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चरित्रहीन - उपन्यास
सीमा बी.
द्वारा
हिंदी महिला विशेष
चरित्रहीन........(भाग-1)मैं वसुधा पाठक दिल्ली में ही पैदा हुई, यही पढी लिखी, नौकरी और फिर शादी भी यहीं....। दिल्ली के चप्पे चप्पे से वाकिफ हूँ मैं....पर मैं खुद को खुद से मिलाना ही भूल गयी थी। जब मिलाना चाहा तो चरित्रहीन का तमगा मिल गया वो भी अपनों से! दुख इस बात का है कि मेरे बच्चे भी मुझे समझ नहीं पाए!! जो मुझे अंदर तक दुखी कर गया.. ............ मैं तो फेल हो ही गयी साथ ही मेरी परवरिश भी। ये तो नहीं कह सकती कि सारी गलती सिर्फ मेरे बच्चों की है, कुछ हाथ तो मेरा भी रहा होगा
चरित्रहीन........(भाग-1)मैं वसुधा पाठक दिल्ली में ही पैदा हुई, यही पढी लिखी, नौकरी और फिर शादी भी यहीं....। दिल्ली के चप्पे चप्पे से वाकिफ हूँ मैं....पर मैं खुद को खुद से मिलाना ही भूल गयी थी। जब मिलाना चाहा तो ...और पढ़ेका तमगा मिल गया वो भी अपनों से! दुख इस बात का है कि मेरे बच्चे भी मुझे समझ नहीं पाए!! जो मुझे अंदर तक दुखी कर गया.. ............ मैं तो फेल हो ही गयी साथ ही मेरी परवरिश भी। ये तो नहीं कह सकती कि सारी गलती सिर्फ मेरे बच्चों की है, कुछ हाथ तो मेरा भी रहा होगा
चरित्रहीन........(भाग-2)नीरज मेरा क्लॉसमेट था...। उसमें वो सारी खूबियाँ थी जो किसी भी लड़की को उसका दीवाना बना सकती थी। आकर्षक, लंबा कद चौड़ा माथा और भूरी भूरी आँखे ऊपर से गोरा रंग सब कुछ कयामत ही तो ढाता था। ...और पढ़ेलड़कियाँ उससे बात करने के मौके ढूँढती थीं और वो किसी भी लड़की को निराश तो बिल्कुल नहीं करता था। बहुत थोड़े से टाइम में वो सबका चहेता बन गया था। पढने में भी ठीक था तो हर वक्त वो सबसे घिरा रहता था....। कई बार मैंने भी उससे बात करने की कोशिश की पर ज्यादा बात नहीं हो पायी।
चरित्रहीन.........(भाग-3)मैं चुपचाप जा कर गाड़ी में बैठ गयी। पापा पूरा रास्ता बिल्कुल चुप रहे शायद ड्राइवर की वजह से कुछ नहीं बोल रहे थे। मैं पापा के पूछने वाले सवालो के जवाब मन ही मन तैयार कर रही थी। ...और पढ़ेमें पसरी चुप्पी तूफान के आने से पहले वाली शांति लग रही थी... ऐसा लग रहा था कि घर न जाने कितना दूर है। कुछ तो सड़क पर जाम लगा था पहले शक्तिनगर चौक पर फिर बिरतानिया की रेडलाइट पर तो अक्सर बहुत टाइम लग जाता था....आगे पंजाबी बाग जनरल स्टोर पर भी वही रेडलाइट की जाम....लंबी लंबी रेडलाइट उस
चरित्रहीन......(भाग-4)उस रात खुली आँखों से इतने सपने सजा लिए थे कि आँखे बंद करने से भी डर लग रहा था.....कितनी कपोल कल्पनाएँ चल रही थी मन में.....नीरज कैसे पापा से बात करेगा? पापा के पैर छुएगा या ऐसे ही ...और पढ़ेकरेगा? पैर छू कर नमस्ते करे तो ज्यादा अच्छा होगा, नीरज नर्वस न हो जाए? पापा उससे स्टेटस की बातें न करने लगे? जब पापा नीरज को मिल कर हाँ करेगें तो नीरज कैसे रिएक्ट करेगा? पता नहीं सैकडो़ं सवाल थे जिनका जवाब जब नीरज शाम को घर आएगा, तब मिलना था। ऐसा इंतजार करना बहुत मुश्किल लग रहा था.......जब
चरित्रहीन.....(भाग-5)अब मन परेशान हो या मुझे टेंशन थी, जो भी था वो नेचुरल ही था.....। मम्मी पापा जैसे ही निकले मैंने नीरज को फोन करके बता दिया। पंजाबी बाग से रानी बाग बहुत दूर तो था नहीं, पर गाड़ी ...और पढ़ेएक पार्क के सामने ही लगानी पड़ती और वहाँ से अंदर पैदल जाने में जो वक्त लगना था, वही तो था टेंशन का मुद्दा......नीरज बोल रहा था, "तुम टेंशन मत लो मैं बाहर चला जाऊँगा उन्हें घर नहीं ढूँढना पड़ेगा और कार भी पारिक करा दूँगा"! उसकी बात सुन कर थोड़ी तसल्ली को हुई थी....पर चिंता और बातों की भी