अध्याय दस
माँ के दूध की लाज तो रखो !
सन 1852 में कम्पनी ने एक नए तरह का कारतूस भारतीय सेना में प्रसारित किया। पहले के कारतूसों को हाथ से तोड़ना पड़ता था पर नए कारतूसों को दाँत से काटना पड़ता था। इन कारतूसों में चर्बी का उपयोग होता था जो प्रायः सुअर और गाय की हुआ करती थी। जब तक भारतीय सैनिकों को इसका पता नहीं चला वे दांत से काटकर कारतूसों का प्रयोग करते रहे। अँग्रेज अधिकारी धीरे धीरे इन कारतूसों का प्रचलन बढ़ाते रहे।
बैरकपुर के पास कारतूस बनाने का एक कारखाना खोला गया। वहाँ छावनी थी ही। एक दिन एक वाल्मीकि ने ब्राह्मण सिपाही से पानी पीने के लिए लोटा माँगा। सिपाही ने मना कर दिया। इस पर वाल्मीकि भड़क उठा।
‘जाति-पाँति का घमंड छोड़ो पंडित जी। चर्बी लगे कारतूस को मुँह से काटना हो तो ?’
‘क्या ?’
‘हाँ, जिस कारतूस को सिपाही मुँह से काटते हैं उसमें गाय और सुअर की चर्बी लगी होती है।’
सुनकर ब्राह्मण क्रोध से लाल हो गया। अपनी बैरक में जाकर सभी सिपाहियों को बताया। सभी क्रोध में फनफना उठे। ‘हम नौकरी करने आए हैं। अपने धर्म और ईमान को खराब करने नहीं।’ पूरी पलटन के सिपाही फुफकारने लगे। सूबेदारों ने नियंत्रित करने की कोशिश की पर कोई असर नहीं हुआ। सूबेदारों ने अँग्रेज अफ़सरों से बात की। उन्होंने पलटन के सिपाहियों को समझाया कि कारतूस में चर्बी का उपयोग नहीं होता। पर जवानों को भरोसा नहीं हुआ। उन्होंने कारखाने के भारतीय कर्मचारियों से पूछताछ की। कर्मचारियों ने बताया कि गाय और सुअर की चर्बी का उपयोग होता है। फिर क्या था ? दावानल की तरह यह बात फैली। पलटन के सिपाहियों ने सभी पलटनों में यह ख़बर पहुँचा दी। सभी पलटनों में उथल पुथल मच गई। तब तक क्रान्ति की तारीख निश्चित हो चुकी थी। भारतीय जवान, सूबेदार सभी इससे जुड़ रहे थे। सूबेदारों ने अभी गुस्से को पचाने की हिदायत दी। इकतीस मई तक प्रतीक्षा करो। फिर एक ही दिन सब कुछ बदल जायगा। पर सिपाहियों ने तयकर लिया कि वे कारतूस का प्रयोग नहीं करेंगे।
एक दिन उन्नीस नम्बर की पलटन को बुलाकर नए कारतूस दिये गये। जवानों ने नए कारतूस लेने से इनकार कर दिया। अँग्रेज अफ़सरों ने समझाया कि इनमें चर्बी नहीं लगी है। पर जवान कहाँ मानने वाले थे? अँग्रेजों के आदेश का भी जब कोई असर नहीं हुआ तो परेड को बर्ख़ास्त कर दिया गया।
अँग्रेज अफ़सरों ने बैठकें कीं। पूरे बंगाल में उस समय गोरी पलटन नहीं थी। तुरन्त ब्रह्मा से (म्याँमार) गोरी पलटन मँगाने के लिए संदेश गया। कुछ दिन में गोरी पलटन आ गई। अँग्रेज अफ़सरों की जान में जान आई। उन्नीस नम्बर की पलटन को क्या सज़ा दी जाए ? विचार विमर्श के बाद इस पलटन को भंग कर देने पर विचार होने लगा। सिपाही भी उत्तेजित थे। कुछ तत्काल विद्रोह पर उतारू थे। हिन्दुस्तानी सूबेदारों ने समझाया। अँग्रेज अधिकारियों से बात की। पलटन भंग करने की प्रक्रिया थोड़ी टल गई।
उन्तीस मार्च की गुनगुनी धूप निकली। बैरकपुर की उन्नीसवीं पलटन जैसे ही परेड पर आई सत्ताईस वर्षीय मंगल पाण्डेय क्रोध से भरा अपनी पंक्ति से बाहर आकर चिल्लाया, ‘अँग्रेज अफ़सर हमें क्रिस्तान बना रहे हैं। साज़िश है इनकी....।’ पांडेय की आवाज़ पर परेड में उपस्थित सारजेन्ट मेज़र ह्यूसन ने आदेश दिया,‘पाण्डे को गिरफ़्तार करो।’ कोई भी सिपाही गिरफ़्तार करने के लिए आगे नहीं बढ़ा। ह्यूसन आग बबूला हो उठा। वह खुद पाण्डेय की ओर बढ़ा। पाण्डेय ने अपनी गोली से ह्यूसन को ढेर कर दिया। यह देखकर ले.बाघ घोडे़ पर पाण्डेय को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा। पाण्डेय ने फिर गोली चला दो। बाघ और उनका घोड़ा दोनों घायल हो गए। ले.बाघ ने अपनी पिस्तौल चला दी। पाण्डेय बाल बाल बच गए। अपनी तलवार निकाल कर पाण्डेय ने बाघ का सिर धड़ से अलग कर दिया। अफ़रा-तफ़री मच गई। किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाय। ख़बर कर्नल ह्वीलर तक पहुँची। वे दौड़कर आए। सिपाहियों को आदेश दिया, ‘पाण्डे को गिरफ़्तार करो।’ पर कोई भी सिपाही पाण्डेय को गिरफ़्तार करने के लिए आगे नहीं आया। स्थिति को भाँपते हुए कर्नल ह्वीलर जनरल हीयर के बंगले की ओर भागे। उन्हें बताया जुल्म हो गया। पाण्डेय ने ह्यूसन और बाघ का क़त्ल कर दिया।’ ‘परेड पर क़त्ल ?’ जनरल हीयर भी दौड़ कर आया। जनरल को देखकर पाण्डेय ने अपनी छाती में गोली मार ली। वह घायल होकर गिर पड़ा। उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। परेड को विसर्जित कर दिया गया।
चटपट पाण्डेय का कोर्ट मार्शल हुआ। फाँसी की सज़ा हुई। पर उन्हें फाँसी देने के लिए कोई स्थानीय व्यक्ति तैयार नहीं हुआ। कलकत्ता से फाँसी देने वाले बुलाए गए और आठ अप्रैल को उन्हें फाँसी दे दी गई। पाण्डेय के साथी ईश्वर प्रसाद को भी इक्कीस अप्रैल को फाँसी पर लटका दिया गया। मंगल पाण्डेय के विद्रोह की ख़बर सभी पलटनों में पहुँचने लगी। हर जगह आक्रोश। अँग्रेज अधिकारी भी चौकन्ने थे। 31 मई की तारीख विद्रोह के लिए तय की गई थी किन्तु इसकी भनक अँग्रेजों को नहीं लग सकी।
चौंतीस नम्बर पलटन के सूबेदार के यहाँ बैठकें होने लगीं। उसमें उन्नीस और चौंतीस दोनों पलटनों के सिपाही भाग लेते। अक़्सर कमरे में अँघेरा कर दिया जाता। संदेष्टा के चेहरे पर काला कपड़ा पड़ा होता। वह कहता,‘अँग्रेज हमारा ही नहीं पूरी जनता का खून चूस रहे हैं। हमें बेइज़्ज़त कर रहे हैं। जीने लायक तनख़्वाहें नहीं देते। राजा-महाराजाओं का राज हड़प रहे हैं। हम ही लोग अँग्रेजों की ओर से अपनी जनता पर गोली चलाते हैं। हम भी आदमी हैं, हमारी भी इज़्ज़त है। एक मौक़ा हमारे हाथ आया है। 31 मई को पूरे देश में हमें अँग्रेजों के खि़लाफ़ खड़ा होना है। आपके खडे़ होते ही अँग्रेजों को भागने का भी मौक़ा नहीं मिलेगा। लाल कमल सभी पलटनों में घूम रहा है। तैयार हो जाओ यही मौक़ा है। दिल्ली के बादशाह के नेतृत्व में हमें हथियार उठाना है। बोलो तैयार हो?’ सभी के हाथ उठ जाते। ‘तो फिर याद रहे 31 मई की सुबह।’ बैठक से लोग चुपके से निकलते। हर कोई दूसरे से बात करता, प्रेरित करता।
अँग्रेजों को कुछ भनक लगी कि उन्नीस नम्बर और चौंतीस नम्बर की पलटनें आपस में गुपचुप विचार विमर्श कर रही हैं। अँग्रेजों के अनुसार ‘पाण्डेगीरी’ बढ़ रही है। अँग्रेज अधिकारियों ने बैठक कर तय किया कि उन्नीस और चौंतीस नम्बर से मुक्ति पा लेना ही ठीक है।
दोनों पलटनें परेड पर बुलाई गईं। गोरी पलटन को सन्नद्ध कर दिया गया। जैसे ही दोनों हिन्दुस्तानी पलटनें परेड पर आईं, उन्हें कमान मिला ‘हथियार रख दो’। सभी सिपाही हथियार जमा करने लगे। जब सभी ने हथियार रख दिया। कमान करने वाले अधिकारी ने एक कडुवा उपदेश पिलाया। अन्त में आदेश आया-‘दोनों पलटनें बर्ख़ास्त की जाती हैं, गो।’ सिपाही कुछ चिन्तित, कुछ गुस्से में निकल गए। चौंतीस नम्बर की पलटन के सूबेदार को गिरफ़्तार कर लिया गया। उनका कोर्ट मार्शल हुआ। आरोप था कि वे अपने यहाँ ‘पाण्डे’ लोगों की गुप्त बैठकें कराते थे। कोर्ट मार्शल में फाँसी का हुक्म हुआ। अँग्रेजों ने विद्रोही सिपाहियों को ‘पाण्डे’ कहना शुरू कर दिया था।
बर्ख़ास्त सिपाही क्रान्ति की योजना के लिए अग्रदूत बन गए। पलटनों में पहुँच कर वे आप बीती सुनाते। जनता में भी वे अपनी बात कहने में अधिक कारगर सिद्ध हुए। तूफान आने के पहले की शान्ति छायी थी पर नाना की यात्राएँ जारी थीं। वे सोलह अप्रैल को लखनऊ पहुँचे। उनका भव्य स्वागत हुआ। जगह जगह स्वागत द्वार बनाए गए। जनता में एक नया उत्साह पैदा हुआ। नाना ने अँग्रेज अधिकारियों से भी सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखा जिससे उन्हें किसी तरह का सन्देह न हो। कोई आवेशपूर्ण भाषण नहीं, केवल काम की बात। लखनऊ की छावनियों में भी क्रान्ति का सन्देश घूम रहा था।
चीफ कमिश्नर हेनरी लारेन्स रोज की तरह बग्घीपर हवाखोरी के लिए निकले। एक पागल से दिखने वाले आदमी ने साहब की बग्घी पर कीचड़ उछालदी। ‘दौड़ो दौड़ो, पकड़ो,’ पर वह आदमी यह गा, वह गा.. गलियों में गायब हो गया। यह हम्ज़ा थे। एक सनसनी फैली बड़े साहब की बग्घी पर कीचड़। गोरे सिपाही सन्नद्ध हुए पर उनकी संख्या कम थी। हिन्दुस्तानी सिपाहियों की मनः स्थिति बदल रही थी। उन्होंने उस व्यक्ति को पकड़ने में तत्परता नहीं दिखाई। लखनऊ की जनता अँग्रेजों से खुश नहीं थी। फरवरी सनसत्तावन तक सूफी मौलवी अहमदुल्ला शाह जिन्हें डंका शाह कहा जाता था, लखनऊ की घसियार मंडी में रहे। उनके हज़ारों शिष्य थे। वे पालकी में चलते तो आगे आगे डंका बजता चलता था। उन्हें चीनाटीन के साहबज़ादे कहा जाता। उनकी शिक्षा-दीक्षा हैदराबाद और लंदन में हुई। अरब और ईरान होते हुए वे भारत लौटे थे। उन्होंने दूर दूर- साँबर, जयपुर, टोंक, ग्वालियर, दिल्ली, आगरा तक की यात्राएँ की। दिल्ली में मुफ़्ती सदरुद्दीन और सदर फ़ज़ल हक़ जैसे लोगों से उनका सम्पर्क था।
अप्रैल का महीना इन्हीं सरगर्मियों में बीता। अँग्रेज अधिकारी भी चौकन्ने थे। दो मई के दिन सैनिकों के प्रशिक्षण केन्द्र मूसाबाग में सातवीं अनियमित सेना के सामने वे नए कारतूस लाए गए। जवानों ने कारतूस लेने से इंकार कर दिया। अँग्रेजों ने समझाना बुझाना शुरू किया। जवान जब इस पर भी नए कारतूस लेने से इंकार करते रहे तो अँग्रेज अफ़सरों ने अनुशासन का डंडा घुमाया। इंकार करने की सज़ा जानते हो? फ़ौज में इंकार नहीं चलता। इसकी सज़ा में फाँसी तक हो सकती है। जवान कसमसा उठे। एक जवान बर्दास्त नहीं कर सका। पंक्ति से बाहर आया और चिल्ला पड़ा, ‘दीन, हमें अँग्रेजी दीन से बचाओ।’ अफ़सरों में खलबली मच गई। कुछ सिपाही उसके समर्थन में आ गए। तीस सिपाहियों को गिरफ़्तार कर लिया गया। शेष सिपाहियों को विसर्जित (डिस्पर्स) करने का आदेश दिया गया। पर कोई सिपाही हिला तक नहीं, न गिरफ़्तार सिपाहियों को ही जाने दिया। वहाँ हिन्दू मुसलमान सभी एक थे, साथ ही जीने-मरने को प्रस्तुत।
अँग्रेज अधिकारियों के लिए भी यह अपमानजनक स्थिति थी। कुछ सूबेदारों को उन्होंने निर्देश दिया कि सैनिकों को समझाएँ। सूबेदारों ने कहा,‘कुछ समय दिया जाए साहब।’ अँग्रेज अफ़सर हट गए। बातचीत शुरू हुई। सिपाही बैरक में आए तो अपनी तैयारी करने लगे। उन्होंने हथियार और गोला बारूद अपने कब्ज़े में किया। वे जानते थे कि हुक्म उदूली का अर्थ क्या होता है? उधर अँग्रेज अधिकारी भी चुप नहीं थे। वे भी विचार विमर्श और तैयारी करते रहे।
सबेरे हेनरी लारेन्स गोरी पलटन के पन्द्रह सौ सवार तथा तोपखाना लेकर पहुँच गए। चारों ओर से घेर कर इमारत पर तोपों की मार शुरू करा दी। बहुत से सिपाहियों ने समर्पण कर दिया। फौरन परेड हुई। अँग्रेजी तोपखाना उनके सामने लाया गया। गोला बारूद भर कर ज्यों ही पलीता लगाया गया, सातवीं अनियमित सेना के जवान कांप उठे। बहुत से जवान हथियार छोड़कर भागे पर अँग्रेज घुड़सवार उनपर चीते की तरह झपटते। थर्राए जवानों को दबोच लेते। एक हजार जवानों में से एक सौ बीस डटे रहे। उनसे हथियार रखवाकर पलटन भंग कर दी गई। एक सौ बीस में से तीस को फांसी और चालीस को सश्रम आजन्म कै़द की सज़ा सुनाई गई। तीसो आदमियों को मच्छी भवन के फाटक पर फाँसियाँ खुले में दी गईं। सुबह की फांसी लगी लाश दिन भर टँगी रहती और चील-गिद्ध नोच कर खाते। शाम को बचा अंश दफ़्ना दिया जाता।
पूरा शहर सन्न रह गया। लोगों के मुँह से बात नहीं निकलती। क्या यही है अँग्रेजी राज? एक पागल बाँसुरी बजाता हुआ लोगों से पूछता,‘कैसा है अँग्रेजी राज?’ लोग सुनते और चुपके से सरक लेते।
अँग्रेजी प्रशासन अब भी नए कारतूसों को चलन में लाने के लिए तत्पर था। छह मई का दिन मेरठ में अपेक्षा से कुछ ज्यादा ही गर्म था। सबेरे परेड पर एक पलटन के जवानों को नए चर्बी वाले कारतूस दिए गए। नब्बे जवानों में पचासी ने लेने से इंकार कर दिया। अँग्रेज अधिकारी आग बबूला हो उठे। इन पचासी जवानों का कोर्ट मार्शल हुआ। इन्हें आठ से दस साल तक की सख़्त सज़ा दी गई। नौ मई को इन पचासी जवानों को परेड पर बुलाया गया। सामने गोरी पलटन और तोपखाना था। सभी जवानों की वर्दियाँ उतरवा ली गईं। हथकड़ी और बेड़ियाँ डाल दी गईं। गोरी पलटन थी ही, दूसरी पलटनों को भी दिखाने के लिए बुला लिया गया। हिन्दुस्तानी जवान कसमसाए ज़रूर किन्तु उन्हें याद दिलाया गया कि विद्रोह की तिथि 31 मई नियत है, उसके पहले कुछ करना संगत नहीं है। जवानों ने अपने आवेग को रोका। कुछ की आँखें डबडबा आईं। गोरी पलटन के लोग हँसी-मज़ाक करते रहे। सज़ा पाए पचासी जवानों को बाज़ार में घुमाते हुए जेल ले जाया गया। बाज़ार में सूचनाएँ तैर रही थीं। जिसने भी इन सिपाहियों को देखा, परेशान हो उठा। कोई कहता,‘अँग्रेज सब को क्रिस्तान बनाना चाहते हैं। हिन्दू और मुस्लिम दोनों के धर्म पर ख़तरा है भाई।’‘जवानों के साथ ज़्यादती हुई है’, दूसरा बोल देता। शहर के गली-मुहल्लों में इन जवानों पर की गई ज़्यादतियों की ही चर्चा। चर्चा की कमान महिलाओं के हाथ में। जितने मुँह उतनी बातें। सौदा-सुलुफ के लिए शाम को अन्य सिपाही बाज़ार गए तो महिलाओं से न रहा गया। ‘तुम्हारे भाइयों को हथकड़ी और बेड़ी डाल दी गई और तुम लोग अँग्रेजों के पिट्ठू बने हो। चूड़ियाँ पहन लो तुम लोग।’ दूसरी कहने लगी ‘माँ के दूध की लाज तो रखो। अपनी माई को क्या जवाब दोगे कि हम अपने भाई को जेल डाल आए हैं।’ देखा देखी कुछ अन्य महिलाओं ने और तीखी टिप्पवियाँ की। जवानों में जख़्म तो था ही, महिलाओं के शब्द बाण उसे उधेर गए। बाजार से लौटे जवानों ने अपनी पलटन को इकठठा किया। महिलाओं की चुभती बातें सुनाईं। सभी जवान भभक उठे। अब 31 मई तक रुका नहीं जा सकता, जवानों ने अपनी बात रखी। कुछ वरिष्ठ जवानों ने समझाने की कोशिश की पर उसका कोई असर नहीं हुआ। हमें अपनी इज़्ज़त, अपना धर्म प्यारा है। अब स्थितियाँ बर्दास्त के बाहर हैं। तय यही हुआ कि विद्रोह करना है। तुरन्त दिल्ली के नेताओं को ख़बर करने के लिए हरकारे भेजे गए। हम कल या परसों दिल्ली पहुँच रहे हैं। रात भर कोई सोया नहीं। योजनाएँ बनाते, आस पास के लोगों को सूचित करते, रात बीती।
अगला दिन दस मई, इतवार। सूर्य की किरणों के साथ ही जनता का उबाल बढ़ता गया। सबसे पहले सशस्त्र घुड़सवार सेना के लोग जेल पहुँचे। जेलर और सिपाही भी विद्रोहियों के साथ हो गए। जेल का फाटक खोल दिया गया। दीवार ढहा दी गई। जवानों की बेड़ियाँ-हथकड़ियाँ काट दी गईं। सभी जवान एक दूसरे से गले मिले और आवाज़ निकली ‘दीन, दीन, दीन’, ‘हर हर महादेव’। घुड़सवार सेना के साथ पैदल सिपाही और आमजन जुड़ते गए। अँग्रेजों के बँगले जलाए जाने लगे। ‘मारो फिरंगी को’ कहते हुए विद्रोही जिधर भी अँग्रेजों को देखते, दौड़ा कर मार देते। अँग्रेज जगह जगह छिप गए। कुछ घोड़ों पर गाँवों की ओर भागे। यद्यपि गोरी पलटन थी मेरठ में किन्तु जवानों और विद्रोहियों के सैलाब के सामने वे सहमें अपने को बचाने में ही लगे रहे। अनेक अँग्रेज अफ़सर जान बचाने के लिए भागे। कोई अपने बाबर्ची के घर में घुस गया, कोई किसी अन्य के घर में। अनेक अँग्रेज अधिकारी मारे गए। दिन भर जवानों और जनता का राज रहा। तार काट दिए गए। रास्तों पर विद्रोही सेना ने अपने पहरेदार बिठा दिए। मेरठ पर विद्रोहियों का कब्ज़ा हो गया। एक अँग्रेज अधिकारी एक पुलिया के नीचे छिप गया। पूरे आठ घंटे गन्दे नाले के पानी में बैठा रहा। रात में तवायफ़ रमा बाई के दरवाज़े पर वह कांपता हुआ पहुँचा। गिड़गिड़ाया कि मुझे शरण दे दो। रमा बाई ने कहा कि तुम लोगों के कारनामे ऐसे हैं कि शरण देना भी पाप है। अँग्रेज ने पांव पकड़ लिया। रमा बाई ने कहा कि यहाँ रहने पर स्त्री वेश धारण करना होगा। उसे नहलाकर कुर्ता सलवार पहनाया, खाना दिया और रात में ही विदा कर दिया।
विद्रोहियों ने शाम को बैठक की। दिल्ली चलने की योजना बनी। रात में ही मेरठ के लिए ज़रूरी व्यवस्था कर घुड़सवार सेना, पैदल और तोपखाना दिल्ली की राह चल पड़े।
सुबह आठ बजते-बजते दो हज़ार घुड़सवार दिल्ली पहुँचे। दिल्ली में उस समय गोरी पलटन नहीं थी। कर्नल रिप्ले को जब पता लगा, वह चौवन नम्बर की पलटन को साथ लेकर विद्रोही सेना का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। उसे आश्चर्य हुआ जब चौवन नम्बर की सेना भी विद्रोहियों से गले मिलने लगी। नारा गूँजा-‘अँग्रेजी राज की क्षय,’ ‘सम्राट बहादुर शाह की जय’ ‘बादशाह की जय’। रिप्ले घबड़ा गया। एक सिपाही ने उसका काम तमाम कर दिया। सेना के अन्य अँग्रेज अफ़सर भी मारे गए। विद्रोहियों का हौसला बढ़ा।
सभी सैनिक कश्मीरी गेट से दिल्ली में घुसे। दरिया गंज में अँग्रेजों के बंगले थे, उन्हें जला दिया। जो भी अँग्रेज समर में आया उसे मार दिया। घुड़सवार सेना के लोग लाल किले पहुँचे। बादशाह को ख़बर हुई। उन्होंने सैनिक नेताओं को बुलाकर बात की। ज़ीनत महल भी बातचीत में शामिल हुईं। सम्राट सोचने लगे क्या अब इकतीस मई तक प्रतीक्षा करना संभव होगा। चिनगी लग जाने के बाद आग कैसे रुकेगी? ये लोग बादशाह से बात कर ही रहे थे तब तक पैदल सेना और तोपखाना भी पहुँच गया। पहुँचते ही बादशाह को इक्कीस तोपों की सलामी दी। बादशाह को एक बार लगा, वे सचमूच बादशाह हैं। विद्राही सैनिकों ने मेरठ का सारा हाल सुनाया। उनसे नेतृत्व करने का आग्रह किया। ‘पर मेरे पास कोई ख़ज़ाना नहीं है। तनख़्वाहें कैसे दी जाएँगी?’ बादशाह ने अपनी कठिनाई बताई। ‘पूरे देश के अँग्रेजी ख़ज़ाने को आपके क़दमों में डाल देंगे हम लोग।’ विद्रोही नेताओं ने आश्वस्त किया।
बादशाह से अनुमति लेकर घुड़सवार और पैदल सेना अपने काम पर जुट गई। ‘बादशाह की जय’ ‘अँग्रेजी राज की क्षय’, दीन-दीन-दीन, ‘हर हर महादेव’ के उद्घोष के साथ हरा और सुनहरा झंडा लहराने लगा। सेना अँग्रेजी ठिकानों को नष्ट करने लगी। दिल्ली में लाल किले के पास अँग्रेजों का एक बड़ा अस्त्र भंडार था। उसमें नौ लाख कारतूस, दस हज़ार राइफलें और गोला बारूद था। ले0 विलोबी नौ अँग्रेज तथा कुछ हिन्दुस्तानी सैनिकों के साथ उसकी सुरक्षा के लिए सन्नद्ध थे। विद्रोही सेना नायकों ने बादशाह की ओर से एक सन्देश ले0 विलोबी को भिजवाया कि भंडार हमारे हवाले कर दो। विलोबी ने इंकार कर दिया। लाल किले पर हरा और सुनहरा झंडा लहराता देखकर भंडारगृह के हिन्दुस्तानी सिपाही भी आकर विद्रोही सेना से मिल गए। अब बचे नौ अँग्रेज सैनिकों पर अस्त्रभंडार की सुरक्षा का भार था। विद्रोही सैनिकों ने आक्रमण किया। विलोबी जब तक सामना कर सके, किया। जब देखा कि अब देर तक सामना नहीं किया जा सकता, उसने भंडारगृह में आग लगवा दी। हजारों गोलों की भयंकर आवाज़ हुई। दिल्ली शहर के मकान हिल उठे। विलोबी सहित नौ अँग्रेज जवान उसी में शहीद हो गए। पच्चीस हिन्दुस्तानी सैनिक तथा तीन सौ आम जनों के टुकड़े-टुकड़े हो बिखर गए। कारतूस और गोला-बारूद जल गए। बन्दूकें ही विद्रोही सैनिकों के हाथ लगीं।