फैसला
(3)
---रात के ग्यारह बज रहे थे अम्मा ने कहा
‘’दुल्हन कोकमरे में पहुंचा दो, जरा आराम कर ले | “ | दीदी और कई औरते मुझे कमरे में लाई | मुझे आधे घंटे आराम के बाद फिर तैयार होना है | थक कर चूर हो चुकी थी --- पर कमरे में आकर शीशे में अपनी शक्ल देखी तो खुद को ही नहीं पहचान पाई | कितनी बदली हुई थी नाक में बड़ीसी नथ और माथे पर जड़ाऊ मांग टीका, ये तो कोई और थी मै नहीं थी | फिर कभी नथ घुमाती, कभी टीका ठीक करती, कभी घूम कर कमरे में सजे फूलों को छूती करीब पन्द्रह मिनट बीत गये -- अचानक झटके से दरवाज़ा खुला और जोर से ठहाकों की आवाज़ आई | ननद और चचेरी जेठानी और कई औरते चुपके से मेरी सारी गतिविधियों पर नज़र रखे थी | मै बहुत जोर से झेंप गई |
उस दिन मुझे तैयार करने के लिये घर पर ही ब्यूटीशियन बुलाई गई थी --
मैने तो पहले कभी मेकअप नहीं किया था | माँ काजल के सिवा कुछ नहीं लगाने देती थी मुझे |उलझन भी हो रही थी आखिर सोना ही तो है ठीक ठाक तो हूँ मै | मुझे मेकअप करना, लिपस्टिक लगाना अच्छा नहीं लगता था, पर यहाँ तो जो सब कह रहे थे वही करना था | आखिर बहुत देर तक उन्होंने मुझे तैयार किया, सारे जेवर पहनाए जो भारी थे और मुझे चुभ रहे थे | मुझे बिठा कर बोली, “सोते समय कपडे बदल लीजियेगा ... “
मै कुछ नहीं बोली , बहुत थक गई थी और तकिये पर लुढक गई | मेरी आँख लग गई थी |न जाने कब तक सोती रही कि अचानक किसी के स्पर्श से चौंक कर उठ गई | सामने विजयेन्द्र बैठे थे मै उठ कर बाहर जाने लगी कि मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले, “ कहाँ जा रही हो रास्ता पता है ? “
मैं काँप गई और चुप थी | जैसे ही हाथ पर पकड़ ढीली हुई, मैं झट कमरे से बाहर निकल आई -|बहुत कहने पर भी अंदर जाने को तैयार नहीं हुई तो वे जा कर बहन को बुला लाये | दीदी बहुत प्यार से पूछने लगी, “ क्या हुआ भाभी सो जाओ न जाकर ... “
मैने धीमे से कहा, ” मै आपके पास सो जाउंगी, यहाँ नहीं... सब क्या कहेंगे ....इतना बड़ा आदमी भी यहाँ सोया था | ” ---.वह मुस्करा कर बोली, “ सब कमरे भरे हैं कहीं जगह नहीं है... भाभी सोना तो तुमको यही पड़ेगा | आज से यही तुम दोनों का कमरा है ... “
मुझे कमरे में छोड़ कर वह चली गई | विजयेन्द्र वापस गये और मेरा दोनों हाथ थाम लिया और हिल भी नहीं पाई मै | उस रात ने न जाने कितनी खरोंचे डाली आत्मा पर | पति -पत्नी, स्त्री -पुरुष के खूबसूरत रिश्ते को पहली बार जाना वह भी बड़े भयानक रूप में ...कितना रोई मै लगातार रोती रही पर कोई असर नहीं | कुछ देर बाद बगल में खर्राटे गूंजे और मै सिसकी भरती रही | आखिर रोते- रोते थक गई और आँख झपक गई | मै नींद में जोर-जोर से माँ को पुकार रही थी | विजयेन्द्र ने मेरा हाथ पकड़ कर हिलाया, “अरे क्या हुआ सपना देखा क्या सपने में डर गई क्या ? “ क्या बताती सपना ही तो था जो गुज़रा | एक बुरा सपना बहुत बुरा भयानक था वह सब --
उस रात ने -एक किशोरी को अचानक बड़ा कर दिया --. तोड़ दिया उसे कांच सा --
उफ़ कितनी बेदर्द थी वह रात, जिसने उसकी पूरी जिंदगी बदल दी | रिश्तों का नया सच और अलग रूप दिखा दिया | फिर उसे लगा शायद सारे पति ऐसे ही होते है, सभी ऐसे रहते है --और अपनी नियति मान कर संतोष कर लिया बस समझौता ---पर वह भयानक रात जिंदगी भर को ठहर गई हमारे बीच में |
मैने अन्नी से बताया था जा कर यह सब ---
मेरी माँ मौन स्तब्ध सुनती रही कुछ नहीं बोली | शायद उनके पास बोलने को कुछ था ही नहीं | वह भीगी आँखों से मेरा मुंह देखती रही --फिर मुझे चिपका लिया सीने से --
-सिनेमा और उपन्यासों में नायक और नायिका को देख पढ़ कर मन में छवि थी गाने गाते, रूठते मनाते मनुहार करते नायक की, शरद के नायक की, जो बहुत भाती थी मुझे --एक झटके से टूट गई | बड़ी निर्ममता से मानो एक साथ सैकडों शेंडलियर अचानक छनाक से टूटे हों | साथ ही मेरा मन हज़ार टुकडों में टूट गया --कुछ नहीं बचा, बस बची बेचारी रात --बेचारी इसलिए कि वो रात भी कुछ न कर पाई पर साक्षी है मासूम सपनों के टूटने की | मन में डर सा बैठ गया रात आने का | मै कोई गुड़िया न थी जिससे खेला जाए |
गुड़िया भी संभाल कर खेलते है | मै अपनी गुड़िया से बातें करती थी, उससे खेलती और ह्रदय से लगा कर सो जाती --वो बेजान थी -- पर मै तो जीती जागती थी | कोई खिलौना नहीं जिससे खेल कर करवट बदल कर सो गये | बिना यह सोचे क्या गुज़रा मुझ पर | मै नहीं सो पाई पीड़ा घृणा क्रोध सब मिला कर न जाने क्या गुज़रा मुझ पर | थक कर आँखे मूंद रखी पर सोई कहाँ मुझे नींद ही नहीं आई | मन पर लगे आघात और पीड़ा से आँखे मुंद भर जाती थी और सपने भी भयानक आते | उतनी ही देर में मानो कोई दैत्य हाथ पकड़ कर घसीट रहा हो मधुयामिनी की वह रात्रि जो किसी भी लड़की के जीवन में एक ही बार आती है | गुज़र गई कभी न भूलने वाली यादें सौंप कर उस समय लगा किसी भी लड़की के जीवन में यह रात कभी न आये --अब सोचती हूँ बहुत अच्छा था, कुछ पता नहीं था वरना और भी ज्यादा दुःख होता मुझे फिर यही लगा ऐसे ही होते होंगे पति ----
सच ही तो है उम्र कम हो तो घाव जल्दी भरते हैं और दर्द भी जहन से मिट जाते हैं ----
लेकिन हर जख्म अपना निशान तो छोड़ ही जाता है |
बस मै भी विजयेन्द्र के साथ खुश रहने लगी उन्हें कोई शिकायत न हो इसका पूरा धयान रखती,
अम्मा मुझे बहुत प्यार करती | मेरे बारहवीं के इम्तिहान आने वाले थे ----
अन्नी का बार बार फोन आ रहा था मुझे बुलाने को -----
" मेघा तू कब पढेगी कोई तैयारी नहीं है तेरी घर में बात कर ले तो लिवाने भेजूं "
--- " ठीक है अन्नी मै बात करती हूँ आप अप्पा से कहें न एक बार पापा जी से बात कर लें "
" ठीक है कहती हूँ बेटा, पर तेरे बाबा ने बात की थी समधी जी से | उन्होंने कहा भेज देंगे कुछ दिन और रहने दीजिये होती रहेगी पढ़ाई, वैसे भी कौन सी कमी है हमें अपनी बहू से नौकरी तो करानी नहीं | अभी तो मेघा का ही मन नहीं है | अब क्या कहते तेरे बाबा भी चुप हो गये पर मुझे तेरी पढ़ाई की चिंता है बेटा | तू बात कर तो भाई को भेजूं " ... अन्नी ने फोन रख दिया तो मै सोच पड़ गई, रात को सोते समय डरते डरते विजयेन्द्र से बात की अपनी परीक्षा के बारे में और बताया भी
" आज अन्नी का फोन आया था ... "
" कल बात करेंगे अभी मुझे सोने दो, पापा से भी पूछना है, घर के बड़े वह हैं जैसा कहेंगे वही करना होगा ... "
दूसरे दिन मैने पापा जी से बात की तो वह बोले …
" अरे मेघा अभी चली जाओगी घर सूना हो जायेगा आखिर क्या कमी है बात करूँगा समधी जी से तुम परेशान न हो फिर विजयेन्द्र जैसा कहे तुम्हे वही करना होगा पति के अनुसार ही चलती है हमारे खानदान की औरतें "
मै एकदम अवाक् रह गई बेटा कहता है पापा जैसा कहें और पिता कहते है उनका बेटा जैसा कहे मेरी समझ में नहीं आया, आँखे भर आईं और आंसू बहने लगे, तभी ससुर जी उठ कर मेरे करीब आये और मुझे अपने सीने से लगा लिया और बोले,
" अरे रो रही है रोना नहीं कभी मुझे दुःख होगा अगर मेरी मेघा रोई मेरी बहू की इतनी सुंदर आँखे आंसुओं से भरी नहीं अच्छी लगती चुप हो जाओ अपनी तैयारी करो, हम फोन करते है समधन जी को, कल ही भेज दें किसी को | "
मै बहुत खुश हो गई पर पापा का इस तरह लिपटना कुछ -अजीब -सा लगा | उनकी उंगलीयों का मेरी पीठ पर दबाव मुझे उलझन दे रहा था, फिर लगा नहीं यह वहम है मेरा और मायके जाने की ख़ुशी में यह ख्याल भी मेरे दिमाग से आया -गया हो गया --
परीक्षा को बस चार महीने रह गये थे | पढ़ाई दो- तीन महीने से बिल्कुल भी नहीं हुई थी | दशहरे की छुट्टियों में विजयेन्द्र मुझे ले आये थे और कहा था दीपावली तक भेज देंगे, पर अब तो दिसम्बर भी खतम हो रहा था ---- इस बीच मेरी तबियत खराब रहने लगी थी ....…
मुझे तीन महीने की प्रेगनेंसी थी | राघव मेरे पेट में आ गया था | विजयेन्द्र नें तो बहुत कोशिश की शुरू के ही दिनों में अबार्शन करवाने की पर मै नहीं मानी | अम्मा जी ने भी बेटे को डांट लगाई तब कहीं जा कर जिद छोड़ी, लेकिन बार बार यही धमकी दी, " अभी से बच्चा क्या जरूरत है फिगर खराब हो जायेगी फिर तुम जानना मुझे नहीं चाहिये अभी बच्चा "
" मुझे अपना बच्चा नहीं गिरवाना बस " इतना कह कर मै अपने काम में लग गई, यहाँ इन दो - तीन महीनो में मुझे एक बात और पता चली जो इन लोगों ने अप्पा से छिपाई थी | विजयेन्द्र ने अभी ग्रेजुएट भी नहीं किया था | आखिरी साल का पेपर इसी साल दे रहे है, सुन कर बहुत अजीब लगा | हम दोनों में उम्र का भी फासला काफी था करीब चौदह -पंद्रह साल का | ख़ैर प्रेम हो तो पति - पत्नी में यह फासले मायने नहीं रखते | दो दिन बाद बड़े भाई मुझे लेने आ गये | विजयेन्द्र सो रहे थे | मुझे कार तक छोड़ने भी नहीं आये पर मैने निकलने से पहले उनके माथे पर धीमे से एक चुम्बन लिया और कहा,
---- " सुनो न , मै जा रही हूँ तुम मुझसे मिलने आओगे न .....अब चलूं ....बोलो ? "
--- " हां, तुम जाओ फोन से बात करूँगा अभी बहुत नींद आ रही है सोने दो "
मै अम्मा के पाँव छू कर कार की तरफ चली | सामान रख दिया गया था | अम्मा ने भी मुझे अपना और बच्चे का ध्यान रखने को समझाया |
तभी पापा आ गये और बोले, .. " अरे मेरी बहू जा रही है चलो इसे मै कार तक छोड़ आऊँ " और उन्होंने अपने एक हाथ के घेरे में मुझे समेट लिया | बहुत दुबली - पतली थी मैं | वो मुझे अपने से सटाये हुये थे | उनके हाथों की पकड़ मेरी बाहों पर थी | कार तक पहुँच कर खुद उन्होंने मेरे लिये दरवाज़ा खोल दिया | मै जल्दी से खुद को छुड़ा कर बैठ गई, पर अचानक देखा वह भी अंदर आ कर बैठ गये | मै घबरा गई | उन्होंने अपनी लम्बी बाहें मेरे कंधे पर रख मुझे अपने पास खींच लिया और मेरे कान में फुसफुसा कर कहा, " जल्दी आना तेरी बहुत याद आयेगी | बहुत सुंदर है तेरी मदभरी आँखे "
***