स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (7) Anandvardhan Ojha द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (7)

स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (7)

'तानसेन गवइया की अठन्नी-अदायगी'...

लेखक और कवि-मित्रों के बीच, प्रसंगवश, पिताजी अक्सर कहा करते थे--'हमारे देश में लिखनेवालों की कमी नहीं है, बहुत लोग लिखते हैं, उनमें अनेक बहुत अच्छा भी लिखते हैं, लेकिन अधिसंख्य यह नहीं जानते कि क्या नहीं लिखना चाहिए...!' ... सोचता हूँ, मैं जो लिखना चाहता हूँ, उसे लिखना चाहिए या नहीं? इसी उधेड़बुन में लिखूँगा--यह कथा।

सन् १९६२ में जब मेरा नामांकन पटना के मिलर हाई स्कूल की पांचवीं कक्षा में हुआ, तब भारत-चीन का युद्ध चल रहा था। श्रीकृष्ण नगर में, मेरे घर के आसपास 'डब्ल्यू' आकार में कई गहरे गड्ढे खोदे गए थे, जिन्हें हम 'ट्रेंच' कहते थे। किसी आपदा या हवाई हमले से बचने के लिए उनका निर्माण हुआ था ! हर मोहल्ले में मुनादी हुई थी कि खासो-आम किसी संकट की स्थिति में 'ट्रेंच' की शरण में चला जाए। सायरन बजते थे, रात के वक़्त 'ब्लैक-आउट' हो जाता था, मतलब पढ़ने-लिखने की विवशता से मुक्ति मिल जाती थी ! दैवयोग से ऐसा कोई संकट तो कभी उपस्थित नहीं हुआ, लेकिन उन दिनों हम बच्चों की शरारती टोली ने 'ट्रेंच' में खूब ऊधम किया, धमाचौकड़ी मचाई। उन दिनों देशवासियों के ह्रदय में देश-भक्ति की भावना तरंगित हो उठी थी। देश-भक्ति के गीत खूब लिखे और गाये जा रहे थे। मोहल्ले-मोहल्ले, गाँव-गाँव, शहर-शहर ऐसी ही ऊर्जा व्याप्त थी।...

बहरहाल, पांचवीं कक्षा में दाखिला लेने के बाद, जिस दिन पहली बार स्कूल गया, उसी दिन प्रार्थना-सभा में मंच पर खड़े प्राचार्य महोदय और शिक्षक-समूह के मुझे दर्शन हुए थे। सुबह की विद्यालयीय प्रार्थना के बाद संगीत कुमार नामक एक छात्र से प्राचार्य महोदय ने एक भक्ति-गीत सुनाने को कहा। संगीत कुमार तो मंच पर उपस्थित हुए ही, उनके साथ छात्रों की एक टोली भी मंच पर आयी--तबला-हारमोनियम के साथ। संगीत ने सुमधुर भक्ति-गीत सुनाया ! उनका सुर सधा हुआ था, कर्णप्रिय था और ताल-वाद्यों की संगत में कसा हुआ था। संगीत की प्रस्तुति समाप्त हुई तो प्राचार्यजी ने उद्घोषणा की--"विद्यालय का नया सत्र शुरू हुआ है, कई नए बच्चों ने विद्यालय में प्रवेश पाया है। कोई अन्य छात्र अगर कुछ सुनाने चाहे, तो उसका स्वागत है!" इतना कहकर प्राचार्यजी मौन हो गए और पंक्तिबद्ध खड़े छात्रों की भीड़ में सन्नाटा छाया रहा। अचानक, बहुत पीछे पंक्ति में खड़े एक छात्र ने अपना हाथ ऊपर उठाया। वह हाथ मेरा था। कई जोड़ा आँखें मेरी ओर पलटीं और मुझे घूरने लगीं। प्राचार्यजी ने इशारे से मुझे मंच पर बुलाया और पूछा--"क्या नाम है तुम्हारा ? हमें क्या सुनाओगे ?" मैंने अपना नाम बताकर कहा--"मैं देश-भक्ति का एक गीत सुनाऊंगा सर !" प्राचार्य महोदय की स्वीकृति मिलते ही मैंने एक कान पर अपना हाथ रखा और उच्च स्वर में गोपालसिंह 'नेपाली'जी का गीत सुनाने लगा--

'शंकरपुरी में चीन ने जब सेना को उतारा,
चौव्वालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा.. !'

मेरा गायन जैसे ही ख़त्म हुआ, समुपस्थित छात्र-समूह ने ज़ोरदार तालियाँ बजायीं, जबकि संगीत के शास्त्रीय विधान से मेरा कोई वास्ता नहीं था, लेकिन मैं गाता सुर-लय में और उच्च स्वर में पूरी तन्मयता से था। प्राचार्यजी भी प्रभावित हुए, वह तत्काल माइक पर आये और उन्होंने घोषणा की--"लीजिये, हमारे विद्यालय में संगीत कुमार के रूप में 'बैजू बावरा' तो थे ही, अब आनंदवर्धन के रूप में 'तानसेनजी' भी उपस्थित हो गए हैं.... आज मैं इन्हें 'तानसेन' की उपाधि देता हूँ !" उस दिन के बाद मैं विद्यालय में 'तानसेन गवइया' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। दरअसल, प्राचार्य महोदय को मुझे 'कानसेन' की उपाधि देनी चाहिए थी, क्योंकि बाल्यकाल में गाते हुए मैं अपना एक हाथ हमेशा कान पर रख लेता था, जाने क्यों? लेकिन, उन्होंने कृपापूर्वक मुझे 'तानसेन' बना दिया था। अब आये दिन मुझे मंच पर बुला लिया जाता और कोई गीत या कविता सुनाने का आदेश दिया जाता। मैं पिताजी की गठरी से गीत-कविताएं लेकर उन्हें कण्ठाग्र करता और विद्यालय में सुनाकर वाहवाही लूटता। विद्यालय में मेरी यश-प्रतिष्ठा 'तानसेन गवइये' के रूप में दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी और मैं अगराया फिरता था।

अभी दो महीने ही बीते थे कि आफत की मारी वसंतपंचमी आ गयी। सरस्वती-पूजन का समारोह विद्यालय में भी धूमधाम से मनाया जाता था और इसके लिए प्रत्येक छात्र से चंदा उगाहा जाता था। मेरे वर्ग-शिक्षक ने सभी बच्चों को आदेश दिया कि कल आठ आने अपने-अपने घर से लेते आएं। दूसरे दिन विद्यालय जाते हुए मैंने पिताजी से आठ आने चंदे के माँगे तो पिताजी ने एक रुपये का नोट देते हुए कहा--"अभी खुले पैसे नहीं हैं मेरे पास। चंदे के आठ आने देकर शाम में मुझे अठन्नी लौटा देना।" मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और विद्यालय चला गया।

सुबह-सुबह जब वर्ग-शिक्षक कक्षा में आये तो क्रम-संख्यानुसार एक-एक छात्र को पुकारकर चंदे की अठन्नी एकत्रित की जाने लगी और वर्ग-प्रभारी छात्र (मॉनिटर) प्राप्त राशि की सूची नामतः बनाने लगा। मेरी पुकार बहुत बाद में हुई। मैंने वर्ग-शिक्षक के हाथ में एक रुपये का नोट दे दिया और अठन्नी की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन, उनके पास भी खुले पैसे नहीं बचे थे। शिक्षक महोदय ने मुझसे नहीं, मॉनिटर से कहा-- "तानसेनजी के नाम एक रुपये जमा लिख लो, कल इन्हें आठ आने लौटा देना।" फिर मेरी तरफ मुखातिब होकर बोले--"क्यों, ठीक है न तानसेनजी?" मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और अपनी बेंच पर जा बैठा। पहले पीरियड के बाद वर्ग-शिक्षक तो चले गए, लेकिन मॉनिटर साहब हिसाब-किताब करते रहे। विद्यालय की छुट्टी होने के ठीक पहले उन्होंने मेरी अठन्नी मुझे लौटा दी। शाम में जब पिताजी घर आये तो वह अठन्नी मैंने उनके हवाले की और दायित्व-मुक्त हुआ।

जब दूसरे दिन विद्यालय गया तो पाया कि मॉनिटरजी कक्षा में अनुपस्थित हैं। कई छात्रों ने अब तक चन्दा जमा नहीं किया था, लिहाज़ा, उस दिन भी चंदे की राशि वसूलने का काम हो रहा था। और, यह काम स्वयं वर्ग-शिक्षकजी कर रहे थे। करीब आधे घंटे बाद उन्होंने मुझे बुलाया और आठ आने का एक सिक्का मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले--'लीजिए, कलवाली अपनी अठन्नी.. तानसेनजी ! अब हिसाब साफ़ न?'

मैंने न 'हाँ' कहा, न 'ना'। चुपचाप सिक्का लेकर लौट चला अपनी सीट पर! लौटते हुए मेरे अधरों पर एक रहस्यमयी मुस्कान थी और विद्यालय के बाहर खड़े खोमचेवाले मुझे अपनी कक्षा में ही आवाज़ें लगाते दीखने लगे थे। जैसे ही मध्यावकाश हुआ, मैं खोमचों के पास पहुँचा और अपने लोभ-लाभ की खट्टी-मीठी चीज़ें खरीद लाया। लेकिन, उस ज़माने में आठ आने तुरंत खर्च कर देना इतना आसान भी नहीं था। तीन आने ही खर्च हुए, पाँच आने मेरी जेब में बचे रह गए। विद्यालय से लौटकर जब शाम को खेलने गया तो बनारसी भूँजेवाले की दूकान से एक आने के आठ गुड़वाले चूड़े के लड्डू खरीदे और दो पैसे के शानदार गुलाबी 'बुढ़िया के बाल'! मज़े का दिन गुज़ारा और दूसरा-तीसरा दिन भी--मीठी गोलियां, पाचक, टॉफी, लेमनचूस और क्रीमवाले बिस्कुटों की मिठास के साथ ! अहा !

मॉनिटरजी की अनुपस्थिति के तीन दिन बड़ी मौज-मस्ती के बीते। शायद उनकी तबीयत खराब हो गयी थी, इसलिए चौथे दिन मॉनिटरजी स्कूल आये थे और वर्ग-शिक्षक के साथ मिल-बैठकर चंदे का हिसाब कर रहे थे। पैसों के हिसाब की दो पर्चियां बन गयी थीं--एक, पुरानी मॉनिटर के पास थी, दूसरी, वर्ग-शिक्षकजी के पास ! बहुत माथापच्ची के बाद सुनिश्चित हुआ कि हिसाब में आठ आने घट रहे हैं! यह बात जब मुझ तक पहुंची, मेरे तो होश फ़ाख़्ता हो गए, लेकिन मैंने अपने चहरे पर हवाइयाँ नहीं उड़ने दीं। तब तक स्कूल का समय समाप्त हो गया और लौट के बुद्धू घर को आये।....

तीन दिनों में जेब की अठन्नी तो खर्च हो ही गयी थी और अब विद्यालय की लापता अठन्नी की फ़िक्र मुझे परेशान करने लगी थी। दो दिनों में हिसाब की दोनों पर्चियों के मिलान से तथा एक-एक छात्र के साथ हुए लेन-देन की बारीक़ छानबीन के बाद, बात मुझी पर आकर ठहर गयी। वर्ग-शिक्षक और मॉनिटर--दोनों एक साथ तब चौंक पड़े, जब स्पष्ट हो गया कि मैंने एक रुपये देकर दोनों से आठ-आठ आने वसूल लिए हैं ! भरी कक्षा में जब मुझसे पूछा गया तो मैंने बड़े निर्दोष भाव से और बहुत मासूमियत से कहा--"सर, मैं तो बिलकुल भूल ही गया था कि मॉनिटर ने मुझे आठ आने उसी दिन लौटा दिए थे। असल में, इसने मुझे बिलकुल छुट्टी के वक़्त दिए थे न पैसे...! मैं भूल गया सर, उसी पैंट में पड़े होंगे, कल लाकर दे दूँगा।"

लेकिन वर्ग-शिक्षकजी अनुभवी व्यक्ति थे, कई पीढ़ियों का ज्ञानवर्धन कर चुके थे, माजरा समझ गए और कक्षा के समस्त छात्रों को ललकारते हुए बोले--"देखो बच्चों, तानसेनजी तो 'अठन्नीचोर' निकले...! आज से इनका पूरा नाम क्या हुआ...?"
तमाम सहपाठियों ने समवेत स्वर में चिल्लाकर कहा--'तानसेन गवइया अठन्नी चोर!'..

उनकी इस बात से मैं बहुत आहत हुआ। दिन बीतते रहे और अचानक मेरी कक्षा के सहपाठी ही नहीं, सारे स्कूल के छात्र मुझे चिढ़ाने लगे--'तानसेन गवइया अठन्नीचोर' ! यह सम्बोधन बड़ा अपमानजनक था। सबसे अधिक मॉनिटर मुझे चिढ़ाता और बार-बार अठन्नी की माँग करता ! एक-दो बार मुझसे उसकी तू-तू मैं-मैं हुई थी और हथरस भी! लेकिन, किसी भी प्रकार से आठ आने की व्यवस्था करके मुझे अठन्नी तो लौटानी ही थी उसे ! पिताजी से माँगते हुए संकोच होता था--क्या कहूँगा उनसे? और माँ? वह तो देनेवाली ही नहीं थीं। हाँ, बस एक तरीका था--सुबह-सुबह हम दोनों भाइयों को नीरा पीने के लिए, माँ जो एक आना रोज़ दिया करती थीं, उसे खर्च न किया जाए, जोड़ा जाए और आठ दिनों बाद जब आठ आने हो जाएँ तो उन्हें देकर इस कलंक से मुक्ति पा ली जाए ! बिना सच्चाई बताये मैंने अनुज को इसके लिए राजी करना चाहा, लेकिन वह असत्य की राह पर मेरे साथ चलने को तैयार न हुए। अंततः मैंने अपने हिस्से के दो पैसे जमा करने शुरू किये। इस तरह सोलह दिनों में अठन्नी जमा होनेवाली थी। क्या इतना धैर्य कक्षा-प्रभारी रख सकेगा? कहीं वह फिर से मेरी शिकायत वर्ग-शिक्षकजी से न कर दे--बड़ी उलझन में पड़ा हुआ था मैं!

'अपनी हसरतों की करता था निगहबानी,
उनकी तो महज़ थी अठन्नी की परेशानी!'

अब यह परेशानी मुझे भी घेरने लगी। मैं बुझा-बुझा-सा रहने लगा। विद्यालय में मेरा मन न लगता। कहीं-न-कहीं से सहपाठियों की फुसफुसाहट में एक शब्द कानों में पड़ ही जाता--'अठन्नीचोर'! और, मैं विकल हो उठता। पिताजी की अनुभवी आँखों ने मेरी मनोदशा देखी और मुझे अपने पास बुला-बिठाकर पूछा--'क्या परेशानी है तुम्हें ? दुखी क्यों रहते हो? मुझे बताओ। शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ।'

मैंने फिर भी उनसे सत्य छुपाया और कहा--'कुछ नहीं, मुझे आठ आने मॉनिटर को देने हैं । वह बार-बार मुझसे मांगता और झगड़ता है ! सब बच्चे मुझे चिढ़ाते हैं। मैं अब इस विद्यालय में नहीं पढ़ूँगा, बाबूजी !'
पिताजी ने आश्चर्य से कहा--'तुमने आठ आने विद्यालय में देकर ही तो अठन्नी मुझे लौटायी थी न? वह दुबारा क्यों मांग रहा है? और इस विद्यालय में नहीं पढ़ने की बात भला क्या है?'
मैंने घबराहट में कहा--'वह अठन्नी मुझसे कहीं ग़ुम हो गयी थी...!'

पोशीदा बात की गाँठ अब खुलनेवाली थी ! पिताजी ने थोड़ी रुक्षता से कहा--'लेकिन उस दिन तो तुमने कहा था कि तुम स्कूल में पैसे दे आये हो। तुम अब भी सच नहीं बोल रहे! मुझे बताओ, सच्ची बात क्या है ?'

मेरे पास अब बच निकलने की राह नहीं थी। मैं सच्ची-सच्ची सारी बात उन्हें बताते हुए रो पड़ा।
पिताजी ने शांति से पूरी बात सुनी और कहा--'सच की राह चलना, बहुत सुरक्षित राह पर चलना है। असत्य कहीं भी, किसी भी गड्ढे में ले जा पटकता है। और फिर, मनुष्य सिर धुनता रह जाता है ! पश्चाताप उसकी आत्मा को मथता रहता है। मुझे आश्चर्य है, तुमने असत्य की राह क्यों चुनी? मुझे तुमसे ऐसी अपेक्षा नहीं थी।'
उन्होंने उठकर अपनी जेब से पैसे निकाले और आठ आने मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले--"लो, कल इसे मॉनिटर को दे दो, लेकिन देने के पहले अपनी गलती के लिए उससे, वर्ग-शिक्षक से और सारे सहपाठियों से क्षमा माँग लो ! देखना, फिर तुम्हें कोई नहीं चिढ़ाएगा।"

पिताजी की बात सुनकर मैं फिर संकट में पड़ा। क्या अब क्षमा माँगने की शर्मिंदगी भी उठानी होगी मुझे ? मैंने हिचकिचाते हुए कहा--"बाबूजी, इसकी क्या जरूरत है? ऐसा करके तो सबके सामने मुझे शर्मिंदा ही होना पड़ेगा न?'

पिताजी ने गम्भीरता से कहा--"जो कुछ तुमने किया, वह गलत था, उसे करते हुए तो तुम्हें शर्म नहीं आयी। अब उचित करने को कहता हूँ तो उसमें कैसी शर्म? गलत काम करते हुए शर्म आनी चाहिए, उचित आचरण करते हुए नहीं। मुझे विश्वास है, यदि तुम ठीक वैसा ही आचरण करोगे, जैसा मैंने कहा है तो तुम्हारे अपराध की मलिनता धुल जायेगी और समय के साथ तुम अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा विद्यालय में पुनः प्राप्त कर सकोगे।"

अपने विचलित मन पर बहुत वज़न रखकर मैंने वैसा ही किया, जैसा पिताजी ने आदेश दिया था। वर्ग-शिक्षक के सम्मुख अपना अपराध स्वीकार करते हुए मैं रुआँसा हो गया था, जिसे देखकर वह भी विचलित हुए थे और उन्होंने ऊँची आवाज़ में पूरी कक्षा को आदेश दिया था--"आज से कोई इसे नहीं चिढ़ाएगा।" और सच मानिए, समय के साथ विद्यालय के लोग 'अठन्नीचोर' को बिलकुल भूल गए और उन्हें याद रह गए सिर्फ गायक और कविता-पाठी 'तानसेन'!...

लिखने को अपनी १० वर्ष की उम्र का यह वाक़या मैं लिख तो गया, लेकिन नहीं जानता कि यह लिखने लायक़ बात थी या नहीं। आज बाबूजी होते तो मैं सीधे उनके पास जाता इस लेख के साथ और पूछता उनसे--"बाबूजी, यह आलेख मुझे लिखनेवालों की उस श्रेणी में तो नहीं ले जा रहा, जो नहीं जानते कि क्या नहीं लिखना है?"
(क्रमशः)