अध्याय सोलह
दो गज़ ज़मीं न मिल सकी !
लखनऊ में काबिज़ हो जाने के बाद अँग्रेजों ने पूरे अवध में अभियान चला कर विद्रोह को समाप्त करने की कोशिश की। नाना साहब पर एक लाख का इनाम घोषित था। तात्या अपने कौशल से जगह जगह अब भी विद्रोह की लौ जलाए हुए थे। कौन सा गुण उनमें था जिससे वे अनेक सेनाओं को अपने पक्ष में करते चले गए। नाना साहब भी एक जगह नहीं रह सके पर जहाँ भी रहे, अलख जगाते ही रहे। बैसवाडे़ में राणा वेणीमाधव, रामबख्श सभी अँग्रेजों से लड़ते ही रहे। बौंड़ी में रहते हुए बेगम हज़रत महल भी सभी विद्रोहियों को जोड़ती रहीं। रुहेलखण्ड में भी छापामार युद्ध चलता रहा। गोण्डा के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में देवीबख़्श सिंह के नेतृत्व में विद्रोही अँग्रेजों से टक्कर लेते रहे।
इसी बीच ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज पहली नवम्बर 1858 से ख़त्म कर दिया गया। इसकी जगह ब्रिटिश ‘ताज’ का शासन हो गया। मलका विक्टोरिया ने ऐलान किया-
कम्पनी का राज समाप्त हुआ। इसके स्थान पर भारत के शासन की बाग़ हमने अपने हाथों में ले ली है। सिवाय उन लोगों के जो हमारी अँग्रेजी प्रजा की हत्या में भाग लेने के अपराधी हैं, बाकी जो लोग भी हथियार रख देंगे उन सबको माफ़ कर दिया जाएगा। हिन्दुस्तान में गोद लेने की प्रथा आइंदा से जायज़ समझी जायगी और दत्तक पुत्रों को पिता की ज़ायदाद और गद्दी का मालिक माना जायगा। किसी के धार्मिक विश्वासों या धार्मिक रीति रिवाजों में किसी तरह का हस्तक्षेप न किया जायगा। देशी नरेशों के साथ कम्पनी ने इस समय तक जितनी संधियाँ की हैं, उनकी सब शर्तों का आइंदा से ईमानदारी के साथ पालन किया जायगा। इसके बाद किसी भारतीय नरेश की रियासत या उसका कोई अधिकार न छीना जायगा। सब भारतीयों के साथ ठीक उसी तरह का व्यवहार किया जायगा, जिस तरह का अँग्रेजों के साथ।
मलका के ऐलान को लार्ड कैनिंग ने इलाहाबाद में किले के नीचे लोगों की भीड़ में पढ़कर सुनाया। पहली नवम्बर को ही मलका विक्टोरिया का यह ऐलान पूरे भारत में प्रकाशित किया गया। जगह जगह इसकी प्रतियाँ बाँटी गईं।
विद्रोहियों में खलबली मच गई। बौंड़ी में बेगम हज़रत महल तथा सहयोगियों की बैठक हुई। तय किया गया कि बेगम के द्वारा एक जवाबी ऐलान प्रकाशित किया जाय। एक एक विन्दु पर चर्चा हुई। विचार विमर्श के बाद बेगम हज़रत महल की ओर से एक जवाबी ऐलान तैयार हुआ। क़ातिब ने उसे लिखा। उसे प्रकाशन के लिए अख़बार को भेजा गया और नकल बनाकर जगह जगह भेजा गया। ऐलान के महत्वपूर्ण अंश इस प्रकार थे-
(मलका विक्टोरिया) का एक नवम्बर सन 1858 का ऐलान जो हमारे सामने आया है, बहुत साफ़ है...... इस लिए...हम...बहुत सोच-समझकर मौजूदा ऐलान शाया करते हैं ताकि ऐलान का ख़ास असली मक़सद मालूम हो जाए और हमारी रिआया होशियार हो जाए।
उस ऐलान में लिखा है कि हिन्दुस्तान का मुल्क जो अभी तक कम्पनी के सुपुर्द था, अब मलका ने अपनी हुकूमत में लिया है और आइन्दा से मलका के कानूनों को माना जाएगा। हमारी मज़हब परस्त रिआया को इस पर एतबार नहीं करना चाहिए क्योंकि कम्पनी के कानून, कम्पनी के अँग्रेज मुलाजिम, कम्पनी का गवर्नर जनरल और कम्पनी की अदालतें वग़ैरह सब ज्यों की त्यों बनी रहेंगी। तो फिर वह नई बात कौन सी हुई जिससे रिआया को फ़ायदा हो या जिस पर वह यक़ीन करे।
उस ऐलान में लिखा है कि कम्पनी ने जो जो वायदे और अहद पैमान किए हैं, मलका उन्हें मंजूर करेंगी। लोगों को चाहिए कि इस बात को ग़ौर से देख लें। कम्पनी ने सारे हिन्दुस्तान पर कब्ज़ा कर लिया है और अगर यह बात कायम रही तो फिर इसमें नई बात क्या हुई? कम्पनी ने भरतपुर के राजा को पहले अपना बेटा बतलाया और फिर उसका इलाका ले लिया। लाहौर के राजा को वे लंदन ले गए और फिर कभी उसे भारत लौटने न दिया। नवाब शमसुद्दीन खाँ को एक तरफ उन्होंने फांसी पर लटका दिया और दूसरी तरफ उन्हें सलाम किया। पेशवा को उन्होंने पूना और सतारा से निकाल दिया और ज़िन्दगी भर के लिए बिठूर में कै़द कर दिया। बिहार, बंगाल, उड़ीसा के राजाओं का उन्होंने नामो-निशान तक नहीं छोड़ा। खुद हमारे क़दीम इलाके हमसे यह बहाना करके ले लिए कि फ़ौज की तनख़्वाहें देनी हैं और हमारे साथ जो संधि की, उसकी सातवीं धारा में उन्होंने यह क़सम खाई कि हम आपसे और अधिक कुछ न लेंगे। इसलिए जो जो इन्तज़ाम कम्पनी ने कर रखे हैं गर वे सब मंजूर किए जाएँगे तो इससे पहले की हालत में और इस नई हालत में क्या फ़र्क हुआ? ये सब तो पुरानी बातें हैं। पर हाल में भी क़समों और अहदनामों को तोड़कर और बावजूद इस बात के कि अँग्रेजों ने हमसे करोड़ों रुपये कर्ज़ ले रखे थे, उन्होंने बिना किसी सबब के सिर्फ यह बहाना लेकर कि आपका व्यवहार अच्छा नहीं और आपकी रिआया मुतमईन नहीं है, हमारा मुल्क और करोड़ों रुपये का माल हमसे छीन लिया। गर हमारी रिआया हमारे नवाब वाजिद अली शाह से मुतमईन नहीं थी तो वह हमसे कैसे मुतमईन हो गई? कभी किसी भी राजा के लिए रिआया ने अपनी जान और माल को कुर्बान करके हुकूमत के प्रति अपनी वफा़दारी नहीं दिखाई जिस तरह हमारी रिआया ने हमारे साथ किया है। फिर क्या कमी है कि वे हमारा मुल्क हमें वापस नहीं देते। इसके उस ऐलान में लिखा है कि मलका को अपना इलाका बढ़ाने की ख़्वाहिश नहीं है। फिर भी वह इन देशी रियासतों को अपने राज में मिला लेने से बाज़ नहीं रह सकतीं.....
उस ऐलान में लिखा है कि ईसाई मज़हब सच्चा है, लेकिन किसी मज़हब वालों के साथ ज्य़ादती न की जाएगी और सबके साथ एक बराबर कानूनी व्यवहार किया जाएगा। इंसाफ़ और हुकूमत से किसी मज़हब के सच्चे या झूठे होने का क्या रिश्ता है?...
सुअर खाना और शराब पीना, चर्बी के कारतूस दाँत से काटना और आँटे तथा मिठाइयों में सुअर की चर्बी मिलाना, सड़क बनाने के बहाने मन्दिरों और मस्जिदों को गिराना, गिरजा बनाना, गलियों और कूचों में ईसाई मत को फैलाने के लिए पादरियों को भेजना... इन सब बातों के होते हुए लोग कैसे यकी़न कर सकते हैं कि उनके मज़हब में दख़ल न दिया जाएगा?....
उस ऐलान में लिखा है कि.... जिन लोगों ने क़त्ल किए हैं या क़त्ल में मदद दी है उन पर कोई रहम नहीं किया जाएगा। बाकी सब को मुआफ़ कर दिया जाएगा। एक जाहिल आदमी भी देख सकता है कि इस ऐलान के अनुसार कुसूरवार या बेकुसूर कोई भी आदमी नहीं बच सकता...
एक बात उसमें साफ़ कही गई है वह यह कि किसी भी कुसूरवार आदमी को न छोड़ा जाएगा। इसलिए जिस गाँव या इलाके में हमारी फ़ौज ठहरी है, उसके बाशिंदे नहीं बच सकते। उस ऐलान को पढ़कर जिसमें साफ़ दुश्मनी भरी हुई है, हमें अपनी प्यारी रिआया पर बड़ा रंज है। अब हम एक साफ़ और काबिल-ए-यक़ीन हुक्म जारी करते हैं कि हमारी रिआया में से जिन जिन लोगों ने बेवकूफ़ी करके गाँव के मुखियों की हैसियत से अपने तईं अँग्रेजों के सामने पेश किया है, वे एक जनवरी 1859 से पहले हमारे कैम्प में आकर हाज़िर हों। यक़ीनन उनका कुसूर माफ़ कर दिया जाएगा.....
आज तक कभी किसी ने नहीं देखा कि अँग्रेजों ने कभी किसी का कुसूर माफ़ किया हो।
हमारी रिआया में से कोई अँग्रेजों के ऐलान के धोखे में न आए।
बेगम का यह ऐलान हरकारों द्वारा जगह-जगह पहुँचाया गया। अवध में विद्रोही जहाँ कहीं भी थे, सभी ने सरयू पार मैदान की ओर प्रस्थान किया। जिन लोगों की नीयत डगमगा गई थी, वे चुप बैठ गए। बहुतों को लगा कि अब शाही हुकूमत का ज़माना लद गया, अँग्रेज ही हुकूमत करेंगे। ऐसा सोचने वाले अँग्रेजी ख़ेमों में मुआफ़ी के लिए अर्जि़यां देने लगे, पर बहुत से ऐसे भी थे जो अन्तिम साँस तक अँग्रेजी सेना से लड़ने के लिए तैयार थे।
बैसवाडे़ के राणा बेणीमाधव से अँग्रेज अधिकारी परेशान थे। वे चाहते थे कि बेणीमाधव किसी तरह अधीनता स्वीकार कर लें। अँग्रेजों ने संदेश भिजवाया कि यदि वे अधीनता स्वीकार कर लें तो उन्हें मुआफ़ कर दिया जाएगा। बेनी माधव के पास अब सेना कम रह गई थी। सीधे मुकाबले में अँग्रेजों से पार पाना मुश्किल था। उन्होंने अँग्रेजी शिविर में अपना संदेश भिजवाया -
‘किले की रक्षा कर सकना मेरे लिए असंभव है, इसलिए मैं किले को छोड़ रहा हूँ किन्तु मैं अपना शरीर हरगिज़ आपके सुपुर्द न करूँगा क्योंकि मेरा शरीर मेरा अपना नहीं, बादशाह का है।’ बेगम का ऐलान पाते ही राणा बेणीमाधव ने अपने साथियों से विचार विमर्श किया। जो लोग बेगम के साथ आना चाहते थे उन्हें अपने साथ लिया और अपने पाँच हजार सैनिकों के साथ 4 दिसम्बर को घाघरा पार कर बौंड़ी की राह पकड़ी। अन्य जगहों से भी जहाँ कहीं प्रतिबद्ध विद्रोही थे, वे सभी बेगम के शिविर की ओर चल पडे़।
तात्या टोपे, बाँदा के नवाब और नानाके भतीजे राव साहब नागपुर की ओर बढ़ गए थे। वे पचास-साठ मील रोज चलकर नर्मदा पार तक पहुँच गए। लार्ड कैनिंग परेशान थे। महाराष्ट्र की भूमि पर तात्या का पहुँच जाना बहुत ख़तरनाक हो सकता है। तात्या जब चाहता था, सेना में बग़ावत करा देता था। सम्पूर्ण महाराष्ट्र में अगर उसने बग़ावत फैला दी तो उसे रोकना मुश्किल हो जाएगा। तात्या जब उदयपुर पहुँचा उसी समय अँग्रेजी सेना सेनापति पार्क के नेतृत्व में आ गई। तात्या बड़ौदा जाना चाहता था, उसने अपने घोडे़ को उत्तर की ओर मोड़ दिया। बाँदा के नवाब दौड़-धूप की परेशानियों से कुछ विचलित हुए। उन्होंने मलका विक्टोरिया के ऐलान के अनुसार हथियार रख दिया। तात्या और राव साहब तब भी हताश नहीं हुए। वे वहाँ से आगे बढ़ गए।
लखनऊ, कानपुर सभी जगहों पर बेगम के ऐलान की नकल बँटती रही। जो भी मिलता, मलका और बेगम के ऐलान की चर्चा करता। विद्रोहियों के लिए यह कठिन समय था। घाघरा पर विद्रोहियों ने अपनी फौ़ज लगा दी। चकलेदार मेंहदी हसन के सैनिक चौकाघाट के आसपास चौकसी करने लगे। अँग्रेज सरयू पार के मैदान से भी विद्रोहियों को खदेड़ना चाहते थे। रोक्राफ़्ट ने पूरब से और होपग्रान्ट ने अयोध्या की ओर से विद्रोहियों को साधने की कोशिश की। होपग्रान्ट अपने सैनिकों को सरयू पार कराने की चेष्टा करने लगे। देवी बख़्श के सैनिक घाटों की रक्षा करने में लगे थे। इसीलिए अँग्रेज सरयूपार करने में सफल न हुए। अनेक सैनिक इस अभियान में मारे गए। सरयू के निकट लमती के मैदान में देवी बख़्श और रोक्राफ़्ट की सेनाएँ इकट्ठी हुईं। होपग्रान्ट ने अयोध्या के राजा मानसिंह की मदद से एक योजना बनाई। माझा से सरयू के किनारे रोज दुधहा नावों से अयोध्या दूध ले जाते थे। होपग्रान्ट ने अपने सिख सैनिकों को साधु, फ़क़ीर का भेस धारण कराया तथा सामान्य सैनिकों को दुधहा के भेस में धीरे-धीरे इस पार उतारना शुरू किया। देवी बख़्श सिंह के प्रहरी दुधहा और साधु-फ़क़ीरों पर गोलियां नहीं चलाते थे। इसी बहाने काफ़ी सैनिक नदी पार कर गए। उत्तर की ओर से बलरामपुर की सेना लेकर ठाकुर हरिरत्न सिंह (मझगवाँ) और कृष्णश्रदत्त राम पाण्डेय ने प्रस्थान किया। पूर्व से रोक्राफ़्ट तथा उसकी सेना तथा दक्षिण से होप ग्रान्ट और उसकी सेना। तीन तरफ़ से देवी बख़्श की सेना को घेरने की कोशिश की गई। देवी बख़्श सिंह के साथ चरदा के राजा जोत सिंह, बूढ़ा पायर के अशरफ़ बख़्श, छह द्वारा के कलहंस, अयोध्या के राजा मानसिंह की बहन मानवती देवी जो वाजिद अली शाह की पत्नी थीं। मझगवाँ के भगवत सिंह, मंगल पाण्डेय के सगे भतीजे बुझावन पाण्डेय थे। इसके साथ ही क्षत्रियों, मेवातियों, पठानों की एक बड़ी सेना थी। 27 नवम्बर को तोपों और बन्दूकों से लैस अँग्रेजी सेना ने विद्रोही सेना पर आक्रमण कर दिया। गोरों, सिक्खों और गोरखा सैनिकों के साथ राजा मानसिंह भी नावों से सरयूपार कर लमती लोलपुर पहुँच गए। नावों पर देवी बख़्श सिंह के सैनिकों ने गोलियाँ चलाईं। उसमें बहुत से सैनिक मारे गए। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध छिड़ गया। अँग्रेजों के पास तोपें और बन्दूकें अधिक थीं, अपनी फुर्ती और ताकत से ही राजा देवी बख़्श सिंह की सेनाओं को पार पाना था। भयंकर युद्ध के बाद जब सेनाएँ अपने अपने शिविर को वापस लौटीं, दोनों नायकों ने अपनी रणनीति पर पुनर्विचार किया। देवी बख़्श सिंह के साथ नए-नए सैनिक जुड़ते जा रहे थे। पहले दिन की लड़ाई में रोक्राफ़्ट को अधिक सफलता नहीं मिली थी। ठाकुर हरि रत्न सिंह, कृष्ण दत्त राम पाण्डेय और मानसिंह ने उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की।
देवी बख्श सिंह के साथ भी सभी ने बैठक की। ‘कल के लिए क्या योजना होनी चाहिए?’ देवी बख़्श सिंह ने पूछा। ‘हम जीतेंगे’, तुरन्त भगवत सिंह बोल पड़े। ‘हमें अपनी फुर्ती और बहादुरी से जीतना है? कम्पनी सैनिकों के पास बन्दूकें अधिक हैं पर हम उन्हें दूसरी बार भरने का मौका ही नहीं देंगे। मजबूर होकर उन्हें तलवारों से ही लड़ना होगा।’ दूसरे दिन के लिए तैयारियाँ हुईं। जो अपना प्राण दान दे चुके थे, उनकी चिताएँ जलाई गईं। भोजन, पानी और दवा की आपूर्ति को व्यवस्थित किया गया। ‘या अली’ और ‘हर-हर महादेव’ का उद्घोष करती हुई विद्रोही सेनाएँ सुबह निकलीं। सैनिकों ने बंदूकों के पहले वार से बचने की कोशिश तो ज़रूर की पर दूसरी गोली भरने का उन्हें मौक़ा तक न दिया और घमासान युद्ध छिड़ गया। दोपहर तक दोनों ओर के सैकड़ों सैनिक खेत रहे। गोरे सैनिक अपने को बचाते हुए सिखों और गोरखाओं को आगे करते रहे। नवम्बर का अन्तिम सप्ताह था। ठंडक बहुत नहीं थी। सैनिक कम वस्त्रों में भी मैदान में जा सकते थे। दूसरा दिन भी बिना किसी निर्णयक परिणाम के समाप्त हो गया। अँग्रेजी सेना में भी भारतीय सिपाही ही अधिक थे। अपने ही भाइयों को क़त्ल करने की यह एक अभूतपूर्व लड़ाई। अँग्रेजी पलटन के सिख और गोरखे नमक अदा कर रहे थे। उस समय सेनाओं में नमक अदा करने पर बहुत ज़ोर था। इस तरह की बहुत सी कहावतें प्रचलन में थीं कि जिसका खाते हैं, उसका भरते हैं या जिसका खाते हैं, उसका गाते हैं। इसीलिए सैनिक जिसका पक्ष नहीं लेना होता, उसका नमक खाने से बचते थे। देवी बख़्श की सेना में जनता अधिक थी, नियमित सेना कम। उनके अस्त्र भी पारम्परिक ही अधिक थे। भाला, बरछा, तलवार से लड़ते हुए वे अपनी फुर्ती और ताकत से कामयाब होते थे। देवी बख़्श के साथ मेवातियों की भी एक फ़ौज थी। मेवाती युद्ध कला में निपुण थे और पूरी बहादुरी के साथ लड़ते थे। मेवातियों का सम्बन्ध राजस्थान के मेवात से बताया जाता है। गोण्डा में मेवातियों का एक मुहल्ला बसा था। सैन्य सेवा उस समय जीविका का एक महत्वपूर्ण साधन थी। मेवाती सेनाओं में भर्ती होते और अपनी कुशलता से राजा या जमींदार को प्रभावित करते। उस समय लगान वसूली के लिए चकलेदारों और आमिलों को भी फ़ौज रखनी पड़ती थी। तीसरे, चौथे और पाँचवे दिन भी दोनों ओर की सेनाएँ आपस में जूझती रहीं। दोनों ओर की आधी से अधिक सेनाएँ कट चुकी थीं। तोपें, गोलियाँ और तलवारें चलतीं। हताहतों का अम्बार लग जाता पर सैनिक मैदान में डटे रहते। पाँचवें दिन की शाम को रोक्राफ़्ट और होपग्रान्ट बहुत चिन्तित दिख रहे थे। पाँच दिन के इस युद्ध में कुछ भी निर्णय नहीं हो सका था। रात में रोक्राफ़्ट ने बैठक की। कृष्ण दत्त राम पाण्डेय ने कहा, ‘कल निर्णय होकर रहेगा।’ ‘कैसे?’ रोक्राफ़्ट ने पूछा। ‘हमनें बात पक्की कर ली है। तोपें नहीं चलेंगी। लड़ाई कठिन होगी पर हम जीतेंगे।’ मान सिंह ने भी बताया कि दुधहा और साधुओं-फ़क़ीरों के रूप में सरयू पार करने वाले सैनिक भी कल मैदान में अपना जौहर दिखाएँगे। ‘कल हमें विद्रोही सेना को चारों ओर से घेर लेना है।’ रोक्राफ़्ट ने कहा। सेना को चार टुकड़ियों में बाँटकर अलग-अलग लोगों को उनका नेतृत्व सौंपा गया। ‘गाड विल हेल्प अस’, (ईश्वर हमारी मदद करेगा) रोक्राफ़्ट ने कहा और बैठक ख़त्म की। देवी बख़्श ने भी अपने नायकों के साथ बैठक की। पाँच दिन युद्ध करने के बाद भी विद्रोही, अँग्रेजी सेना को परास्त नहीं कर सके थे।
‘कल की रणनीति क्या होगी?’ देवी बख़्श ने सभी से पूछा। ‘कल नतीजा ज़रूर निकलेगा,’ मेंहदी हसन ने हाथ उठा कर कहा। अशरफ़ बख़्श ने भी समर्थन किया। छह द्वारा के कलहंस भी उत्साह में दिखे। जोत सिंह ने व्यूह रचना की।
‘कल हर ओर अँग्रेजों को टक्कर देनी है’, उन्होंने कहा। ‘वे हमे घेरने की कोशिश करेंगे। हमें उनका घेरा तोड़कर परास्त करना होगा। हमारी कुछ बंदूकें बेकार हो गई हैं पर हमारी तोपें काम करेंगी।’
छठाँ दिन। सुबह हुई। रोक्राफ़्ट के साथ होपग्रांट, कृष्ण दत्त राम पाण्डेय, हरिरत्न सिंह, मानसिंह सभी उत्साह में। देवी बख़्श सिंह के साथ मेंहदी हसन, जोतसिंह, जालिम सिंह, दुन्दसिंह, भगवत सिंह, शिवा सिंह, अशरफबख़्श, बन्दे-अली सहित सभी आगे बढे़। सबेरे ही घमासान शुरू हो गया। दोनों तरफ की तोपें गरजने लगीं। देवी बख़्श सिंह के पास बन्दूकें कम थीं। इस कमी को तोपों से पूरी की जाती। धनौली के तीनों भाई काले खाँ, हुसैन खाँ और मशीयत खाँ वज्रवाण, लछिमिनिया और भक्तिनिया तोपों पर डटे हुए आग बरसा रहे थे। भयंकर मार काट के बीच आग के गोले बरसते रहे। अचानक देवी बख़्श सिंह की तोपें बन्द हो गईं। तोपची दौड़े आए। कहा, ‘अनर्थ हो गया। गोलों में रेत और भूसा भरा है। तोपें काम नहीं कर सकेंगी।’ यह काम कृष्ण दत्त राम पाण्डेय के विश्वस्त लोगों ने किया था जो देवी बख़्श की सेना में तैनात थे। अँग्रेजी सेना को मौक़ा मिला। उनके बन्दूकधारी, तोपची आगे बढ़े। विद्रोही सेना लड़ती और कटती रही। भगवत सिंह, जालिम सिंह, दुन्द सिंह, विश्राम सिंह, शिवासिंह, बन्देअली, आरिफ अली सभी खेत रहे। सभी तोपची भी मर गए। अँग्रेजी सेना ने चढ़कर अपना जौहर दिखाया।
देवीबख़्श सिंह के लिए संकट का समय था। उनकी अधिकांश सेना कट चुकी थी। केवल आठ सौ लोग उनके साथ रह गये। सेवक और चोबदार लाशों को उठाकर उन्हें व्यवस्थित जगहों पर पहुँचा रहे थे। देवीबख़्श सिंह ने तत्काल निर्णय लिया। अब इतने कम लोगों और तोपों के बिना युद्ध जारी नहीं रखा जा सकता। उन्होंने निर्देश दिया कि सेना, उनके साथ ही टिकरी के जंगल के रास्ते निकले। बची हुई पूरी सेना टिकरी जंगल की शरण में आ गई। अँग्रेज देवीबख़्श सहित प्रमुख राजाओं को पकड़ लेना चाहते थे पर उन्हें सफलता नहीं मिली। जब अँग्रेजों को पता चला, उन्होंने देवीबख़्श के लोगों का पीछा किया। देवी बख़्श सिंह वनकसया पहुँचे। राजा के सुरक्षित निकल जाने तक वनकसया में अँग्रेजी सेना को रोका गया। इस भयंकर युद्ध में विद्रोही सेना के चार सौ लोग शहीद हुए। राजा सुरक्षित भिनगा पहुँच गए। छोटी रानी दिलराज कुंवरि, जो पयागपुर के राजा रणजीत सिंह की पुत्री थीं, को पण्डित नारायण दत्त के साथ पयागपुर भेज दिया। बड़ी रानी उनके साथ रहीं। रोक्राफ़्ट ने तुलसीपुर में मोर्चा लगाया।
सेनापति क्लाइड बैसवाड़े से विद्रोहियों को निकाल कर चौदह दिसम्बर को कर्नलगंज (गोण्डा) आ गए। उन्होंने घाघरा पार को विद्रोहियों से मुक्त कराने की रणनीति बनाई। वे स्वयं सरयू के किनारे किनारे उत्तर की ओर बढ़े और होपग्रान्ट को रोक्राफ़्ट की मदद के लिए तुलसीपुर भेजा। सत्रह दिसम्बर को क्लाइड बहराइच पहुँचे। बहराइच को आधार बनाकर उन्होंने अपना अभियान शुरू किया। भिटौली, बौंड़ी को ध्वस्त करते हुए वे आगे बढ़े।
बेगम, मम्मू खाँ, बिर्जीस क़द्र, वेणीमाधव, नरपति सिंह, गुलाब सिंह सभी बौंड़ी छोड़कर तुलसीपुर की अचवागढ़ी में आ गए थे। यहीं से सोनार पर्वत होकर बेगम नए कोट गईं। यह कोट आसफुद्दौला के समय में बना था। रोक्राफ़्ट और होपग्रान्ट ने तुलसीपुर पर आक्रमण किया। तुलसीपुर की रानी ईश्वरीदेवी, मेंहदी हसन, बालाराव ने अँग्रेजों का मुकाबला किया। रानी के नेतृत्व में विद्रोहियों ने कम्पनी सेना को कड़ी टक्कर दी। जब तक बेगम हज़रत महल सुरक्षित निकल नहीं गईं, ये लोग मोर्चा सँभाले रहे। जब बेगम का काफ़िला सुरक्षित निकल गया, इन लोगों ने भी तुलसीपुर छोड़ दिया। पच्चीस वर्षीय रानी ने धरती को प्रणाम कर अपने दुधमुँहे बच्चे को घोड़े की पीठ पर बिठाया और स्वयं भी बैठ गईं। विश्वस्त साथियों तथा बालाराव सहित सुराही दर्रे से दांग देवखुर की ओर बढ़ गईं।
कम्पनी सेना दिसम्बर तक बहराइच में रही। बहराइच शहर में विद्रोही कम थे। इसलिए कोई कड़ा मुकाबला नहीं हुआ। इस सेना को पता चला कि नानपारा में विद्रोहियों का जमाव है। इसीबीच होपग्रान्ट ने एक टुकड़ी को भिनगा में राप्ती पर पुल बनाने के लिए भेज दिया। बाईस दिसम्बर को ही कर्नल क्रिस्टी अपनी सेना के साथ सरयू के किनारे किनारे चल पडे़, जिससे विद्रोही खीरी की ओर पलायन न कर सकें। बहराइच की मुख्य सेना नानपारा पहुँची। रक्षक सेना को वहाँ नियुक्त किया और बढ़कर तिपरहा के किले को ध्वस्त किया। सेना तेइस को देवदत्तपुर पहुँची, वहाँ बारिश के कारण तीन दिन रुक ना पड़ा। क्रिस्टी सरयू के किनारे किनारे बढ़ते रहे। छब्बीस को सेना बरगदिया की ओर बढ़ी। वहाँ चार हज़ार विद्रोही इकट्ठा थे। क्लाइड की मदद के लिए प्रथम पंजाब घुड़सवार सेना भी तुलसीपुर से आ गई। क्लाइड ने घुड़सवार और बन्दूकधारियों के साथ बरगदिया पर आक्रमण किया। गोलियाँ चलवानी शुरू की। विद्रोहियों के पास नौ तोपें अग्रिम भाग में और तेरह पृष्ठ भाग में थीं। शिविर दो तीन मील चौड़ी पट्टियों में जंगल में फैला था। उसमें नौ सौ सवार और अन्य पैदल थे। विद्रोही जंगलों में बिखरे हुए थे, इसलिए एक ही आक्रमण में उन्हें निपटाना मुश्किल था। बरगदिया में ही नाना साहब भी थे। बरगदिया पर आक्रमण के पहले ही वे बाँकी (तुलसीपुर) की ओर बढ़ गए थे। एक हल्की झड़प के बाद विद्रोही चर्दा और बाँकी की ओर निकल गए। इसी लड़ाई में क्लाइड का कंधा उखड़ गया। सत्ताईस की सुबह क्लाइड मस्जिदिया की ओर बढ़े। यह एक मजबूत किला माना जाता था। तीन घंटे तक मस्जिदिया पर गोलाबारी होती रही। एक टुकड़ी को किला ध्वस्त करने का काम सौंप, शेष सेना नानपारा लौट आई।
कर्नल क्रिस्टी आगे बढ़ते हुए तीस दिसम्बर को पदनहा पहुँच गए। इसीदिन कर्नल प्राट की सेना खैरीघाट में सरयूपार करके नानपारा में मुख्य सेना में आकर मिल गई। क्लाइड ने एक रक्षक सेना नानपारा में छोड़, बांकी (तुलसीपुर) की ओर प्रस्थान किया। 31 की सुबह राप्ती तटपर विद्रोहियों से झड़प हुई। अँग्रेजों के लिए जंगल में तोपें ले जाना सम्भव नहीं था। उन्होंने डेढ़ सौ हाथियों का प्रयोग किया। चोटिल होने के कारण सेनापति क्लाइड डोली में थे। विद्रोही राप्ती तट पर मोर्चा लगाए हुए थे। उन्होंने छह तोपों से कम्पनी सेना पर आक्रमण किया। कम्पनी सैनिक राप्ती के दक्षिण तट से सामना करने की कोशिश करते रहे। बहुत से घुड़सवारों ने अपने घोड़े नदी में फँदाकर मार करने की कोशिश की। विद्रोही भी डटे हुए थे। राप्ती की तेज धारा में घुस कर उन्होंने कम्पनी सवारों को छकाया। कम्पनी सेना की अधिक क्षति हुई। घायल मेजर हार्ल डूबकर मर गया। कैप्टन स्टीस्टड नदी की धारा में बह गया। अँग्रेज सैनिकों की हिम्मत टूटने लगी। दोपहर एक बजे सेनापति ने अपने अश्वारोहियों को पीछे हटने का आदेश दिया। विद्रोहियों को अपनी तोपों के कारण थोड़ी सफलता मिली। चार दिन तक लगातार घेरा बन्दी और युद्ध चलता रहा। विद्रोही नेपाल की ओर बढ़ गए। इसलिए कम्पनी सेना नानपारा लौट आई। क्रिस्टी भी वहाँ आ गए थे। पाँच जनवरी को क्लाइड ने सिधिनिया घाट की ओर प्रस्थान किया। विद्रोहियों से भयंकर लड़ाई हुई पर वे विखर गए और नेपाल की ओर निकलते रहे। आठ को हार्सफोर्ड को सिधिनिया के दर्रे की सुरक्षा का भार तथा होपग्रान्ट को जो भिनगा में थे, कमान सौंप कर क्लाइड लखनऊ चले गए।
पूरे सरयूपार मैदान से विद्रोही निकल कर शिवालिक की उपत्यकाओं में शरण ले रहे थे। गवर्नर जनरल कैनिंग का आदेश था कि कम्पनी सेनाएँ नेपाल में प्रवेश न करें। नेपाल का यह क्षेत्र स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त नहीं था। दांग और देवखुर की इन घाटियों में कहावत प्रचलित थी कि यहाँ कौए को भी जूड़ी आती है। पर विवशता थी। अपना घर-देश छोड़कर विद्रोही इन्हीं घाटियों में आकर रहने को बाध्य हुए। यह क्षेत्र पहले तुलसीपुर राज्य के अन्तर्गत था। छोटी छोटी टुकड़ियों में विद्रोही जगह जगह अँग्रेजी सेना से टक्कर लेते। पर यह उबाल भी बहुत दिन नहीं चल सका। कैप्टन गजाधर पाण्डेय ने गोण्डा के दक्षिण डिड़ीसिया में कम्पनी सैनिकों से टक्कर ली। वे रामापुर बिरवा में एक वृद्धा के मकान में सोए हुए थे। वृद्धा ने लालच में आकर उनका पता अँग्रेजों को दे दिया और वे मारे गए। इस तरह की घटनाएँ इस अंचल में और जगह भी हुईं। अँग्रेज अधिकारी आत्म समर्पण करने के लिए भी दबाव बनाते रहे। लार्ड कैनिंग भी आत्म समर्पण पर जोर देते रहे। 15 दिसम्बर को मेजर बैरो ने राजा देवीबख़्श सिंह के पास संदेश भेजा कि यदि वे आत्म-समर्पण कर दें तो उनका अपराध क्षमा करके प्राण दान दे दिया जाएगा तथा विद्रोह के पहले उनकी जो स्थिति थी, उसे बरक़रार रखा जाएगा। पर देवी बख़्श ने साफ मना कर दिया। नाना साहब ने भी होपग्रान्ट के साथ पत्र व्यवहार में लिखा -‘आपको हिन्दोस्तान पर कब्ज़ा करने का और मुझे दंडनीय क़रार देने का क्या अधिकार है? हिन्दोस्तान पर राज करने को आपको किसने अधिकार दिया? क्या आप फिरंगी लोग बादशाह हैं और हम अपने इस मुल्क के अन्दर चोर हैं?’
अठारह दिसम्बर को मेजर बेरो ने गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग को लिखा, ‘कुछ प्रमुख विद्रोहियों जैसे बेनीमाधव सिंह, नरपति सिंह, गुलाब सिंह तथा दो चार अन्य को छोड़कर सभी तालुकेदारों ने आत्म-समर्पण कर दिया है और अपनी रियासतों को लौट चुके हैं। घाघरा के उत्तर बहुत धीमी प्रगति हुई है।’
भिनगा, तुलसीपुर होते हुए विद्रोही चौधरा मठ स्थित बाबा रतन नाथ के अखाड़े के आसपास भेष बदल कर रहने लगे। नाना साहब, वेणीमाधव, नरपति सिंह देवी बख़्श सभी ने इसी क्षेत्र में अड्डा जमाया। दांग का यह क्षेत्र शरण दाता बना। अपने देश के बाहर अभावों के बीच आज़ादी की लौ जलाए रखना कठिन था। सभी के दिमाग़ में बहुत से सवाल घूम रहे थे। अपने ही देश को आज़ाद रखना क्या कोई गुनाह है? आजादी माँगने वाले को जेल, फाँसी, कालापानी क्यों? ठीक है कि हज़ारों लोग इन जंगलों में बुखार-अभाव से मरेंगे पर कोई किसी देश पर कब्ज़ा करले और लोग टुकुर टुकुर देखते रहें, यह कैसे संभव होगा? आज़ादी और मुल्क के लिए लोग मरेंगे, यातनाएँ सहेंगे ही।