाई आने के लिए तैयार थे इसलिए मैं भी आ गया।’ ‘बेटे हम्ज़ा, तुम तो चौक में रहते हो। मैं सोचता हूँ वहीं से घर का राशन मँगा लूँ। क्या तुम मेरी मदद कर सकोगे?’ मौलवी साहब ने पूछा। ‘क्यों नहीं? मेरे लिए तो यह खुशी की बात होगी।’ हम्ज़ा ने उत्तर दिया। मौलवी साहब ने पर्ची हम्ज़ा को पकड़ाते हुए कहा, ‘जोड़ो, कितने रूपये में सामान आ जाएगा।’ हम्ज़ा ने पर्ची पर ही लिखा-25सेर चावल 8 आना,20सेर गेहूँ 8आना, 10सेर चना ढाई आना, 5सेर दाल अरहर तीन आना नौ पाई, 2सेर गुड़ 1 आना तीन पाई,कुल मिलाकर एक रुपया सात आना छह पाई। मौलवी साहब बहुत खुश हुए। कहा,‘हम्ज़ा बेटे, तुम्हें भाव-ताव खूब पता है।’ ‘रोज आते-जाते बाज़ार का भाव सुनता हूँ। इसीलिए मुझे इस काम में कोई दिक्क़त नहीं होती। मौलवी साहब ने अपनी जेब से डेढ़ रुपया निकाला और हम्ज़ा को दे दिया। ‘बेटे आध आने में किसी घोड़ी वाले पर सामान रखवा लेना, वह यहाँ पहुँचा देगा।’ मौलवी साहब ने कहा,‘आज मैं तुम लोगों को उमर ख़य्याम की कुछ अबाइयों को पढ़ाना चाहता था, पर अयोध्या में दंगे की ख़बर सुनकर मन बहुत उदास है। लखनऊ में भी हर गली में इसी की चर्चा है। आम हिन्दू मुसलमान सहमा हुआ है। अमीर अली को लोगों ने पाँचवा इमाम बनाकर अगुआ बना दिया है। शहर में खून-ख़राबा न शुरू हो जाए।’ ‘वज़ीर-ए-आज़म को उन्हें रोकना चाहिए। हमने यह भी सुना है कि जिस जगह पर लोग नमाज़ पढ़ना चाहते हैं वहाँ कोई मस्जिद नहीं है।’ हम्ज़ा ने कहा। ‘मुझे भी यह ख़बर मिली है। अगर मस्जिद वहाँ न हो तो नमाज़ पढ़ने की वकालत करना ही गलत है।’ मौलवी साहब ने भी सहमति जताई। ‘पर नवाब ने भी जाँच के लिए पहले आगा अली साहब के साथ कमेटी बनाई फिर मौलवी निहालुद्दीन की सदारत में कमेटी बना दी। इससे क्या लोगों में भरम नहीं पैदा हो जाएगा? ’हम्ज़ा ने पूछा।
‘तुम ठीक सोचते हो हम्ज़ा। हुकूमत को भी अपना दिमाग़ साफ रखना चाहिए। भरम की गुंजाइश नहीं छोड़नी चाहिए। मुझे लगता है मौलवियों ने नवाब पर दबाव बनाया होगा। इस्लाम ख़तरे में है, यह समझाया होगा। तैंतीस वर्षीय नवाब ने दूसरी कमेटी बना दी। मज़हब का नाम आते ही लोग जोश में आ जाते हैं। सही गलत की पहचान मुश्किलहो जाती है।’ ‘पर दुनिया में सिर्फ एक ही मज़हब तो नहीं रहेगा।’ हम्ज़ा ने दखल दिया।
‘तुम्हारी सोच दुरुस्त है। एक ही शहर,मुहल्ले में कई मज़हब के लोग आबाद हैं। हमें मिलजुलकर रहना चाहिए।’ मौलवी साहब ने बात रखी। ‘पर मज़हब के नाम पर जोशीले बयान साथ रहने नहीं देंगे। हमें मज़हबी जोश को थोड़ा ठण्डा रखना चाहिए।’ हम्ज़ा अपनी बात कहते रहे। बद्री चुप थे। ‘क्यों चुप हो बद्री? तुम्हें भी अपनी बात रखनी चाहिए।’ मौलवी साहब ने कुरेदा। ‘मैं सुन रहा हूँ। हम्ज़ा भाई बजा फरमा रहे हैं। इनकी बातों से मैं इत्तेफ़ाक रखता हूँ।’बद्री बोल गए। ‘आने वाले वक़्त में कई मज़हब के लोगों को साथ रहना होगा। यह बात सभी मज़हब के अलमबरदारों को समझनी चाहिए।’ मौलवी दूर तक देख रहे थे।
‘पर जोश में बौखलाए लोगों की समझ में आए तभी तो.....।’ हम्ज़ा दुखी थे।
‘ऐसे लोग सही लोगों को ही परेशान करते हैं और उन्हें पागल, बेदिमाग़ समझते हैं। मीर का एक शेर-
‘सीना तमाम चाक है सारा जिगर है दाग़।
है मजलिसों में नाम मेरा ‘मीरे बेदिमाग़।’
सुनाते हुए बद्री भी बहस में शामिल हो गए।
‘तुम ठीक कहते हो बद्री। बहुत से लोग आपसी बैर पैदा करने में ही अपनी शान समझते हैं। प्यार-मुहब्बत की बात उन्हें बुरी लगती है। पर हमें यह सोचना चाहिए कि मुहब्बत का धागा तोड़ा जा सकता है, जोड़ा नहीं जा सकता।
रहीम ने क्या बढ़िया बात कही है-
रहिमन धागा प्रेम का मत तोर्यो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुरै जुरै गाँठि परि जाय।’
रहीम के दोहे से बद्री और हम्ज़ा प्रभावित हुए। दोनों ने दोहे को अपनी कापियों पर लिख लिया। मौलवी साहब ने फ़ारसी का एक एक पृष्ठ दोनों को उर्दू में अनुवाद के लिए दिया। दोनों अनुवाद करने लगे। मौलवी साहब को एक मिशनरी फ़ादर से रूसो की पुस्तक ‘सोसल कंट्रैक्ट’ और ‘एमील’ मिल गई थी। एमील के पन्ने उलटने लगे। थोड़ी देर में दोनों ने अनुवाद कर लिया। मौलवी साहब ने दोनों के अनुवाद को जाँचा। जो गलतियाँ मिलीं, उन्हें फिर से लिखने को कहा। दोनों ने गलतियों को पुनः सही लिखकर मौलवी साहब को दिखाया। मौलवी साहब अँग्रेजी भी पढ़ और लिख लेते थे किन्तु उन्होंने बद्री और हम्ज़ा को फ़ादर से ही अँग्रजी पढ़ने की सलाह दी। स्वयं उर्दू अरबी-फारसी पढ़ाते रहे। ‘फादर से अँग्रेजी का सही लहज़ा सीख पाओगे।’ वे कहा करते।
‘हम लोगों को आमजन को समझाना चाहिए कि लोग हनुमान गढ़ी के मुद्दे को ज्यादा न उछालें और न जेहाद के लिए ही निकल पड़ें। यह कोई जेहाद का मसला नहीं है। हिन्दू मुस्लिम दोनों को मिल जुल कर रहना चाहिए। मैं अपने खाली समय में पास पड़ोस वालों को समझाऊँगा। तुम दोनों भी आस-पास के लोगों को समझाओ।’ मौलवी साहब ने दोनों को निर्देश दिया। हम्ज़ा और बद्री दोनों मौलवी साहब के यहाँ से लौटे। शाम को दोनों ने आसपास के लोगों को समझाने की कोशिश की। दोनों को लगा कि लोगों के उबाल को नियंत्रित कर पाना काफी मुश्किल है।

इसी बीच नवाब ने कैप्टन ओर को महन्त से बात करने के लिए भेजा। प्रस्ताव यह दिया गया कि हनुमान गढ़ी की बाहरी दीवार से मिलाकर एक मस्जिद बना दी जाए जिसका रास्ता बाहर से हो। दोनों के बीच की दीवाल को ऊँचा बना दिया जाय जिससे कोई भी पक्ष इधर से उधर न जा सके। इसके एवज में महन्त को जाग़ीर देने का भी वादा किया गया। पर बैरागी इस पर सहमत नहीं हुए। यह भी कहा कि यदि मस्जिद बनाने का प्रयास हुआ तो हम लोग यह स्थान छोड़कर चले जाएँगे और अवध के सभी मन्दिरों से लोगों को हटा लिया जाएगा। लोगों में यह अफ़वाह फैली कि नवाब मस्जिद बनाने का आदेश दे सकते हैं। कुछ मुस्लिम भी जेहाद के लिए उत्साहित हुए। नवाब ने समझौता कराने के लिए दोनों पक्षों की एक बैठक बुलाई। राजा मानसिंह को बैरागियों के प्रतिनिधि को लाने का दायित्व दिया गया। एक दूसरे अधिकारी को मुस्लिमों के प्रतिनिधि को बुलाने का काम दिया गया। हिन्दुओं की ओर से महन्त बलराम दास और मुस्लिमों की ओर से मौलवी बुरहानुल-हक-अब्दुर्रज्ज़ाक और तुराब अली बैठक में सम्मिलित हुए। कुछ दिन बैठकें होती रहीं किन्तु ऐसा लगने लगा कि इसका परिणाम आने में महीनां लगेगा। मुस्लिम अधिक बेचैन हो गए। उन्होंने बैठक में भाग लेना बन्द कर दिया। ग्यारह अक्टूबर को वज़ीरे-आज़म ने यह इच्छा व्यक्त की कि हनुमान गढ़ी मुद्दे को लेकर एक दूसरी जाँच समिति बिठा दी जाए। रेजीडेंट को इसका पता चला, वे दूसरी जाँच कमेटी गठित करने के लिए सहमत नहीं हुए। इसके बाद मौलवियों के विद्रोह को समाप्त करने के लिए नवाब ने धर्म का सहारा लेना चाहा। नवाब यह सोचते थे कि यदि हनुमान गढ़ी के सन्दर्भ में जेहाद को ग़ैर इस्लामी सिद्ध कर दिया जाय तो इस आन्दोलन की हवा निकल जाएगी। शिया के सबसे बडे़ मौलवी मौलाना सैय्यद मुहम्मद के सामने हनुमान गढ़ी की घटना को काल्पनिक रूप में प्रस्तुत करके उत्तर माँगा गया। मौलवी ने उत्तर दिया कि इस सन्दर्भ में जेहाद नहीं लागू होता। सत्ता को मस्जिद बनाने का अधिकार है और हिन्दू जनता को अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। इसी तरह का काल्पनिक प्रश्न बनाकर अदालते-आलिया के सुन्नी मुफ़्ती मुहम्मद यूसुफ़ से भी उत्तर माँगा गया। मुफ़्ती ने उत्तर दिया कि इन परिस्थितियों में नवाब के आदेश को माना जाना चाहिए। नवाब ने अपने प्रश्नों और इन दो उत्तरोंके को पूरे अवध में प्रकाशित करवाया और आदेश दिया कि इस सन्दर्भ में जेहाद इस्लामी कानून के मुताबिक गै़र कानूनी है। यदि कोई विद्रोहियों की मदद करेगा तो उससे सख़्ती से निपटा जाएगा।