ख्वाबो के पैरहन
पार्ट - 7
ज्यों फेन से सराबोर समंदर की लहर हुलसकर तट तक जाती है और सब कुछ समर्पित कर बौखलाई-सी लौट आती है, रन्नी भी लौट आई| यूसुफ और अपने प्यार की निशानी को खुरच-खुरच कर निकलवा तो दिया पर मन से क्या खुरचने के दाग़ गए? क्यों रन्नी के साथ ही ऐसा होता आया है? हर ओर शिकस्त, ज़िन्दगी की हर बाजी शह और मात से लबरेज?.....कहीं तो अल्लाह एक किरण रोशनी की उसे भी सौंपता?
जाकिर भाई के घर से चाबी लेकर रन्नी ने घर का दरवाज़ा खोला| नूरा साथ आया था| भाभी जचकी के लिए वहीँ रुक गई थीं| भाईजान भी अपने धंधे के सिलसिले में बाज़ार चले जाते थे सुबह ही| नूरा ज़िद्द कर रहा था-‘फूफी, तुम बाद में नहाओ, पहले मुझे खाने को दो|’
‘रास्ते भर तो खाता आया है, थोड़ा चैन तो लेने दे नूरा बेटे| पहले रास्ते के कपड़े उतार, जाकर नहा, तब खा|’ रन्नी ने अटैची खोलते हुए कहा| तभी सज्जो कटोरदान में रवे का हलवा लिए ठुमकती हुई आई-‘फूफी, जे अम्मी ने भेजा है|’
वह पलटकर जाने ही वाली थी कि रन्नी ने रोका-‘सज्जो, थोड़ी देर बैठ, मैं ज़रा नहा लूँ|’
‘अच्छा फूफी|’ कहकर सज्जो नूरा के खिलौनों के पास बैठ गई| रन्नी ने ज़ल्दी से नूरा के कपड़े बदलवाकर मुँह हाथ धुलाया.....| फिर रन्नी खुद भी नहाई.....कपड़े बाल्टी में भरकर रख दिए कि थोड़ा सुस्ता लें, तब धोयें| इतनी देर में नूरा ने आधा हलवा चट कर लिया था| रन्नी उसका मुँह देखकर बेसाख्ता हँस पड़ी| सज्जो भी हँस पड़ी| रन्नी ने डलिया से शकरपारे और मठरी निकालकर सज्जो को दिए कि जाकर आपा को देना और मेरा सलाम कहना|
दाल, चावल पकाकर, नूरा को खिला-पिलाकर, रन्नी ने खुद के लिए भी परोसा लेकिन तबीयत उचट गई| जो कुछ भी हुआ वह रन्नी के लिए हादसा था| खुरचने की पीड़ा टीस रही थी| बार-बार मन में सवाल उठ रहा था कि आख़िर उसे क्या हक़ था अपनी कोख में अकुँआये शिशु को मारने का?.....इस समाज में कहीं जब किसी का खून होता है तो मारने वाला खूनी कहलाता है| क्या वह स्वयं खूनी नहीं और क्या ऐसा करना इसलिए जायज था कि वह नाजायज संतान को कोख में पाल रही थी? रन्नी की आँखें भर आईं, खाया नहीं गया| वह उठी और तख़्त पर चित्त लेट गई| मन में विचारों का बवंडर उठा था| तभी खिड़की से दिखती अमराई में यूसुफ खड़े नज़र आये| उधर से पुकार की ख़ामोश कोशिश रन्नी के पैरों को खींचने लगी| पलटकर देखा, नूरा सो रहा था और भाईजान के आने में अभी काफी वक्त था| रन्नी ने दुपट्टा सिर पर डाला और दरवाज़े को सरकाकर यूसुफ की ओर बढ़ी|.....वक्त का तक़ाजा, खानदान की इज्जत और उसका अपना कर्त्तव्य रन्नी के पैर को पीछे घसीट रहे थे और प्यार आगे की ओर| आख़िर प्यार की विजय हुई| रन्नी यूसुफ के गले से लिपटकर रो पड़ी| ‘सब कुछ ख़तम हो गया यूसुफ़, सब कुछ|’
‘जानता हूँ रेहाना, तब से मैं भी तो क़तरा-क़तरा जिया हूँ|.....पर हम कर ही क्या सकते हैं, बेड़ियाँ जो पड़ी हैं पैरों में|’ यूसुफ़ ने रेहाना की पलकों के आँसू अपने होठों में पिरो लिए|
‘इसका कोई हल नहीं?’
‘हल है| मैं आज ही अब्बूजान से बात करूँगा| सब कुछ बता दूँगा उन्हें, मुझे उम्मीद है वे इंकार नहीं करेंगे|’
रन्नी यूसुफ़ के सीने में मुँह गड़ाये थी| आम के पीले पत्ते मानो आशीर्वाद बन टपक पड़े| रेहाना ने सिहर कर सिर उठाया-‘वे मान जायेंगे?’
‘मुझे कोशिश करने दो रेहाना, मन छोटा न करना| तुम्हीं तो मेरी हिम्मत हो| तुम्हें हारा हुआ देख, मैं भी पस्त हो जाता हूँ|’ रन्नी आश्वस्त हुई, दोनों धीरे-धीरे अमराई में चहलकदमी करने लगे| रन्नी ने सारा वाक़या कह सुनाया, वो पीड़ा के दर्द, वो अँधेरा सीलन-भरा कमरा, वो सिसकियाँ, सब कुछ हूबहू|
‘बस करो रेहाना.....अब और न कहो, तुमने बहुत सहा है|’
जाने कब शाम चुपके से अमराई में उतर आई| रन्नी यूसुफ से जुदा हुई तो टिटहरी की आवाज़ से अमराई गूँज उठी| जाकिर भाई पेट्रोल पम्प के सामने खड़े ट्रकों में डीज़ल भर रहे थे| यूसुफ़ ने चुपचाप अपनी कार स्टार्ट की और सुरमई शाम में गुम हो गए|
भाईजान के लौटने का वक़्त| घर में तरकारियाँ थीं नहीं और भाईजान को चाहिए रोटी तरकारी| रन्नी ने सिल पर एक कटोरी खसखस पीसी और हरी मिर्चें डालकर पका लीं|.....भाईजान आयेंगे तो फुलके उतार देगी| नूरा अपने आप में मस्त खेल रहा था| यूँ भी वह अब समझदार हो गया है| शकूरा का बड़ा भाई जो है| फिर बहन भी आने वाली है| भाभी के लड़की ही हो यह रन्नी की दिली तमन्ना है| कम से कम घर में पायल-चूड़ी तो बजे| रन्नी इस घर की बेटी होकर भी इस सुख से महरूम है| मन फिर पिघलने लगा, भीतरी परतें कसमसाने लगीं| रन्नी ने अपने पर काबू किया| नमाज का वक्त हो चला था| उसने बरामदे में रखे घड़े से लोटा भर पानी लेकर वजू किया और जॉनमाज़ बिछाकर नमाज़ पढ़ने लगी| सिजदा किया, तभी भाईजान आ गए| थैलों में सब्ज़ी तरकारी भरे| अंडे, पाव सभी कुछ| आते ही नूरा को प्यार किया| रन्नी को भर नज़र देखा| रन्नी निगाहें न मिला सकी| चौके में जाकर फुलके सेंकने लगी| भाईजान कपड़े बदलकर हाथ-मुँह धोकर तख़्त पर बैठ गए| तख़्त पर नमदा बिछा था| यह नमदा अम्मी ने उस समय ख़रीदा था जब रन्नी का ब्याह हुआ था| भाईजान नूरा से पूछ रहे थे कि शकूरा कैसा है और उसकी अम्मी कैसी हैं, कब लौटेंगी और यह कि दिन भर फूफी को तंग तो नहीं करता रहा वह?
तब तक रन्नी थाली में फुलके, हरी मिर्च का अचार, मठरियाँ, लड्डू और खसखस ले आई| नमदे पर अखबार बिछा थाली रख दी| रन्नी तख़त के दूसरे छोर पर बैठ गई| अब क्या करे? किस तरह बात शुरू करे? रन्नी खाते हुए भाईजान को देखती रही| चेहरा मलिन-सा लगा| आख़िर हिम्मत की-‘और फुलका ला दूँ भाईजान?’
वे चौंके-‘ऊँऽऽ,’ और नहीं में सिर हिलाया| अन्तिम कौर खाकर हाथ धोने बरामदे की ओर बढ़े फिर नूरा को आवाज़ दी-‘बेटा, थोड़ा पानी और दे जा|’ रन्नी हाहाकार कर उठी| भाईजान कुछ कहते क्यों नहीं, क्यों अबोला साध रखा है? क्या माफ़ नहीं करेंगे उसे? क्या अपनी जान से ज़्यादा अजीज बहन को अबोला साध ज़िबह कर डालेंगे? टूटे मन से रन्नी ने जूठी थाली उठाई, चौके का काम निपटाया| मन चिन्दी-चिन्दी हो उठा था|.....कैसे जोड़े इस घर के अपनापे को? यूसुफ ने समय माँगा है| वह क्या करे? कहाँ जाये?
काम निपटाकर वह लौटी, भाईजान अपने पेट पर नूरा को लिटाए, खटिया पर लेटे थे| रन्नी का धीरज जवाब दे गया| वह सिरहाने गई और भाईजान से लिपट गई-‘भाईजान? नाराज़ हैं अभी तक?’
‘नहीं रन्नी, नाराज़ तुमसे नहीं अपनी मजबूरी से हूँ| मैं तुम्हारे लिए कुछ न कर सका और मेरी उम्र ढलती रही|’
‘अल्लाह आपको उम्रदराज़ करे| मेरे गुनाहों की सज़ा आप क्यों भोगें? मेरे लिए मत घुलिए भाईजान, मैं तो हूँ ही बदकिस्मत|’
भाईजान ने पेट से नूरा को उतारा, रेहाना को चिपटा लिया और पीठ पर थपकियाँ देते रहे| उनकी आँखों से आँसुओं के दो बूँद रन्नी के पीठ पर आ गिरे|
रेहाना घर के कामों में जुटी रहती| वही रवैया, भाईजान सुबह चले जाते, ढलती साँझ लौटते| नूरा पेट्रोल पंप के पास खेलता रहता और रेहाना की टकटकी डामर की सड़क पर चिलबिल के झाड़ के नीचे लगी रहती क्योंकि यूसुफ़ वहीँ कार खड़ी करते थे| चार दिन हो गए, वह जगह सूनी पड़ी है| जो कुछ हुआ वह न भूलने वाली थी| बेमेल विवाह के कारण रन्नी के मन की दम तोड़ती आकांक्षा पल्लवित भी हुई तो रिवाजों की आँधियों ने उसे कुचल डाला और वह बेबस मूक गाय सी बिटर-बिटर देखती रह गई| लेकिन यूसुफ की आस ने रन्नी को टूटने न दिया| यूसुफ़ अपने अब्बू-अम्मी से बात करेंगे और यकीं है कि कामयाब होंगे, लेकिन वह भाईजान-भाभी से कैसे कहेगी? क्या सोचेंगे भाईजान? विधवा विवाह क्या मुमकिन है? आज तक उनके खानदान में जो नहीं हुआ उसे करने की रेहाना ने कैसे हिम्मत की? और क्या भाईजान समाज की उबलती निगाहों का सामना कर पायेंगे? उफ! क्यों वह यूसुफ की तरफ झुकी? मर जाने देती अपने अरमानों को, तन को, मन को|
धूप आँगन से सरककर बरामदे की दीवारों पर आ गई, रेहाना ने बाल सुलझाने को चोटी खोली ही थी कि सज्जो दौड़ती हुई आई और एक लिफाफा पकड़ा कर यह जा, वह जा| जब तक वह सम्हलती, सोचती, यूसुफ़ की कार धूल का गुबार छोड़ती ओझल हो गई थी| रेहाना का हृदय काँप उठा, बिना मिले ही चले गए यूसुफ़| कहीं कुछ गड़बड़.....नहीं.....नहीं.....या अल्लाह रहम कर| धड़कते दिल से लिफ़ाफ़ा खोला और मुढ़िया पर बैठकर पढ़ने लगी|
मेरी रेहाना,
किस मुँह से तुम्हें अपनी कहूँ? तुम्हारे लिए मैं कुछ नहीं कर सका| जी चाहता है, इस समाज के थोथे उसूलों की बेड़ियों को काट डालूँ और तुम्हें ले उडूँ| यकीन मानो, चार दिनों से अब्बू को मना रहा हूँ| वे कुछ सुनना नहीं चाहते| लखपति खानदान के वारिस हैं, दौलत दरवाजे पर हाथ बाँधे खड़ी रहती है| अपने लिए बहू भी ऐसी ही चाहते हैं| उनका कहना है कि ख़ानदानी धन-दौलत और रुतबे का मेल हो तो शादी संभव है| आख़िर समाज में मुँह उठाकर जीना है न! उन्हें अपने बेटे की खुशियों से सरोकार नहीं, उन्हें धन चाहिए जो उनके अपार कोष को और समृद्ध कर दे| उन्हें हैसियत चाहिए, जो उनके रुतबे को और मज़बूत कर दे| किसी की खुशियों से न तो कोष भरता है, न हैसियत मिलती है| रेहाना, यह समाज धन को पूजता है इंसान की काबलियत संस्कार और त्याग को नहीं|.....जो त्याग तुम्हारे बाबा-दादी ने मुल्क के लिए किया| तुम लोगों की गरीबी की वजह वही त्याग है न! लेकिन यह समाज ऐसे त्याग को नहीं सोचता| भूल गए हैं लोग कि उन्हें कैसे आज़ादी मिली, आज़ाद हिन्दुस्तान में उनकी आज़ाद साँसों की वजह क्या है? जी चाहता है नेस्तनाबूद कर दूँ इस कृतघ्नता को| और! मैं कितना गयागुज़रा हो गया| लानत है मुझ पर| रेहाना, मेरी जान! मेरी साँस| तुम यूसुफ की हो और रहोगी लेकिन उस यूसुफ का तुम करोगी क्या जिसे उसके जन्मदाता तक नहीं चाहते| जिसे उसके वालिद ने दौलत के तराजू में रखकर तौलना चाहा| नहीं रेहाना, ऐसे लाचार, बुज़दिल यूसुफ का तुम्हारे पास कोई काम नहीं|.....तुम खुदा की बनाई बेशक़ीमती आत्मा हो| कोमल, सच्ची और मोहब्बत से भरी| मैं तुम्हारे लायक नहीं इसीलिए तुमसे मिलने की मुझमें ताब नहीं| मैं अपने बेटे को लेकर जुमे के रोज़ दुबई जा रहा हूँ| छोड़ रहा हूँ अपना मुल्क, अपना वतन जहाँ रेहाना है, अब्बू-अम्मी हैं| सबको छोड़कर, सबसे जुदा होकर जा रहा हूँ लेकिन तुम्हारा एहसास मेरे साथ जायेगा जो ता-उम्र मेरा सहारा रहेगा| ख़ुदा की क़सम, यूसुफ़ का घर अब नहीं बसेगा| हो सके तो मुझे भूल जाना, माफ़ करना मेरी रेहाना|
हमेशा के लिए
सिर्फ तुम्हारा यूसुफ
झन्न.....रेहाना के दिल की किर्चें चहुँ ओर बिखर गईं| उस पर पाँव रखता उसका एहसास लहूलुहान हो गया| रेहाना रोई नहीं, जड़ हो गई| विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है पर सच तो सच है| आँखों पर परदा डाल लेने से सब कुछ ढँक तो नहीं जाता| रेहाना उठी, पत्र को तहाकर तकिये की खोल में घुसेड़ दिया| याद आई ब्याह की रात, पति के द्वारा बलात्कार की रात.....पीटे जाने की घटनाएँ, आरी-सी चलती किचकिचाती सास की बातें.....घर लौटना.....भाईजान, अम्मी का समझाकर वापस भेजना और सूनी कोख के लिए लानत-मलामत सहना और फिर पति की मौत| रेहाना को एक-एक हादसा याद है| याद है हर पल.....हादसों की मजार बना उसका अस्तित्व! फिर भी जीने को मजबूर वह| यूसुफ.....यूसुफ, तुम क्यों मिले बिना लौट गए| मौत की सज़ा सुनाने से पहले मिल तो लेते, मेरी अंतिम इच्छा तो पूछ लेते| नहीं यूसुफ.....डरो मत.....मरूँगी नहीं मैं.....लेकिन क्या साँस चलते रहने को तुम ज़िन्दगी मानते हो?
रेहाना पँखनुची गौरेया-सी तख़त पर बैठ गई| नूरा खेलते-खेलते आया-‘फूफी, कुछ दो न, भूख लगी है|’ लेकिन अगले ही पल उसे पसीने में तर देखकर पानी ले आया-‘लो, पानी पी लो|’
रेहाना ने नूरा की मासूम आँखों को देखा और उसके हाथ में थमे गिलास को| नूरा ने गिलास उसके होंठों से लगाया तो रेहाना ढह पड़ी| नन्हे नूरा को चिपटाकर छाती से उठती रुलाई गों-गों की आवाज़ में ज्वालामुखी-सी फट पड़ी| नूरा अवाक़| फूफी को रोता देख, वह भी रोने लगा| माजरा कुछ समझ में नहीं आया उसके, बस रोता रहा| रो-रोकर थक चुकी रेहाना को हरारत-सी महसूस हो रही थी| वहीँ तख़त पर लेट गई| चूल्हा ठंडा पड़ा रहा| भाईजान ने जब साईकल टिकाई रेहाना को बुखार चढ़ चुका था| हाथ-पैर धोकर भाई नज़दीक आये-‘क्या हुआ रन्नी? तबीयत ख़राब है क्या? कुछ पकाया भी नहीं?’
‘फूफी रो रही थीं अब्बू|’ नन्हा नूरा चुप न रह सका-‘खूब रोईं फूफी|’ भाईजान द्रवित हो उठे-‘क्यों अपनी जान हलक़ान किए हो? जो हो चुका, भूल जाओ मेरी गुड़िया|’
भाईजान गाँव वाली दुर्घटना का ही कयास लगा रहे थे| अच्छा है, इस नई घटना को वह अपनी छाती में ही घोंट लेगी| अपनी जान से प्यारे भाईजान को भनक तक न होने देगी|
रात को भाईजान ने खिचड़ी पकाई| वैद्य की दवा शहद में चटाकर उन्होंने रेहाना को खिचड़ी खिलाकर सुला दिया| उसके टीसते ज़ख़्मों पर इतना मरहम काफ़ी था| कम-से-कम भाईजान-भाभी को लेकर वह भाग्यशाली है|
सूरज तप रहा था| सुबह से ही तेज़ धूप थी| बीच-बीच में धूल-गर्द भरी हवाएँ चलने लगतीं| मुट्ठी भर भी छाँह नहीं थी, न आँगन में, न बरामदे में| चलो तो चप्पल पहने पाँव भी जलने लगते थे| रेहाना ने चप्पलें उतार दीं और आँगन में यूँ चलने लगी जैसे पाँवों में मेंहदी लगी हो| चलते-चलते तलवे झुलस गए, छाले पड़ गए| वह खिलौनों की मिट्टी-सी सीझती रही| जब पसीने और गर्म ज़मीं में खूब अच्छी तरह सीझ गई तो उसने अपने मन को कूट डाला और एक नई मूरत गढ़ ली अपनी| अब इस मूरत को कोई आँच नहीं पिघला सकती| किसी का प्यार नहीं डिगा सकता| अब रेहाना मात्र भाईजान की बहन और नूरा-शकूरा की फूफी है| अब उसने ऐसा वज्र मन में गढ़ लिया है जो उसे खंड-खंड कर चुका है| एक टुकड़ा बहन का भाईजान के लिए, एक टुकड़ा ननद का भाभी के लिए और एक टुकड़ा फूफी का नूरा-शकूरा के लिए.....बस| वज्रास्त्र का काम समाप्त और उसका दामन रीता| रेहाना फूल-सी हलकी हो उठी|
असर की नमाज़ का वक़्त था| वह कमरे में लौटी, दाल भिगोकर, बटुए में अधन का पानी चढ़ा दिया| वजू किया, नमाज अता की और रात का खाना बनाने में मुब्तिला हो गई| बाहर आपा उसे आवाज़ दे रही थीं-‘रेहाना.....इतनी गर्मी में अन्दर क्या कर रही हो? चलो ढलान तक घूम के आते हैं| शीकाकाई भी तोड़ लायेंगे|’
‘लेकिन आपा! भाईजान आते ही खाना माँगते हैं और अभी रोटी बनानी बाकी हैं|’
‘रोटी आकर बना लीजो| भाईजान दो घंटे से पहले तो आने से रहे| मुझे भी तो पकानी है रोटी|’
‘आपा.....हँडिया में शीकाकाई पड़ी है.....तुम्हारे बालों लायक हो जायेगी| कल चलेंगे| आज जी नहीं कर रहा|’ रेहाना ने आपा के लिए दीवार से टिकी खटिया बिछाई और अन्दर जाकर शीकाकाई निकाल लाई, साथ में चार-छह रीठे भी| आपा ने पुड़िया लेकर पैताने रख दी और बड़े राज़ भरे स्वर में बोलीं-‘सुना तुमने| अपने यूसुफ मियाँ दुबई जा रहे हैं|’
‘अच्छा ऽऽ‘ रेहाना ने आँखें फैलाईं-‘कब?’
‘लो सुनो.....इतनी भोली न बनो, हमें सब पता है|’
रेहाना चौंकी| जब दरवाज़े के परदे में पैबन्द लगा हो तो सबकी निगाहें वहीँ गड़ी नज़र आती हैं|
‘क्या पता है आपा?’
‘लो, सुनो इनकी बातें| अरे, तुम क्या जानती नहीं कि यूसुफ़ मियाँ दुबई जा रहे हैं? कित्ती बार तो अमराई में बातें की हैं तुमने.....हमें तो इसलिए खल रहा है कि गाहे-बगाहे सज्जो और छुटकी के लिए मिठाई-मेवा भिजवा देते थे| ईद पर तो नई नक़ोर फ्रॉकें सिलवा दी थीं| कभी घी, कभी शक्कर, गुड़, सेंवई, रवा की सौगातें मिलना तो मामूली बात थी| अब कहाँ से मिलेगा सब कुछ, जब देने वाला ही जा रहा है|’
‘कोई किसी को नहीं देता आपा| सब अपने-अपने भाग्य का खाते हैं|’ कहकर रेहाना ने बरामदे से झाँकते अमराई के पेड़ों पर नज़रें टिका दीं| नहीं, अब कहीं कोई हलचल नहीं.....रेहाना मर चुकी थी, और रन्नी अब अपनी पूर्ण गरिमा से विराजमान थी|
आम की डालियाँ गदराये आमों से भर चुकी थीं-‘ठेका दे दिया आमों का?’
‘कब का, इस बार मिट्ठन को दिया है| त्यौरस साल जिसे दिया था वही मिट्ठन, महा चालू इंसान है|’
आपा ने अपने ख़ास लहज़े में मिट्ठन की पूरी कहानी कह डाली| रेहाना को कहाँ मन था सब सुनने का? अल्लाह, सज्जो को खुश रखे जो ऐन बीच में आवाज़ देकर आपा को बुला लिया वरना चूल्हे की आग भी ठंडी हो जाती और आपा खिसकने का नाम न लेतीं|
मई-जून के लू के दिन| अमराई के बीचोंबीच मिट्ठन का झोपड़ा| सुबह-शाम चूल्हा सुलगता तो धुआँ और लपट रन्नी के चौके की खिड़की तक दिखाई देते| कभी-कभी धुएँ का गुबार खिड़की तक चला आता| रन्नी की आँखें धुँधुआ जातीं| मिट्ठन रोज पेड़ से टपके, सुग्गा खाये आमों को झोले में भर नूरा को पकड़ा जाता| रन्नी अच्छी-अच्छी फाँकें छाँटकर कभी मीठी लौंजी बनाती, कभी गुड़म्मा, कभी राई का पानी वाला अचार| पना और चटनी तो रोज़ ही बनते|
आम पकने लायक होने लगे तो उनकी उतराई शुरू हो गई| बड़े-बड़े लकड़ी के खोखों में पुआल बिछाकर आम जमाये जाते और ट्रकों में लादे जाते| दिनभर का शोर! कभी खोखों को दुरुस्त करने के लिए हथौड़े का शोर तो कभी ट्रकों का|.....एक दिन भिनसारे से खूब उमड़-घुमड़कर बादल आसमान में छा गए| बिजली कड़कने लगी| रन्नी ने टूटी कार पर सुखाई मूँग की बड़ियाँ और आलू-चिप्स बटोरे ही थे कि झमाझम बरसात शुरू हो गई| चिप्स और बड़ी का चादर ले जाते-ले जाते भीग गया| मिट्टी की सौंधी खुशबू उठने लगी| नूरा अपनी शर्ट उतार कर आँगन में कूद-कूदकर नहाने लगा| उसके गले और पीठ पर घमौरियाँ निकल आई थीं| रन्नी ने ही तो बताया था कि बरसात की पहली बूँदों में नहाने से घमौरियाँ खतम हो जाती हैं-‘फूफी आओ, तुम भी नहा लो| तुम्हें नहीं हैं घमौरियाँ|’
रन्नी हँस दी-‘शरीर कहीं का|’
अब रन्नी को दूसरी चिन्ता सताने लगी| घर अंग्रेज़ी खपरों का और पहली बरसात ने ही घोषणा कर दी कि कहाँ-कहाँ से पानी टपकेगा| भाईजान को कहे कैसे? उधर भाभी पूरे दिनों से| तबीयत भी ठीक नहीं उनकी| लिखा है नमक एकदम बंद कर रखा है, पैरों में सूजन आ गई है और ब्लड प्रेशर भी नॉर्मल नहीं| भाईजान कह रहे थे थोड़ा रूपया भेज दें तो वहाँ सुभीता हो जायेगा| वैसे भी मंदी का सीज़न है यह| बारिश में खिलौने बनाना, सुखाना, बेचना सभी में रिस्क| उस दिन की अचानक आई बरसात में आँगन में पड़ी चिकनी मिट्टी काफ़ी बह गई थी| जो खिलौने पहले के थोड़े बहुत रखे हैं उन्हें शहर या गाँव तक ले जाने की समस्या| बारिश में वैसे भी मड़ई, हाट भरते नहीं| रन्नी ने मुकेश, सलमा, सितारे का काम माँगना शुरू कर दिया| दोपहर को झटपट काम निपटा, नूरा की उँगली पकड़ वह छाता लेकर चल बिल्डिंगों की ओर| धीरे-धीरे काम मिलने लगा| अब दोपहर व्यस्तता में बीतने लगी| रन्नी का मन भी लगा रहता| नूरा स्कूल चला जाता, .....वह अकेली रह जाती| चार दिन में बनने वाली साड़ी दो दिन में बनने लगी| कभी आपा आकर बैठ जातीं तो ज़रूर काम में सुस्ती आ जाती| हफ्ते भर बाद रन्नी ने बिस्किट के टीन के छोटे से डिब्बे में रखे रुपये भाईजान के सामने रखे-“भाईजान, खपरे ठीक करा लीजिए|”
भाईजान बे आईने-सी शफ्फाक अपनी बहन को निहारा| कुछ न दे सके वे और वह न्यौछावर हुई जा रही है उनके लिए| भावनाओं के आवेग से ठोड़ी काँपने लगी| मर्दजात, अपनी कमजोरी पी गए| डिब्बे में रखे रुपिये गिनने लगे| चेहरे पर रौनक-सी आई-‘रन्नी, तूने तो ख़ासी कमाई कर ली?’
रन्नी हँस पड़ी| मानो, क्यारी में लगी चूही खिल पड़ी हो| बहुत दिनों बाद देखी भाईजान ने उसकी हँसी| वे निहाल हो गए| ‘आज तो हम गुलगुले खायेंगे, सौंफ डले|’
नूरा नीचे बोरा बिछाकर बैठा स्लेट पर गणित कर रहा था|
‘हाँ फूफीजान.....हो जाये|’
रन्नी को जैसे साँसों की सौगात मिल गई| जड़ जिस्म में जान-सी आ गई| अक़्सर ऐसा होता है| कभी-कभी छोटी-छोटी खुशियाँ बहार बन जाती हैं और जीवन से उदासी पूछ जाती है|
उस बार सबने छककर गुलगुले और भजिये खाये| गाढ़ी चाय पी और अरसे बाद बिस्तरों पर लेटकर भी बतियाते रहे|
दूसरे दिन दोपहर तक खपरे आ गए| छानी दुरुस्त होने लगी| अमराई सूनी पड़ी थी, मिट्ठन का झोपड़ा भी खामोश था| आम उतार लिए गए थे| ट्रकों का शोर भी कम हो गया था| बादलों ने बड़ी मेहरबानी की दिन-भर बरसे नहीं और छानी छा दी गई| न जाने क्यों आमों के टूट जाने से रन्नी उदास हो गई थी| चौके की खिड़की से दिखती चहल-पहल में मन रमता रहता था| ख़ास कर जब मिट्ठन लम्बा बाँस लेकर सुग्गों को उड़ाता था| वह धोती पहने हमेशा खरेरी खटिया पर लेटा रहता था| रन्नी सोचती, कोई इतना फुरसत में कैसे पड़ा रहता है? जी नहीं अकुलाता?
जुलाई में ख़बर मिली कि भाभी को बिटिया हुई है| रन्नी पगला गई| बिटिया ही तो चाहती थी वह.....और अल्लाह ने सुन ली उसकी| नूरा-शकूरा को बहन मिल गई और उसे गुड़िया| भाईजान के आते ही जब रन्नी ने चहककर यह सूचना दी तो भाईजान ने साइकिल वापस मोड़ ली| आधे घंटे बाद लौटे तो गरमागरम गुलाबजामुन लिए| रन्नी ने एक गुलाबजामुन भाईजान के मुँह में खिलाया और कहा-‘बस, अब भाभी को ले आइये| अब उनके बिना रहा नहीं जाता|’
भाईजान ने भी दूसरा गुलाबजामुन रन्नी के मुँह में धरा-‘अगली जुमेरात को जा रहा हूँ न| चार गुलाबजामुन जाकिर भाई के यहाँ भी पहुँचा दो|’
‘सिर्फ गुलाबजामुन ही क्यों, हलवा भी घोंटे देती हूँ| भाईजान आप खुद देकर आइए| इस समय जाकिर भाई घर पर ही होंगे|’
जब भाईजान जाकिर भाई के यहाँ चले गए, रन्नी भाभी की बिटिया का नाम सोचने लगी| तभी कानों में कोई बुदबुदाया-‘अगर तेरा गर्भ न गिराया जाता तो इस वक्त तू भी माँ होती|’
माँ! रन्नी ने हिकारत से अपने पेट पर नज़र डाली| यह लफ़्ज मेरे लिए नहीं बना| अल्लाह यह लफ़्ज मेरे माथे पर लिखना भूल गए| वह सब कुछ तो भूल गई थी, भूल जाना चाहा था फिर क्योंकर यह दोबारा याद आया| दबा गई थी रेहाना को वह कब्र में, मुट्ठियाँ भर-भर मिट्टी डाली थी उस पर| फिर क्यों कसमसाई रेहाना? इस बार खंजर घोंप देगी अपनी अंगड़ाई पर|.....नेस्तनाबूद कर देगी इस वहशी सोच को| अंगारा छू गया था ठोस हुए मन को| थोड़ा पिघला, आँखें डबडबाई, रगड़कर पोंछी रन्नी ने और फिर सब भस्म|
भाभी गुड़िया-सी बिटिया को लिए जब रिक्शा से उतरीं, रन्नी के पैर थिरक उठे| दौड़कर चूम लिया| मुख क्या था मानो चाँद का लघुरूप रन्नी की बाँहों में था| भाभी ने रन्नी को गले से लगा लिया-‘कैसी हो रन्नी बी?’
‘ठीक हूँ भाभीजान| शुक्रगुज़ार हूँ तुम्हारी, तुमने हमें चाँद-सी बेटी दी| इसका नाम रखूँगी ताहिरा, मेरी चाँद-सी ताहिरा|’
भाभी मुस्कुरा पड़ीं| रन्नी ने कमरे में रखे बक्से को खोला और सुन्दर सलमा सितारा टँकी फ्रॉक निकाली-पीले, हरे साटन की|
‘वाह! कब बनाई तुमने?’
‘जब बिल्डिंग से काम मिला, काढ़ने-टाँकने का|’ कहकर रन्नी ने ताहिरा को नहलाया, पीले साटन की फ्रॉक पहनाई, आँखों में काजल डाला और उसे पालने में लिटा दिया| तब तक औरतें आने लगी थीं| रन्नी ने बैठक में ही दरी बिछा ली थी| आपा ढोलक और मजीरा ले आई थीं| एक पीतल के लोटे में दो अठन्नियाँ ढोलक के पास ही रख दी गई| फ़ातिमा खाला, अभी इस उमर में भी बड़ा अच्छा लोटा बजाती हैं| नूरा-शकूरा को लाल कागज में चार-चार बताशे बाँधने का काम सौंपा गया| रन्नी ने बड़े घड़े में गुलाब का शरबत तैयार किया जिसे कुल्हड़ में भरकर नूरा-शकूरा बाँटेंगे| भाभी अवाक़! इतना इंतज़ाम|
‘रन्नी बी.....तुमने तो हंगामा मचा डाला|’
‘और क्या.....बेटी जो मिली है हमें.....कोई मज़ाक है|’
शाम का चार बजा होगा कि तभी ढोलक पर पहली थाप पड़ी और अमराई सोहर के गीतों में गूँज उठी| फिर तो सात बजे तक गीत गाये जाते रहे| सज्जो ने लहँगा पहना था और ठुमक-ठुमक कर नाच रही थी| गाने के लिए आई हुई औरतों में भी कई सज्जो की उमर की थीं| थोड़ी ना-नुकुर के बाद, सज्जो की देखा-सीखी वे भी उठकर कूल्हे मटकाने लगीं| बीच में थोड़ी देर ढोलक रुकी| मीठी बूँदी से भरा थाल आया, शरबत बाँटा गया.....फिर गाना शुरू| रन्नी ने भाभी को मुढ़िया पर बैठा रखा था, उन्हें हिलने न दिया| वे उन्नाबी ग़रारे-कुरते में बड़ी निखरी-निखरी, प्यारी-सी लग रही थीं| बीच-बीच में उनकी आँखें भर आतीं, ..... शायद रन्नी की बदनसीबी पर, .....शायद उसके उल्लास पर| अल्लाह ने आँखें भी खूब बनाईं जिनमें खुशी में भी आँसू उमड़ आते हैं और ग़म में भी|
रात, सात-साढ़े सात बजे महफिल रुख़सत हुई| सबने ताहिरा को कुछ न कुछ तोहफ़ा दिया| रुपये, खिलौने और कपड़े| मुसी हुई दरी पर कुछ मुरझाये मोगरे के फूल पड़े थे| ये फूल घर आई बहुओं की चोटियों में गुंथे गजरे से टपके थे| दरी भाईजान ने उठाई| भाभी ने फूल समेटे|.....आपा की लाई ढोलक खूँटी पर टाँग दी गई| मजीरे भी| और रन्नी सौगातों का हिसाब लिखने बैठ गई| जिसने जो दिया है, वापिस भी तो करना पड़ेगा नेग-दस्तूर के ज़रिए|
रात में, भाभी भाईजान के पास जाने से पहले रन्नी के पास थोड़ी देर के लिए आकर बैठीं| बच्चे सो गए थे|.....भाईजान भी शायद सो गए होंगे, थक जाते हैं बेचारे गृहस्थी का जुआ ढोते-ढोते| ‘रन्नी बी! फिर यूसुफ से मुलाकात हुई?’
रन्नी कसमसाई, इस कहानी को वह ख़त्म कर चुकी है पर भाभी उसके एक-एक पल की हिस्सेदार हैं| सुने बिना उन्हें चैन नहीं पड़ेगा| रन्नी ने सब कुछ बताया, तकिये के गिलाफ़ में रखी चिट्ठी भी पढ़ाई और बौराई-सी बोली-‘सब ख़त्म हो गया भाभी|’
भाभीजान की संवेदना नि:शब्द झरती रही| कलेजा टूक-टूक हो गया| कैसे, कहाँ से अपनी इस कोमल, पवित्र, विशाल हृदय वाली रन्नी के लिए सुख बटोरें? आदमी बुरा हो तो लानत-मलामत से क़िस्सा ख़तम करें, पर इस रन्नी का क्या करें जो सिर से पैर तक सिर्फ अच्छाई से भरी है| भाभीजान ने रन्नी को गले से लगा लिया| इस कंधे की रन्नी को पाँच महीनों से तलाश थी| अब मिला, रन्नी सूख चुकी है अब तो|.....फिर भी, सूखी नदी में मेघ बरसें तो पानी की एक धार फूट ही पड़ती है| देर तक रन्नी और भाभीजान सुबकती रहीं| भाभी ने उठकर रन्नी को पानी पिलाया, तौलिये से चेहरा पोंछा और बिल्कुल अम्मी की तरह थपकाकर सुलाने लगीं| उठीं तब जब ताहिरा जागकर रोने लगी थी|
रन्नी फिर जी उठी थी| ताहिरा का पूरा काम अपने जिम्मे ले लिय था| भाभी केवल दूध पिलाती थीं और चौका सम्हालती थीं| रन्नी खुश थी| बार-बार रोमांचित हो जाती| यूँ तो ज़िन्दगी जीने के और भी कई तरीके हैं पर रन्नी को जीने का सबब मिल गया था| आख़िर अपने को मार देने से क्या पृथ्वी अपनी धुरी पर नहीं घूमेगी? क्या सूरज नहीं निकलेगा? क्या चाँद नहीं उगेगा? क्या सागर की लहरें जेठ की दुपहरी से तपकर, भाप बनकर बादल बनने के लिए नहीं उड़ेंगी? क्या बादल नहीं बरसेंगे? क्या नदियाँ नहीं बहेंगी?.....और जब यह सब होता रहेगा तो मन का जजबा भी अपने लिए कोई एक किनारा ढूँढ ही सकता है| रन्नी को भी किनारा मिल गया| यूसुफ के उसके जीवन में पदार्पण करने से आज तक की यात्रा को किनारा मिल गया| रन्नी खुश है.....कभी अपने भीतर उठते ममत्व से, कभी ताहिरा के कोमल हाथों की छुअन से| रन्नी खुश है कि जीवन में उसने आदर्शों को नहीं पछाड़ा.....भाईजान, भाभीजान को दुख नहीं दिया| कभी तन्हा रातों में वह निराश होकर अन्धाधुन्ध भागी भी है| इस घर के प्रेम व्यवहार की पकड़ अधिक मज़बूत है जो रन्नी को भटकने नहीं देती|
रन्नी सारा अतीत भुला देना चाहती है| पीछे से टेरती आवाज़ों को न सुनने के लिए उसने कानों पर हथेलियाँ रख ली हैं और आँखें मूँद ली हैं| बड़ा हौसला है रन्नी में, वरना वारदातों ने उसे पस्त करने में कोई कसर न छोड़ी थी|
ज़ाकिर भाई ने ही बताया था कि यूसुफ मियाँ ने दुबई में अपना अलग कारोबार शुरू कर दिया है और बेटे को तालीम के लिए उच्च दर्ज़े के स्कूल में भर्ती किया है| रन्नी नहीं सुनना चाहती कुछ भी..... इसीलिए अब जाकिर भाई के यहाँ जाना भी कम कर दिया है और जब आपा फुरसत के पलों में आकर बैठती हैं तो वह भाभीजान को उनके साथ बैठाकर ताहिरा को कंधे से लगा थपकाने लगती है| टहल-टहलकर गुनगुनाने लगती है-“सो जा राजकुमारी, सो जा|”