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फैसला - उपन्यास
Divya Shukla
द्वारा
हिंदी सामाजिक कहानियां
फैसला (1) शाम की ट्रेन थी बेटे की अभी सत्ररह साल का ही तो है राघव पहली बार अकेले सफर कर रहा है उसे अकेले भेजते हुए मेरा कलेजा कांपा तो बहुत फिर भी खुद को समझा के उसे ट्रेन में बिठा आई सारी दुनिया से लड़ने वाली मै बस यहीं आकर कमजोर पड़ जाती हूँ, क्या करूँ चिड़िया की तरह अपने पंखो में सेंत सेंत कर पाला है अपने कलेजे के टुकड़े को मेरी जान, मेरा राघव, मेरा ईकलौता बच्चा मेरे जीने का बहाना --- वरना जिन्दगी तो रेगिस्तान बन कर रह ही गई थी
फैसला (1) शाम की ट्रेन थी बेटे की अभी सत्ररह साल का ही तो है राघव पहली बार अकेले सफर कर रहा है उसे अकेले भेजते हुए मेरा कलेजा कांपा तो बहुत फिर भी खुद ...और पढ़ेसमझा के उसे ट्रेन में बिठा आई सारी दुनिया से लड़ने वाली मै बस यहीं आकर कमजोर पड़ जाती हूँ, क्या करूँ चिड़िया की तरह अपने पंखो में सेंत सेंत कर पाला है अपने कलेजे के टुकड़े को मेरी जान, मेरा राघव, मेरा ईकलौता बच्चा मेरे जीने का बहाना --- वरना जिन्दगी तो रेगिस्तान बन कर रह ही गई थी
फैसला (2) -- माँ तुनक गई और बोली " आप भी न लड़कियों और बेल को बढ़ने में वक्त कहाँ लगता है, अभी से खोजना शुरू करेंगे तो दो तीन साल में मनमुताबिक घर वर मिलेगा, तब तक हमारी ...और पढ़ेभी पन्द्रह सोलह की हो जायेगी, फिर शादी में बिदाई कौन करेगा हम तो तीन बरस बाद गौना देंगे , तब तक हमारी मेघा उन्नीस बरस की सयानी हो जायेगी और घरदारी भी सीख लेगी, ठीक कह रहे है न हम " बाबा इस बात पर मान गये | उन्हें भी लगा उनकी बेटी के लायक लड़का इतनी आसानी से
फैसला (3) ---रात के ग्यारह बज रहे थे अम्मा ने कहा ‘’दुल्हन कोकमरे में पहुंचा दो, जरा आराम कर ले | “ | दीदी और कई औरते मुझे कमरे में लाई | मुझे आधे घंटे आराम के बाद फिर ...और पढ़ेहोना है | थक कर चूर हो चुकी थी --- पर कमरे में आकर शीशे में अपनी शक्ल देखी तो खुद को ही नहीं पहचान पाई | कितनी बदली हुई थी नाक में बड़ीसी नथ और माथे पर जड़ाऊ मांग टीका, ये तो कोई और थी मै नहीं थी | फिर कभी नथ घुमाती, कभी टीका ठीक करती, कभी घूम
फैसला (4) मै निष्प्राण - सी हो गई, जैसे हाथ - पाँव से जान ही निकल गई बहुत डर गई थी तभी उनका हाथ मेरे कंधे से होता हुआ मेरे वक्ष को टटोलने लगा तो अचानक बिजली के करेंट ...और पढ़ेलगा मुझे और एक झटके से मै दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल आई | पसीने से तरबतर पूरा शरीर मै बहुत घबरा गई थी लेकिन वह तो एकदम नार्मल थे, कहने लगे, " अरे बहू | उतर क्यूँ गई कुछ भूल गई क्या ? चलो बैठो जल्दी जाओ नहीं तो पहुँचने में देर हो जायेगी | " मै मूर्ति सी
फैसला (5) मै भी तो बहुत परेशान थी | जिस जद्दोजहद से मै गुजर रही थी अब उसका हल निकलना ही चाहिये, यह सोच कर ही मैने बात छेड़ी, "सुनो मुझे तुम से बात करनी है " विजयेन्द्र ने ...और पढ़ेसे नजर उठा कर मुझे देखा, " बोलो क्या बात है अब क्या हो गया " मैने उस दिन की सारी बातें बताई वो सुनते रहे, " मेघा तुम अब बंद करो यह फ़ालतू बकवास तुम्हारे भड़काने से मै अपने माँ बाप को नहीं छोड़ सकता, " मै कुछ दिन के लिये अपने मायके चली आई | इस बार मुझे किसी