Khavabo ke pairhan book and story is written by Santosh Srivastav in Hindi . This story is getting good reader response on Matrubharti app and web since it is published free to read for all readers online. Khavabo ke pairhan is also popular in फिक्शन कहानी in Hindi and it is receiving from online readers very fast. Signup now to get access to this story.
ख्वाबो के पैरहन - उपन्यास
Santosh Srivastav
द्वारा
हिंदी फिक्शन कहानी
चूल्हे के सामने बैठी ताहिरा धीमे-धीमे रोती हुई नाक सुड़कती जाती और दुपट्टे के छोर से आँसू पोंछती जाती अंगारों पर रोटी करारी हो रही थी खटिया पर फूफी अल्यूमीनियम की रक़ाबी में रखी लहसुन की चटनी चाटती जा रही थी- “अरी, रोटी जल रही है..... दे अब रोती ही जाएगी क्या?”
ताहिरा ने आँखें पोंछीं और रोटी की राख झाड़ फूफी को पकड़ा दी.....बस, आख़िरी दो लोई बची है फूफी हमेशा अंत में खाती हैं, जब सब खा चुकते हैं
चूल्हे के सामने बैठी ताहिरा धीमे-धीमे रोती हुई नाक सुड़कती जाती और दुपट्टे के छोर से आँसू पोंछती जाती अंगारों पर रोटी करारी हो रही थी खटिया पर फूफी अल्यूमीनियम की रक़ाबी में रखी लहसुन की चटनी ...और पढ़ेजा रही थी- “अरी, रोटी जल रही है..... दे अब रोती ही जाएगी क्या?”
ताहिरा ने आँखें पोंछीं और रोटी की राख झाड़ फूफी को पकड़ा दी.....बस, आख़िरी दो लोई बची है फूफी हमेशा अंत में खाती हैं, जब सब खा चुकते हैं
उदास ताहिरा अँधेरे में भी पेड़ के नीचे बैठी रही बीच-बीच में आँखें भर आतीं फैयाज़ का मुस्कुराता चेहरा आँखों के समक्ष डोल जाता उसने कभी भी फैयाज़ को निराश नहीं देखा था जब भी ...और पढ़ेसे मिली थी यही पाया था कि फैयाज़ में गहरी महत्वाकांक्षा है बावजूद सारी ज़िम्मेदारियों के वह घबराया नहीं है वह कहता था बहन की जिम्मेदारी पूरी करने के बाद शादी करेगा, और एक सुंदर गृहस्थी की कल्पना से ताहिरा आँखें मूँद लेती थी हमउम्र युवकों से फैयाज़ एकदम अलग था
जैसे कुर्बानी से पहले बकरे को हार-माला, तिलक से सजाया जाता है ताहिरा को भी सजाया जा रहा था पिछली रात मेंहदी की रस्म हुई थी गोरे पाँवों तथा हाथों में कलाइयों तक बारीक मेंहदी लगाने ब्यूटी ...और पढ़ेसे लड़की बुलाई गई थी मंगल कार्यालय और कार्यालय के ऊपर बने फ़्लैट में पूरा घर शादी के माल-असबाब सहित मेंहदी की रात से ही आ गया था जमीला, सादिया के लिये तो जैसे जश्न-सा था सब..... और क्यों न हो, उनकी इकलौती ननद की शादी थी.....
धूप कमरे में आ चुकी थी निक़हत फूफी को झंझोड़ रही थी “उठिए फूफी जान.....देखिए कितना दिन चढ़ आया है ”
फूफी घबराकर उठ बैठीं..... रात कब तक जागती रहीं, याद नहीं..... शाहजी को ताहिरा के कमरे ...और पढ़ेदाखिल होते देखा था..... फिर यादों के झंझावात में कितनी ही देर वे जागती रहीं थीं..... न जाने कितनी बातों को लेकर वे रोई थीं..... गालों पर आँसू सूख गए थे, शायद रोते-रोते सोई होंगी
या अल्लाह! ऐसे तो वे कभी नहीं सोईं? भाईजान के घर में तो पाँच बजे से ही काम शुरू हो जाते थे, न जाने कैसे वह इतना सोती रही
फूफी को ताहिरा के क़दमों की चाप देर तक टकोरती रही ज़ेहन में उस चाप की टकोर से वेदना उठी .....मन अपराधी हो स्वयं से गवाही माँगने लगा- ‘क्यों किया रन्नी तूने ऐसा? क्यों ख़ानदान की बलिदेवी पर ...और पढ़ेकी कुर्बानी दे दी? अँधे न देखें तो ख़ुदा उन्हें माफ़ करता है पर तू तो आँख होते अंधी हो गई थी ’
फूफी की आँखें डबडबा आईं बेशुमार आँसू ओढ़नी पर चू पड़े उनकी ज़िन्दगी हो मानो कुर्बानियों की दास्तान है, आहों का जलजला, उम्मीदों की टूटन है रोते-रोते वे तकिये में मुँह गड़ा कर लेट गईं धीरे-धीरे अतीत दस्तक देने लगा