Swapn ho gaye Bachpan ke din bhi book and story is written by Anandvardhan Ojha in Hindi . This story is getting good reader response on Matrubharti app and web since it is published free to read for all readers online. Swapn ho gaye Bachpan ke din bhi is also popular in बाल कथाएँ in Hindi and it is receiving from online readers very fast. Signup now to get access to this story.
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... - उपन्यास
Anandvardhan Ojha
द्वारा
हिंदी बाल कथाएँ
स्वप्न हो गये बचपन के दिन... (१)"मेला नाम 'आदनबादन ओदा' है !"....यह कथा मेरी स्मृति का हिस्सा कभी नहीं रही। शायद तब की कथा है, जब मैं पूरी तरह होशगर नहीं हुआ था। लेकिन, कथा पिताजी (पुण्यश्लोक पं. प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') से बार-बार सुनी है। हाँ, इतना मेरी धुँधली-सी स्मृति में अवश्य है कि बहुत छुटपन में, कई वर्षों तक मैं तुतलाकर बोलता था और अगर कोई मुझसे मेरा नाम पूछता, तो मैं झट कहता--"मेला नाम 'आदनबादन ओदा' है।" मेरे ऐसे उच्चारण को सुनने के लिए लोग मुझसे बार-बार मेरा नाम पूछते भी थे।मेरे तुतलाकर बोलने के परदे के पीछे
स्वप्न हो गये बचपन के दिन... (१)"मेला नाम 'आदनबादन ओदा' है !"....यह कथा मेरी स्मृति का हिस्सा कभी नहीं रही। शायद तब की कथा है, जब मैं पूरी तरह होशगर नहीं हुआ था। लेकिन, कथा पिताजी (पुण्यश्लोक पं. प्रफुल्लचन्द्र ...और पढ़े'मुक्त') से बार-बार सुनी है। हाँ, इतना मेरी धुँधली-सी स्मृति में अवश्य है कि बहुत छुटपन में, कई वर्षों तक मैं तुतलाकर बोलता था और अगर कोई मुझसे मेरा नाम पूछता, तो मैं झट कहता--"मेला नाम 'आदनबादन ओदा' है।" मेरे ऐसे उच्चारण को सुनने के लिए लोग मुझसे बार-बार मेरा नाम पूछते भी थे।मेरे तुतलाकर बोलने के परदे के पीछे
स्वप्न हो गये बचपन के दिन... (2)माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी...? (क )बात बहुत पुरानी है। तब की, जब आलोक-भरे इस संसार को देखने के लिए मैंने आँखें भी नहीं खोली थीं, उसके भी कई-कई ...और पढ़ेपहले की। यह कहानी मैंने पिताजी से सुनी थी जो मेरी स्मृति में कहीं चिपक कर रह गयी है। आप सुनेंगे? कहूँ कहानी, वही पुरानी... ?मैंने अपनी पितामही (रामदासी देवी) को बाल्यकाल में देखा था, तब वह ८०-८५ के बीच की रही होंगी। वृद्धावस्था की उस उम्र में भी वह बहुत सुन्दर दिखती थीं, जबकि रुग्ण और शय्याशायी थीं! अत्यंत
स्वप्न हो गये बचपन के दिन... (3)माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी...(ख) : कानों सुनी, आँखों देखी...मेरी बड़ी बुआजी (कमला चौबे) पिताजी से दो वर्ष बड़ी थीं। उनका विवाह शाहाबाद जिले के एक समृद्ध गाँव 'शाहपुरपट्टी' ...और पढ़ेहुआ था। पटना-बक्सर मुख्य मार्ग पर बसा यह गाँव अपेक्षाकृत अधिक उन्नत ग्राम था। बड़े फूफाजी (देवराज चौबे) ए.जी. ऑफिस, बिहार में आंकेक्षक के पद पर बहाल थे। गाँव में फूफाजी का बड़ा मान-सम्मान था, खेती-बारी थी, धन-धान्य--सब था। उनकी एक ही कन्या संतान थी, जो अल्पायु रही। उन्हें विचित्र हृदय रोग था। पाँच-छह कदम की दूरी पर खड़ा व्यक्ति
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (4)हित-अनहित चीन्हे नहिं कोय...'बिजली' और 'आरती' का ज़माना बीत गया था। १९४८ में पिताजी आकाशवाणी, पटना से 'हिंदी-सलाहकार' के रूप में जुड़ गए थे। चार वर्ष बाद दुनिया में उधम मचाने के ...और पढ़ेमैं भी आ धमका, लेकिन उधम मचाने की योग्यता पांच-छः वर्ष बाद मुझे प्राप्त हुई थी। मुझे ठीक-ठीक स्मरण है, जब मैं सात-आठ साल का बालक था, रामचन्दर फोरमैन नामक एक व्यक्ति, मेरी ननिहाल के विशाल प्रांगण में, पुष्प-वाटिका के छोटे-छोटे वृक्षों के नीचे बने प्रस्तर-प्रखंड पर आकर चुक्के-मुक्के बैठ जाते! उनके नयन-कोरों पर कीच होती, शरीर पर जर्जर कुरता
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (5)सच्ची सम्मति की पीड़ा... भारत-चीन युद्ध के बाद, १९६३-६४ की बात है। दरवाज़े की घंटी बज उठी। गाँधी-गंजी और खादी का हाफ-पैंटनुमा जाँघिया पहने पिताजी उठ खड़े हुए। उनका कहना था, 'घर ...और पढ़ेहर व्यक्ति को इस बात का ख़याल रखना चाहिए कि दरवाज़े पर किसी भी आगंतुक को द्वार खुलने की लम्बी प्रतीक्षा न करनी पड़े।' वह हमेशा ऐसा ही करते थे, जिस दशा में होते, उसी में चल पड़ते दरवाज़ा खोलने। उस दिन भी वह द्वार खोलने को तत्पर हुए ही थे कि मैं यह कहता हुआ उनसे आगे बढ़ गया--'ठहरिए, मैं