ख्वाबो के पैरहन - 10 Santosh Srivastav द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ख्वाबो के पैरहन - 10

ख्वाबो के पैरहन

पार्ट - 10

“अरे! नूरा शकूरा देखो तो तुम्हारी फूफी आई हैं,” भाभीजान ने कार से उतरते रन्नी बी को देखा और चिल्ला पड़ीं| जब तक नूरा घर से निकल पाता रन्नी बी आ गईं थीं| यादव जी कार की डिक्की से सामान निकाल रहे थे| भाभीजान आगे बढ़ी और लिपटकर रो पड़ीं| दोनों ही रो रही थीं| नूरा आगे बढ़ा, फूफी से लिपट गया उसकी भी आँखें भर आई थीं| बहुएँ निकल आईं और फूफी को आदाब करके लिपट गईं|

“खैरियत से हैं रन्नी बी?” अब जाकर भाभीजान के मुँह से बोल निकला|

“हाँ! देखती हो न.....ख़ैरियत ही ख़ैरियत है, लेकिन ताहिरा न आ सकी|” सबके पूछने के पहले ही उन्होंने बोल दिया|

यादव जी सामान लाकर बरामदे में रख रहे थे| रन्नी बी ने घर के भीतर प्रवेश किया तो भौंचक्की रह गईं| घर का काया पलट हो गया था| बैठक की दीवार नीले रंग की, मैचिंग के बड़े फूलदार पर्दे, बेंत की कुर्सियाँ, सोफे, काँच का बड़ा-सा टेबल बीचों बीच| बड़े-से शोकेस में सजे खिलौने, एक ओर लम्बा टेबल लैम्प| फर्श पर बिछा कालीन और दीवार पर लगी बड़ी-सी खान-ए-काबा की तस्वीर| तस्वीर के ऊपर कढ़ाई द्वारा लिखा हुआ ‘या अल्लाह’ और दायें-बाएँ ‘या मोहम्मद’ और ‘या अली’ के फ्रेम किए हुए तुगटे! दूसरी दीवार पर अब्बू-अम्मी की फ्रेम की हुई बड़ी फोटो| कुल मिलाकर एक सुन्दर-सी, सजी-धजी बैठक| रन्नी बी ने सुख और चैन की साँस ली, यादव जी के सामने यह तो होगा कि हम कोई गए गुज़रे घर के नहीं हैं|

रन्नी बी गाव तकिये से टिककर तख़त पर बैठ गई| सभी बेहद खुश थे| सादिया चाय बना रही थी| सभी के चेहरे खुशी से फूले नहीं समा रहे थे| आख़िर इतने दिनों के बाद, फूफी जो आई थीं|

“कहाँ हैं हमारे चारों साहब जादे, और हमारे भाईजान?”

“बच्चे अपने दादा के साथ बाज़ार गए हैं| ईद नज़दीक है सो बच्चों की कुछ फरमाईशें थीं, वे साथ लेकर गए हैं|” भाभीजान बोलीं|

फिर सड़क की ओर देखते हुए कहा-“सौ साल की उम्र हो तुम्हारे भाईजान की.....वे आ गए हैं|” भाभीजान बोलीं|

घर के सामने कार खड़ी देखकर भाईजान समझ गए कि रन्नी और ताहिरा आई हैं| इधर रन्नी दौड़ीं भाईजान की तरफ और उधर उतनी ही उतावली से बच्चे और भाईजान घर की तरफ आए| भाई-बहन लिपट गए, रन्नी रो पड़ी| दोनों लिपटे-लिपटे घर में आए| मेज पर चाय-नाश्ता लग चुका था| बाहर, बरामदे में बैठे यादव जी चाय-नाश्ता कर रहे थे| तीनों बच्चे अपनी फूफी से लिपटे थे| हाँ, बच्चे भी अपने अब्बा की तरह उन्हें फूफी ही कहते थे|

“ताहिरा क्यों नहीं आई?” भाई जान ने सब जगह सरसरी निगाह डालते हुए पूछा|

“ईद ससुराल की ही करनी थी, ऐसा गुलनार आपा का हुक्म था|”

भाईजान ने एक लम्बी साँस भरी और सोफे पर बैठ गए|

रन्नी ने देखा कि आर्थिक सुख के बावजूद भाईजान के चेहरे पर कोई सुकून नज़र नहीं आता| रन्नी ने बैग में से मिठाई और नमकीन के डिब्बे निकाले| बच्चे मिठाई देखकर उचकने लगे| सभी ने चाय पी और नाश्ता किया| भाईजान ने चाय पी और बड़ी मुश्किल से एक नन्हा-सा टुकड़ा मिठाई का मुँह में रखा|

“हाथ-मुँह धो लो ननद रानी, फिर आराम करो|” भाभीजान ने कहा|

रन्नी ने अटैची से कपड़े निकाले और अन्दर गई|

“जनवरी की ठंड है, गरम पानी ले लो| नहाना नहीं, हाथ पैर धोकर कपड़े बदल लो रन्नी बी|”

“हाँ! कपड़े बदलकर थोड़ा लेटूँगी, कार में भी आठ घंटे लग गए| अब भाभी, शरीर भी तो थक गया है|”

पूरा घर चम-चमा रहा था| चौके में स्टील की अलमारी थी, उसमें करीने से बर्तन सजे थे| एक ओर बड़ा पेलमेट जिस पर अलार्म घड़ी, पानदान, ताले-चाभी, सभी ज़रुरत का सामान और फोन| पेलमेट के अन्दर से बोन चायना का डिनर सेट और टी सेट झाँक रहा था| चाँदी-जैसी धातु की ट्रे, वैसा ही मेवों का कटोरा, फ्रिज और ज़रुरत का सारा सामान था|

गुसलखाने में साफ सुथरी बाल्टी, मग, गीज़र, प्लास्टिक की चौकी| हर तरफ आधुनिकता के दर्शन हो रहे थे| उन्होंने गीज़र ऑन किया और एड़ियाँ रगड़ने चौकी पर बैठ गई| याद आया, कुछ महीने पहले इसी गुसलखाने में बैठने को थी ईंट, टूटा ताम-चीनी का मग, टपकती बाल्टी जिन पर कपड़े की चिंदियाँ फँसाई गई थीं ताकि पानी बह न जाए| वे चुपचाप मुँह-हाथ धोती रहीं| कपड़े बदले और बाहर निकलीं तो नूरा हाथ पकड़कर स्टोर में ले गया|

“देखिये फूफी” सफेद रोशनी से कमरा जगमगा रहा था| वहाँ रखे थे फर के बने हुए जानवर, पीतल के मुरादाबादी सजावटी चीज़ें, वॉल हैंगिंग, महँगे झाड़-फानूस|

“यह क्या बेटा!” रन्नी बी हैरत से देख रही थीं|

“अब हम लोग यही बेचते हैं फूफी| मिट्टी का काम एकदम बंद है| बाज़ार में इन चीज़ों की खासी डिमांड है| अब हमने शहर के बीच में एक शोरूम खोला है| आज जुम्मा है, दुकान बन्द रहती है, सो हम घर में दिख रहे हैं| वरना सुबह नौ बजे हम दोनों चले जाते हैं| दुपहर को घर आते हैं और तीन बजे फिर दुकान खोलते हैं तो रात सवा आठ बजे के लगभग घर आते हैं| सब कुछ अच्छा चल रहा है फूफी, अब हमने अब्बू को कहा है कि वे आराम करें और पोतों के साथ खेलें|” नूरा लगातार बोलता ही जा रहा था|

“हाँ! बेटा, .....भाईजान के अब आराम के दिन हैं, उन्होंने ज़िन्दगी में बहुत दुख उठाए हैं|” रन्नी ने कहा|

शाहजी की तरफ से इतनी सारी मदद की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी| वे हैरत से इधर-उधर देख रही थीं| तभी भाभीजान वहाँ आ गईं|

“क्या देख रही हो रन्नी बी? इतना वैभव न? अरे यह तो ताहिरा की कुर्बानी का कमाल है|”

रन्नी चौंक पड़ी “ऐसा न कहो भाभी, ताहिरा बहुत खुश है उस घर में|”

“जानती हूँ, खुश ही होगी| क्या मैं नहीं समझती कि सिर पर बैठी हैं दो सौतनें और उम्रदराज शौहर| मेरी बेटी दाँव पर लगी है, तुम्हीं बताओ रन्नी बी.....क्या यह सारा सुख हमने उसी के कारण नहीं पाया?” भाभीजान की आँखों से आँसू बह निकले|

न जाने कैसी घबराहट हुई रन्नी को कि वे पसीने से नहा उठीं| दौड़कर भाभी से लिपट गई और फिर रो पड़ी|

“हमें माफ कर दो भाभीजान, .....” रन्नी रन्नी अपराध भाव से भर उठी, “ताहिरा का सुख औलाद होने में ही है| उसके लिए दुआ करो कि जल्द ही खुदा उसे उस हवेली का चिराग दे दे|”

रन्नी आकर तखत पर बैठ गई| सामने भाईजान बैठे बच्चों को पढ़ा रहे थे| रुखसाना उनकी गोद में बैठी अभी तक सो रही थी| रन्नी ने देखा भाईजान दुबले हो गए हैं, दाढ़ी भी बढ़ी हुई है थोड़ी-थोड़ी| बीमार दिख रहे हैं| चेहरे पर उदासी है| अब जबकि घर आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो चुका है, बेटी अमीर घर में ब्याह चुके हैं, फिर यह उदासी क्यों? ज़्यादा सोच भी न पाई रन्नी कि रुखसाना पीछे लग गई|

“बोलो न फूफी! हमारे लिए आप क्या लाईं, बोलो न फूफी|”.....चौंक उठी रन्नी, “लो! मैं तो भूल गई| अरे, सभी के लिए कुछ न कुछ भेजा है शहनाज़ बेगम ने|” उन्होंने अटैची घसीटी और सभी के लिए अलग-अलग तोहफ़े निकालने लगीं| बरामदे में रखे बड़ी, पापड़, आलू-चिप्स के कनस्तर अन्दर मँगवाए, आचार का मर्तबान और सभी कुछ भाभीजान के हवाले किया|

“इस मामले में तो शहनाज़ बेगम की जितनी तारीफ की जाए कम है| सबके घर उन्हीं के द्वारा भेजी जाती हैं सौगातें-साल भर का यह आचार पापड़| और काम इतने करीने का कि सभी देखकर दंग रह जाते हैं|”

ताहिरा ने अपनी अम्मी और अब्बू के लिए, खास वर्क लगे पान भेजे थे| भाभीजान खूब खुश हो गईं| सभी अपने-अपने पैकेट खोलकर देखने लगे| भाभीजान बोलीं-“अभी कोई नए कपड़े नहीं पहनेगा, सभी ईद के लिए रख लो, जो सिलवाए हैं वह सुबह पहन लेना और ये शमा को” ......रुखसाना नहीं मानी अपनी फ्रॉक पर नई फ्रॉक चढ़ाकर खड़ी हो गई| फ्रॉक इतनी लम्बी थी कि उसे देखकर सभी हँस पड़े| रन्नी बी ने उसे चिपटाकर चूम लिया|

भाभी पास आकर बैठ गईं| रन्नी ने धीमे से पूछा-“क्या चिन्ता खाए जा रही है भाईजान को? स्वस्थ नहीं दिखते?”

“हाँ रन्नी बेगम! उन्हें ताहिरा की चिन्ता सताती है| सिर पर बैठी उसकी सौतनों से घबराहट होती है| वे कहते हैं कि अपनी बच्ची के साथ न्याय नहीं कर पाये, उसको हमउम्र शौहर भी नहीं दे पाये| अक्सर वे बुदबुदाते हैं कि ‘उन्होंने अपनी बच्ची का सौदा किया है|’ उनका ज़मीर गवारा नहीं करता कि शाहजी की मदद को स्वीकारें| रन्नी बी, तुम्हारे भाईजान बहुत खुद्दार हैं, कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया| जानती तो हो, जब मैं इस घर में ब्याह कर आई थी उन्होंने जहेज़ लेने से भी इंकार किया था| मैं जो कुछ साथ लाई उसके लिए मेरे मामू ने कहा था कि यह तो हम अपनी लड़की को दे रहे हैं|” रन्नी अपने भाई के प्रति गर्व से भर उठी| इतनी गरीबी और ज़िल्लतों में भी भाईजान ने अपने आदर्श खोखले नहीं होने दिए थे| आख़िर हैं तो वे उन दादा के बेटे जिन्होंने कभी समझौता नहीं किया, जब अंग्रेज़ अफ़सर की गाड़ी घंटों दादाजी के घर के सामने खड़ी रहती थी, कि वे दादाजी को अच्छा पद और नौकरी देना चाहते थे| हाँ! दादाजी को कोई प्रलोभन नहीं डिगा सका|

“इधर, नूरा, शकूरा की दुल्हनें भी जब-तब लड़ती रहती हैं| जमीला तो इस घर को अपना मानकर कुर्बान हुई जाती है| सीधी भी है, बचपन से जानती-समझती आई है इस घर को| लेकिन सादिया तेज-तर्रार है, वह न छोटा देखती है न बड़ा|” भाभीजान ने कहा|

चौंक उठी रन्नी| वे तो कहाँ पहुँच जाती हैं, सोचते-सोचते| बोलीं-“भाईजान क्या कहते हैं?”

“वे क्या कहेंगे, चुप ही रहते हैं| यह घर टूट जाएगा|”

“यही समय का तकाज़ा है भाभी|” कहते-कहते गावतकिए से टिककर रन्नी लेट गई|

सुबह जमीला ने यादव जी को रास्ते के लिए खाना बनाकर दिया| यादव जी विदा लेकर रवाना हुए| उसी दिन दोपहर को ख़बर पाकर फ़ातिमा खाला घर आ गईं थीं|

“आदाब खाला|” रन्नी ने कहा|

“जीती रही बेटी, खुदा उम्र दराज़ करे| बेटी ताहिरा कहाँ है?”

“ताहिरा नहीं आई, ईद के समय गुलनार आपा ने आने नहीं दिया|”

“लो! और सुनो, ऐसा कैसा खानदान कि मुई छोकरी को ऐन ईद पर भी न भेजें|”

“ऐसा नहीं है खाला, शाहजी चाहते हैं ईद के अवसर पर ताहिरा उनके पास हो| उनकी चचीज़ात बहन भी दुबई से आने वाली है| वह भी सिर्फ़ एक हफ्ते को|”

“आप रोज़े से हो खाला?”

“न! अब मुझसे नहीं रहा जाता बेटी| बहू, बेटा और घर में सभी हैं रोज़े से|”

रन्नी हैरत में पड़ गई| अम्मी और खाला दोनों नमाज़-रोज़े की कितनी पाबंद रही हैं! और दोनों ही फ़ातेहा दरूद पर आस्था रखने वाली| कुरान की आयतें तो मानो खाला को रटी पड़ी थीं|

हाँ! सचमुच शरीर नहीं चलता होगा| इधर घर में सभी रोज़े रखते हैं, एक सिर्फ रन्नी नहीं रखती|..... और नूरा ने कभी रोज़े नहीं रखे| रन्नी ने भी अभी-अभी रोज़े रखने छोड़े हैं| पहले तो रन्नी रोज़े की बहुत पाबंद थी, लेकिन अब चुकती जा रही है|

“रेहाना, तुम कब तक यूँ बेटी के घर पड़ी रहोगी?”

जानती तो हैं खाला, ताहिरा के घर का हाल| “मासूम बच्ची है, उस घर के तौर-तरीके सब सीखने में वह कहीं अकेली न पड़ जाए, सो टिकी हुई हूँ|” कहते-कहते रन्नी को एक निरर्थक अहसास घेर लेता है|

“सो तो ठीक है रेहाना, लेकिन क्या अच्छा लगे है कि तुम महीनों वहाँ पड़ी रहो?” खाला जान ने कहा|

“हाँ! खाला, अच्छा तो मुझे भी नहीं लग रहा है,” कहते-कहते रन्नी अपने आपको बेतरह टूटा महसूस करने लगी| वहाँ रहना उसे अपराध भाव से भरे दे रहा था| इस तरह उन्होंने कभी सोचा नहीं था, बस समय के अनुसार चल रही थी| लेकिन उसे महसूस हुआ कि चारों ओर अट्टहास करते चेहरे बढ़ रहे हैं, .....हा! हा! हा! हा!.....

“बस, एक ही काम रह गया है, ताहिरा की गोद भरे और मेरा काम ख़तम!”

“लो!” कहते हुए हँस पड़ीं खाला| “देख रही हो दुल्हन, जैसे गोद भरने में यही ज़ोर लगाएगी|” भाभीजान भी हँस पड़ीं| लेकिन रन्नी के होंठों पर हँसी के साथ इन वाक्यों से भीतर तक छेदती गहरी उदासी भी थी|

“लीजिए खाला जान, पहले ताहिरा के ससुराल की काजू बादाम की बर्फी खाइए फिर यह पान.....” भाभी ने डिब्बा सरकाते हुए कहा-“ताहिरा ने ख़ास बनारसी पान लगवा कर भेजे हैं|”

रन्नी की उदासी गई नहीं, वह उठ बैठी, .....सामने से आपा आती दिखीं|

रन्नी दौड़कर आपा से लिपट गई| दोनों ओर की ख़ैरियत पूछी गई| आपा ने बताया कि कल वे अपने चचाज़ात भाई के घर पर थीं| वहीँ रोज़ा खोला गया| आज अभी ही आई हैं, और सीधे यहीं आ गईं| ईद पर शायद सज्जो भी आयेगी| ढेरों बातें होती रहीं| रन्नी ने बाहर ही कुर्सियाँ मँगवा लीं, दोनों बैठ गईं| बार-बार आपा के दिमाग में आता रहा कि यूसुफ की बीमारी की ख़बर रेहाना को दे दें, लेकिन ख़ामोश ही रहीं| नहीं आज नहीं, लेकिन बताना तो होगा ही| शाम होने वाली थी, इफ्तारी का वक्त हो रहा था| आपा उठ गई| रन्नी भी भीतर आ गई| भाभीजान, भाईजान, दोनों दुल्हनें, शकूरा सभी रोज़े पर थे| खाना बन चुका था| सादिया ने गोश्त और सालन बनाया था| जमीला फुलके बना रही थी| सभी ने नमाज़ अता की| छुहारे और खजूर खाकर रोजा खोला और फिर खाना खाने बैठ गए|

भाईजान सोने चले गए| नूरा, शकूरा भी अपने-अपने कमरों में चले गए| बाहर के कमरे में रन्नी तखत पर लेट गई| वहीँ बाजू में खाला के लिए लोहे का पलंग लगा दिया गया| भाभी वहीँ सोफे पर बैठ गईं, तीनों ने फिर एक-एक पान खाया| “पान बहुत खुशबूदार हैं, रेहाना|” खाला बोलीं|

“हाँ! इत्ते खुशबूदार पान तो मैंने भी अरसे से नहीं खाए|”

आपा से बातचीत करने के बाद भी रन्नी की उदासी दूर नहीं हुई| शाहजी की हवेली आँखों के समक्ष आती रही| बोली-“खाला! शाहजी के घर में तो मँझली बेगम का बड़ा बुरा हाल है, हवेली के एक कोने में पड़ी रहती हैं वे| कोई पूछने वाला नहीं है, बस एक मराठिन शांताबाई उनकी देखरेख को रखी गई है|” कहते हुए रन्नी की आँखों के आगे शांताबाई का निरीह चेहरा घूम गया और उनके चलते वक्त उसकी डबडबाई इसा ही होता है हुई आँखें|

“मेरा जी बहुत खौल खाता है खाला, बस, ताहिरा उस घर को एक चिराग़ दे दे सो उसकी हैसियत पुख्ता|”

“अय, हय, कोई साल तो गुज़र नहीं गया ताहिरा के निक़ाह को जो सब हड़बड़ा गए हैं|” खालाजान बोलीं|

“लेकिन खाला, हवेली में तो खुसुर-फुसुर चालू हो गई है| गुलनार आपा को तो एकदम जल्दी है| शहनाज़ बेगम क्या कम हैं कान भरने को| मैं तो चाहती हूँ खाला कि शाहजी हमारी ताहिरा को सदा पलकों पर बिठाए रखें| मैं इसीलिए तो वहाँ डटी हूँ कि कहीं सात-आठ महीनों में ही ताहिरा को बाँझ करार देकर पीछे कुछ गड़बड़ न हो जाए|”

भाभीजान ने गहरी साँस भरी और कहा-“इसी बात से तो हम और तुम्हारे भाईजान खौफ़ खाए रहते हैं|”

“अजी खौफ़ कैसा? हमारी ताहिरा ज़रूर उस हवेली को चिराग देगी| देखना, लिख लो मेरी बात|” कहते हुए खाला ने करवट ली और आँखें मूँद लीं|” “सो जाओ रन्नी बी, हम भी चलते हैं, तुम्हारे भाईजान भी जगे पड़े रहते हैं, चिन्ता ही चिन्ता रहती है उन्हें” कहते हुए भाभीजान लाइट बुझाती हुई चली गईं| कमरे में नाइट बल्ब की नीली रोशनी फैली थी|.....रन्नी को तो स्याह अँधेरे में भी मुश्किल से नींद आती है| उसने उठकर नीली रोशनी का बल्ब ऑफ किया और आकर तखत पर लेट गई| ऐसा ही होता है आधी-आधी रात तक वे जागती रहती हैं| खुदा ने सुख दिया तो वह भी शर्तों पर!.....जहाँ भाईजान ताहिरा को लेकर स्वयं को अपराधी महसूस करते हैं, वहीँ भाईजान और भाभी के समक्ष वे अपराधी हो उठती हैं| उन्होंने तो इस घर की खातिर, ताहिरा के सुख के खातिर ऐसा सब किया था|.....उसे क्या मालूम था कि सबको सुखी देखने की खातिर वह स्वयं कटघरे में खड़ी हो जायेगी|

सुबह पौने चार बजे सहरी के वक्त.....मस्जिद से अजान की आवाज़ ख़ामोश अँधेरे में तैर रही थी| घर में सभी उठ गए थे| सादिया और जमीला ने तो पूरा खाना तैयार क्र लिया था| रन्नी शायद सोई ही नहीं, और यदि सोई भी तो उसे सोने जैसा लगा ही नहीं| खाला गहरी नींद में सो रही थीं| रन्नी ने करवट बदली|

सहरी करके सभी सो चुके थे| रन्नी जब उठी तो तीन चार घंटे की नींद हो चुकी थी और उसे हल्का महसूस हो रहा था| तब तक खाला भी मुँह-हाथ धो आई थीं| रन्नी ने जाकर चाय बनाई और काँच के दो गिलासों में भर लाई| खाला खाली पेट चाय नहीं पीतीं, इसीलिए दो काजू की बर्फी भी साथ रख लाई| जब तक उन दोनों ने चाय पी, भाभीजान भी उठ आई थीं और अलसाई-सी सोफे पर बैठ गईं|

“एक बात कहूँ बेटी?” खालाजान ने रन्नी की तरफ देखते हुए कहा| “कहिए खाला|”

“बेटी! हैदराबाद में एक बाबा हैं| अपनी मुराद लेकर जो भी जाता है, पूरी होती है| तुम ताहिरा को लेकर वहाँ चली जाओ| तुम कहो तो अगली बार नूरा के हाथ पता भिजवा दूँ|”

“हाँ! रन्नी बी, सुना तो मैंने भी है| उनके हाथों में बड़ा शफ़ाक़ है| ताबीज बाँधते हैं, और कार्य सिद्धि हो जाती है| उन्हें गोरे बाबा कहते हैं|” भाभीजान ने कहा|

“हाँ! दुल्हन, वे गोरे बाबा ही हैं, मैं तो नाम ही भूल गई थी| तुमने कहा तो याद आ गया|” खाला ने कहा|

“ठीक है, आप पता दे देना| मैं नूरा को आपके घर भेज दूँगी| लेकिन खाला शाहजी जाने दें तब न?” रन्नी बाद का वाक्य फुसफुसाते हुए बोली|

“अरे! क्यों न जाने देंगे, खानदान को आगे बढ़ाने के लिए तीसरी शादी तो कर सकते हैं, हैदराबाद न जाने देंगे? और पीर-फकीर के पास जाने को कोई मना नहीं करता रेहाना| अब वो, अकबर बादशाह नहीं गए थे क्या, नंगे पैर चलते हुए चिश्ती की दरगाह पर|”

रन्नी के दिमाग में ऊहापोह मच गई| उसे लगा कि भागकर ताहिरा को साथ ले और हैदराबाद पहुँच जाए|

“तुम्हारे शौहर की तबीयत कुछ नासाज़ लगती है दुल्हन” खाला ने भाभी की तरफ मुखातिब होकर कहा| सामने आकर भाईजान बैठ गए थे| वे सचमुच बीमार से दिख रहे थे| दाढ़ी भी बढ़ आई थी|

“रोज़े के वक्त वे कुछ ऐसे ही दिखने लगते हैं खाला| तबीयत ठीक है, बस चिन्ता करते हैं|" भाभी जान ने कहा|

“लो, और सुनो, अब काहे की चिन्ता? लड़की अमीर घर में है| दोनों बेटे अच्छा धंधा कर रहे हैं| अब क्या?” खाला ने कहा|

किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया| तभी फोन वाले आ गए| छ: महीने से फोन बुक किया था, बीच में आकर वायरिंग करके फोन का डिब्बा रख गए थे| आज आए हैं कनेक्शन देने|

भाभीजान खुश हो गईं, कहने लगीं-“हमारी ननद के मुबारक कदम हैं, आते ही फोन लग गया|”

खाला मुस्कुरा कर भाभी की तरफ देखने लगीं| दोनों ननद-भौजाई में अपार प्रेम है, ऐसा तो देखने-सुनने में नहीं आता कहीं पर|

“मुबारक कदम और वह भी मेरे? भाभी तो कुछ भी कह देती हैं| मनहूस के मुबारक कदम.....” कहती हुई रन्नी उठ गई|

भाईजान टेलीफोन वालों के साथ व्यस्त हो उठे, टेलीफोन कर्मचारी फोन का कनेक्शन देकर, पोल पर चढ़कर बात कर रहे थे|

“मैं तो चलूँगी दुल्हन|” खाला ने कहा|

“नहीं, खाना खाकर ही जाना| बल्कि अब ईद करके ही जाना| देखिए, रन्नी बी भी आई हुई हैं| अब अम्मी के जाने के बाद तो आप ही उनकी जगह हो....." भाभीजान ने कहा|

“हाँ, रुक ही जाती मैं तो दुल्हन|” गद्गद होते हुए खाला ने कहा-“लेकिन इधर, शाहीन की दुल्हन के भी पूरे दिन हैं| तबीयत उसकी अच्छी नहीं रहती है|” शाहीन खाला का बड़ा पोता है, नूरा की ही उम्र का है|

भाभीजान उठकर भीतर गईं| बादामी रंग का सूट का कपड़ा, वैसी ही चुनरी लेकर आईं| एक मिठाई का डिब्बा, एक थैले में बड़ी, पापड़, चिप्स और अचार का छोटा मर्तबान लाकर कहा, “हमारी तरफ से खाला, ईद की सौगात|” भरी आँखों से खाला ने कहा, “आज तुम्हारी अम्मी जीवित होतीं तब?” फिर एक ख़ामोशी पसर गई सबके बीच|

फोन की लाइन चालू हुई तो रन्नी ने ताहिरा का फोन बुक कर दिया| आधे घंटे में ही लाइन मिल गई, और फिर सारे घर ने ताहिरा से बात की| रन्नी ने शाहजी और शहनाज़ बेगम, गुलनार आपा से भी बात की| शाहजी तो आग्रह कर रहे थे कि वह शीघ्र लौट आए| ताहिरा ने बताया कि ईद पर उसकी कार आने वाली है| रन्नी ने ताहिरा के सुख की बात सुनकर आँखें मूँद लीं और खुदा का शुक्रिया अदा किया| देर तक फिर ताहिरा की और हवेली की ही चर्चा चलती रही|

बच्चों के लिए और रन्नी के लिए चाय बनी| दोनों बहुएँ फिर चौके में पहुँच गईं|

रन्नी को बहुत देर तक चुप देखकर भाभीजान ने कहा, “क्या सोचने लगीं रन्नी बी?”

“नहीं! कुछ भी तो नहीं|”

“तुम दोनों हैदराबाद चली ही जाओ रन्नी बी, वहाँ फैयाज़ भी है|” भाभी ने कहा तो रन्नी चौंक उठी|

“आप जानती हैं फैयाज़ को भाभी?”

“लो, दाई से क्या पेट छुपता है, ताहिरा की ख़ामोश आँखों ने सब कह डाला था|”

तड़प उठी रन्नी| तो भाभी जानती थीं सब कुछ फिर रोका क्यों नहीं उसको शाहजी के साथ रिश्ता करने को?.....भीतर ही भीतर कहीं वे भी फैयाज़ की गरीबी को तो.....|

“फैयाज़ के साथ इंसाफ नहीं हुआ है रन्नी बी| सुना है, वह हैदराबाद में किसी नौकरी में लगा हुआ है| तुम जब जाओगी तो उससे मिल लेना|”

बड़ी देर तक दोनों के बीच ख़ामोशी तैरती रही| खिड़की से दिखा कि आपा अपना गेट घसीटकर बंद कर रही हैं|

“तुम ठीक कहती हो भाभी न ताहिरा के साथ इंसाफ हुआ है न फैयाज़ के साथ| अब सोचती हूँ तो लगता है सच में यह निकाह बेमेल था| वह तो इस घर में औरत की देह में कोई फरिश्ता पैदा हुई जो हम सबको सुख देकर यूँ विदा हो गई| मुँह पर ‘उफ’ तक न लाई|”

“रन्नी बी, यूँ तो हर औरत एक फरिश्ते के रूप में ही पैदा होती है, यदि उसे उस ढंग से देखा जाए तो|” भाभीजान ने अपनी लाड़ली ननद को स्नेह से देखते हुए कहा|

रन्नी कुछ अकबका गई| फिर पूछा-“हाँ! फैयाज़ का पता कहाँ मिलेगा?”

“मेरे पास है” भाभीजान ने कहा, “जाते समय हमसे मिलने आया था, तब ही पता ले लिया था|”

“क्या गुफ्तगूँ चल रही है ननद-भौजाई की?” भीतर घुसते हुए आपा ने कहा|

“अरे, काहे की गुफ्तगूँ! हमारी ननद रानी तो कुछ भी सोचा करे है|”

“आपा! सज्जो और उसका बेटा कैसा है?” रन्नी ने पूछा|

“अरे, ठीक है| खूब दुबला गई है सज्जो|” वे दोनों को देखकर आई हैं| “सास ने जचकी के बाद कुछ खिलाया-पिलाया नहीं| दूध भी नहीं बनता है| यहाँ से मैं गोंद के लड्डू और पंजीरी बनाकर ले गई थी, सो उसके कमरे में छुपाकर रख दी| दिख जाये तो सास खाने न देगी|”

“सास ऐसा क्यों करती है? रन्नी ने पूछा|

“अरे, सज्जो का शौहर पीता भी खूब है| कान का कच्चा है| अपनी अम्मा से चुगलियाँ सुनता है और फिर बीवी को पीटता है|” भाभीजान ने बताया|

सुनकर पीड़ा से भर उठी रन्नी| अतीत झाँक गया, औरत का यह हाल हर जगह है|

“अब छुटकी की बात चल रही है| लड़के के पास चार सिलाई मशीनें हैं| सिलाई खूब मिलती है| घर का सबसे बड़ा लड़का है, सुखी रहेगी छुटकी|” आपा ने कहा|

“देखो आपा, अब देख-सुनकर निकाह करना, लड़की को टरका न देना, क्या सज्जो के समय खुद तुम्हारी सगी खाला ने नहीं बताया था कि उस लड़के की माँ अच्छी नहीं है| लड़का उसके कितने कहे में है? पर तुम लोग माने कहाँ? अरे हम नहीं कहते कि माँ की बात नहीं सुनो, पर अपना दिल दिमाग भी तो खुला रखो|” रन्नी ने कहा|

“हाँ! वो क्या कहे हैं रेहाना बेगम कि दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है, सो अब छुटकी के बारे में तो खूब सोच-विचार होगा, तब ही करेंगे|” उठते हुए आपा बोली|

“अब तुम ज़ाकिर भाई और अपने लिए यहीं से गोश्त ले जाना, फुलके डाल लेना| अब कहाँ जाकर बनाओगी|” कहते हुए भाभीजान उठ गईं|

थोड़ी देर वहाँ खामोशी छायी रही| फिर एक ठंडी साँस भरकर आपा बोली-“यूसुफ भाई की याद है, रेहाना बेगम?” रन्नी चौंक पड़ी| जिसकी याद में आज तक वह जीती आई है उसी से ऐसा सवाल? वह हैरत से आपा को देखने लगी|

“अहमद भाई दुबई गए हैं, यूसुफ भाई को देखने|”

“क्यों, क्या हुआ उन्हें?”

“बहुत बीमार हैं, खबर आई थी सो गए हैं| बीमारी-ऊमारी का तो हमें पता नहीं, बस येई सुना है| अहमद भाई के चचाज़ात भाई आजकल आते हैं पेट्रोल पंप पर, वही देखरेख कर रहे हैं इधर की|”

बाकी के सारे शब्द रन्नी की आँखों के आँसुओं में डूब गए| बस एक इबारत उसकी आँखों के समक्ष टँगी रह गई-“यूसुफ बीमार हैं|” रन्नी उठकर बाहर टहलने लगी|

छुहारे, सूखा नारियल और मिठाई प्लेट में रखकर जमीला आती दिखी| हाथ में एक डिब्बा था| डिब्बा और प्लेट लेकर आपा चली गई| रन्नी के तो जैसे रुलाई का बाँध टूट रहा था|

भाभी बाहर आते तक समझ गईं| ये सज्जो की अम्मी के पेट में कुछ नहीं पचता, .....अब हो गई ईद.....रन्नी की उदासी और खामोशी से खूब डरती हैं भाभीजान| “सब अंट-शंट कहती हैं ज़ाकिर भाई की दुल्हन, ऐसी कोई पुख्ता खबर नहीं| मैंने खुद यूसुफ के चचा से बात की थी, कुछ ज़रूरी टेस्ट वगैरह हुए थे| बस दो दिन अस्पताल में भर्ती रहकर यूसुफ घर लौट आए| तुम नाहक परेशान हो रही हो|” रन्नी का रोया-रोया सा चेहरा देखकर भाभीजान बोलीं|

रन्नी हैरत से भाभी को देखती रही| कैसे दिल की बात जान लेती हैं भाभी? “चलो हाथ-मुँह धो लो, रोज़ा खुलने का वक्त हो गया|” भाभीजान ने पुनः कहा| दूर मस्जिद से अजान की आवाज़ फैलने लगी| रन्नी हाथ-मुँह धोकर, चुनरी सिर पर बाँधकर नमाज़ पढ़ने बैठ चुकी थी|

रात ऐसे बीती, मानो किसी ने शरीर का सारा खून निचोड़ लिया हो| अपने आप को टटोलती रही रन्नी.....कि सारे फ़र्ज निबाहते कभी ऐसा भी क्षण आया हो कि उसने यूसुफ को याद न किया हो..... ‘तुम काहे पड़ी हो रेहाना वहाँ?’ खाला के शब्द कानों में गूँजे| और जब वह मक़सद भी पूरा हो जाएगा तो रन्नी तुम क्या करोगी? बगैर मक़सद क्या जी सकोगी? निरुद्देश्य, निरर्थक जीवन? रोती रही वह और बीमार यूसुफ सामने आते रहे| बार-बार कल्पना में सामने आते रहे| काश! एक बार कोई कहता कि चलो रेहाना यूसुफ ने बुलाया है|

ताहिरा का फोन आया, उसने बताया कि पिछली रात को मेंहदी का बड़ा ज़ोरदार प्रोग्राम चला| उसकी कोहनी तक खूब गाढ़ी मेंहदी रचाई गई| कोठी भी खूब सजाई गई है| मथुरा से ख़ास तौर से मिठाई शहनाज़ बेगम ने मँगवाई है| वे बताती हैं कि मिठाई तो हमेशा मथुरा से ही आती है, और वह भी हवाई जहाज से| अरे फूफी, हमारे लिए शाहजी ने एक सोने का जड़ाऊ सेट भी खरीदा है| ताहिरा खूब खुश थी और कोठी के सारे हाल फोन पर सुना रही थी| उन दोनों की लम्बी बातचीत चली| ताहिरा का आग्रह था कि अब वे ईद kइ बाद लौट आए| वह उनके बगैर अधूरी है| रन्नी मुस्कुराने लगी| कब तक ताहिरा उनकी उँगली पकड़कर चलेगी? ताहिरा ने बताया कि अभी तक नई कार नहीं आई है, कुछ समय और लगेगा|

दूसरे दिन ईद पर रन्नी ने सभी बच्चों को रुपये बाँटे| छुटकी भी आकर ईदी ले गई| भाईजान ने अपनी बहन को लिप्त लिया| सिर पर आशीर्वाद भरा हाथ फेरा और हाथ में एक पचास का नोट रखा| रन्नी की आँखें भर आईं|

“यह निखालिस मेरी कमाई के रुपये हैं|” भाईजान ने कहा-“ताहिरा की ससुराल के नहीं|” बहुत ज़ब्त करने के बावजूद भाईजान उदास हो उठे| घर में हड़कम्प मचा था| कोई मिठाई खा रहा था कोई सेंवई| बच्चों के पॉकेट में उनकी दादी ने मेवे bहर दिए थे|

दूसरे दिन ज़ाकिर भाई, भाईजान से ईद मिलने आए| ईद पर नहीं आ पाये थे, उसका उन्होंने अफसोस जाहिर किया| चाय, नमकीन मिठाई लाकर सादिया रख गई| ज़ाकिर भाई ने बातों-बातों में भाईजान को बताया कि यूसुफ भाई फिर अस्पताल में भर्ती हैं, फिर कुछ टेस्ट वगैरह होने हैं| सामने बैठी रन्नी का कलेजा किसी अज्ञात आशंका से काँप उठा| वह उठकर, बाहर बरामदे में बैठ गई| चारों तरफ अंधकार फैला था, आज स्ट्रीट लाइट भी नहीं जली थीं| ऐसा अक्सर होता था| बाहर ट्रक, बस और कारों की लाइट बरामदे की जाली से भीतर आती और रन्नी के आँसू उस रोशनी से चमक उठते| न जाने कब भाभीजान आकर पीछे खड़ी हो गई थीं|

“यूँ जी हलकान न करो रन्नी बी, हारी-बीमारी पर किसी का क्या ज़ोर| उठो, मैं चाय बनाती हूँ तुम हाथ मुँह धो लो|”

नहीं, वह अन्दर तो बैठ ही नहीं पाएगी| उसे अँधेरे में ही रहना अच्छा लग रहा था| हाथ-मुँह धोकर फिर आकर बरामदे में ही बैठ गई| भाभी दो कप cहै ले आईं| दोनों अँधेरे में बैठी रहीं| वर्षों से देखती आ रही थीं भाभीजान रन्नी का यह रूप| एक रन्नी थी जो अपने फर्ज़ों के प्रति कृत-संकल्प और उसके भीतर की रेहाना, जिसकी जिंदगी में थे सिर्फ़ अँधेरे| यदि कहीं से रोशनी की कोई किरन आती भी तो रेहाना के समक्ष अनेक शर्तें रख दी जातीं|

भाभी उठने लगीं तो रन्नी ने उन्हें खींचकर लिपटा लिया और सीने से लगकर बिलख-बिलखकर रोने लगी| भाभी के भी आँसू गिरे| उसी रात रन्नी ने शाहजी को फोन किया कि गाड़ी भेज दें, वे लौटना चाहती हैं| ताहिरा तो फूफी के आने की खबर सुनकर उछल पड़ी| एकदम शाहजी के हाथों से मानो उसने फोन छीन ही लिया और फूफी को हवेली के किस्से सुनाने लगी|

कार आ गई थी| रन्नी विदा होने लगी तो एक बार फिर भाभीजान ने हैदराबाद जाने और फैयाज़ से मिलने की याद दिलाई|