ख्वाबो के पैरहन
पार्ट - 15
शबेरात को कुल चार दिन बाकी थे| सूजी, मेवे, घी, शक्कर आदि ख़रीदकर जमीला के साथ भाभीजान लदी फँदी घर पहुँची तो फाटक के पास कार खड़ी देख, खुशी की लहर उनके सिर से पाँव तक दौड़ गई-“रन्नी बी आई हैं|”
सामान हॉल में रखा जा चुका था| पहले रन्नी बी फिर ताहिरा भाभीजान से लिपटकर रोये जा रही थीं| शादी के बाद बस पैर फेरने दो दिन के लिए आई थी ताहिरा, तब से उसकी सूरत देखने को तरस गईं वे| गुज़रे महीने उन्हें बरसों से लगे-“कितनी छोटी-सी सूरत निकल आई है मेरी बच्ची की|”
“अरे भाभी, खुशियाँ मनाओ, खुशियाँ| ताहिरा तुम्हें नानी बनाने वाली है|”
“या अल्लाह, तू सबका रखवाला|” कहती भाभीजान ने दुआ के लिए हाथ फैलाये| अन्दर से सादिया चहकती आई और मिश्री का टुकड़ा ताहिरा के मुँह में रखकर बोली-“मुबारक हो बीबी जान| अल्लाह ने मुबारक घड़ी दिखाई| तुम्हारी गोद में भी अब किलकारियाँ गूँजेंगी|”
सारा घर खुशियों की फुलझड़ियों से जगमगा रहा था| शबेरात के लिए ख़रीदा गया सामान दोनों बहुएँ आज ही पका रही थीं| घी और सूजी की सुगंध से कमरा गमक रहा था| ताहिरा पूरे घर के न जाने कितने चक्कर लगा चुकी थी| कमरे वही थे, दालान, चौका, वरांडा सब कुछ वही पर शाहजी यहाँ भी छाये थे| घर की इंच-इंच ज़मीन उनकी समृद्धि का ऐलान कर रही थी| ताहिरा ने पिछवाड़े अमराई को भरपूर निहारा| न जाने कहाँ से आकर दो-तीन मोर अमराई में टहल रहे थे| कभी अपने पंख पसार लेते, कभी घास में कुछ चुगने लगते| तभी सज्जो और छुटकी आ गईं-“सलाम आपा|”
“अरे छुटकी, सज्जो आ तो इधर|” ताहिरा दोनों को लेकर तख़त पर बैठी फूफीजान के पास आई| फूफी ने सज्जो के गाल चूमकर कहा-“मियाँ कैसा है तुम्हारा? क्या तुम भी शबरात के लिए आई हो? और बेटा?”
सज्जो शरमा गई-“घर में अब्बा खिला रहे हैं उसे|”
“नाना जो बन गए भाई और नानीजान कहाँ है?”
“यहाँ|” कहती हुईं आपा कमरे में दाख़िल हुईं-“कैसी हो रेहानाबी? कोठी के सुख में हमें भूल गईं? अरे, ताहिरा भी आई है, तभी मैं कहूँ कि गाड़ी गेट पर क्यूँ खड़ी है?”
“गाड़ी तो गेट पर खड़ी होगी न आपा? शाहजी की बेग़म जो आई हैं और फिर उम्मीदों से भी तो हैं|”
“अच्छा! यह तो बड़ी खुशखबरी सुनाई तुमने| पर ऐसी भी क्या जल्दी थी, अभी तो साल भर भी पूरा नहीं हुआ|”
“अब टोको न बीबी, जो हुआ अल्लाह की मर्ज़ी से हुआ| लो तुम तो हलवा खाओ|” भाभीजान ने हलवे की प्लेट आपा के सामने रख दी|
लेकिन फूफी का मन कचोटने लगा| सच ही तो है, ताहिरा के खेलने-खाने के दिन हैं| अभी से बाल-बच्चे की झँझट? लेकिन वह तो इसी शर्त पर ब्याही गई थी कि जल्द से जल्द कोठी में चिराग रोशन करेगी| खुदा क्या कभी माफ़ करेगा उन्हें| लोग अनजाने में गुनाह कर बैठते हैं, वह तो जानबूझकर ताहिरा को गुनाह के रास्ते ले गईं| ताहिरा के जिस प्रेम के पल्लवित होने में खुद उन्होंने रोड़ा अटकाया था, उसी प्रेम की भीख ले वे शाहजी का घर भरने चलीं| क्यों? क्या भाईजान से बेपनाह मोहब्बत की वजह से या ताहिरा को शहनाज़ बेग़म और मँझली बेगम के सामने मात न खानी पड़े?.....वह इन दोनों से बढ़ चढ़कर रहे कोठी में, या गुलनार आपा की लाड़ली कहलाने की ललक में? नहीं, यह ठीक नहीं हुआ| गुनाह का सहारा लेकर उन्होंने किला फ़तह करना चाहा है, अपनी रूह को बेचैन किया है, ताहिरा की भावनाओं से खिलवाड़ किया है.....| लेकिन उनकी मंशा में खोट नहीं है इतना वे दावे से कह सकती हैं| उनका एक गुनाह, एक साथ दो घरों को खुशहाली बख़्श रहा है, तो यह क्या कम ख़ुशी की बात है?
फूफी की कलाइयों में पड़ी सोने की चूड़ियों को आपा धीरे-धीरे आगे पीछे सरका रही थीं| हॉल में और कोई न था| एक ख़ामोशी-सी दरोदीवार को जकड़े थी| शाम आहिस्ता-आहिस्ता पहाड़ों के पीछे सूरज को छुपाकर उतर रही थी| अँधेरा पसरने को था कि रन्नी की कलाइयों पर आपा की पकड़ गहरी हो गई-“रेहाना, दुबई से ख़बर आई है, यूसुफ़ मियाँ काफ़ी बीमार हैं|”
“क्यों, क्या हुआ?”
“ख़बर तो तीन माह पुरानी है, मिली अब| सज्जो के अब्बा को यूसुफ़ मियाँ के वालिद ने बताया था कि कैंसर है उन्हें, दो ऑपरेशन तो हो चुके अब तक|”
“कैंसर! य अल्लाह,” रन्नी विस्फ़रित आँखों से आपा को देखने लगी| एक हौल-सा उठा कलेजे में-“अपा.....इतना भयानक रोग!” सहसा पूरे शरीर में ठंडा पसीना चुहचुहा आया| साँस फूलने लगी, बैठ नहीं पाईं, लेट गईं| लेटते ही भाभीजान को पुकारा| आपा घबरा गईं-“क्या हुआ रेहानाबी, अरे भाभीजान, देखिए तो|”
कमरे में शोर बरपाँ था| दोनों बहुएँ रन्नी के तलवे रगड़ रही थीं और ताहिरा सिरहाने बैठी रोये जा रही थी-“फूफी, फूफीजान.....क्या हुआ आपको? बताती क्यों नहीं?”
आपा अपराधी-सी खड़ी थीं, भाभी की निगाहें उठीं मानो कहना चाहती हों-‘तुमने बता दिया सब?’ आपा उन आँखों का सामना नहीं कर पाईं-“मैं डॉक्टर बुलवाती हूँ, पेट्रोल पंप पर सज्जो के अब्बा तो होंगे|”
आधे घंटे में डॉक्टर आये| तब तक भाईजान और नूरा-शकूरा भी आ गए थे| डॉक्टर ने दवा दी| बताया, डिप्रेशन और हाई ब्लड प्रेशर है, ज़रा ख़याल रखें|
भाईजान देर तक सिरहाने बैठे, अपनी गुड़िया-सी प्यारी बहन का सिर सहलाते रहे| ताहिरा के आने की खुशी मायूसी में बदलती-सी लगी| फिर भी सबने अपने आपको सम्हाला, ताहिरा को महसूस न होने दिया कुछ|.....अब्बू से लिपट पहले तो खूब रोई ताहिरा फिर धीरे-धीरे सम्हली| रन्नी हिम्मत कर उठी.....दिल भांय-भांय-सा कर उठा| आह! ये दिन भी दिखाना था ख़ुदाया, लेकिन अपने मनहूस नसीब को इन बच्चों पर क्यों हावी होने दें? घर भरा-पूरा था| नूरा, शकूरा, बहुएँ.....क्यों सबको अपने नसीब के काले परदे में समेट लें?.....क्षणभर में दिल चट्टान-सा बना रन्नी उठी-“अरे बीबियों, दस्तरख़ान तो सजाओ, महीनों बाद इस घर में तुम्हारी ननद के रूप में रौनक आई है|”
बहुओं में होड़ लग गई| कोई बिरयानी की देगची ला रही थी, कोई कोफ़्तों की| भाभीजान पापड़ तल-तलकर निथरने के लिए परात में टिकाती जा रही थीं| रुख़साना अपने छोटे-छोटे हाथों से प्याज़ के छल्ले काट रही थी| रन्नी ने चैन की साँस ली| तखत से उठना चाहा पर कमज़ोरी-सी लगी| भाईजान सहारा देकर बाथरूम तक ले आये, उन्होंने ठंडे पानी से मुँह धोया, कपड़े बदले और बालों का जुड़ा बाँधकर कमरे में आ गईं|
“थोड़ा खा लो.....रन्नी बी|”
“हाँ ज़रूर.....हम कोई बीमार थोड़ी हैं|” और बड़ी हिम्मत से वे कुर्सी पर बैठकर बिरयानी खाने लगीं| सब खुश हो बतियाते हुए खाते रहे| तभी शाहजी का फोन आ गया| रन्नी ने मना किया कि ताहिरा को उनकी तबीयत के बारे में न बतायें|
खा-पीकर, ताहिरा भाभियों के संग बातें करती उनके कमरे में ही सो गई| रन्नी के बाजू में भाभीजान का पलंग था| थोड़ी देर ख़ानदानी चर्चा चलाती रही फिर भाभीजान बोलीं-“अब सो जाओ रन्नी बी, यूँ भी तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं|”
लेकिन रन्नी की आँखों में नींद कहाँ? दिल कहाँ से कहाँ पहुँच गया| यूसुफ़ के संग बिताये एक-एक पल बड़ी बेरहमी से याद आते रहे| यही दिल था जो यूसुफ़ से पहली मुलाक़ात में घड़ी की टिक-टिक-सा धड़कता महसूस हो रहा था| यही तख़त, हाँ.....यहीं, यहीं बैठे थे यूसुफ़.....और यहीं सम्पूर्ण समर्पण का वह एकांकी क्षण| मनो रन्नी होश में न थी| बदन के एक-एक हिस्से पर यूसुफ़ के हाथों का स्पर्श अब भी ज्यों का त्यों है| मदहोश करती साँसों का आना-जाना कनपटी, सीने उर बालों पर मानो अब भी मौजूद है| शर्म, उतावली, कशिश.....रेशे-रेशे से सुख की बौछार.....कैसी तो हो गई थी रन्नी| वैसा सुख न पहले था न बाद में कभी मिला| या शायद रन्नी ने ही यूसुफ़ की ग़ैरमौजूदगी में पाना नहीं चाहा| और अब? यूसुफ़ वहाँ मौत से लड़ रहे हैं| रन्नी को इस बात की तसल्ली है कि उसका महबूब केवल उसका है| कायर, डरपोक है, पर ईमानदार भी तो है| उसी ईमानदारी ने तो शाहबाज़ के बढ़ते क़दम रोके थे और उसने मान लिया था कि नसीब में लिखे एक क़तरा सुख की एवज में पूरा समुन्दर नहीं मिल जाता| उसे तसल्ली थी कि यूसुफ़ उसके हैं पर खुदा इस तसल्ली को क्यों छीन लेना चाहता है? क्यों उसकी वनवास की अवधि में वनों को ही उजाड़ डालना चाहता है? उफ़! यूसुफ़ इस दुनिया में नहीं रहेंगे यह कल्पना ही सौ-सौ एटम बमों-सी मारक है| अचानक रन्नी के सीने में फिर हौल-सा उठा| मानो दिल तेज़ी से उछल रहा हो, शरीर की नसें फट जाना चाहती हों| उसने घबराकर भाभीजान को उठाना चाहा पर नहीं, क्यों उनकी नींद में ख़लल डाले, वैसे भी इतनी बड़ी गृहस्थी की ज़िम्मेदारी उन्हें थका डालती होगी| नाइट बल्ब की नीली रोशनी में भाभी का सुकून से भरा चेहरा देख, वह धीमे से मुस्कुराई लेकिन दर्द की आरी चेहरे के आरपार हो गई| रन्नी दर्द से निढाल अपना आपा खोती गई|
भिनसारे, जा भाभी की नींद खुली तो बावजूद पंखे के उन्होंने रन्नी के चेहरे पर पसीने की बूँदें देखीं| गफ़लत में रन्नी के होंठ हल्के से सिकुड़ गए थे और पलकों के किनारों से आँखें मानो झाँक-सी रही थीं| वे घबरा गईं| बहुएँ उठ गईं थीं और बबूशा दूध के लिए रो रहा था| भाभी भागती हुई भाईजान के पास गईं, झँझोड़कर उठाया-“देखिये तो, रन्नी बी कैसी तो हो रही हैं|”
“क्या हुआ?”
झपटकर भाईजान रन्नी के पास आ गए-“रन्नी, क्या हुआ रन्नी?”
रन्नी ने चौंककर आँखें खोलीं| सामने भाईजान को खड़ा देखकर उठना चाहा पर दोनों कोहनियाँ दर्द से भर उठीं| रन्नी दोनों को घबराया देखकर लफ़्जों को ठेलती हुई बोली-“रात ब्लड प्रेशर फिर बढ़ गया था, फ़िकर न करें, ठीक हो जायेगा|”
भाईजान ने डपट दिया-“फिकर न करें, रन्नी तुम फिज़ूल की बातें मत किया करो? मैं डॉक्टर को फोन करता हूँ, शायद अस्पताल में भरती करना पड़े|”
अब तक सभी जग गए थे| ताहिरा की मायके आने की खुशी काफ़ूर थी और इस बात को लेकर रन्नी कल से अपने को सौ बार कोस चुकी थी| भाभी जानती थी उनकी तबीयत क्यों बिगड़ी| क़ाश, सज्जो की अम्मी कल न आती और अगर आतीं भी तो अपना मुँह बंद रखतीं| वे तो पिछली बार रन्नी के आने पर भी यह बात छुपा गई थीं| जबकि उन्हें तीन महीने पहले ही यूसुफ़ की बीमारी का पता चल गया था|
रन्नी ने बस चाय के साथ एक बिस्किट खाया और ताहिरा की कार में ही अस्पताल चली गईं| बहुत ज़िद्द की ताहिरा ने साथ जाने की पर भाईजान ने मना कर दिया-“हम लोग हैं न वहाँ| तुम्हारी अम्मी वहीँ रहेंगी| तुम अपने भाई-भाभियों के साथ कुछ दिन रहो|”
ताहिरा की आँखें छलछला आईं| हर वक़्त साये-सी लगी रहने वाली फूफी कैसी निचुड़ गई हैं और वह तकलीफ़ में उनके साथ नहीं| कैसी मजबूरी है, कल रात शाहजी ने फोन पर ही उसका बीस दिनों के लिए मायके रहना मुक़र्रर कर दिया था और इतना वह जानती है कि ग्रह-नक्षत्रों को खोजते-पढ़ते शाहजी का हुकुम उसके लिए पत्थर की लकीर है| वे ख़ुद कुछ नहीं कहेंगे पर गुलनार आपा और बड़ी बेगम के उलाहनों में उसका वजूद पत्ते-सा काँप उठेगा| काले दुपट्टे से घिरा फूफी का गोरा मुखड़ा देर तक कार की खिड़की से ताहिरा को ही निहारता रहा| जब सड़क का मोड़ आया तो शायद फूफी ने अम्मी के कंधे पर सिर टिका लिया होगा क्योंकि खिड़की सूनी थी.....सूनी थी वह सड़क जहाँ से अभी-अभी कार गुज़री थी.....ख़ामोश थे सड़क के दोनों ओर खड़े नीम और जामुन के पेड़.....न वहाँ तोतों का चहकना था न हवा की जुम्बिश| ताहिरा मुड़ी और अपनी बड़ी भाभी से लिपटकर रो पड़ी| जमीला उसे अन्दर ले आई-“तसल्ली रखो ताहिरा बीबी, फूफीजान सही सलामत घर लौटेंगी| अल्लाह उनका साया हम पर बरक़रार रखे|”
ताहिरा का कहीं मन नहीं लग रहा था| बबूशा, रुख़साना से कितना मन बहलाये, जी भी शांत न था| चौके में मसाला भुनने की खुशबू से उसे उल्टियाँ आने लगीं| जमीला ने होंठों की मुस्कराहट दुपट्टे से दबा, उसे नींबू की फाँकें चूसने को दीं| तभी अब्बू का फोन आया-“ताहिरा, बेटा, घबराने की कोई बात नहीं है| तुम्हारी फूफी चौबीस घंटे ही रहेंगी अस्पताल में| ब्लड प्रेशर हाई है.....दवाई और फल खाकर अभी सो रही है.....हम शाम तक लौटेंगे, खाना बाहर खा लेंगे|”
ताहिरा ने चैन की साँस ली.....| मन ही मन दुआ माँगी-‘या अल्लाह, फूफी बिल्कुल अच्छी हो जायें, हम मिलकर शबेरात मनायें| मैं दरगाह में चादर चढ़ाऊँगी|’
नूरा के हाथ ताहिरा ने ज़बरदस्ती अब्बू के लिए टिफिन भेज दिया| बाहर का खाना उन्हें हजम नहीं होता| कहने को घर में सुकून है, धन है, नूरा-शकूरा बाल-बच्चों वाले हैं, कमा-खा रहे हैं पर अब्बू घुलते जा रहे हैं| शायद उनके मन में यह गाँठ हो कि जो बहन उनके लिए कुर्बान हो गई वे उसके लिए कुछ कर नहीं पाये, उसने दुनियाबी सुख भोगा ही नहीं| न तन का, न मन का| न शौहर मिला, न घर मिला.....न जाने किन गुनाहों की सज़ा भोगी उसने| या शायद गुनाह किसी और के हों, सज़ा उसने माँग ली हो|
शाम को अब्बू थके, टूटे-से घर लौटे| अम्मी अस्पताल में ही फूफी के संग रह गई थीं और शकूरा उनके लिए ज़रूरी असबाब और खाना ले जाने वाला था| अब्बू ने पचास का नोट उसकी ओर बढ़ाया-“मुसम्बियाँ ले जाना थोड़ी.....एकदम कमज़ोर-सी लगी रन्नी मुझे|” दोनों आँखों की कोरों को अँगूठे से दबा बैठ गए| ताहिरा गुलाब का शर्बत बना लाई| रक़ाबी में वर्क लगे पेठे के दो टुकड़े थे-“अब्बू, थोड़ा शर्बत पी लीजिए|”
अब्बू ने अँगूठा हटा ताहिरा को निहारा, उनकी आँखें छलक उठी थीं|
“कुछ छुपाइयेगा नहीं अब्बू, बताइये फूफी कैसी हैं?”
अब्बू सचेत हुए-“अरे इसमें छुपाना क्या? फूफी तुम्हारी एकदम ठीक है| मैं तो सोच रहा था कि वे बीमार पड़ी क्यों? क्या वजह थी, अच्छी भली तो थीं कल|” और पेठे का एक टुकड़ा खाकर, उन्होंने शर्बत पी लिया|
ताहिरा के लिए भी उनकी बीमारी सवाल बन गई| लगातार दस महीनों तक शाहजी की कोठी में हर व्यक्ति की आँखें ताहिरा पर ही लगी थीं कि मानो वह ऐसी मुर्गी है जो निश्चित समय पर अण्डा दे देगी और जब इस इंतज़ार का अंत आया तो सब्र की मूर्ति फूफी क्यों निढाल हो गईं? ताहिरा मायके आई थी अपनी खुशियाँ बाँटने के लिए| यह कोई मामूली खुशी नहीं है, यह शाहजी के बरसों के इंतज़ार का फल है| कोठी खुश, शाहजी खुश, उनकी बेगमें और आपा खुश, इधर अब्बू-अम्मी भी खुश, पर फूफी की खुशी में किसका ग्रहण लग गया? ताहिरा की सोच ज़रा-सी ठहरी.....हाँ.....कल आपाजान आई थीं और तभी से फूफी को कुछ हो गया| कहीं आपाजान ने कुछ कर तो नहीं दिया उन पर? अरे नहीं, फूफी का कोई दुश्मन नहीं| फूफी तो वो शख़्सियत है, जिसे सब चाहते हैं, सब इज़्ज़त करते हैं.....फिर?
दूसरे दिन सुबह फूफी लौट आईं| मानो उनके चेहरे ने तूफ़ान को झेलकर अब शांति ओढ़ ली है| ताहिरा की जान में जान आई| भाईजान शाने से पकड़े उनको अन्दर पलंग तक ले आये| नूरा ने मानो फूल-सा उठा लिया उन्हें और पलंग पर लिटा दिया-“अरे, ठीक हूँ अब मैं|”
हॉल में सब लोग जुड़ गए थे| बड़ा सुकून भरा माहौल था| भाभीजान ने नहाया और फिर चाय-नाश्ते के बाद पानदान लेकर बैठ गईं और लगीं बहुओं से पूछने-“कल शबेरात है, ताहिरा आई है, क्या-क्या करने वाली हो तुम लोग?”
तभी बन्नो के साथ में नायन और मिरासिन भी आ गईं थीं| “लो, तुम लोगों के जमघट की और कमी थी|”
बन्नो जल्दी-जल्दी पोंछा लेकर हॉल चमकाने लगी-“क्यों हम न आयें.....बिटिया मायके आई है, ऊपर से डबल खुशी.....लाओ हमारा नेग-दस्तूर|”
“मिलेगा, नेग-दस्तूर भी मिलेगा| नायन, अब तुम आ ही गई हो तो रन्नी बी के बाल धो दो| अभी-अभी अस्पताल से लौटी हैं|”
“हाय, क्या हुआ बी को? अल्ला, ख़ैरियत तो है?”
नायन ने सिर से पैर तक रन्नी बी को ताका तो भाभीजान हँस पड़ी-“घूरो मत, हाथ पैर हिलाओ| तब मिलेगा नेग-दस्तूर|”
नायन खिल-खिल हँसती हुई रन्नी को गुसलखाने की ओर ले चली| बन्नो पूरा घर चमकाने में लग गई| जब से दोनों बहुएँ बाल-बच्चे वाली हुई हैं, बन्नो ही झाड़ू-पोंछा, बर्तन, कपड़े करती है| पर नागे बहुत करती है|
“दो दिन बाद तशरीफ़ लाई हैं महारानी|” जमीला के कहने पर ताहिरा ने टेक दिया-“आप लगाम रखिये भाभीजान उस पर, वरना सिर ही चढ़ती जायेगी|”
“कौन मूँ लगे उसके| पटाखा है पूरी| अभी तो तुम लोगों के लिहाज से चुप है वरना.....”
गुसलखाने से नहा धोकर निकली रन्नी ने ताहिरा और जमीला की बातें सुन ली थीं, इधर नायन की चर्खी अलग चल रही थी| नेग-दस्तूर की लालच में वह भाईजान और भाभी की शान में क़सीदे पढ़ रही थी| घंटे-डेढ़ घंटे में बन्नो का काम निपट गया तो भाभीजान ने नायन, मिरासिन को रुपये और पुराने कपड़े देकर विदा कर दिया| शकूरा सोफ़े पर आराम से बैठा नाख़ून काट रहा था|
“आप भी अम्मी, इतना देने की क्या ज़रुरत थी दोनों को?”
“सबाब मिलता है बेटे| इन्हीं की दुआएँ काम आती हैं|”
“अब कौन समझाये? लुटाइए|”
भाईजान ने आँखें तरेरकर शकूरा को देखा-“शकूरेऽऽ.....अपनी अम्मी से ऐसा कहा जाता है?”
शकूरा चिढ़कर उठ गया-“माफ़ करें अम्मी|”
रन्नी आँखें मूँद कर सोफ़े पर बैठ गई| पास में ताहिरा थी|
“ताहिरा पीर मोहम्मद का उर्स भरने वाला है.....इस बार सब चलेंगे, हम चादर चढ़ायेंगे वहाँ.....बेले के फूलों से बनी बरफी की काटवाली चादर| दो हफ़्ते बाकी हैं उर्स के|” भाईजान ने माहौल बदलने की गरज़ से कहा तो रन्नी समझ गई, ज़रूर भाईजान ने उसकी सलामती की दुआ माँगते हुए चादर चढ़ाने की बात की होगी| उसने बहुत ही लाड़ से भाईजान को देखा|
“भाईजान, वहाँ तो कव्वाली भी होती है हर साल| देगें भी चढ़ती हैं|”
“अरे, उर्स की रौनक पूछो मत| पूरा शहर उमड़ पड़ता है| मैदान दुल्हन-सा सज जाता है|”
“अब्बू हम ज़रूर चलेंगे.....कब से उर्स में नहीं गए|” ताहिरा ने खुश होकर कहा पर चेहरे पर मलिनता थी| फूफी की बीमारी ने ताहिरा को कहीं गहरे टकोरा था| इसे मातृत्व की पीड़ा समझ, रन्नी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे भर नज़र देखा| जिस मक़सद में वे महीनों से मुब्तिला थीं कि चाहे कुछ हो कोठी को ताहिरा के ज़रिये औलाद दिलानी है.....सो पूरा हुआ| लेकिन अब? सन्नाटा है चहुँ ओर! जिन्दगी वीरान-सी लगती है.....अब करने को कुछ है ही नहीं| भाईजान-भाभी चैन और संतुष्टि भरे दिन बिता रहे हैं.....घर चहल-पहल से भरा है| अब नूरा, शकूरा के बच्चे बड़े होंगे, बहुएँ सासें बनेंगी और ज़िन्दगी की गाड़ी चलती जायेगी लेकिन रन्नी की ज़िन्दगी का शिकारा बेंत की झाड़ियों में उलझा है सो उलझा है| न पीछे सरकता है न आगे बढ़ता है| हर छोर पर सन्नाटा और आर-पार दिल को भेदती साँसें| क्या करें इन साँसों का? कैसे चुकता करें? अल्लाह! मेरी इन साँसों को मेरे महबूब को दे दो| वो भी तो ज़िन्दगी से शिक़स्त खाये लाचार, बीमार, तनहा है| कैंसर जैसे भयानक रोग ने उसके शरीर को छलनी कर दिया होगा| उफ़! कैसा भयानक होता है इस रोग में मौत का इंतज़ार| कीमोथेरेपी के इंजेक्शन, सिर के बालों का झड़ना, शरीर के पोर-पोर में भयानक दर्द| रन्नी ने दुपट्टा मुँह पर ओढ़ लिया और ख़ामोश आँखें आँसू बहाने लगीं| गालों पर आँसू की लकीरें गुदगुदी-सी पैदा करने लगीं| उन्होंने दुपट्टे से रगड़कर चेहरा पोंछा-“लेटूँगी थोड़ा|” और खुद ही तख़त पर आ लेट गईं| चेहरा तकिये में गड़ा लिया|
उर्स तक नहीं रुक पाई ताहिरा| फूफी की तबीयत की चिन्ता से उसकी खुद की तबीयत बिगड़ गई और जब शाहजी ने फोन पर यह ख़बर सुनी तो तुरन्त उसे नूरा के साथ भिजवाने के लिए भाईजान से आग्रह किया| तबीयत तो किसी की न थी कि ताहिरा जाये पर वक़्त की नज़ाकत थी, भेजना पड़ा|
ताहिरा बिदा हो रही थी| भाभीजान ने मिठाई, मेवों और फलों की डलिया कार की डिक्की में रखवा दी| अचार, सिवैयां, पापड़, बड़ियाँ भर-भर कनस्तर रखवाये| ताहिरा के लिए पटोला सिल्क की साड़ी और मोती जड़ी सोने की अँगूठी, शाहजी के लिए सफ़ारी सूट, गुलनार आपा के लिए पशमीने का कीमती शॉल और दोनों बेगमों के लिए साड़ियाँ अटैची में बंद कर दीं| ताहिरा को सौगात देने का यह पहला मौका था-“बेटी, हम इस लायक नहीं कि शाहजी को कुछ दे पायें.....हमारी तरफ़ से माफ़ी माँग लेना|”
“अम्मी|” ताहिरा उनके गले लगकर फूट-फूटकर रो पड़ी-“अम्मी, फूफी की तबीयत.....”
वाक्य अधूरा रह गया| भाभीजान ने ताहिरा कस चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया-“पगली, हम पर विश्वास नहीं|” ताहिरा की चिंतित आवाज़ से फूफी का दिल भर आया.....उन्होंने ताहिरा को खींचकर चिपटा लिया|
“फूफी.....हम आपके बिना कैसे रहेंगे?”
फूफी भी रो पड़ीं-“मेरी गुड़िया, अब तू घर-द्वार वाली हुई.....मैं क्या तुमसे चिपकी रहूँगी? पर एक बात याद रखना ताहिरा.....किसी भी बात को लेकर मन में मलाल मत लाना, तुम शाहजी की दुल्हन हो|” और एकदम कान के पास फुसफुसायीं-“तुमने कोई गुनाह नहीं किया, तुम बेक़सूर हो ताहिरा|”
ताहिरा हुमग कर रो पड़ी| भाईजान ने उसे अपने पास, अपने आगोश में लिया, माथा चूमा और कार की ओर बढ़ गए| दोनों भाभियाँ भी ननद की गले लगीं| कार के स्टार्ट होते ही फूफी बुक्का फाड़कर रो पड़ी| मानो ताहिरा पहली बार बिदा हो रही है|
ताहिरा की बिदाई के बाद रन्नी टूटती गई| अच्छी भली आई थीं लेकिन अब हर दिन उनकी बीमारी के बढ़ने का ऐलान करते गुज़रता था| डॉक्टर का तीन चार दिन के अंतराल से आना ज़रूरी हो गया| दवाएँ, टॉनिक, फल.....लेकिन वज़न घटता चला जा रहा था| आपा का हर दिन इंतज़ार रहता| पेट्रोल पम्प तो रोज़ खुलता है| जाकिर भाई की भाईजान से दुआ सलाम भी होती है फिर आपा कहाँ गुल हो गईं| सज्जो तो ताहिरा की बिदाई के एक दिन पहले ही ससुराल चली गई थी| अब किस काम में मुब्तिला हैं आपा| क़यास लगाया.....तबीयत नासाज़ होगी.....उन्होंने रुख़साना को आपा को बुला लाने भेजा| रुख़साना देर से लौटी..... उसकी फ्रॉक के घेरे में इमलियाँ भरी थीं|
“अच्छा तो आप इमलियाँ बटोर रही थीं?”
रुख़साना घबरा गई-“खाला गेंहूँ बीनकर आयेंगी|” और फौरन नौ-दो ग्यारह| रन्नी हँस पड़ी, दीवार पर टँगी घड़ी में से एक चिड़िया फुदक कर बाहर आई और टन्न-टन्न पाँच के घंटे बज गए| चिड़िया अन्दर, खिड़की बंद| असर की नमाज़ का वक़्त था| मुश्किलें कितनी भी क्यों न आयें, भले ही अल्लाह ने उनके नसीब में कुछ नहीं लिखा, फिर भी रन्नी पाँचों वक़्त की नमाज़ बदस्तूर पढ़ती हैं| उन्होंने दुपट्टा गले में लपेटा और तख़त से नीचे उतर कर नमाज़ अता करने लगीं|
हॉल के दरवाज़े शीशे जड़े थे और हमेशा खुले रहते थे.....अन्दर के कमरे बहुओं में बँटे थे| तख़त पर भाभीजान बैठती थीं और पूरे घर को अपनी बुज़ुर्गियत की सुरक्षा में सँजोये रहती थीं| तख़त के सामने भाईजान की कुर्सी थी.....लम्बी आरामकुर्सी जिस पर वे शाम को बैठते| तख़्त से लगे टेबिल पर चमकता हुआ पीतल का पानदान रखा रहता| बन्नो उसे रोज़ इमली से चमकाती थी| तख़्त पर सुन्दर कश्मीरी नमदा बिछा था और दीवार से लगे दो गावतकिये| जब से रेहाना आई थीं इसी तख़त पर सोती-बैठतीं| भाभी सामने वाले पलंग पर बैठतीं| दाहिनी बाजू, ज़मीन पर कालीन बिछाकर सोफे रखे थे और बीच में काँच जड़ा बड़ा-सा टेबिल| आपा आईं तो तखत के कोने पर बैठ गईं-“कैसी हो रेहाना? क्या हो गया है तुम्हें?”
रन्नी फीकी हँसी हँस दीं-“तुम तो आपा भूल ही गईं हमें?” आपा ने चूड़ियाँ छनकाईं और सरसरी नज़र हॉल में घुमाई, फिर आहिस्ते से फुसफुसाईं-“हम क्यों भूलेंगे.....तुम्हारी भाभी ने जो मना किया आने को|”
रन्नी सन्न रह गई-“भाभी ने मना किया? क्या कहती हो आपा?”
“अल्लाह झूठ न बुलाये.....हम छोटे सरकार की ख़बर जो देते हैं तुम्हें| तुम ही कहो, इसमें छुपाने जैसी बात क्या? क्या बीमार नहीं होता कोई?”
रन्नी का गुस्सा काफ़ूर हो गया| भाभी के प्रति सिजदे में सिर झुक गया| कैसी बेमिसाल हैं भाभी| उसकी रूह को तकलीफ़ न हो ऐसे मौके टरकाती रहती हैं| पर रन्नी के लिए यूसुफ़ मियाँ का हवाला जानना बहुत ज़रूरी है|
“कहो आपा.....कोई ताज़ा ख़बर है क्या?”
“है न! अगले जुमे फिर ऑपरेशन है.....अहमदभाई जा रहे हैं दुबई| सज्जो के अब्बा से कल ही तो मिले थे| कह रहे थे, जाने किन गुनाहों की सज़ा भुगत रहे हैं यूसुफ़| न जाने किसके दुखते दिल की हाय है|”
रन्नी ने ठंडी साँस भरी.....नहीं उन्होंने केवल कायर कहा है यूसुफ़ को, कोसा कभी नहीं.....अल्लाह जानता है, वे हमेशा दुआ ही करती रहीं यूसुफ़ की सलामती की| अपने महबूब को कौन कोसेगा भला|
“इधर तीन-चार महीनों से ईंट का कारोबार भी बंद है| अहमद भाई, अस्सी के आसपास तो होंगे| गज़ब का जिगर है, हाथ-पैर सलामत, नज़र सलामत, सत्तर से कम ही लगे हैं मुझे तो| आते हैं कभी-कभी| शबरात के दिन तो आये थे, नेग-दस्तूर दे गये| इधर चहल-पहल देखकर पूछा था कि कौन आया है| तुम्हारे आने की सुनकर चुपचाप मकान निहारते रहे और बिना कुछ कहे चले गए| अब कहें भी क्या? यूसुफ़ मियाँ की ऐसी हालत! बाकी के दोनों लड़के अपने घर द्वार में मस्त| कारोबार चले भी तो क्या? यूसुफ़ मियाँ का बेटा आजकल अमेरिका में है.....पढ़ाई कर रहा था वहाँ.....वहीँ अपना कारोबार शुरू कर दिया है और अहमद भाई बता रहे थे कि वहीँ की मेम ब्याह ली है|”
रन्नी बी सुनती रहीं.....मानो फिल्म देख रही हों जिसके नायक यूसुफ़ हैं और नायिका कोई नहीं..... सब जानते हैं कि उन्होंने अपनी बीवी की याद में शादी नहीं की पर यह तो रेहाना ही जानती है कि हक़ीक़त क्या है? आपा से तफ़सील से पूरी दास्तान सुन, रन्नी गाव तकिये से टिक गईं, मन-ही-मन एक आह सी निकली-
आपा ने पानदान खोला-“पान खाओगी रेहाना?”
“लगा दो|”
“आज भाभीजान नज़र नहीं आ रहीं?”
“यहीं तो थीं, असर की नमाज़ के वक्त| भाभी ऽऽऽ|”
रेहाना ने पुकारा तो भाभीजान फौरन आ गईं, घबराई-सी लगीं| आजकल ऐसा ही होता है| रन्नी की पुकार उन्हें घबरा देती है, तबीयत न बिगड़ गई हो|
“ओहो! आपा बैठी हैं? लो भई, इधर तो पान लग रहे हैं| थोड़ा सबर करे आपा.....चाय ला रही है सादिया|”
“लो, रख दिए बीड़े| नेकी और पूछ-पूछ| चाय की तो कब से तलब लगी थी|”
“अब तुम छुटकी का निक़ाह कर डालो आपा| फुरसत हो जाओगी|”
“अब देखो, बात तो चल रही है| दूसरी जगह लड़का देखा है| पढ़ा-लिखा है.....फर्नीचर बनाने का कारोबार है| ऐन चौक पर बड़ी-सी दुकान है| दो भाई हैं, तीन बहनें| बहनें ब्याहने को बैठी हैं| बड़े भाई की शादी हो गई, बच्चे हैं दो| वालिदा नहीं है| पिछले जाड़ों में अल्लाह को प्यारी हो गईं| दुकान दोनों भाई मिलकर चलाते हैं और वालिद लकवा से बेजान बरामदे में पड़े रहते हैं|”
“ऐसा न कहो आपा| अल्लाह सबको राहत बख़्शे| तो अब सोच कैसी? कर डालो न निकाह?”
सादिया चाय ले आई| भाईजान वाली कुर्सी पर भाभी बैठ गईं| शाम ढल रही थी| अँधेरा बढ़ता जा रहा था| आपा ने चाय पी, पान का बीड़ा उठाकर गाल में दबाया और खड़ी हो गईं-“पड़ी न रहा करो रेहाना, चलोगी-फिरोगी तो तबीयत सुधरेगी, कल चली आना उस तरफ़|”
रन्नी मुस्कुरा दीं-“आऊँगी आपा| पड़ी क्यों रहूँगी?”
आपा को छोड़ने रन्नी बरामदे तक आई| सड़क के उस पार घने दरख़्तों के ऊपर आसमान में हँसिया-सा टँगा चाँद अँधेरे को छीलने की कोशिश कर रहा था|
रात के खाने से निपट, सब नींद को बेताब हो रहे थे कि तभी ताहिरा का फोन आया, भाईजान ने उठाया| बताया कि शाहजी ने दो दिनों के लिए नूरा को रोक लिया है फिर फोन पर फूफी की बुलाहट-“कैसी हैं फूफीजान? तबीयत सम्हालियेगा| शादी के दस महीने बाद पहली बार आपके बगैर कोठी में रहना पड़ रहा है|”
“आदत डालनी पड़ेगी मेरी गुड़िया.....फूफी क्या हमेशा समधियाने में पड़ी रहेगी? और, शाहजी कैसे हैं?”
“छत पर दूरबीनों के आगोश में| अभी तो नूरा भाईजान के संग जम रही है बैठक| लगता है आज पूरा आसमान घुमा देंगे उन्हें|” काफी देर फोन पर बातचीत होती रही| भाईजान तो सोने चले गए थे| भाभी पलंग पर लेटी जमीला से पिंडलियाँ मसलवा रही थीं| दुल्हन हाथ कम चलाती, हिलती ज़्यादा थी| रन्नी हँस पड़ीं, यूँ भी ताहिरा के फोन से मन बदल गया था|
भाईजान ने पीर मोहम्मद के उर्स के लिए क़रीम फूल वाले को ऑर्डर दे दिया था चादर बनाने का| गुलाब, मोगरा, बेला के फूलों की सुन्दर-सी चादर बननी तय हुई| करीम ने कुछ रुपये एडवांस लिया और सलाम करता चला गया|
“तुम्हें चलना है रन्नी|”
“मैं, अकेली? पूरा कुनबा नहीं जायेगा उर्स देखने|”
“सब जायेंगे पर हमारे साथ तुम और तुम्हारी भाभी जायेंगे| बाक़ी अपनी-अपनी बेगमों के साथ जायेंगे| हम बूढ़ों के साथ उन्हें क्या मज़ा आयेगा? उनका आकर्षण तो सजी-धजी दुकानें और नाश्ता पानी हैं|”
अभी भाईजान ने दुकान जाने के लिए साईकल गेट से बाहर निकाली ही थी कि जमीला-सादिया में न जाने किस बात को लेकर झगड़ा शुरू हो गया| पहले धीरे-धीरे, फिर ज़ोर-ज़ोर से दोनों झगड़ने लगीं| भाभी ख़ामोश-सी कुर्सी पर बैठी थीं| रन्नी ने घर में काफ़ी तब्दीली महसूस की| दस महीने वह घर से कटी-सी रही थी, इस बीच जब भी आईं, मेहमानों-सी ख़ातिरदारी हुई| बहुएँ दस महीनों में कितनी बदल गई हैं| उस दिन नायन मिरासिन को देने की बात पर शकूरा के तेवर देखे, आज बहुओं के|
“भाभी, माज़रा क्या है?”
“रोज़ की झंझट है यह, जमीला तो फिर भी सबर क्र लेती है पर सादिया तो.....उफ़!” भाभी ने दुखी दिल से कहा|
“तेज़ मिजाज़ की है छोटी दुल्हन, शकूरा भी तेज़ मिजाज़ है| दोनों में से एक को सब्र करना चाहिए वरना गृहस्थी कैसे चलेगी?”
“तुम गृहस्थी चलने की बात कहती हो? शकूरा तो ज़िद्द किये है कि दुकान से उसका हिस्सा अलग कर दो.....नए मोहल्ले में मकान भी देख आया है, कहता है वहीँ रहेगा|”
रन्नी को ठेस-सी लगी| अभी घर के हालात सुधरे जुमा-जुमा चार रोज़ हुए हैं और अभी से नीयत बदलने लगी| शकूरा है भी ऐबी.....बचपन से ही उसकी लालच और अपने वाल्देन की परवाह न करना दिखाई देता था| नूरा समझदार है| अपनी अम्मी-अब्बू पर जान छिड़कता है.....दोनों के चेहरे की एक भी शिकन उसे बेचैन करने को काफी है.....अपनी ज़िम्मेदारियों का बोध है उसे, वही बात उसकी दुल्हन में है| नूरा ने उसे सिखाया है और फिर मर्द जैसा व्यवहार करता है औरतें वैसा ही तो सीख लेती हैं|
झगड़े का अंत हुआ बड़ी दुल्हन के रोने से| सादिया तो झल्लाती, पैर पटकती अपने कमरे में गई और धड़ाम से दरवाज़ा बंद कर लिया| रन्नी धीरे-धीरे जमीला के पास गई, उसके सिर पर हाथ फिराया-“मत रो दुल्हन|”
सहानुभूति पा वह उनसे लिपट गई और तेज़ी से रो पड़ी-“ज़रा-ज़रा-सी बात पर झगड़ती है फूफीजान, आप अम्मी से कह दीजिये, हमारा काम बाँट दें| सुबह का नाश्ता, खाना मैं सम्हाल लूँगी, शाम का वह| उसे मेरे साथ हाथ बँटाना ज़रा भी पसंद नहीं|”
“सन ठीक हो जायेगा दुल्हन| सबर कर लो| तुम तो बड़ी हो, समझदार हो|” रन्नी ने तसल्ली दी और रुख़साना से अम्मी के लिए पानी लाने को कहा|
उर्स के मेले में न नूरा का परिवार गया न शकूरा का| चादर चढ़ाकर भाईजान तो कव्वाली की महफ़िल में बैठ गए, उन दोनों को रिक्शा कर दिया| रन्नी का मन कुछ भी ख़रीदने का न था पर भाभी ने बच्चों के लिए मिठाई और बहुओं के लिए चूड़ियाँ ख़रीद लीं| छोटे-छोटे, रंग-बिरंगे पारदर्शी काँच के जानवर, पक्षी भी खरीदे जिन्हें वे हॉल की अलमारी में सजाना चाहती थीं|
सामान देखकर जमीला ने तो शुक्रिया कहा पर सादिया गाल फुलाये बैठी रही| रन्नी ने सोचा, वह भाईजान से कहेगी कि शकूरा को अलग हो जाने दो| इसमें हर्ज़ ही क्या है? ज़िन्दगी में चैन ज़रूरी है| नया मोहल्ला मुसलमानों की बस्ती है, कम से कम बच्चे अपना मज़हब तो सीखेंगे| शकूरा की दुल्हन सादिया में कहाँ इतना शऊर है| उन्होंने तो एक वक़्त की नमाज़ तक पढ़ते नहीं देखा उसे| भाभी चश्मा चढ़ाये भाईजान की कमीज़ में बटन टाँक रही थीं-“लाओ भाभीजान, मैं टाँक दूँ|”
“तुम आराम करो, रन्नी बी| वैसे भी तबीयत नासाज़ है तुम्हारी| तुम्हारे बारे में सोचकर मन में हौल-सा उठता है| सब कुछ पाकर, सब कुछ छिन गया तुमसे|”
रन्नी समझ गई| भाभी का इशारा यूसुफ़ और उसकी अजन्मी औलाद से है| पहले की बात होती तो रन्नी दृढ़ता से कह देती कि भाभी, आप कायरों की बात मत करिये पर अब, अब तो मौत की दस्तक हो चुकी है| देखा जाये तो अब छिन रहा है सब कुछ| रन्नी उदास हो गईं-
“भाभीजान, उन बातों को छेड़ने से क्या फ़ायदा?”
“सच कहती हो रन्नी बी, यूसुफ अपने किए की सज़ा भुगत रहे हैं| अल्लाह सब देखता है, उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती|”
“नहीं भाभी, ऐसा न कहिए उनके लिए, बस दुआ कीजिए| अल्लाह ये दिन किसी को न दिखाये|”
रन्नी को ताज्जुब था, सदा मुँह बंद रखने वाली भाभीजान आज इस विषय में खुलकर बात कर रही हैं| सालों गुज़र गए| भाभीजान और उन्हें एक साथ ही तो हमल ठहरा था| रन्नी सब कुछ याद कर सिहर उठीं, वो क़तरा-क़तरा हमल का गिरना, आज भी रोंगटे खड़े कर देता है|
“अहमद मियाँ की सेहत भी गिरती जा रही है| कारोबार ठंडा पड़ा है| ईंट के भट्टे तो दो साल से सुलगे ही नहीं| मुझे क्या पता नहीं है कुछ| पर मुझे क्या, जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा| क्या मिला अहमद मियाँ को बेटे की चाहत पर रोक लगाने से? बसी दुबारा गृहस्थी उसकी? सारी उमर अकेले गुज़ारी यूसुफ़ ने| मुझे तो रन्नी बी, यूसुफ़ मियाँ पर भी दया आती है| माँ-बाप को कुछ तो बच्चों की मर्ज़ी का कर ही डालना चाहिए|”
रन्नी का दिल चीत्कार कर उठा| वह दिल ही दिल में बुदबुदाई बस करो भाभी.....अब और कहोगी तो मैं रो पडूँगी|
दिल में वही गोला-सा अटकने लगा| कोहनियाँ फटने लगीं| चक्कर-सा आने लगा| रन्नी घबरा गई|
“भाभी ज़रा उस पत्ते में से एक टिकिया निकाल दो, अचानक फिर वैसा ही लग रहा है|”
भाभी ने फुर्ती से टिकिया देकर रन्नी को लिटा दिया और झुँझला पड़ी-“तुमसे तो कुछ कहना ही गुनाह है| फौरन तबीयत पर ले आती हो बात को| लो, तौबा करी मैंने तो|” रन्नी भाभीजान की इस अदा पर तकलीफ़ में भी मुस्कुराई| भाभी उसके लिए चाय बनाने चली गईं| रन्नी तकलीफ़ में डूबी यूसुफ़ तक पहुँच गई|
यूसुफ़ पलंग पर लेटे हैं| एकदम दुबले और कांतिहीन| शरीर में उठने तक की ताक़त नहीं| नर्स कुरता बदलना चाहती है| एक बाँह उठाती है कि यूसुफ़ दर्द से बिलबिला जाते हैं| आँखों से आँसू छलक पड़ते हैं उनके| सुनहला आभास देते कोमल बाल सारे झड़ चुके हैं| रन्नी दौड़कर उनकी बाँहों में समा जाती है| यूसुफ़ कहते कुछ नहीं बस उसे बिटर-बिटर ताके जाते हैं| उनमें इतना भी दम नहीं कि उसे अपने आलिंगन में बाँधें| बस अपनी एक उँगली उठाकर उसके होंठों पर फिराते हैं मानो अपना गुनाह कबूल कर रहे हैं| यूसुफ़ में हिम्मत होती तो आज रन्नी का अपना घर होता| ताहिरा बराबर बेटा होता.....वह बीवी, अम्मी बनी संतुष्ट होती पर उनकी कायरता ने रन्नी को जीते जी दफ़न कर दिया| रन्नी की सारी उमंगें चकनाचूर हो गईं| अब रन्नी में बचा ही क्या है.....साँस है तो कर्त्तव्य भी निभ रहा है| साँस टूटी और कुछ बाकी न रहेगा.....न जाने क्यों पैदा हुई वह| निरर्थक, निरुद्देश्य.....धरती का बोझ बढ़ाने और भाईजान-भाभी को फ़िकर में डालने.....यूसुफ भी उसी के नाम की माला जपते तनहा ज़िन्दगी गुजार रहे हैं.....मौत की आहट मिल चुकी है.....जाने कब प्राण-पखेरू उड़ जायें.....यूसुफ़ के या रन्नी के|
“रन्नी बी, सो गईं क्या? चाय पी लो|”
रन्नी ने करवट बदली और आहिस्ता से उठी| फिर दीवार का सहारा ले गाव तकिये से टिक कर बैठ गईं| भाभी ने प्याला हाथ में पकड़ा दिया| प्याला हल्का-सा काँपा पर रन्नी ने हाथ की गिरफ़्त मज़बूत कर ली और घूँट-घूँट ची सुड़कती रही|
रन्नी की सलाह पर भाईजान ने ग़ौर किया और शकूरा को नया मोहल्ला में शिफ़्ट होने की रज़ामंदी दे दी| दुकान के भी दो हिस्से हो गए| कम से कम अब रोज़-ब-रोज़ के झगड़े-टंटों से तो निज़ात मिली| शकूरा और उसकी दुल्हन भी खुश| छाँट-छाँट कर जहेज़ में आया सामान निकाला जाने लगा बल्कि भाभी खुद ही ला-लाकर बरामदे में रखती गईं| जमीला चुपचाप चौके में रोटियाँ सेंक रही थी| रन्नी ने सादिया को पास बुलाया-“देखो दुल्हन, ख़ानदान की इज़्ज़त तुम्हारे हाथों में है| उधर नयी जगह उल्टी-सीधी मत कह देना| औरत वही जो हर बात ढक-तोप कर रखे|”
“आप निशाख़ातिर रहिये फूफी जान.....हम कुछ थोड़ी बतायेंगे|” सादिया ने चहककर कहा|
“तुमसे यही उम्मीद थी| भाईजान, भाभी ने जिगर काट-काटकर बच्चों को पाला है| यूँ समझो, शकूरा के रूप में उनका आधा दिल तुम्हारे साथ है|”
बच्चे तैयार हो चुके थे| टेम्पो भी आ गया था| शकूरा अपने साथ दो मज़दूर ले आया था| सामान टेम्पो में बिस्मिल्लाह करके चढ़ाया गया तो भाभी रो पड़ीं-“मैंने घर का बँटवारा नहीं चाहा था.....”
भाईजान और रन्नी ने उन्हें तसल्ली दी| जमीला ने रात का खाना कटोरदान में भरकर सादिया को दिया कि जाकर सामान वग़ैरह जमाओगी तब तक बच्चे भूखे हो जायेंगे| अचानक भावनाओं का वेग उमड़ा और सादिया, जमीला के गले लगकर फूट-फूटकर रो पड़ी-“हमारी ग़लतियों को दिल में न लाइयेगा, यह तो महज़ घरों का अलगाव है, दिल से तो हम यहीं रहेंगे|” माहौल भारी हो उठा था| शकूरा की इच्छा थी कि फूफी साथ चलें और अपने पाक़ क़दमों से उनके आशियाने को जन्नत बना दें पर फूफी की तबीयत| भाईजान भी पशोपेश में| फिर बात यूँ निपटी कि अगले जुमे सब नया मोहल्ला आ जायेंगे और पूरा दिन, पूरी रात साथ गुज़ारेंगे|
टेम्पो स्टार्ट हुआ| भाभीजान अब भी रोये जा रही थीं और जमीला अपराध से अन्दर कमरे में खड़ी थी| “कमाल है, ऐसे रो रही हो जैसे बेटी बिदा हुई हो| अरे, इसी शहर में तो हैं तुम्हारे साहबज़ादे| ज़रा उन पर भी गृहस्थी का बोझ पड़ने दो|”
भाईजान ने भाभी को मीठी झिड़की देते हुए जमीला से ठंडा पानी लाने कहा| झिड़की उसे भी मिली-“तुम क्यों बुरा-सा मुँह बनाये खड़ी हो.....रन्नी, समझाओ भई| भाई-भाई क्या अलग नहीं होते?”
लेकिन भाईजान की तमाम कोशिशों के बावजूद भी माहौल सम्हलने में हफ़्ता-डेढ़ हफ़्ता लग गया| ताहिरा को पता लगा तो अम्मी को फोन किया| अम्मी बताती रहीं-“तुम्हारी छोटी भाभी के लच्छन ही ऐसे थे| ख़ानदान को लेकर चलना हर एक के बस की बात नहीं|”
इस बात को सुनकर भाईजान भड़क गए-“अपने बेटे को दोष नहीं देगी? पाई-पाई का हिसाब रखता था बड़े भाई की, यह कोई बात हुई? नूरा का जीना हराम कर दिया था|”
भाभी घबरा गईं, झट से फोन रन्नी को थमा दिया|
“सलाम फूफीजान, आपसे लड़ाई करनी पड़ेगी| हर घड़ी तबीयत बिगाड़ लेती हैं| हमारे बिना आपका ये हाल हो रहा है और आपके बिना हम.....”
“क्यों? क्या हुआ मेरी बिटिया को?” रन्नी ने बेहद लाड़ से पूछा|
“पाँवों में सूजन आ गई है| डॉक्टर ने नमक बंद करवा दिया है| गुलनार आपा भीगे बादामों को पीस दूध में पिलाती हैं, सुबह-सुबह| साथ में भीगे नारियल का टुकड़ा भी चबाना पड़ता है|”
“तसल्ली हुई बेटी| तुम्हारा तो ख़ास ख़याल रखा जायेगा, मुझे पता है|”
“इधर तो बात जंगल में आग की तरह फैल गई है| कल हिजड़े आये थे नाचने, घंटे भर तक नाचते रहे| खूब नेग ले गए आपा से, अब्दुल्ला ने तो चाय भी बनाकर पिलाई सबको|”
रोज़ का नियम था| ताहिरा कोठी की हर बात फोन पर रन्नी को सुना देती| रन्नी को लगता मानो वे खुद कोठी में ही हों और आँखों के सामने नज़ारा हो रहा हो| कोठी के हर इन्सान से लगाव-सा हो गया था उन्हें| तब क्या कोठी की खातिर वे गुनाहों के दलदल में फँसी? जाने क्यों रन्नी अपने गुनाह का सबब ढूँढती हैं| वजह शायद यही हो ताहिरा का सर दोनों बेगमों के सामने न झुके| भाईजान, भाभी की तंगहाली दूर हो और सबसे बढ़कर अपने गुनाह को कर्म की संज्ञा देना| मानो महाभारत की सत्यवती आज भी उनके दरम्यान है| सत्यवती ने कुल को विनाश से रोकने के लिए, प्रजा की रक्षा के लिए वेदव्यास से अम्बिका, अम्बालिका को गर्भवती बनाने का आग्रह किया था| रन्नी ने भी वही किया| जब दीन-मज़हब में नियोग पाप नहीं तो वह कैसे गुनाहगार हुई? लेकिन फिर भी रन्नी दोजख़ की आग झेलने को तैयार है.....| अगर गुनाह है तो उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए, या शायद मिल रही है| यूसुफ़ की बीमारी के रूप में, खुद की बीमारी के रूप में.....वरना चाहा तो रन्नी ने यही था कि एक रात ऐसे सोयें कि सुबह उठे ही नहीं, पर ऐसी पाक़ मौत कहाँ मयस्सर है?
रन्नी की बीमारी जड़ें जमाती जा रही थी| हाई ब्लड प्रेशर और डिप्रेशन हमेशा रहने लगा जिसकी वजह से दूसरे छोटे-मोटे रोग भी उभर आये| अब उनसे ज्यादा चला नहीं जाता था| तख़्त पर पड़ी रहती थीं| कभी आपा आकर ज़बरदस्ती अपने साथ अमराई की सैर करा लातीं| अमराई के चप्पे-चप्पे में यूसुफ़ की यादें बसी थीं| जहाँ ईंट का भट्टा था अब वहाँ कुछ काला, मटमैला-सा ज़मीन का टुकड़ा भर बचा था| जिस पर टूटी ईंटों के टुकड़े और चूरे बिखरे थे| चूहों ने बिल बना लिये थे वहाँ, कुछ जंगली झाड़ियाँ भी उग आई थीं किन्तु भट्टे की पहचान अब भी मौजूद थी| कई दिनों से पेट्रोल पम्प भी नहीं खुला था| जाकिर मियाँ अपने गाँव गए थे.....आपा नहीं जा पाई थीं क्योंकि घर सूना कैसे छोड़ें? हाँ, यह ख़बर ज़रूर थी कि अहमदभाई दुबई जाकर ख़ुद भी बीमार पड़ गए थे|
“बेटे का सदमा होता तो भारी है| ख़ुदा किसी को ये दिन न दिखाये|”
फिर रन्नी के चेहरे की ओर देखा, घबरा गईं.....कहीं फिर ब्लड प्रेशर न बढ़ जाये| बात बदलने की गरज से बोलीं-“छुटकी की बात पक्की हो गई है| उसी सिलसिले में उसके अब्बा गाँव गए हैं.....शायद अगले महीने निकाह की तारीख़ निकल आये|”
“अच्छा! मुबारक हो.....तुमने क्या तैयारी की आपा निक़ाह की? जोड़े सिलने दे दिये|”
“अभी कहाँ? हो जायेगा सब, ज़रा रुपयों का इंतज़ाम हो जाये| अहमद मियाँ होते तो माँग लेते उनसे| उनके बाकी दोनों बेटे एकदम खडूस| एक पाई भी निकलवा लो तो जाने| हाँ, उनकी वालिदा रहमदिल हैं, लेकिन उन्हें पता चले तब न|” रन्नी को शकूरा याद आ गया| हर ख़ानदान में एक न एक डिठौना तो होता ही है|
“ताहिरा का छठवाँ महीना चल रहा है न|”
“छठवाँ! रन्नी लड़खड़ा-सी गईं| वक़त का पहिया चल नहीं रहा, रपट रहा है| ज्यों रास्ता फिसलन भरा हो.....इस पहिये से लगी दो कज़रारी आँखें हैं| रन्नी कितना तो काजल पोत देती थीं ताहिरा की आँखों में जब वह नन्ही-सी थी|
“चलो बी, घर आ गया| न जाने कहाँ खो जाती हो चलते-चलते|”
ऐसा ही होता आजकल| ज़ाहिराना तौर पर वे ऐसी दिखाई देती है मानो तबीयत सम्हाल गई है पर अन्दर-ही-अन्दर हड्डियों की झंझर बाक़ी बची है| चमड़ी अपनी रौनकखोती जा रही है| इस बीच वक़्त ने तेज़ी से करवट बदली है ताहिरा का छँटवा पूरा होने को है, एक बार रन्नी की तबीयत के बहाने वह शांताबाई के संग आई थी| बुझ-सी गई है लड़की| पेट मटके-सा फूला.....पैरों में सूजन| जमीला ने तराजू ढाँककर खुलवाया था तो लड़के की बरक़त निकली| सब खुश थे.....यही तो चाहिए था शाहजी के ख़ानदान को| ताहिरा चार दिन रही, शर्म के मारे भाईजान के सामने नहीं आई| शांताबाई उन चार दिनों में बस रन्नी की तीमारदारी करती रही| सिर में तेल ठोंकती, हाथ पैर दबाती.....मालिश भी कर देती| यह सब रन्नी की उन नौ-दस महीनों की कमाई है जो कोठी में गुज़ारे हैं उन्होंने|
एक रूटीन-सा बन गया था| वही फीकी उदास सुबह.....वही निराशा भरी शाम.....वही पूनम.....वही अमावस| रन्नी के दिन एक बहाव में बहते चले गए और देखते ही देखते ढाई महीने गुज़र गए| आज पाँच तारीख़ हैं, डॉक्टर ने पच्चीस तारीख़ बताई है ताहिरा की जचकी की.....| तो रेहाना बेग़म, काम पूरा हो गया तुम्हारा| मानो कोई कानों में फुसफुसाया| रन्नी ने अँधेरे में खुली खिड़की पर नज़रें जमा दीं|
दस दिन बाद छुटकी का निक़ाह था| जाकिर मियाँ ने अपनी औक़ात से बढ़कर ख़र्च किया| आपा ख़ुद आकर रन्नी को लिवा ले गईं| गद्देदार मूढ़े पर बैठाया| पाँव चौकी पर रखे| दो दिन से रन्नी की तबीयत ज़्यादा ही ख़राब थी| कल तो सारी रात आँखों में कटी पर आपा का आग्रह, जैसी भी थीं, वे शादी में शामिल हुईं| छुटकी के ससुराल से चूड़ियों का डिब्बा आया, पीसी मेंहदी से भरी परात, मिठाई के झाबे, मोगरे की कलियाँ, लाल गुलाब के हार| कनाते तन गई थीं और बावर्ची भट्टी सुलगाकर दावत की तैयारी कर रहे थे| शामियानों पर झूमरें लटक रही थीं| लाउड स्पीकर पर लता, रफ़ी के गीत गूँज रहे थे| आपा चूड़ियाँ खनकाती इधर से उधर डोल रही थी| लड़कियाँ शादी के गीत गाते हुए नाच रही थीं| तभी पेट्रोल पंप के सामने आकर कार रुकी| किसी ने आपा को ख़बर किया-“अहमदभाई की कार|” आपा दौड़कर दरवाज़े तक आईं तो देखा ड्राइवर डिक्की में से सामान उतार रहा है और आगे सीट पर अहमदभाई की बेग़म बैठी हैं| रन्नी मूढ़े से उठकर धीरे-धीरे दरवाज़े तक आई.....कार की खिड़की में से एक श्यामल चेहरा उन्हीं की ओर ताक रहा था, वे सहम गई.....या अल्लाह! यूसुफ़ की वालिदा|
आपा और ज़ाकिर भाई तो दौड़ गए थे कार की ओर, ड्राइवर सामान के पैकेट उठाये उन्हीं की ओर आ रहा था, छुटकी के लिए सौगातें थीं उनमें| वे एकदम हड़बड़ा गईं लेकिन फ़ौरन ही सम्हलकर सज्जो को बुलाया-“शरबत, मिठाई लाओ इनके लिए, एक ट्रे उधर भी भिजवा दो कार के पास|”
“क्या ख़बर है यूसुफ़ मियाँ की?” उन्होंने ड्राइवर के सलाम का जवाब देते हुए पूछा|
“क्या बतायें? ईश्वर मालिक है, उसकी जैसी मर्ज़ी|”
वे घबरा गईं, चेहरे का पसीना दुपट्टे से पोंछने लगीं|
“यूसुफ़ साहब का तीसरा ऑपरेशन होने वाला है| इस ऑपरेशन के बाद के ७२ घंटे उनकी ज़िन्दगी के दिन बढ़ा भी सकते हैं और ख़तम भी| दुबई से मालिक का फोन आया था कि जाक़िर भाई के यहाँ शादी में सौगातें भिजवाओ| यहाँ से सीधे एयरपोर्ट जा रहे हैं| मालकिन आज रात ही दुबई के लिए रवाना हो रहे हैं| साथ में छोटे मालिक (यूसुफ़ के चचाजान) भी जा रहे हैं|”
कार के पास खड़े जाकिर भाई और आपा का चेहरा उतरता गया| सज्जो की भेजी शरबत और मिठाई की ट्रे ज्यों की त्यों वापिस आ गई| मूढ़े तक आते-आते रन्नी का पैर काँच के गिलास से टकराया, गिलास टूट गया, किर्चें रन्नी के दिल में बिखर गईं| कार स्टार्ट होने की आवाज़ के साथ ही रन्नी के अन्दर कुछ उबलता चला गया| जैसे खून शिराओं को तिड़का कर बाहर निकलना चाह रहा हो|
“क्या हुआ? अरे, जल्दी पानी लाओ, पंखा, ज़रा इस तरफ घुमाओ| अरे लौंडियों, दौड़कर भाभीजान को बुला लाओ|”
पलभर में भाभी, भाईजान हाज़िर| वे भी शादी में शामिल होने बस घर से निकल ही रहे थे कि गेट पर ही ख़बर मिल गई| तब तक नूरा ने डॉक्टर को फोन कर दिया और बाँहों में सहमी कबूतरी-सी, अपनी जान से प्यारी फूफी को उठाये तख़त तक ले आया| सब सहमे से खड़े थे| डॉक्टर आये और रन्नी का हाल देख उन्हें अस्पताल में भरती करने की सलाह देकर चले गए| पर्ची पर लिख गए कि ‘अगर ले जाना मुश्किल हो तो एम्बुलेंस बुलवा लीजिए|” लेकिन नूरा को चैन कहाँ, टैक्सी रुकवाई और झटपट फूफी को उसमें बिठाल अपनी गोद में उनका सिर ले लिया|
टैक्सी ने तेज़ी से अस्पताल का रुख़ किया|