अध्याय नौ
घायल पंछी की जुम्बिश ! नवाब वाजिद अली शाह शायरों, संगीतज्ञों, हुनरमंदों की क़द्र करते थे। वे असदुल्ला खाँ ‘ग़ालिब’ को भी पाँच सौ रुपये भिजवाते रहे। उनकी महफ़िल में शायर अपना कलाम पेश करते, इज़्ज़त पाते। दाग़ देहलवी भी मुशायरों में शिरकत कर रहे थे। उनकी कुछ ग़ज़लें जाने आलम को पसन्द थीं। अवध के विलय की ख़बर दिल्ली पहुँची। बादशाह ज़फ़र भी दुखी हुए। उनके सब्र का बाँध टूट गया। अवध ने हमेशा अँग्रेजों का साथ दिया था। रुपये-पैसे से मदद की थी। उनके साथ ऐसा सुलूक? बादशाह की आँखों के आगे धुंधलका छा गया। उनकी पीड़ा एक शेर में छछंलक उठी-
ऐतबार-ए-सब्रो-ताकत ख़ाक मैं रक्खूँ ज़फ़र
फ़ौजे-हिन्दुस्तान ने कब साथ टीपू का दिया।
ज़ीनत महल जवाँ बख़्त को वली अहद बनाना चाहती थीं। इसके लिए वे बादशाह को तैयार कर चुकी थीं। अँग्रेज अधिकारी मेटकॉफ से भी मेल जोल बढ़ा रही थीं। उन्हें भी धक्का लगा। दिल्ली के संभ्रान्त जन भी बेचैन हुए। असदुल्ला ख़ाँ ‘ग़ालिब’ को भी सदमा लगा। उन्होंने तेइस फरवरी 1856 को कदर विलग्रामी को पत्र लिखा, ‘रियासत अवध की तबाही ने, हालांकि मैं उससे बिलकुल बेगाना हूँ, मेरे दिल को भी दुखी कर दिया बल्कि मैं कहता हूँ कि सख़्त नाइंसाफ हैं वो अहले हिन्द जो दिल से दुखी न हुए होंगे। अल्लाह ही अल्लाह है।’
नवाब वाजिद अली शाह का शासन ख़त्म होते ही उनसे परवरिश पाने वाले बहुत से लोग बेकार हो गए। जैसा कि अँग्रेजी शासन में हर जगह हो रहा था अवध में भी इंडियन सिविल सर्विस, सेना और पुलिस बल का राज हो गया। न्याय की भी अँग्रेजी पद्धति शुरू की गई। जिले के प्रभारी अँग्रेज कलक्टर कहलाए। उन्हें अच्छा वेतन दिया गया साथ ही राजस्व वसूली का एक प्रतिशत प्रोत्साहन के रूप में भी मिलने लगा। सभी मुख्य पदों पर अँग्रेजों को ही नियुक्ति दी जाती। नवाब का शासन लोगों को अपना लगता था अँग्रेजी शासन विदेशी। अवध में अँगेजी सत्ता आ जाने पर कम्पनी को अपना विलायती माल बेचने में सुविधा होने लगी। कलक्टरों ने लगान वसूली पर अघिक बल दिया। इसलिए राजस्व में बढ़ोत्तरी होने लगी।
जनता में कसमसाहट थी पर उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो पा रही थी। कुछ जमींदारों, संभ्रान्त जनों ने नवाब की मदद करनी चाही थी पर नवाब ने किसी तरह की प्रतिक्रिया से मना किया था। अँग्रेजी प्रशासन को व्यवस्थित करने में छिटपुट घटनाएँ भी हुईं। गोण्डा जो नवाबी में बहराइच सरकार में शामिल था। फरवरी 1856 में ही जनपद बना और कर्नल ब्यायलु उसके डिप्टी कमिश्नर हुए। गोण्डा के राजा देवी बख्श सिंह को गोण्डा में डिप्टी कमिश्नर का बैठ जाना अखरा, बड़ी मुश्किल से वे उनसे मिलने को तैयार हुए। उस समय नई सत्ता के प्रति राजाओं और जमींदारों के मन में भी एक कशमकश थी। जो राजा और तालुकेदार नवाब के अधिक निकट थे उन्हें अँग्रेजी शासन को स्वीकार करने में कुछ समय लगा।
कर्नल ब्यायलु डिप्टी कमिश्नर होने के पहले भी गोण्डा-बहराइच के अभियानों में कार्य कर चुके थे। कलक्टर होने पर उन्होंने पूरे जिले में थाने और चौकियाँ स्थापित कराईं। जिले का दौरा करते हुए वे तुलसीपुर पहुँचे। तुलसीपुर का राजा दृगनारायन सिंह बेलीगारद में कै़द था। रानी ईश्वरी देवी ही तुलसीपुर में थीं। राज का संचालन उनके हाथ से निकल चुका था। ब्यायलु ने तुलसीपुर का प्रबन्ध देखा। वहीं उन्हें फ़ज़ल अली के बारे में सूचना मिली। अँग्रेजी रेकार्ड में फ़ज़ल अली जेल से फ़रार कै़दी था। नवाब के प्रधान वज़ीर अमीनुद्दौला को घायल करने के सिलसिले में उन्हें आजीवन क़ैद की सजा सुनाई गई थी। फ़ज़ल अली ने नानपारा रियासत के दो रानियों के विवाद में भी बड़ी रानी का पक्ष लिया था। ब्यायलु को लगा कि फ़ज़ल अली को पकड़ना ज़रूरी है। वे कुछ सिपाहियों के साथ उस स्थान की ओर बढे़ जहाँ फ़ज़ल अली अपनी मिट्टी की गढ़ी बनाकर रह रहा था। उस समय राजे-तालुकेदार भी मिट्टी की मजबूत गढ़ियाँ बनवा कर रहते थे। प्रायः गढ़ी के आस पास खाई खोदकर बाँस की बँसवारी लगा दी जाती। गढ़ी से बन्दूक चलाने के लिए सूराख भी बनाए जाते। फ़ज़लअली अपनी गढ़ी में था। कर्नल ब्यायलु ने गढ़ी के निकट पहुँच कर फ़ज़ल अली को ललकारा। फ़ज़ल अली भी सजग था। दीवाल में बने सूराख से उसने कर्नल ब्यायलु को देखा और तड़ातड़ गोलियाँ चला दीं। कर्नल और उनके घोड़े दोनों को गोली लगी दोनों गिर पड़े। उनके साथी सिपाही चकित रह गए। डर कर भागे। फ़ज़ल अली अपने साथियों सहित बाहर निकला और ब्यायलु का सिरकाट कर ले गया। उस क्षेत्र को बाद में आम जन मुड़ कटवा कहने लगे।
कर्नल ब्यायलु की हत्या अँग्रेजी शासन के लिए एक चुनौती हो गई। एक विशेष अभियान चला कर फ़ज़ल अली को मारा गया और उसकी गढ़ी को ढहा कर समतल कर दिया गया।
कानून व्यवस्था में ही नहीं बाज़ार में भी अँग्रेजी शासन का असर दिख रहा था। विलायती माल बेचने वालों के हौसले बुलन्द थे। कुछ तो देशी माल को विलायती माल बताकर बेच लेते। अमीनाबाद की एक दुकान पर गाँव के दो किसान रामजी और हनुमान अपनी बेटियों की शादी के लिए कुछ कपड़े ख़रीदने पहुँचे। अमीनुद्दौला की बनवाई हुई अमीनाबाद बाज़ार में हर तरह के कपड़े सजे हुए थे। दुकानदार ने कपड़ों के थान दिखाते हुए कहा-‘यह विलायती माल है, मजबूत और सस्ता भी। ऐसा कपड़ा अलग नहीं पाओगे।’
‘का देशी माल नाहीं बनत?’ हनुमान ने पूछ लिया।
‘हम देशी लोग हन, विदेशी माल से काम न बनी।’
‘आप ले तो जाइए। एक बार ले जाएँगे तो घर की औरतें इसी की माँग करेंगी।’ दुकानदार ने थान खोलते हुए कहा।
‘देशी कौवा विदेशी बोल न चली भाई।’ रामजी भी बोल पड़े।
‘आप लोग समझ नहीं रहे हैं। अभी नायब साहब के यहाँ पूरे पाँच थान गए हैं।’ दुकानदार ने रद्दा रखा।
‘नाहीं भैया अपने हियाँ कै बना सूती कपड़ा चाही।’ हनुमान उठ पड़े।
‘अच्छा बैठो, बैठो। आप चाहते हैं तो देशी माल भी मिलेगा, ढाका, सूरत का माल भी। देखिए यह देशी माल है-खूबसूरत मजबूत और किफ़ायती। दूकानदार ने देशी थान खोलकर दिखाया।
‘कपड़ा तो ठीक है, मुला दाम कुछ ज्यादा है भाई।’ रामजी के मुँह से निकला।
‘जब राज बदल गया, दाम तो कुछ बढ़ेगा ही।
अब चुंगी भी तो ज्यादा देनी पड़ती है। हम लोगों को भी बहुत तंग होना पड़ता है। विलायती माल बेचना पड़ता है सो अलग।’
समझ बूझ कर रामजी और हनुमान ने कपड़ा लिया। राम राम कर दूकान से बाहर निकले। उनकी इच्छा हुई कि कै़सर बाग़ भी देखते चलें। उधर बढे़ ही थे कि एक पुलिस द्वारा रोक दिए गए।
‘उधर जाना मना है। साहब लोग रहते हैं।’ पुलिस जवान ने कहा। दोनों उलटे पाँव लौटे।
बाज़ार से निकल आए तो घर, खेत, लगान पर चर्चा करने लगे।
‘रामजी भाई, सुना है खेती कै लगान बढ़िगा है।’
‘अँग्रेजी राज भा है। कुछ तो अपने मन कै करबै करि हैं।’ तब तक एक अँग्रेज घुड़सवार उधर से निकला।
पंडित देश राज भी अपनी घोड़ी पर आ रहे थे। अँग्रेज घुड़सवार ने उन्हें रोका। घोड़ी से उतरने के लिए कहा। वे घोड़ी से उतरे।
‘पैदल जाओ।’ उसने कहा।
पंडित देशराज को अँग्रेज का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। पर क्या करते? पैदल ही लगाम थामे चलने लगे।
रामजी और हनुमान यह दृश्य देखकर कसमसा उठे। हनुमान को पहलवानी का शौक था। वे घुड़वार को धूल चटा सकते थे पर मन मसोस कर रह गए। अँग्रेजी शासन और अँग्रेजों से टकराना अब आसान नहीं रहा।
बेलीगारद की एक कोठरी में तुलसीपुर के युवा राजा दृगनारायण सिंह कै़द हैं। उन्हें बाग़ी बताया जाता है। बाग़ी पर नियंत्रण करना शाही हुकूमत में भी अँग्रेजों का दायित्व था और अब तो अँग्रेज शासन ही कर रहे थे। बेलीगारद में अँग्रेज अधिकारियों, कर्मचारियों के कुछ परिवार रहते थे उसी में जेम्स और उसकी नई पत्नी एलिना भी रहती थी। जेम्स लखनऊ के मालदार दूकानदारों के सम्पर्क में अपना समय बिताता। उन्हें कीमती विलायती माल बेचता। कीमती घड़ियाँ, पर्स, ऊनी कपड़ों आदि के आर्डर प्राप्त करता। इसी बहाने अँग्रेजों के पक्ष में जासूसी भी करता। जनता की नब्ज़ टटोलता और चीफ कमिश्नर तक अपनी बात पहुँचाता। एलिना और जेम्स दोनों ने हिन्दुस्तानी सीखा है। अधिकतर अभ्यास के लिए अँग्रेजी लहजे में हिन्दुस्तानी ही बोलते हैं। जेम्स से एकदिन एलिना ने राजा दृगनारायण सिंह के बारे में पूछा, ‘कैसा है यह राजा?’
‘बाग़ी है।’
‘बाग़ी?’
‘ओ, या।’
‘यू मीन रिवोल्यूशनरी।’
‘या ।’
‘गुड...?’
‘क्या ?
‘राजा ठीक है... बाग़ी है।’
‘क्या बोलता है...... बाग़ी होना ठीक है?’
‘या वेरी गुड।’
‘मुँह बन्द रखो... यह बेलीगारद है आयरलैण्ड नहीं।’
‘मुश्किल है मुँह बंद करना। हम उससे मिलेगा। कितना हैंडसम होगा………बाग़ी है.. बहोत अच्छा है।
‘टुम बग़ावत करेगा तो यहाँ नेई रहेगा, समझ लेना।’
‘हम बाग़ी से मिलेगा।’
‘नहीं मिलेगा।’
‘मिलेगा, जरूर मिलेगा।
हम अर्ज़ी देगा मिलना चाहता है।’
‘नहीं मिलेगा।’ जेम्स ने आँखों से तरेरा। एलिना का भी खून खौल उठा। चेहरा लाल हो गया, उसने अपने को रोका। रोकते-रोकते आँखें सुर्ख़ हो आईं। जेम्स को भी अपनी ग़लती का एहसास हुआ। वह मनुहार करने लगा। एलिना की लाल आँखों से पहला परिचय था। ‘माफ़ कर दो मुझे... माफ़ कर दो एनी मुझे गुस्सा आ गया... प्लीज़ माफ़ कर दो।’
‘नहीं करेगा... माफ़ नहीं करेगा.. टुमने आँखें दिखाई, वादा करो अब नहीं दिखाएगा।
‘नहीं दिखाएगा..... ग़लती हुई....
माफ़ करो ।’
‘नहीं वादा करो।’
जेम्स ने एलिना को मनाने के लिए ‘वादा ’ कहा।
‘हम मिलेगा... बाग़ी से मिलेगा। टुम रोकेगा नेई।’
‘नई रोकेगा डार्लिंग.... नई रोकेगा। हुक्म नहीं मिलेगा मिलने को।’
‘हुक्म मिलेगा..... हम कमिश्नर से बाट करेगा... अर्ज़ी देगा... हम बाग़ी से ज़रूर मिलेगा। बाग़ी मर्द होता है।’
‘डार्लिंग तुम्हारी आँखें खूबसूरत हैं। गुस्सा होने पर खूबसूरती नहीं रहती। तुम्हें टांगे की सवारी पसन्द है। चलो टांगे पर सैर कर आएँ। जल्दी तैयार हो जाओ डियर’, कहते हुए एनी का चुम्बन ले लिया। एनी भी प्रतिदान में गहरा चुम्बन लेकर तैयार होने चली गई। जेम्स ने अपने घरेलू नौकर को पुकारा, ‘लतीफ़।’
‘जी सर।’
‘टांगा ले आओ। मैम सैर को जाएगा।’ लतीफ़ तांगा लाने के लिए दौड़ गया।
एलिना लखनऊ की सैर करके लौटी तो बहुत खुश थी। यहाँ के लोगों का व्यवहार, यहाँ की संस्कृति से वह बहुत प्रभावित हुई। आयरिश होने के नाते उसके मन में ग्रेट ब्रिटेन के प्रति एक विद्रोहात्मक भाव था। इसी से वह भारतीय संस्कृति से जुड़ती चली गई।
‘बहुत सीधा लोग है यहाँ का,’ उसने जेम्स से कहा
‘सीधा ही नहीं बग़ावती भी है।’
‘टुम हमला करे तो क्या वह चुप बैठे। वो मर्द है, बग़ावत करटा है। टुम उसे ईसाई बनाना चाहता। उसका अपना धर्म है।
टुम ब्रिटिश लोग उससे ठगी करता। वो सीधा है तो तुम फ़ायदा उठाता। तुम्हारी फ़ौज में तो वही ज्यादा है। फ़ौजी लोगों को तुम सटाटा, कम पैसा डेटा। मुश्किल काम लेटा। नौकरी में आगे बढ़ने का मौक़ा नहीं डेटा। उनको जानवर कहटा।’
‘वो इसी लायक है डार्लिंग।’
‘नहीं ‘जे’ तुम सब झूठ बोलता है। पब्लिक को कितना दबाएगा। वो भी सब समझटी है। तुम अपना माल पब्लिक में ही बेचटा। उनको ही बेवकूफ़, ईडियट, जंगली, निग्गर कहटा। यह इंसाफ़ नहीं है ‘जे’। तुम्हारी ब्रिटिश गवर्नमेंट ने अवध के नवाब के साथ फ्राड किया। किसी के घर पर कब्ज़ा क्या ऐसे किया जाता है?’
एलिना ब्रिटिश शासन की विलय नीति को धोखा समझती। अक़्सर उसके विपक्ष में बोल जाती। जेम्स को बुरा लगता पर उसे मन मसोस कर रह जाना पड़ता। दोनों के बीच नोंक झोंक होती ही रहती। आज भी दो बार दोनों उलझ चुके हैं। बावर्ची ने खाना तैयार कर लिया तो सामने आकर आदाब किया। दोनों उठे और खाने की मेज़ पर बैठ गए।
आखिरकार एलिना को तुलसीपुर के राजा दृगनारायण सिंह का साक्षात्कार लेने का अवसर मिल ही गया। राजा अपनी कोठरी में बैठा था। युवा और गठा शरीर, बड़ी आँखें, तेजस्वी चेहरा। ऐलिना उसके पास पहुँची। उसे चिन्तामग्न देखकर बोल पड़ी, ओ किंग यू आर...’ पर तुरन्त उसने हिन्दुस्तानी में कहा, ‘आप राजा हैं। यहाँ कै़द हैं, क्यूँ?
राजा ने एलिना को एक नज़र देखा। अपने को व्यवस्थित करते हुए कहा, ‘राजा था पर अब तो कै़दी हूँ।’
‘क्यूँ? आखिर क्यूँ? आप कै़दी कैसे हुआ?’
‘लम्बी कहानी है। मैं आज़ाद राजा की हैसियत से रहना चाहता था। मेरे पिता जी ने राजा बलरामपुर को चौधर देना स्वीकार किया था। मुझे यह चौधर देना पसन्द नहीं था, यद्यपि चौधर की राशि ज्यादा नहीं थी। ‘यह चौधर क्या है?’
एलिना ने पूछा। ‘पन्द्रह सौ रुपये तुलसीपुर का राजा बलरामपुर के राजा को हर साल देता था। यही चौधर का रुपया कहलाता था।’
‘ओ समझ गई।’ एलिना ने सिर हिलाया।
‘पिता से इसी बात पर मुझसे अनबन रहती। आप इसे ग़लत कह सकती हैं। मैंने उन्हें हटा कर गद्दी सँभाल ली। बलरामपुर की चौधर बन्द कर दी। बलरामपुर को यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कर्नल स्लीमन की मदद से पिता जी को फिर गद्दी पर बिठाया। मुझे सुलह के बहाने लखनऊ बुलाया गया और क़ैद कर लिया गया। मेरे राज को शाही राज में मिला लिया गया।’
‘टभी से आप यहाँ क़ैद हैं?’
‘नहीं। मैं इनके कै़दखाने से निकल गया। जाकर तुलसीपुर में अपना थाना बनाया। पर शाही फ़ौज ने अँग्रेजों की सहायता से फिर तुलसीपुर पर हमला किया। मैं अपनी रिश्तेदारी डोकम बस्ती में था। उन्होंने मेरी फ़ौज से यह कह कर हथियार रखवा लिया कि राजा ने अधीनता स्वीकार कर ली है। फिर रात में सोते समय मुझे गिरफ़्तार किया। तभी से मैं क़ैद में हूँ। मुझे बाग़ी कहा जाता है।’ ‘ओह, यू आर ए ग्रेट मैन। बाग़ी होना कोई गुनाह नहीं है। तुम आज़ादी से काम करना माँगता। अँग्रेज नहीं देना चाहता यही झगरा है न?’ प्रश्नवाचक मुद्रा बना एलिना ने कहा। ‘है ही।’ राजा ने भी हुँकारी भरी। ‘तुम्हारी बात अच्छी लगी। मैं आयरिश हूँ। अँग्रेज मुझे भी बाग़ी समझटा है।’ एलिना ने हँसते हुए कहा, ‘थैंक यू। तुम से मिलकर खुशी हुई। हम तुम्हारी मदद करेगा।’ इतना कहकर एलिना उठी। प्रणाम कर चल पड़ी।
दिल्ली सल्तनत का रुतबा यद्यपि घट गया था पर वली अहदी के लिए कुछ न कुछ दाँव पेंच चला करता। जिस साल अँग्रेजों ने अवध का विलय किया उस साल भयंकर गर्मी पड़ी। बहुत से लोग लू के शिकार हुए। जून में बारिश शुरू हुई तो उसका क़हर। कितने ही मिट्टी के घर ढह गए। इसी बीच हैज़ा ने अपना पाँव पसारा। मेटकॉफ सहित कई अँग्रेज भी हैजे़ के शिकार हुए। दिल्ली तख़्त के दो वली अहद दारा बख़्त, मिर्जा कयूमर्स का देहान्त हो जाने के बाद मिर्जा फत्हुलमुल्क बहादुर ने बादशाह और ज़ीनत महल को तसल्ली दी कि वे उनके कहने के अनुसार चलेंगे, सभी कर्ज़ पटा देंगे। अँग्रेज अधिकारियों ने भी मिर्ज़ा को पसन्द किया। तीन सितम्बर 1852 को वे वली अहद हो गए। ज़ीनत महल को यह बात पसन्द नहीं आई। वे अपने बेटे जवाँबख़्त को वली अहद बनवाने के लिए भरपूर प्रयास करती रहीं। इसी बीच वली अहद ने दाग़ की माँ वज़ीर खानम से शादी की। पर दिल्ली में जब हैज़ा फैला, कहते हैं फत्हुलमुल्क भी उसकी चपेट में आ गए। पेट में दर्द उठा, कै हुई। हकीम बुलाए गए। दवा हुई पर वे बच न सके। नौ जूलाई 1856 को उनका देहान्त हो गया। शाही परिवार में शोक छा गया। फत्हुलमुल्क की नई पत्नी वज़ीर ख़ानम बार बार कहतीं-‘अभी जीवित हैं। ज़रा हाथ पैर टटोल कर देखो।’ पर पंछी उड़ गया था। बादशाह ने वज़ीर को ढाँढस बँधाया पर ज़ीनत महल खुश हुईं। उन्हें लगा कि खुदा ने उनके बेटे जवाँवख़्त के लिए रास्ता साफ किया है। वह अब युवराज हो सकता है। उन्होंने बादशाह पर दबाव बनाया। जवाँबख़्त को वली अहद बनाने के लिए तैयार किया गया। शेष बचे पुत्रों से लिखवा लिया गया कि जवांबख़्त को युवराज बना देने से हम प्रसन्न हैं। हमें कोई एतराज़ नहीं है। पर अँग्रेज ज़ीनत महल से संतुष्ट नहीं थे। वे शाही शान को मिटा देना चाहते थे। उन्होंने बादशाह के बेटे मिर्ज़ा क़ोयाश को अपनी ओर मिलाया। उसके सामने तीन शर्तें रखीं-तुम्हें बादशाह के स्थान पर ‘शहज़ादा’ कहा जाएगा, दिल्ली का लालकिला खाली करना होगा, एक लाख के बदले सालाना पन्द्रह हज़ार रूपये वृत्ति के रूप में मिला करेंगे। मिर्जा क़ोयाश ने ये शर्तें मान लीं। उसे युवराज बना दिया गया और बादशाह को इसकी सूचना दे दी गई। बादशाह घायल पंछी की तरह फड़फड़ाए पर कुछ कर नहीं सकते थे। ज़ीनत महल भी शोक में डूब गईं। मुग़लों के बीच युवराज तय करने की कोई परम्परा नहीं थी। किसी बादशाह की मृत्यु पर अक़्सर ताकत के बल पर लोग गद्दी पर बैठते थे। दिल्ली के शायरों में ‘ज़ौक़’ और हकीम मोमिन खाँ ‘मोमिन’ का भी स्वर्गवास हो चुका था। मिर्जा असदउल्ला ख़ाँ ‘ग़ालिब’ अभी थे और सब कुछ खुली आँखों से देख रहे थे। नौजवान शायरों में दाग़ देहलवी को लोग पहचानने लगे थे। ज्यों ज्यों अँग्रेजों की चालें बढ़ती गईं, जनता में भी आक्रोश बढ़ता गया। अँग्रेज अधिकारी सत्ता के मद में बादशाह की ही नहीं, जनता के हितों की भी अनदेखी करते रहे।
अँग्रेजों के खि़लाफ़ अवध में भी सुगबुगाहट थी। जिन राजाओं के गाँव ले लिए गए, वे असंतुष्ट थे ही, जिनके गाँव नहीं छीने गए थे वे भी अँग्रेजों की रीति-नीति से संतुष्ट नहीं थे। लखनऊ सहित अवध में अँग्रेजों ने कुछ अधिक सख़्ती की। चीफ़ कमिश्नर हेनरी लारेन्स ने ख़ुद अनुभव किया कि इतनी सख़्ती की ज़रूरत नहीं थी। वे शाम को हवाख़ोरी के लिए निकलते। इसी बहाने शहर पर एक नज़र डालते। शहर की सभी अच्छी कोठियों पर अँग्रेजों ने कब़्जा कर लिया था। हर जगह सेना और पुलिस की गश्त। हरकारे, मुख़बिर सभी अपने काम में मुस्तैद। रात में सिपाही गश्त करते। उन्हें अँग्रेजी में काशन सिखाए जाते। ‘कौन है?’ की जगह उनकी आवाज़ ठहनाती, ‘हू कम्स देयर?’ राही इसे न समझ पाते। आवाज़ सुनते ही भागने लगते। ‘हू कम्स देयर?’ का जवाब न मिलने पर सिपाही झुँझलाते। कभी कभी गोली चला देते। कैसरबाग़ के मोड़ पर जो सिपाही तैनात था उसने तीन बार ‘हू कम्स देयर?’ कहा। राही जब तक समझे सिपाही ने गोली चला दी। राही गिरा, उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। शव रात भर पड़ा रहा। सुबह पता चला कि वह अमीनाबाद के एक दुकानदार का लड़का था। ख़बर पाकर रोते धोते उसका बाप आया औैर शव को ले जाकर गोमती के किनारे अग्नि दी। प्रशासन यही कहता रहा-ग़लती लड़के की थी। उसने सिपाही की चेतावनी का उत्तर क्यों नहीं दिया।
पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र बत्तीस वर्षीय नाना धुधु पन्त अपनी आठ लाख रुपये सलाना की पेंशन से लगभग आठ हजार स्त्री-पुरुष बच्चों का पालन पोषण कर रहे थे। अत्यन्त शान्त आडम्बर रहित नाना अँग्रेज और उनकी मेमों का भरपूर स्वागत करते। पेशवा की मृत्यु (1851 ई0)पर नाना की पेंशन बंद कर दी गई। उन्होंने अपने वकील अज़ीमुल्ला को भेज कर लन्दन तक पैरवी की पर उनकी नहीं सुनी गई। सतारा की ओर से पैरवी करने वाले रंगो बापू जी भी लन्दन से खाली हाथ लौटे। झाँसी, नागपुर सहित अनेक राज्यों के वारिसों ने अपने हक़ के लिए अपील की पर कोई सुनवाई नहीं हुई। सभी असंतुष्ट और परेशान थे। अवध की राजमाता, भावी वारिस सहित विलायत पहुँचीं। सांसदों से मुलाकात कर अपने हक़ की पैरवी की। मलका विक्टोरिया को भेंट प्रदान की पर तत्काल कोई राहत नहीं मिल सकी। नाना के वकील अज़ीमुल्ला यूरोप के कई देशों में भारतीयों का पक्ष प्रस्तुत करते हुए भारत लौटे। बिठूर आए। नाना बेचैन थे। उन्हें उम्मीद थी कि इंग्लैंड से न्याय मिलेगा। ऐसा जब नहीं हुआ, एक दिन नाना की बेटी मैना ने पूछा,‘बापू अब क्या होगा? हमारे आश्रित हजारों लोगों का पोषण कैसे हो सकेगा?’ नाना ने सुना। उनके मुख से निकला‘हूँ’। नाना और अज़ीमुल्ला देशी जनों, तालुकेदारों को संगठित करने में लग गए। एक शाम को गंगा में नाव पर बैठे हुए नाना, अज़ीमुल्ला और मैना के बीच चर्चा शुरू हुई।
‘सभी असंतुष्ट और परेशान तो हैं पर एकजुट नहीं हैं।’ अज़ीमुल्ला ने कहा।
‘एकजुट होंगे लोग। हमारा उद्देश्य स्पष्ट है।’ नाना ने कहा।
‘बापू अँग्रेजों का शासन उखाड़ फेंकना है।’ मैना बोल पड़ी।
‘यह काम इतना आसान नहीं है बेटी।’ नाना कुछ चिन्तित दिखे।
‘अँग्रजों ने खुद हुकूमत करते हुए जो रुख़ , जो सख़्ती अपनाई है उससे अवाम में भी बेचैनी है। अँग्रेजी सेना में भी हिन्दुस्तानी लोग पचासी फ़ीसदी से ज्यादा हैं।’ अज़ीमुल्ला कुछ उत्साह में दिखे।
‘क्या मतलब?’नाना चौंक पड़े।
‘सेना में भी बेचैनी बढ़ रही है। अँग्रेज हिन्दुस्तानियों को बेइज़्ज़त करते ही थे अब उनके ‘पादरी कर्नल’ खुले आम हिन्दू धर्म और इस्लाम की बेइज़्ज़ती कर रहे हैं। जगह जगह पर्चे बाँट रहे हैं। एक पर्चा हमें मिला है जिसमें पादरी जवानों से कहता है-तुम्हारे तैंतीस करोड़ देवता हैं। उनमें बहुत तो कुरूप और भद्दे हैं। तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं। वे ख़ुद मारे मारे फिरते हैं तुम्हें जन्नत कैसे पहुँचाएँगे? इसी तरह इस्लाम के पैग़म्बरों की तौहीन करते हुए कहता है कि वे सभी दोज़ख़ में पड़े बिलबिला रहे हैं तुम्हें जन्नत में कैसे ले जा सकेंगे? जन्नत में जाने का एक ही रास्ता है प्रभु ईशु की शरण में आओ। वे तुम्हारे सभी पापों को क्षमा कर देंगे।’ इस तरह के पर्चे ही नहीं बँट रहे बल्कि सेना के अधिकारी खुले आम अपने भाषणों में ईसाई धर्म अपनाने की वकालत करते हैं।’
‘जवानों पर इसका असर तो दिखेगा?’ नाना ने पूछ लिया।
‘जवानों में अपनी सेवा शर्तों, अधिकारियों के व्यवहार को लेकर बेचैनी थी ही अब ईसाई धर्म के दुष्प्रचार से सेना में ज़बरदस्त तूफान खड़ा हो गया है। सैनिक कभी भी अँग्रेजों के खि़लाफ़ खड़े हो सकते हैं।’ अज़ीमुल्ला बताते रहे। ‘ये बातें तो अँग्रेजों के विपक्ष में जाने के लिए एक मजबूत आधार दे सकती हैं।’ नाना ने सोचते हुए अज़ीमुल्ला के हाथ से पर्चा ले लिया। ख़ुद बाँचने लगे। पर्चा पढ़कर उन्होंने एक क्षण आकाश की ओर देखा। ‘आघे से ज्यादा तालुकेदार और राजा परेशान हैं, अवाम कर के बोझ और अपनी तौहीन से तंग है, अब सेना के जवान भी....।’ वे सोचते रहे।
‘सभी को एकजुट होना होगा।’ नाना ने अपनी चिन्ता प्रकट की।
‘ज़रूर एकजुट होना होगा।’ अज़ीमुल्ला बोल पड़े।
‘एकजुट करने के लिए कोई एक अगुआ चाहिए।’ नाना फिर सोचने लगे। मैना सारी बातचीत ध्यान से सुनती रही।
‘अगुआ ऐसा होना चाहिए जिसके साथ सभी जुड़ सकें।’ अज़ीमुल्ला ने बात रखी।
‘ठीक कहते हो। अगुआ में सभी का विश्वास होना चाहिए।’ नाना के मुख से निकला। ‘अभी मुग़ल शासन का बादशाह जीवित है। उसे अपंग ज़रूर बना दिया गया है। उसके नेतृत्व में लोग खड़े हो सकते हैं।’ अज़ीमुल्ला कहते रहे।
‘हाँ, मुग़ल बादशाह के नाम पर लोग एकजुट हो सकते हैं। उनसे बात की जाय।’
‘और फ़ौज के लोगों से?’
‘उनसे भी बात की जाएगी।’
‘मैं औरतों में भी बात करूँगी।’ मैना बोल पड़ी।
‘औरतों की ज़रूरत तो पड़ेगी ही। तुम्हें उनको खड़ा करना होगा।’ अज़ीमुल्ला ने कहते हुए सिर हिलाया।
फिर गुप्त बैठकों का दौर शुरू हुआ। उसमें कुछ सैनिक भी शामिल हुए। योजना बनी। लोगों को जोड़ने के लिए सम्पर्क का काम तेज हो गया। नाना धुधु पन्त तो सालों से राजाओं ताल्लुकेदारों से सम्पर्क कर रहे थे। ख़बर उड़ी कि नाना जी तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं। नाना के साथ अज़ीमुल्ला तथा कुछ अन्य साथी। हरकारे दौड़ पड़े। सभी क़ौल के पक्के। जिसको सन्देश देना है उसी तक पहुँचेगा। दूसरा कोई उसकी भनक भी नहीं पा सकेगा। सबसे पहले बादशाह से बात करनी चाहिए, यह सोचकर नाना, उनके छोटे भाई बालाराव तथा अज़ीमुल्ला दिल्ली पहुँचे। बहादुरशाह तथा ज़ीनत महल से लालकिले में भेंट हुई। योजना पर विस्तार से चर्चा हुई। ज़ीनत अँग्रेजों से ख़ार खाए बैठी थीं। बादशाह ने अपनी दिक्क़तें बताईं। यह भी कहा कि मेरे पास फ़ौज का खर्च सँभालने की कुव्वत नहीं है। ‘लोग आएँगे, रुपया भी लाएँगे। आपको खड़ा होना है। बाकी काम हम सब मिलकर सँभाल लेंगे।’ नाना ने दिलासा दिया। बादशाह के पहले ही ज़ीनत ने ‘हाँ’ कह दिया। ‘ठीक है,हमें मंजूर है। इंशाअल्लाह जो होगा देखा जाएगा।’ बादशाह की स्वीकृति से तीनों ख़ुश हुए। अन्य शाही अधिकारियों से भेंट की। तीनों ने अंबाला होते हुए पंजाब का चक्कर लगाया। महीनों सम्पर्क करते रहे। नाना के आदमी दक्षिण भारत में उनका सन्देश घूम घूम कर पहुँचाते रहे। सतारा में बैठे रंगो बापू जी भी विभिन्न तालुकेदारों से सम्पर्क करते रहे। झाँसी की रानी भी ‘झाँसी न दूँगी’ का आह्वान कर रही थीं। नाना के दूत सभी जगहों से संदेशे ला रहे थे। दिनोंदिन लोगों का जुड़ाव बढ़ रहा था।
क्रान्ति का बिगुल फूँकने के लिए इकतीस मई की तारीख़ तय हुई। 23 जून को प्लासी युद्ध (1757) की शतवार्षिकी पड़ रही थी। क्रान्ति के संयोजक उम्मीद कर रहे थे कि तेईस जून तक देश कम्पनी शासन से आज़ाद हो जाएगा।
संदेश के लिए कूट शब्द रचे गए। देशी लिपियों का उपयोग किया गया। कार्यकर्त्ता, सिपाही ही नहीं लोकगायक, नर्तक, मदारी, पंडित-मौलवी सामान्य जन सभी इस अभियान में कूद पड़े। अँग्रेजों के यहाँ काम करने वाले हिन्दुस्तानी बावर्ची, कर्मचारी सभी इस अभियान से जुड़ गए और अँग्रेजों को इसका पता नहीं चल सका।